दक्षिण अफ्रीका ने गांधी को राह दिखाई तो चंपारण ने मशहूर किया

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महात्मा गांधी
महात्मा गांधी

पुण्यतिथि पर विशेष

  • नवीन शर्मा

मोहनदास करमचंद गांधी सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता नहीं हैं, बल्कि दक्षिण अफ्रीका सहित विश्व के कई अन्य देशों में भी जननेता के रूप में जाने जाते हैं। हमें किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विश्लेषण करना हो तो उनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू उजागर होने चाहिए। गांधीजी भी इन्सान ही थे, उनका भी मूल्यांकन इसी कसौटी पर होना चाहिए। अफ्रीका ने गांधी जी को राह दिखाई तो चंपारण ने उन्हें मशहूर कर दिया। गांधीजी ने बिहार में राजकुमार शुक्ला के बुलावे पर चंपारण में नील की खेती करनेवाले किसानों के आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए वहां जाना स्वीकार किया। इस आंदोलन में गांधीजी को सफलता मिली थी।

2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर रियासत के दिवान थे। उन्हें बाद में राजकोट का दिवान बनाया गया था। यानी मोहनदास एक संपन्न घराने में जन्मे थे, लेकिन यह संपन्नता कुछ वर्षों के बाद पिता की मौत के साथ ही जाती रही। मोहनदास को उनके परिजनों ने कर्ज लेकर लंदन कानून की पढ़ाई करने भेजा था।

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मोहनदास ने बांबे में वकालत शुरू करने का प्रयास किया था, पर नाकाम रहे। वहीं संयोग से उन्हें दक्षिण अफ्रीका के दादा अब्दुल्ला नाम के भारतीय व्यवसायी ने अपने एक केस के सिलसिले  में आने का प्रस्ताव दिया तो वे वहां चले गए। मोहनदास 1893 को दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे। मोहनदास कुछ महीनों या साल भर का सोचकर दक्षिण अफ्रीका गए थे, लेकिन स्थितियां ऐसी बनती गई कि वे भारत लौटनेवाले थे, पर नहीं लौट पाए। वे करीब 22 वर्ष तक वहीं रह गए। इन संघर्ष के 22 वर्षों ने ही उस गांधी को तैयार किया, जो बाद के वर्षों भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा जननेता बननेवाला था। वहां ट्रेन के सफर के दौरान फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे बैरिस्टर एमके गांधी को जब एक दंभी गोरे ने उनके भूरे रंग की वजह से धक्के मार कर प्लेटफार्म पर सामान सहित फेंक दिया था। उस समय उस गोरे को इस बात का गुमान नहीं था कि यही पतला दुबला-सा इन्सान भविष्य में ब्रिटेन को भारत छोडऩे पर विवश कर देगा।

दक्षिण अफ्रीका में एमके गांधी महज साधारण बैरिस्टर नहीं रह गए। वे वहां के भारतीय समुदाय के प्रति भेदभाव के कानूनों का जम कर विरोध करने लगे। उन्होंने दबे कुचले भारतीयों को एकजुट किया और उनमें आत्मसम्मान की भावना भरने में कामयाब रहे। वहां उन्होंने फिनिक्स आश्रम बनाया और इंडियन ओपिनियन नाम का अखबार निकालना शुरू किया था। कुछ वर्षों बाद टाल्सटाय फार्म बनाया गया।

