झारखंड बचाओ समन्वय समिति ने बुनियादी सवालों पर की चर्चा

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  • विशद कुमार

रांची। आजादी के पूर्व ही उड़ीसा और बिहार राज्य के गठन के बाद से इन राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों की स्वायत्तता एवं उनकी सांस्कृतिक पहचान के साथ उनके सामाजिक विकास व स्वतंत्र राजनीतिक पहल बनाए रखने की अवधारणा के तहत झारखंड अलग राज्य की परिकल्पना की गई थी। कई दशकों के आंदोलन और कुर्बानियों के बाद 15 नवंबर सन् 2000 में परिकल्पना पूरी हुई। झारखंड राज्य के विकास का जो स्वरूप झारखंड के आंदोलनकारियों ने तैयार किया था, उसे दरकिनार कर बीते 18 वर्षों में जन विकास की अवहेलना करते हुए कारपोरेट विकास की अवधारणा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी। झारखंड की गरीब जनता बड़ी बेसब्री से इंतजार करती रही और राज्य में बनती-बिगड़ती सरकारों को देखती रही। राज्य में बनने वाली नीतियों में अपने-अपने अधिकारों को तलाशने की कोशिश करती रही।

जनता को ऐसा लगा, जैसे अब अच्छे दिन आने वाले हैं, लेकिन जिनके लिये झारखंड बना, उन पर आज गोलियां चलायी जा रही हैं। पिछले 18 वर्षों के कार्यकाल में झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के अरमानों का गला घोंटा गया। उन्हें अपमानित किया गया। संवैधानिक अधिकारों की बात करने वाले लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगा कर उन्हें जेल में बंद किया गया। पत्थलगड़ी कार्यक्रम के तहत आदिवासियों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों को आम जनता तक पहुंचाने की पारंपरिक व्यवस्था को भी गैर कानूनी घोषित करने की कोशिश करते हुए आदिवासियों को देशद्रोही घोषित किया गया। उनके संवैधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ायी गयीं।

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युवाओं को रोजगार देने की बात करने वाली सरकार ने युवाओं के साथ छल किया। सरकारी नियुक्तियों में बाहरी लोगों की बहाली का मार्ग प्रशस्त किया गया। झारखंड लोक सेवा आयोग के माध्यम से होने वाली नियुक्ति प्रक्रियाओं को बाधित कर बाहरी लोगों को प्रशासनिक अधिकारी बनाये जाने का रास्ता बनाया गया। अब यह बात खुलकर सामने आ गयी है कि झारखंड राज्य विकास के अपने बुनियादी लक्ष्य से भटक गया है और राज्य के विकास के नाम पर आदिवासी-मूलवासियों को धोखे में रख कर कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाया जा रहा है। उपनिवेशवादी शोषण, अत्याचार, पुलिस जुल्म, राजनीतिक एवं आर्थिक भ्रष्टाचार, अफसरशाही चरम पर है। राज्य में शोषण की वही इतिहास दुहरायी जा रही है जिसके कारण अलग राज्य के गठन के लिये संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार हुई थी।

झारखंड अलग राज्य की बुनियाद हजारों सालों के गौरवशाली आदिवासी संघर्ष के इतिहास की नींव पर डाली गयी है। भारत के संविधान में दिये गये अधिकार उसी स्वर्णिम इतिहास का कानूनी दस्तावेज है। इसीलिये सर्वप्रथम झारखंड अलग राज्य के गठन का सवाल हमारी सामाजिक सांस्कृतिक पहचान की रक्षा का सवाल है। झारखंड राज्य की परिकल्पना जल, जंगल, जमीन और कृषि की रक्षा और उसपर आधारित दो तिहाई आबादी के आर्थिक विकास की कल्पना है। हमारी विचारधारा समानता, धार्मिक सद्भाव और समरसता पर आधारित है। हमारा दर्शन मनुष्य, प्रकृति और अन्य जीवजंतुओं के समन्वय पर आधारित है।

