और इस तरह प्रभात खबर के कार्यकारी संपादक बने ओमप्रकाश अश्क

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

ओमप्रकाश अश्क ने अपने कार्यकारी संपादक बनने की रोचक कहानी आत्मकथा पर आधारित अपनी प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- में बतायी है। कैसे इसकी रूपरेखा बनी और कचड़े के ढेर में चली गयी, उसका जीवंत वर्णन किया है।

कचड़े में छिपी किस्मत की बात किसी किंवदंती से कम नहीं। कचड़े और किस्मत की पहेली भी सामान्य जन के समझ से बाहर ही होगी, ऐसा मैं यकीन के साथ कह सकता हूं। सच तो यह है कि इस बात को जानने की उत्सुकता भी हर किसी को होगी कि कचड़े और किस्मत के संबंध का माजरा क्या है। वर्ष 2006 के मध्य का कोई महीना रहा होगा। सूचना मिली कि प्रभात खबर के तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी की तबीयत ठीक नहीं है। ब्लड प्रेसर कंट्रोल नहीं हो रहा है। तब मैं कलकत्ता में प्रभात खबर संभाल रहा था।

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रात में काफी देर तक सोचता रहा। चिंता इस बात को लेकर थी कि अगर उन्हें कुछ हो गया तो उनसे जुड़े हम जैसे लोगों का क्या होगा। चिंता इसकी भी थी कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि दवा खाने के बावजूद उनकी ब्लड प्रेसर कंट्रोल क्यों नहीं हो रहा है। चूंकि मैं ब्लड प्रेसर की परेशानियों से कुछ साल पहले जूझ चुका था, इसलिए एहतियातन मैं उन्हें रोज रात को फोन करने लगा कि जल्दी सो जाएं। सामान्य तौर पर माना जाता है कि अनिद्रा और तनाव ब्लड प्रेसर बढ़ने के दो प्रमुख कारण होते हैं।

मैंने तो उन्हें यहां तक सलाह दे डाली कि आप नींद की दवा खाकर जल्दी सो जायें, जिससे भरपूर नींद मिल सके। तनाव दूर करने के तरीके पर भी मैंने गौर किया। मैंने महसूस किया कि प्रभात खबर के पहले सिर्फ तीन संस्करण- रांची, जमशेदपुर और पटना हुआ करते थे। जिस समय उनके ब्लड प्रेसर का मामला संज्ञान में आया, उस वक्त कोलकाता, सिलीगुड़ी, देवघर और धनबाद- ये चार संस्करण बढ़ गये थे। चूंकि हरिवंश जी प्रधान संपादक के साथ सीईओ की भूमिका में भी थे, इसलिए बेहतर अखबार निकालने के साथ आमद-खर्च पर उन्हें नजर रखनी पड़ती थी। हर विभाग अपनी जरूरतों के लिए उन्हीं पर निर्भर था। कहीं किसी को संपादकीय का आदमी चाहिए तो किसी अन्य विभाग का कोई आदमी छोड़ कर चला गया। कभी विज्ञापन में लक्ष्य के अनुरूप बिलिंग नहीं हुई या कलेक्शन का टार्गेट पूरा नहीं हुआ। इन तमाम चिंताओं से उन्हें रूबरू होना पड़ता था।

मैंने अनुमान लगा लिया कि तनाव का बुनियादी कारण काम का बढ़ता दायरा ही है। इसलिए अगले दिन चुपचाप कंप्यूटर पर मैंने दो चार्ट बनाये। पहला था ब्लैंक आर्गनाइजेशनल मैनपावर चार्ट और दूसरा नाम के साथ आर्गनाइजेशनल चार्ट। उसके प्रिंट निकाले और कंप्यूटर से डीलीट कर दिया। रिसाइकिल बिन से कंप्यूटर से उड़ायी फाइल हासिल की जा सकती है, इसलिए मैंने वहां से भी उसे उड़ा दिया। बिना किसी के कहे या किसी पूर्वाग्रह के मैंने यह काम स्वांतःसुखाय किया। अगले दिन हरिवंश जी मेडिकल चेकअप के लिए बीएम बिरला हास्पिटल आने वाले थे।