इस दौरान मोहनदास अपने सार्वजनिक जीवन में ज्यादा व्यस्त रहने लगे थे। वहीं उन्होंने एक अच्छे पिता के कर्तव्यों के तहत अपने पुत्रों को बेहतर शिक्षा देने का दायित्व की लगातार जानबूझ कर अनदेखी की थी। उन्होंने बच्चों का किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं कराया था। महज छिटपुट ढंग से उन्हें थोड़ा बहुत पढ़ाया जाता था।  मोहनदास के एक मित्र ने एक बार प्रस्ताव दिया था कि वे एक लड़के को लंदन भेजें जिसे वे अपने खर्च पर बैरिस्टर की पढ़ाई कराएंगे। उनके बड़े बेटे हरिलाल ने इसके लिए अपनी इच्छा जाहिर की थी पर मोहनदास ने उसे नहीं भेजकर किसी और को भेज दिया था। दोबारा मौका आने पर भी हरिलाल ने गुहार लगाई पर इस बार भी किसी दूसरे को भेज दिया गया। इससे पिता के साथ हरिलाल का मनभेद शुरू हुआ और अंतत व दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भारत आ गया। बाद के वर्षों में हरिलाल ने कोलकाता में कपड़े के कारोबारी के यहां नौकरी के दौरान खुद को काफी नीचे गिरा लिया। वह बेहिसाब शराब पीने, मांसाहार, जुआ और सोनागाछी के बदनाम इलाके में वेश्यावृति की गर्त में गिरता चला गया। उसे जिंदगी ने कई मौके दिए लेकिन अपनी इन गंदी वृतियों और अपने पिता की उपेक्षा से उपजे उनके प्रति उपजी बदले की भावना के कारण वो लगातार उन्हें सार्वजनिक रूप से भी नीचा दिखाने से नहीं चूका। यहां तक की उसने अपना धर्म परिवर्तन किया और अपना नाम अब्दुलाह गांधी तक रख लिया था। हरिलाल ने कई बार अपने पिता के नाम खुला पत्र समाचार पत्रों में छपवाकर भी उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की थी।

मोहनदास अपनी पत्नी कस्तूर को भी उपेक्षित करते रहे। उन्होंने पत्नी से सलाह मशवरा किए बिना एकतरफा निर्णय लेते हुए बह्मचर्य का व्रत लिया था। इसके अलावा बह्मचर्य व्रत लेने के बाद भी उनका बंगाल की विवाहिता सरलादेवी चौधरानी से संबंध कस्तूरबा के लिए काफी अपमानजनक और दुखद था।

1915 में जब वे भारत आए तो शुरू के कुछ वर्ष पूरे देश का भ्रमण किया। यहां के लोगों को करीब से देखा और उनके मिजाज और समस्याओं को शिद्दत से महसूस किया। उन्हें इसी दौरान शायद यह बात पता चली की हमारे देश की इतनी बड़ी आबादी किसी संगठित हिंसक विद्रोह के लिए एक ही समय पर तैयार नहीं हो सकती। इसके बाद भी धीरे-धीरे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भागीदारी बढ़ाने के बाद अधिक से अधिक लोगों को जोडऩ़े का अभियान शुरू किया।

1920 में खिलाफत आंदोलन शुरू किया गया। यह आंदोलन मित्र राष्ट्रों द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध में जीत के बाद तुर्की के शासक की खिलाफत खत्म करने के विरुद्ध था। तुर्की का शासक(खलीफा) मुस्लिम धर्मावंलंबियों का राजनीतिक प्रमुख माना जाता था। गांधीजी ने मुसलमानों में अंग्रेजों के खिलाफ उभरे गुस्से को स्वतंत्रता संग्राम से जोडऩ़े के लालच में खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया। इसका तत्कालिक लाभ यह मिला कि मुसलमानों की असहयोग आंदोलन में भागीदारी अच्छी रही। वहीं इसका दीर्धकालीन नुकसान ये हुआ कि मुसलमानों के धार्मिक मामले को तवज्जो दी गई। यह सिलसिला आगे चल निकला। अंग्रेजी शासन ने भी मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल को मंजूरी दी तो कांग्रेस को राष्ट्रीय हित के मद्देनजर इसका कड़ा विरोध करना चाहिए था लेकिन वैसा नहीं हुआ।

गांधीजी ने अपने आंदोलन का केंद्र बिंदु अहिंसा को बनाया था। असहयोग आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और सरकार से असहयोग मुख्य था। असहयोग आंदोलन थोड़ा लंबा खिंचने के कारण असफल होने के कगार पर ही था जब उसे उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा में पुलिस कर्मियों को जिंदा जला देने की हिंसक वारदात के बाद वापस लेना पड़ा।

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1931 में सविनय आंदोलन शुरू हुआ। गांधीजी ने दांडी तक एतिहासिक मार्च कर वहां के समुद्र तट पर नमक बना कर कानून का उल्लंघन किया। इस सांकेतिक विरोध ने चमत्कारी असर डाला था। इसके बाद धरसाना की नमक फैक्ट्री को घेरने का आंदोलन गांधीजी की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। यहां पर उनके सत्याग्रही निहत्थे पांच-सात लोगों के जत्थे में फैक्ट्री की तरफ बढ़ते और उनपर पुलिस  बेरहमी से डंडे बरसाती। यहां इनके अहिंसा के सिपाहियों ने उनके सिद्धांतों का कड़ाई से पालन किया था।

