क्या वरुण गांधी कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं, जानिए क्या है चर्चा

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प्रियंका गांधी को महासचिव बनाना कहीं कांग्रेस की हताशा तो नहीं!

  • राणा अमरेश सिंह

नयी दिल्ली। कांग्रेस के आधार वोट पर कब्जा जमाये क्षेत्रीय दलों की उपेक्षा से दुखी कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव 2019 के लिए अपना आखिरी अस्त्र प्रियंका गांधी के रूप में चला दिया है। प्रियंका के प्रति वरुण गांधी के मन में मोह है, जो फिलहाल भाजपा में उपेक्षित हैं। उम्मीद है कि अब वह भी बहन का हाथ मजबूत करने के लिए कांग्रेस का दामन थामेंगे। राजधानी दिल्ली में बुधवार को प्रियंका गांधी की कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में एंट्री की खबर सियासी जगत में परवान चढ़ी। वहीं, भाजपा के सुल्तानपुर से सांसद वरुण गांधी को भी कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें दिनभर चलती रहीं। सूत्रों की मानें तो वरुण गांधी अगले फरवरी माह में बहन प्रियंका गांधी को सहयोग करने में लग जायेंगे। अंदरखाने चर्चा है कि भाजपा को भी इसका अंदेशा हो गया है। इसलिए पार्टी ने सांसद वरुण गांधी के अपने संसदीय क्षेत्र सुलतानपुर से बाहर प्रचार-प्रसार पर रोक लगा दी है।

पिछले दिसंबर में वरुण गांधी कानपुर ने कानपुर का दौरा किया था। उन्हें आलाकमान से एकाएक दौरा रद्द करने का संदेश दिया गया और वे फौरन वापस दिल्ली लौट आये। वैसे भी वरुण गांधी को भाजपा ने लोकसभा 2014 चुनाव के बाद हाशिये पर डाल दिया है। कभी युवा वरुण गांधी स्वयं को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री का उम्मीदवार होने का दावा करते थे। इससे वरुण गांधी भाजपा से खफा व परेशान बतायी जाती है।

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बहरहाल बहुप्रतीक्षित प्रियंका गांधी बढ़ेरा को आखिरकार कांग्रेस में एंट्री दे दी ही गई। स्व. राजीव गांधी के बाद प्रियंका गांधी को करिश्माई व्यक्तित्व की मल्लिका माना जाता है। इन्हें सक्रिय राजनीति में लाने की मांग 2013-14 से की जा रही थी। साल 2016-17 में यह योजना परवान चढ़ते-चढ़ते एकाएक रुक गई थी। इसका कारण सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच सियासी समझौता बताया गया था। फिर उसी अखिलेश सिंह, मायावती, ममता बनर्जी जैसे महागठबंधन के सहयोगियों द्वारा कांग्रेस को कम आंकने की नीति से आजिज आकर प्रियंका गांधी की पार्टी में सक्रियता बढ़ाने का निर्णय लेना पड़ा। सोनिया गांधी की बीमारी भी एक कारण मानी जा सकती है, मगर तात्कालिक नहीं।

हालांकि प्रियंका गांधी पर्दे के पीछे से कांग्रेस रणनीति के ताना-बाना बनाने में निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं। सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में चुनाव का प्रचार-प्रसार भी उन्हीं के माथे रहते आया है। वहीं, सियासी पंडित इसे कांग्रेस में जान फूंकनेवाले इंजेक्शन मान रहे हैं। महागठबंधन के सहयोगी दलों के रोज-रोज के सीट शेयरिंग में कांग्रेस को वजन न देने के नखरे से पार्टी तंग आ गई थी।

उत्तर-प्रदेश में बसपा व सपा ने कांग्रेस को अंगूठा दिखा कर सीट शेयरिंग कर ली। बिहार में भी लालू यादव कांग्रेस को 2014 लोकसभा से अधिक सीटें नहीं देना चाहते। बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार कांग्रेस पर हमले कर रही हैं। सीएम ममता बनर्जी का बयान कि जो जिस प्रदेश में मजबूत है, उस दल को वहां से लड़ने देना चाहिए। इस तरह से सहयोगी दलों ने कांग्रेस के पास प्रदेशों में प्रत्याशी खड़े करने की जगह ही नहीं छोड़ी है। दूसरी ओर कांग्रेस के आधार वोट बैंक दलित, मुसलमान और सामान्य जाति उससे लगातार दूर होते जा रहे हैं। कांग्रेस के आधार वोट फिक्षेलहाल त्रीय दलों के पाले में हैं।

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उत्तर प्रदेश के दलित वोट कभी कांग्रेस के आधार वोट हुआ करते थे, जिस पर बसपा ने साल 1984 के बाद हक जमाने की शुरुआत की थी। आज भी मायावती को कांग्रेस के मजबूत होने पर उसके आधार वोट बैंक के खिसकने का भय घेर लेता है। उसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का भाजपा समेत महागठबंधन के सहयोगी घटक भी मजाक उड़ाते हैं और उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। सीएम ममता बनर्जी ने तो जनवरी, 2018 में राहुल को हल्का नेता कह कर मुलाकात करने से मना कर दिया था। यद्यपि हिंदी पट्टी के तीन प्रदेशों में राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी लहर पर ग्रहण लगा कर कांग्रेस का परचम लहराया था।

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