भाजपा कितना भुना पायेगी पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं को

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फाइल फोटो

पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं पर विपक्षे के टेढ़े बोल उसे कितना फायदा या नुकसान पहुंचायेंगे, इस पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी टिप्पणी दी है। तकरीबन सभी का मानना है कि विपक्ष के बोल उसके हित में नहीं हैं। उसे इसका खामियाजा भोगना पड़ सकती है। सुदूर गांवों तक इन घटनाओं ने लोगों के मानस पर असर डाला है। अब इसको लेकर विपक्ष ऊटपटांग बयानबाजी करता है तो यह उसके खिलाफ जा सकता है।

सुरेंद्र किशोर (वरिष्ठ पत्रकार) ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा है- पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं तथा उन पर कुछ नेताओं के बयानों ने अनेक मतदाताओं के मन की दुविधा को समाप्त कर दिया है। बिहार के कई गांवों तथा कुछ अन्य राज्यों के शहरों से मिल रही सूचनाओं के अनुसार यहां यह बात देखी जा रही है। वैसे तो जब ओपिनियन पोल के नतीजे आने लगेंगे तो  स्थिति और भी साफ हो जाएगी।

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विपेंद्र (वरिष्ठ पत्रकार) ने लिखा आपकी सूचना सही है। मैं इतना ऐड कर देना चाहता हूँ कि दुविधा की स्थिति पहले ही समाप्त हो गई थी। इधर सपा के प्रोफेसर रामगोपाल यादव, अखिलेश यादव और कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ सैम पित्रोदा के ताजा बयानों ने मतदाता को आक्रोशित करने का काम किया है। इसकी बड़ी कीमत विपक्ष को चुकानी पड़ेगी।

सैम पित्रोदा गुरु हैं राहुल गांधी के। वह भारत पर आतंकी हमलों के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार नहीं मानते, 26/11 के मुंबई हमलों के लिए भी नहीं। पित्रोदा ने यह भी कहा है कि ये उनके निजी विचार हैं। हम कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के आतंक के मुद्दे पर ऐसे ही मिलते-जुलते विचार पहले भी सुन चुके हैं। समझने जैसी बात ये है कि ऐसे कद्दावर नेताओं के विचारों से ही तो पार्टी का समवेत विचार बनता है।

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कांग्रेस का ऐसा स्टैंड आतंकवाद के विरुद्ध भारत की लड़ाई को निश्चित रूप से कमजोर करनेवाला है और यह सारे देश के लिए बड़ी चिंता की बात है। आज स्पष्ट हो गया है कि इसी नीति, नीयत और विचार ने यूपीए के कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा पर सरकार के ‘टोटल ऐप्रोच’ को लचर बना दिया, सुरक्षा तैयारी को ढीला कर दिया, सेना और सुरक्षा बलों का हाथ बांधे रखा तथा पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका दिया। मुझे नहीं लगता कि भारत की जनता ऐसी सोच रखनेवाले दल और उसके नेतृत्व को कम से कम 2019 के चुनाव में माफ कर सकेगी।

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महेंद्र नारायण वाजपेयी ने लिखा है- ऐसा लगता है कि राजनीतिज्ञों में देश प्रेम समाप्त हो गया है। सत्ता के लिए किसी भी तरह का कर्म करने में शायद इन्हें पश्चाताप नहीं है। याद करने की बात है कि आजादी की लड़ाई में लोगों ने जिस उमंग और उल्लास के साथ हिस्सा लिया या अंग्रेजों का विरोध किया, उसके पीछे स्वार्थ नहीं था। यहां तक कि 1975 के आपातकाल का छात्रों, नौजवानों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों ने किसी स्वार्थ के लिए विरोध नहीं किया था, अपितु नीति और सिद्धांत तथा लोकतंत्र की बहाली के लिए।

ठीक इसके विपरीत आज के राजनीतिज्ञों के बिगड़े बोल ने देश हित को पीछे छोड़ दिया है, सत्ता की आपाधापी में वे फंस गए हैं। यह राजनीति के गिरते स्तर का द्योतक है। सेना के पराक्रम पर ऐसी घटिया ब्यानबाजी से मुल्क के साथ ही उनकी अपनी पार्टी का भी नुकसान होने की संभावना है।

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