गांधीजी का सबसे बड़ा योगदान ये रहा कि स्वतंत्रता संग्राम में लोगों की भागीदारी और समर्थन निरंतर बढ़ता रहा। गांधीजी ने अपने लंबे राजनीतिक जीवन संघर्षों की बदौलत कई अनमोल हथियार हमें सौंपे है जो लोकतांत्रिक प्रणाली में काफी काम के हैं। इनमें शांतिपूर्ण धरना, प्रदर्शन और भूख हड़ताल और आमरण अनशन शामिल हैं। आजादी के बाद भी इन सभी का इस्तेमाल करते हुए हम विभिन्न दलों, संगठनों और लोगों को देखते हैं।

9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। इसमें गांधीजी ने सबसे प्रभावकारी मंत्र दिया करो या मरो। इस नारे ने जादू सा काम किया था।  1942 का आंदोलन हालांकि गांधीजी ने शुरू किया था लेकिन ये आंदोलन कांग्रेस के नेताओं के हाथ से निकल कर जन आंदोलन बन गया। इस आंदोलन के शुरू होने के ठीक पहले सभी महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे। ये आंदोलन गांधीजी की नीतियों पर भी नहीं चला इसने हिंसक वारदातों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। साथ में जन भागीदारी में भी नए कीर्तिमान बना दिए। इसी आंदोलन ने तय कर दिया था कि ब्रिटिश शासन अब चंद वर्षों का रह गया है।

इसके बाद आजाद हिंद फौज के कैप्टन ढिलो और शहनवाज के खिलाफ चले मुकदमे ने ब्रिटेन की फौज में सेंधमारी कर उसमें दरार पैदा कर दी थी। इस तरह से हम आजादी पाने की दहलीज तक पहुंच गए।

गांधी कहते थे की पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा लेकिन उनके जिंदा रहते पाकिस्तान बन गया। मोहम्मद अली जिन्ना पहले कांग्रेसी थे लेकिन अपनी तुलना में नेहरू को गांधी द्वारा अधिक महत्व देने से खिन्न होकर वे मुस्लिम लीग से जुड़ गए। जिन्ना ने  मुस्लिम लीग को काफी सशक्त किया और  आजादी के पहले हुए चुनाव में लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान की मांग के बल पर मुसलमानों के लिए आरक्षित 90 फीसदी सीटें जीत ली थीं। इसने साफ कर दिया की ब्रिटिश हुकूमत की फूट डालने की नीति सफल हो गई थी। कांग्रेस के हिंदू मुस्लिम एकजुटता के तमाम प्रयास बेमानी हो गए थे। मुस्लिम लीग ने देश विभाजन मनवाने के लिए कोलकाता से डायरेक्ट एक्शन के नाम पर हिंदुओं का कत्लेआम शुरू किया। इसके बाद तो पूरे देश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई। लाखों बेगुनाह लोग मारे गए। इस बेकाबू हिंसा के आगे घुटने टेकते हुए कांग्रेस और गांधीजी ने भी देश के बंटवारे को सहमति दे दी। दुखद ये है कि देश विभाजन के बाद भी सांप्रदायिक हिंसा का वायरस भारत से खत्म नहीं हुआ। आजादी के बाद से अबतक सैकड़ों छोटे बड़े दंगे होते रहे हैं।

अंतिम भूल 

गांधीजी ने देश विभाजन के बाद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए आमरण अनशन शुरू किया था। इससे बाध्य होकर भारत सरकार ने दिवालिया हो रहे पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये ऐसे समय पर दिए जब वो कश्मीर में कबिलाईयों के वेष में हमले करा रहा था। उसने कश्मीर के एक बड़े हिस्सा पर कब्जा कर लिया था जिसे आज हम पाकिस्तान आकोपाइड कश्मीर कहते हैं। इस निर्णय का देश में कई कांग्रेसी नेताओं सहित आम लोगों ने भी विरोध किया था। इसी निर्णय से गुस्साए नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में गांधीजी की गोली मार कर हत्या कर दी। इसने गांधीजी को इतिहास के पन्नों में शहीद के रूप में हमेशा के लिए अमर कर दिया।

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