इस दृष्टिकोण से विस्थापन और पलायन से जुड़ी उपनिवेशवादी पूंजी, विकास की कल्पना में झारखंड के विकास की परिकल्पना नहीं हो सकती। झारखंड का इतिहास इन्हीं सवालों से जुड़ा संघर्ष का इतिहास है। विकास के नाम पर सिर्फ सरकारी खजाने को खर्च कर देना और विकास के झूठे आंकड़े पेश कर राज्य के विकास का दावा नहीं किया जा सकता। बड़े बडे़ आकर्षक विज्ञापनों और जुमलेबाजी से राज्य नहीं चलता। आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच, ईसाई और सरना के बीच, हिंदू और मुस्लिम के बीच, जातीय और धार्मिक तकरार पैदा कर झारखंड को अशांत करने का प्रयास, झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों की ताकत को कमजोर करने की साजिश है। जिससे यहां के लोगों की जमीन पर बाहरी लोगों का राजनीतिक एवं प्रशासनिक नियंत्रण कायम हो सके।

ऐसे में ‘Peoples Agenda 2019’ झारखंड के आदिवासियों-मुलवासियों के गौरवशाली अतीत, वर्तमान और भविष्य पर एक गंभीर चिंतन है, जो विकास की अवधारणा पर एक बहस है। एक मंथन है अपने अस्तित्व की रक्षा का। सामाजिक सांस्कृतिक एवं भाषाई पहचान की सुरक्षा का। आह्वान है अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिये संघर्ष का और उद्घोष है, जनता की आशाओं आकांक्षाओं के दमन के खिलाफ जनांदोलन का।

ये तमाम बातें उभर कर आईं ”झारखंड बचाओ समन्वय समिति” के तत्वावधान में आयोजित आदिवासी-मूलवासी सामाजिक संगठनों की तृतीय बैठक में। बताते चलें कि 29 जनवरी को कई सामाजिक, सांस्कृतिक जनसंगठनों एवं राजनीतिक दलों के साझा प्रयास से आयोजित ”झारखंड बचाओ समन्वय समिति” की एक महती बैठक में पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री श्री सुबोध कांत सहाय ने कहा कि ‘विगत 18 वर्षों के दौरान झारखंड के टिकाऊ सस्टेनेबल विकास का रोड मैप नहीं बन पाया, जो सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बाबूलाल मरांडी जी ने जब आदिवासी मूलवासियों के हित में नीतियां बना कर लागू करना चाहा तो कई शक्त्यिों ने मिल कर उनकी सरकार को ही अस्थिर कर दिया। मौजूदा राज्य सरकार के कार्यकाल के दौरान झारखंडियों के मूल अधिकारों पर हमला हो चुका है। समस्याएं बद से बदतर होती जा रही हैं। वर्तमान में झारखंड के विपक्षी दलों को एकसूत्र में बांधा नहीं गया तो हालात बदलने वाले  नहीं हैं।

राज्य के प्रथम मुख्य मंत्री एवं जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने कहा कि ‘झारखंड की सबसे बड़ी त्रासदी विस्थापन है। आजादी के बाद से विस्थापन की सबसे ज्यादा कीमत झारखंड के आदिवासियों ने चुकाई है। लाखों लोग विस्थापन के कारण दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं। यही कारण है कि झारखंड के मूल स्वरूप में जनसंख्या का जो अनुपातिक स्वरूप होना चाहिये, उसमें आदिवासियों  की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है। राज्य की सरकार को हर नागरिक की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं  नियोजन की गारंटी लेनी चाहिये। जो योजनायें झारखंड के हित में नही हैं उन्हें रद्द करना चाहिये।’ उन्होंने जनसंगठनों के तमाम मुद्दों पर अपनी और झाविमो की पूर्णतः सहमती जताई।

कार्यक्रम में अध्यक्षीय भाषण में डा. कर्मा उरांव ने सभी जनसंगठनों की ओर प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘झारखंड में न केवल बिहार, बल्कि दुनिया भर की शक्तियां यहां की प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिये आमादा हैं, जिसकी पहल मौजूदा सरकार के मुख्यमंत्री के द्वारा की जा रही है। बाहरी लोगों को यहां के कारोबार, नियोजन आदि पर काबिज होने के लिये मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है। गलत स्थानीय नीति एवं औद्योगिक नीति से यहां के आदिवासियों मूलवासीयों को उजाड़ने की साजिश की जा रही है।’ डा0 कर्मा उरांव ने जोर देकर कहा कि ‘जब तक भाजपा एवं भ्रष्टाचार मुक्त झारखंड नही बनेगा तब तक यहां के लोगों का कल्याण नहीं होगा।’

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