फिल्म रिव्यूः खास राज नहीं खोलती द एक्सीडेंटल प्राइमिनिस्टर

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  • नवीन शर्मा

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे पत्रकार संजय बारू की किताब द एक्सिडेंटल प्राइमिनिस्टर पर इसी नाम से बनी फिल्म कोई भी चौंकाने वाला राज नहीं खोलती। प्रथमदृष्टया शायद इसी वजह से यह कोई धमाकेदार फिल्म नहीं बन पाई है। डॉक्टर मनमोहन सिंह की भूमिका निभाने के लिए अनुपम खेर ने काफी मेहनत की है और वो मेहनत पर्दे पर भी नजर आती है। अनुपम ने मनमोहन सिंह के चलने  के अंदाज की कॉपी करने के लिए भी बहुत परिश्रम किया है। वो एक रोबोट की तरह चलते हैं। मनमोहन सिंह की आवाज भी काफी धीमी और दबी हुई है। अनुपम.ने इसे कॉपी करने का भी काफी प्रयास किया है और बहुत हद तक वे सफल भी रहे हैं। मनमोहन सिंह के हावभाव पर भी अनुपम ने काम किया है। कुल मिलाकर वे मनमोहन सिंह जैसा दिखने में तो जरूर सफल रहे हैं। खासकर जो सीन क्लोजअप में नहीं है उसमें तो वे पूरी तरह मनमोहन सिंह लगते हैं। खैर, अनुपम खेर को मनमोहन सिंह जैसा दिखने और लगने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ी और ये एफर्ट बारीकी से फिल्म देखने वाले दर्शकों को साफ नजर आता है और थोड़ा खटकता भी है।

सोनिया गांधी का किरदार निभाने वाली सुजैन बर्नट का चुनाव की तारीफ की जानी चाहिए। वे सोनिया के रोल में परफेक्ट लगी हैं। उनका लुक और बोलचाल दोनों एकदम सोनिया गांधी से इतने अधिक मिलतेजुलते हैं कि सोनिया गांधी भी अगर ये फिल्म देखें तो उन्हें भी एकबारगी लगेगा की वे खुद पर्दे में कैसे नजर आ रही हैं।

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इसके अलावा पीएम मनमोहन सिंह की पत्नी गुरुशरण सिंह की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री दिव्या सेठ के चुनाव के लिए कास्टिंग डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी।

जहां तक संजय बारू की भूमिका निभाने वाले अक्षय खन्ना की बात करें तो वे इसमें जमे हैं, लेकिन फिल्म के दौरान उनका बार बार सूत्रधार की भूमिका में नजर आना  मुझे तो पसंद नहीं आया। इससे फिल्म की स्वभाविक गति बाधित होती सी लगती है।

एक्टिंग से अलग हटकर कटेंट की बात करें तो यह फिल्म मनमोहन सिंह का जो पूरा व्यक्तित्व है उसकी मुक्कमल तस्वीर नहीं बना पाती है। मनमोहन सिंह में कई खामियां हो सकती है लेकिन वे बेजोड़ अर्थशास्त्री हैं यह खासियत और उनका भारतीय अर्थव्यवस्था को योगदान पूरी तरह से उभर कर सामने नहीं आता है। मनमोहन सिंह ने आरबीआई गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री रहने के दौरान वित्त मंत्री के रूप में भारत की अर्थव्यवस्था को नया रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उनकी ये खूबी नहीं दिखाई देती।

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मनमोहन सिंह लगातार दो बार प्रधानमंत्री रहे हैं। सोनिया गांधी ने भले ही उनका चुनाव रिमोट से सत्ता चलाने के लिए किया हो और काफी हद.तक वो अपने इस मकसद में सफल भी रहीं। यही वजह थी कि उसकाल में टूजी, कोल ब्लॉक घोटाले आदि भी हुए। वरना ये तो तय है कि मनमोहन सिंह खुद बेईमान नहीं थे। वे सोनिया गांधी के कई गलत फैसलों पर मोहर लगाने को मजबूर हुए थे। इस लिहाज से वे कमजोर प्रधानमंत्री कहे जा सकतें हैं। उनकी ये कमजोरी इस फिल्म में भी नजर आई है। इसके साथ ही इस स्थिति से कई बार बाहर निकलने की छटपटाहट भी दिखाई गई है।

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एक कमी जो फिल्म में खटकती है वो ये कि पीएम मनमोहन सिंह के समानांतर ही संजय बारू भी एक प्रतिद्वंद्वी हीरो के रूप में खुद को खड़ा करते हैं। इस प्रयास में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अधिक कठपुतली जैसे नजर आते हैं।

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खैर मैंने संजय बारू की किताब नहीं पढ़ी है इसलिए कह नहीं सकता कि किताब को किस हद तक सिनेमा के स्क्रीन में उतारने में निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे सफल रहे हैं। इतना कह सकता हूं कि इस तरह किताबों पर फिल्में बनाने की परंपरा सुदृढ़ होनी चाहिए हम कब तक सिर्फ प्रेम कहानियों के इर्द गिर्द बनने वाली बेशुमार फिल्मों से घिरे रहेंगे। इसके साथ ही बायोपिक भी और ज्यादा बननी चाहिए।

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