फिल्म समीक्षाः चंबल के डाकुओं की जीवन गाथा- सोन चिड़िया

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  • नवीन शर्मा

अभिषेक चौबे के निर्देशन में बनी फिल्म सोन चिड़िया चंबल के डाकुओं के जीवन को उनके पूरे खुरदरेपन के साथ पेश करती है। अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह राजपूत का यह बेहतरीन परफॉर्मेंस मान सकते हैं। सुशांत ने अपने लुक, डायलॉग डिलीवरी से लेकर  पोस्चर को किरदार के मुताबिक ढालने के लिए पर्याप्त मेहनत की है। लखना डाकू के किरदार सुशांत जमते हैं। वहीं मनोज वाजपेयी डाकू मानसिंह की भूमिका में हैं। वे अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। फिल्म में पुलिस ऑफिसर के किरदार निभाने वाले आशुतोष राणा ने सबसे दमदार अभिनय किया है। फिल्म में डाकू मानसिंह का गैंग एक बार एक गांव में जाता है तो वहां मुठभेड़ के दौरान मान सिंह और लखना गलती से कई बच्चों को गोली मार देता है। ये बच्चे दारोगा बने आशुतोष राणा के परिवार के थे।

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इसके बाद इसका बदला लेने के लिए वह  गिरोह को खत्म करने के लिए पूरी जी-जान से लग जाता है। आशुतोष पुलिस अधिकारी किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय करते दिखाई देते हैं। भूमि पेडनेकर ने बेहतरीन अभिनय किया है। वहीं डाकू वकील सिंह के रोल में रणवीर ने भी अच्छा अभिनय किया है। फिल्म में बाकी कलाकार भी किरदार के मुताबिक अच्छा अभिनय करते नजर आए।

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फिल्म रिएलिस्टिक तरीके से बनाई गई है। इसमें एक अलग जीवन दर्शन है। इसमें लखना डाकू गलती से निर्दोष बच्चों की हत्या के लिए खुद को दोषी मानता है। इसका प्रायश्चित करने के लिए व दुष्कर्म का शिकार हुई बच्ची को बचाने के लिए अपने गैंग से भी भिड़ जाता है।  इसके लिए वह कई बार अपनी जान भी जोखिम में डालता है और अंत में बच्ची को अस्पताल तो पहुंचा देता है, लेकिन अस्पताल में गोली नहीं चलाने के कारण खुद अपनी जान गंवा देता है।

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अगर हम चंबल के डाकुओं पर बनी अन्य फिल्मों से तुलना करें तो शेखर कपूर के निर्देशन में फूलन देवी के जीवन पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन को हर लिहाज से सबसे बेहतरीन माना जा सकता है। उस फिल्म का फलक और इंपैक्ट दोनों बड़े थे। उसके बाद बैंडिट क्वीन में शेखर कपूर के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे तिंगमाशु धुलिया ने नेशनल रेकार्ड होल्डर पान सिंह तोमर के जीवन पर इसी नाम से अच्छी फिल्म बनाई थी। उसे हम दूसरे स्थान पर रख सकते हैं।

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सोन चिड़िया को तीसरे स्थान पर रखा जा सकता है। इन तीनों ही फिल्मों का ट्रीटमेंट रियलिस्टिक है। इनमें चंबल के बीहड़ के डाकुओं के जीवन के खुरदरेपन को पूरी वास्तविकता के साथ दिखाया गया है। खासकर वहां की स्थानीय बोली बुंदेलखंडी का इस्तेमाल करने से फिल्में जमीन से जुड़ी नजर आती हैं।

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