जयंती पर विशेषः लाला लाजपत स्वतंत्रता संग्राम के अनमोल रत्न

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  • नवीन शर्मा

लाला लाजपत राय हमारे स्वतंत्रता संग्राम के शानदार योद्धाओं में प्रमुख हैं। उनका जन्म 28 जनवरी, 1865 ई. को अपने ननिहाल  ढुंढिके, ज़िला फ़रीदकोट, पंजाब में हुआ था। उन्होंने 1885 ई. में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1886-92 तक हिसार में सफल वकील के रूप में काम किया। 1892  में लाहौर आये और तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। सन 1882 में लाजपत राय आर्य समाज के लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हुए। लाला लाजपत राय ने पंजाब के ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना के लिए अथक प्रयास किये थे। स्वामी दयानन्द के साथ मिल कर उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया था। उन्होंने ‘दयानंद कॉलेज’ के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। इटली के क्रांतिकारी नेता मेजिनी के विचारों से लाजपत काफी प्रभावित थे। मेजिनी की पुस्तक ‘ड्यूटीज ऑफ़ मैन’ का उन्होंने उर्दू में अनुवाद किया था।

1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। 1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिल कर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की।

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अपने सहयोगियों- लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिल कर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन की राजभक्त संस्था का चरित्र बनाये रखा था। ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डट कर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी।

1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीत सिंह पर फूटा। दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नज़रबंद कर दिया गया, किन्तु देशवासियों द्वारा इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा।

अंग्रेज़ों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लालाजी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों को साथ लेकर अंग्रेज़ों के इस फैसले का जम कर विरोध किया। 3 मई, 1907 को उन्हें रावलपिंडी में गिरफ़्तार किया गया। लालाजी को 1907 में 6 माह का निर्वासन सहना पड़ा था। वे कई बार इंग्लैंड गए, जहाँ उन्होंने भारत की स्थिति में सुधार के लिए अंग्रेज़ों से विचार-विमर्श किया था। 1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। जनभावना को देखते हुए ही अंग्रेज़ों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। निर्वासन के बाद वे स्वदेश आये और पुनः स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये।

प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान वे प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य के रूप में वे पुनः इंग्लैंड गये और देश की आज़ादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ ‘इण्डियन होमरूल लीग’ की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। उन्होंने ‘तरुण भारत’ नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने ‘यंग इंण्डिया’  मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने ‘भारत का इंग्लैंड पर ऋण’, ‘भारत के लिए आत्मनिर्णय’ आदि पुस्तकें लिखीं, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं।

लालाजी ने भगवान श्रीकृष्ण, अशोक, शिवाजी, स्वामी दयानंद सरस्वती, गुरुदत्त, मेत्सिनी और गैरीबाल्डी की संक्षिप्त जीवनियाँ भी लिखीं। ‘नेशनल एजुकेशन’, ‘अनहैप्पी इंडिया’ और ‘द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्डेशन’ उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। उन्होंने ‘पंजाबी’, ‘वंदे मातरम्‌’ (उर्दू) और ‘द पीपुल’ इन तीन समाचार पत्रों की स्थापना करके इनके माध्यम से देश में ‘स्वराज’ का प्रचार किया।

लालाजी परदेश में रह कर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे थे। अपने चार वर्ष के प्रवास काल में उन्होंने ‘इंडियन इन्फ़ॉर्मेशन’ और ‘इंडियन होमरूल’ दो संस्थाएं सक्रियता से चलाईं। लाला लाजपत राय ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। ‘लोक सेवक मंडल’ स्थापित करने के साथ ही वह राजनीति में आए।

20 फ़रवरी, 1920 को जब लाला लाजपत राय स्वदेश लौटे तो अमृतसर में ‘जलियांवाला बाग़ काण्ड’ हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गाँधी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये, जो सैद्धांतिक तौर पर रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था। 1920 में ही उन्होंने पंजाब में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण 1921 में जेल हुई। इसके बाद लालाजी ने ‘लोक सेवक संघ’ की स्थापना की। उनके नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल की आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे ‘पंजाब का शेर’ या ‘पंजाब केसरी’ जैसे नामों से पुकारे जाने लगे। बाद में वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और ‘केन्द्रीय धारा सभा’ के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पण्डित मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने ‘नेशनलिस्ट पार्टी’ का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने ‘हिन्दू महासभा’ के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें ‘हिन्दू महासभा’ के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया।

1920 स्थापित ‘अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (ए.आई.टी.यू.सी.) में तत्कालीन, लगभग 64 श्रमिक संघ शामिल हुए। लालाजी इसके पहले अध्यक्ष बने। लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल को ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की।

3 फ़रवरी, 1928 को साइमन कमीशन भारत पहुँचा, जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर, 1928 को एक बड़ी घटना घटी, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था- मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी। और इस चोट ने कितने ही ऊधम सिंह और भगत सिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली। इस घटना के 17 दिन बाद यानी 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

लालाजी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई।

लाला जी को श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था- भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।”

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