मैंने दोनों प्रिंट एक फोल्डर में डाले और अपने केबिन के साइड टेबल पर रख दिया। प्रभात खबर का कोलकाता संस्करण शुरू करने के पहले ही मैंने तय कर लिया था आफिस पेपरलेस होगा। अगर कोई जरूरी कागजात किसी के पास हो भी तो वह उसे अपने लाक एंड की में रखे। टेबल पर कागज का एक चिट नहीं दिखना चाहिए। जाहिर है कि ऐसे में मेरे टेबल पर उस फोल्डर के अलावा कोई कागज नहीं था। रात में घर जाते वक्त मैंने उसे साइड टेबल पर ही छोड़ दिया।

हरिवंश जी दफ्तर आये। मिलते ही कहा कि तुम्हें मेरी काफी चिंता है। तुम रोज मुझे फोन करते रहे। इतने में मेरे मुंह से निकल गया कि अब आप अपना काम दूसरों में बांट दीजिए। इसलिए कि पहले तीन एडिशन थे, अब सात संस्करण हो गये हैं। इतना सुनते ही उन्होंने कहा कि देखों, मैंने अपने नोटबुक में यह दर्ज किया है और इस पर तुम से कुछ डिस्कस भी करना था। यह मेरे लिए अनुकूल अवसर था। मैंने कह दिया कि मैंने इस पर कुछ काम किया है। उन्होंने कहा कि चेकअप के बाद लौटता हूं तो देना, देखेंगे। वह अस्पताल के लिए निकल गये।

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अस्पताल से वे सीधे गेस्टहाउस चले गये। वहां से फोन किया- अश्क, तुमने जो पेपर तैयार किये हैं, उसे किसी से गेस्ट हाउस भेजवा दो। मैंने हामी भरी और वह फोल्डर लेने अपने केबिन में गया, लेकिन फोल्डर नदारद था। इधर-उधर काफी खोज की, पर नहीं मिला। खोज के क्रम में मैं उन लोगों की केबिन में भी गया, जहां दूर-दूर तक उसके होने की संभावना नहीं थी।

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इसी बीच तब का एक पिउन अरुण ठाकुर (अभी विज्ञापन विभाग में शिड्यूलिंग का काम करता है) ने कहा कि कहीं सफाई वाले ने तो नहीं फेंक दिया। मैंने कहा कि फोल्डर कैसे फेंक सकता है। वह भी टेबल से उठा कर। और अगर उसने फेंका ही होगा तो अब मिलने से रहा। इसलिए कचड़ा वह जमा कर रखता नहीं है। अरुण ने बताया कि कई बार वह नीचे रख देता है, जाकर देखें क्या। मैंने हामी भर दी। वह गया और कुछ ही देर में आकर दिखाया कि इसको ही तो नहीं खोज रहे। मेरी जान में जान आई, इसलिए इस बीच हरिवंश जी ने दो बार फोन कर दिया था कि किससे भेजे हो, अभी तक पहुंचा नहीं। मैंने किसी पिउन को फोल्डर देकर टैक्सी से गेस्ट हाउस भेजा।

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अगले दिन हरिवंश जी का फोन तीन बजे के आसपास आया। उन्होंने कहा- अश्क, मैं सिर्फ 15 मिनट के लिए आफिस आ रहा हूं। मूढ़ी मंगा कर रखना। देखना, उसमें चना या बादाम न हो। चना-बादाम उन्होंने इसलिए मना किया था कि अंततः उनकी बीमारी की वजह यूरिक एसिड पायी गयी थी, जिसमें ऐसी चीजों के खाने की मनाही होती है।

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आते ही उन्होंने बताया कि चेयरमैन ने एडिटोरियल में मेरे बाद दूसरे नंबर पर तुम्हारे नाम को चेयरमैन ने ओके किया है। दरअसल मैंने जो स्ट्रक्चर बनाया था, उसमें प्रधान संपादक के बाद कार्यकारी या प्रबंध संपादक का नाम लिखा था। उसके बाद स्टेट एडिटर के नाम थे। कार्यकारी संपादक में अश्क/ अनुज सिन्हा लिखा था। इसमें ही किसी एक का नाम कार्यकारी संपादक के रूप में तय होना था। प्रिंटलाइन की रूपरेखा भी बना दी थी। प्रधान संपादक के साथ कार्यकारी संपादक का नाम सभी संस्करणों में था और स्टेट एडिटर का नाम उस राज्य के सभी संस्करणों में जाना था। और इस तरह मैं प्रभात खबर का कार्यकारी संपादक बन गया।

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