बिहार में सवर्ण आरक्षण को अपने हिसाब से आंक रहे राजनीतिक दल

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  • राणा अमरेश सिंह

पटना। बिहार की सियासत में जुबानी जंग खूब होती है। रैली-रैला का कई बार आयोजन होता है। ये सब चुनाव के आते ही परवान चढ़ते हैं। पक्ष-विपक्ष अपने-अपने वोटरों को टटोलते हैं कि सब कुछ ठीकठाक है न! सीएम नीतीश कुमार और विपक्षी दल के नेता तेजस्वी यादव के बीच 10 फीसदी आरक्षण पर वार-पलटवार जारी है। सामान्य जाति के गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण को तेजस्वी यादव गैरवाजिब मानते हैं। तेजस्वी यादव जनसंख्या के अनुसार आरक्षण देने की मांग करते हैं। वे जाति आधार पर जानगणना की रिपोर्ट जारी करने की भी मांग करते हैं। इसी से मिलता-जुलता बयान सीएम नीतीश कुमार को देना भी मजबूरी है। अंतर सिर्फ इतना है कि नीतीश कुमार 10 फीसदी आरक्षण को सही मानते हैं। तेजस्वी यादव तो दो कदम आगे बढ़ कर इसे संविधान के साथ छेड़छाड़ बताते हैं। वहीं, नीतीश कुमार इसे बहुत जल्द सूबे में लागू करने की प्रतिबद्धता दोहराते हैं। नीतीश कुमार इसे विधानसभा में लाकर पास करना चाहते हैं।

दरअसल विधानसभा में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे को आरक्षण को लेकर नंगा करने की मंशा पालते दिख रहे हैं। दोनों यह साबित करना चाहते हैं कि कौन पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों का पक्षधर है। और, कौन अगड़े-सामंतवादी शक्तियों के साथ है। इसी राजनीति का शिकार बिहार में सामान्य जाति के गरीबों को 10 फीसदी का आरक्षण का मामला हो रहा है। यद्यपि यह कानून सरकार सामान्य अधिसूचना जारी कर सूबे में लागू कर सकती थी।

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हालांकि अपने विरुद्ध बन रहे नकारात्मक माहौल को देखते हुए भाजपा ने सामान्य जातियों के गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण का दांव चला है, लेकिन कहीं बिहार की परिस्थिति में यह उल्टा न साबित हो जाये, खतरा इस बात का भी है।

अगर पिछड़ी जातियों की गोलवंदी हुई तो राजग को नुकसान हो सकता है। वहीं, राजद ने इस आरक्षण का विरोध कर जता दिया कि वह अति पिछड़े, दलितों के साथ मुसलमानों व यादव को लेकर चलना चाहता है। इसमें सहनी, जीतन राम मांझी और कुशवाहा महत्वपूर्ण फेस होंगे।

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साथ ही सीएम का बयान भी उसी संदर्भ में माना जा रहा है। कहीं राजद इस मामले पर लीड न ले ले और राजग अपने समर्थक वोटरों को खो न दे। माना जाता है कि अभी भी अतिपिछड़ा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ है और नीतीश कुमार के साथ कोयरी, कुर्मी के अलावा 22 अतिपिछड़ी जातियां हैं।

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1931 में हुई पहली जातीय जनगणना, जब बिहार के साथ ओडिशा और झारखंड भी शामिल था, हुई थी। उस जनगणना के बाद जातीय आधार पर अब तक कोई जनगणना नहीं हुई। हालांकि इसकी मांग उठती रही है। खासकर उन दलों की ओर से, जिनका आधार वोट बैंक ही पिछड़े हैं। 1931 की जनगणना के मुताबिक यादव 14.60%, मुसलमान 15.50%, कुशवाहा 4.5%, बनिया 8.1%, कुर्मी 3.3%, मुसहर 2.3%, दुसाध 5.1%, चर्मकार 5.3% थे। सूत्रों की मानें तो 2011 की आर्थिक व सामाजिक आधार पर हुई जनगणना के अनुसार बिहार में सामान्य जाति 11.6% बताई गई है। इसका मतलब है कि इनकी आबादी घटी है। हालांकि पिछड़ी, अति पिछड़ी, दलित और मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ी है।

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