शहीदों को श्रद्धांजलिः ऐ मेरे वतन के लोगों जरा याद करो कुर्बानी

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  • नवीन शर्मा

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा याद करो कर्बानी….जन-जन की जुबान पर चढ़ा यह गीत कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुई आतंकी घटना के बाद एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है। पाकिस्तान पोषित-समर्थित आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के वाहन पर हमला कर तकरीबन चार दर्जन जवानों को शहीद कर दिया। कवि प्रदीप द्वारा रचित और स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज में इस गीत को सुनना एक अलग ही जज्बा पैदा करता है। आज यह गीत एक बार फिर से प्रासंगिक हो गया है। यह गीत जिस व्यक्ति की कलम से निकला था, उन्हें हम कवि प्रदीप के नाम से जानते हैं। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी।

यह गीत उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए  लिखा था। लता मंगेशकर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में यह गीत गाया था, जिसका आकाशवाणी से सीधा प्रसारण किया गया। बताते हैं कि गीत सुन कर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आयी थीं। बाद में कवि प्रदीप ने भी ये गाना जवाहरलाल नेहरू के सामने गाया था।

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गीत का राजस्व बना युद्ध विधवा कोष

कवि प्रदीप ने इस गीत से होने वाली कमाई को युद्ध विधवा कोष में जमा करने की अपील की। मुंबई उच्च न्यायालय ने 25 अगस्त 2005 को संगीत कंपनी एचएमवी को इस कोष में अग्रिम रूप से 10 लाख रुपये जमा करने का आदेश दिया था।

कवि प्रदीप का मूल नाम ‘रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी’ था। उनका जन्म 6 फरवरी 1915 को  मध्य प्रदेश  के उज्जैन में बदनगर  मे हुआ। बचपन से ही हिन्दी कविता लिखने में रूचि थी।  कवि प्रदीप की शुरुआती शिक्षा इंदौर के ‘शिवाजी राव हाईस्कूल’ में हुई, जहाँ वे सातवीं कक्षा तक पढ़े। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाईस्कूल में संपन्न हुई। इसके बाद इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। दारागंज उन दिनों साहित्य का गढ़ हुआ करता था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक दृष्टीकोंण से बहुत अच्छा रहा। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्‌यक्रम में प्रवेश लिया।

विद्यार्थी जीवन में ही हिन्दी काव्य लेखन एवं हिन्दी काव्य वाचन में उनकी गहरी रुचि थी। आपने 1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के पश्चात शिक्षक बनने का प्रयत्न किया, लेकिन इसी समय उन्हें मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन का निमंत्रण मिला।

बांबे में द्विवेदी जी का परिचय बांबे टॉकीज़ में नौकरी करने वाले एक व्यक्ति से हुआ। वह रामचंद्र द्विवेदी के कविता पाठ से प्रभावित हुआ तो उसने इनके बारे में हिमांशु राय को बताया। उसके बाद हिमांशु राय ने उन्हें बुलावा भेजा। वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 200 रुपए प्रति माह की नौकरी दे दी।  हिमांशु राय का ही सुझाव था कि रामचंद्र द्विवेदी नाम बदल लें। उन्होंने कहा कि यह रेलगाड़ी जैसा लंबा नाम ठीक नहीं है। तभी से रामचंद्र द्विवेदी ने अपना नाम प्रदीप रख लिया।

प्रदीप से ‘कवि प्रदीप’ बनने की कहानी भी बहुत रोचक  है। उन दिनों अभिनेता प्रदीप कुमार का बहुत नाम था। अब फिल्म नगरी में दो प्रदीप हो गए थे- एक कवि और दूसरा अभिनेता। दोनों का नाम प्रदीप होने से डाकिया प्राय: डाक देने में गलती कर बैठता था। एक की डाक दूसरे को जा पहुंचती थी।  इसी दुविधा को दूर करने के लिए प्रदीप अपना नाम ‘कवि प्रदीप’ लिखने लगे। इससे चिट्ठियां सही ठिकाने पर पहुंचें लगीं।

कवि प्रदीप की पहचान 1940 में रिलीज हुई फिल्म बंधन से बन गई थी।  1943 की गोल्डेन जुबली हिट फिल्म किस्मत के गीत “आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है। दूर हटो… दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदोस्तान हमारा है ने उन्हें देशभक्ति गीत के रचनाकारों में अमर कर दिया। इस गीत के अर्थ से झलक रही आजादी की घोषणा से क्रोधित तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए। इससे बचने के लिए कवि प्रदीप को भूमिगत होना

पड़ा। यूँ तो कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को शब्दों में उतारा, लेकिन वीर रस और देश भक्ति के उनके गीतों की बात ही कुछ अनोखी थी।

उनकी पहली फिल्म थी कंगन जो हिट रही। उनके द्वारा बंधन फिल्म में रचित गीत, ‘चल चल रे नौजवान’ राष्ट्रीय गीत बन गया। सिंध और पंजाब की विधान सभा ने इस गीत को राष्ट्रीय गीत की मान्यता दी और ये गीत विधान सभा में गाया जाने लगा। बलराज साहनी उस समय लंदन में थे, उन्होने इस गीत को लंदन बी.बी.सी. से प्रसारित कर दिया। अहमदाबाद में महादेव भाई ने इसकी तुलना उपनिषद् के मंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ से की। जब भी ये गीत सिनेमा घर में बजता लोग वन्स मोर-वन्स मोर कहते थे और ये गीत फिर से दिखाना पङता था।

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उनका फिल्मी जीवन बाम्बे टॉकिज से शुरू हुआ था, जिसके संस्थापक हिमाशु राय थे। यहीं से प्रदीप जी को बहुत यश मिला। कवि प्रदीप गाँधी विचारधारा के कवि थे। प्रदीप जी ने जीवन मूल्यों की कीमत पर धन-दौलत को कभी महत्व नही दिया। 11 दिसम्बर 1998 को 83 वर्ष के उम्र में इस महान कवि का मुम्बई में देहांत हो गया।

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