ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी की पाकीजा के पीछे की दास्तान 

0
746
पाकीजा फिल्म का पोस्टर
पाकीजा फिल्म का पोस्टर
  • वीर विनोद छाबड़ा 

दो राय नहीं कि ‘पाकीजा’ ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी की फिल्म है। जाहिर है कि इसकी कामयाबी का क्रेडिट भी मीना को जाता है, लेकिन इसके और भी हैं दावेदार। इसमें कमाल अमरोही की मेहनत का भी बड़ा मोल है। निजी जिंदगी में मीना से उनकी अनबन रही हो, लेकिन उनसे उनकी मेहनत का हक नहीं छीना जा सकता। डेढ़ करोड़ रूपए की इस फिल्म में उन्होंने कितनी दुश्वारियों का सामना किया, पापड़ बेले, ये हिस्ट्री है।

यह भी पढ़ेंः बलिया में वीरेंद्र सिंह मस्त की अभी से दिखने लगी है मस्ती

- Advertisement -

दरअसल, कमाल ने ‘पाकीजा’ मीना के साथ 1958 में प्लान की। शूटिंग भी हुई, लेकिन तभी कलर के युग की आहट मिलनी शुरू हो गयी। दोबारा शूटिंग शुरू हुई। इस बीच उन्हें ख्याल आया कि क्यों न सिनेमास्कोप में शूट की जाए। एमजीएम से लेंस मंगाया गया। नए सिरे से शूटिंग शुरू हुई। आधे से ज़्यादा फिल्म बन गयी। लेकिन 1964 में कमाल का मीना से अलगाव हो गया। नतीजा ‘पाकीजा’ कोल्ड स्टोरेज में चली गयी। 1968 में कमाल अमरोही ने मीना को दर्द भरा खत लिखा। ‘पाकीजा’ के डूबते जहाज को बचा लो। मीना ने पॉजिटिव जवाब दिया, ‘पाकीज़ा’ मेरी जिंदगी है, खून का एक-एक कतरा हाजिर है।

यह भी पढ़ेंः हेलमेट व किताबें बांट कर बच्चों का जीवन बचा व संवार रहा युवा

लेकिन हिस्ट्री यह भी बताती है कि 1968 में जब सुनील दत्त-नरगिस ने सुना कि ‘पाकीज़ा’ फाइनली स्क्रैप होने जा रही है तो उन्होंने इसके शूट किये हुए हिस्से देखे। उन्हें तकलीफ़ हुई, इतनी खूबसूरत फिल्म अधूरी नहीं रहनी चाहिए। उन्होंने मीना से दरख़्वास्त की और मीना फौरन तैयार हो गयी।

यह भी पढ़ेंः हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र में  इस बार किस ‘राम’ की नैया होगी पार?

इधर मीना के सामने कई दिक्कतें थीं। उन्हें लीवर सिरोसिस हो गया था और वजन भी बहुत बढ़ गया। लेकिन कमाल ने कहा, ये मुझ पर छोड़ दो, पुरानी   मीना और आज की मीना में कोई फर्क नजर नहीं आएगा। और ऐसा हुआ भी। मीना की डुप्लीकेट बनीं पदमा खन्ना, ख़ासतौर पर डांस सीक्वेंसेस में। मगर मुश्किलें कई और भी थीं। शूटिंग के दौरान जर्मन फ़ोटोग्राफ़र जोसेफ़ व्रिन्चिंग का इंतक़ाल हो गया। तब ‘मुगल-ए-आज़म’ के डायरेक्टर फोटोग्राफी आरडी माथुर ने अपनी खिदमत पेश की। एक और धक्का लगा कि म्युज़िक डायरेक्टर गुलाम मोहम्मद भी इंतकाल फ़रमा गए। बचा हुआ काम नौशाद अली ने पूरा किया।

यह भी पढ़ेंः हिन्दी फिल्मों के रूपहले पर्दे की सर्वश्रेष्ठ मां निरूपा राय

उन्होंने कुछ गाने भी रिकॉर्ड कराये। मगर बिलिंग में उन्हें बैक ग्राउंड और टाइटिल म्युज़िक का क्रेडिट मिला। कास्टिंग को लेकर भी काफ़ी परेशानियां आयीं। हीरो अशोक कुमार 1964 जितने जवान नहीं रहे थे। उनका रोल प्रेमी से बदल कर बाप का कर दिया गया। हीरो के लिए राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त और धर्मेंद्र पर विचार किया गया। लेकिन फाइनल राजकुमार हुए। बकौल कमाल उनकी आवाज और अहसास में काफी गहराई थी।

यह भी पढ़ेंः एक्ट्रेस वीना की पहचान होती थी बोलती आंखें और रौबीला चेहरा

जैसे-तैसे फिल्म मुकम्मल हुई और 3 फरवरी 1972 को बंबई के मराठा मंदिर में बड़ी शान के साथ ‘पाकीज़ा’ रिलीज हुई। बीमार मीना कुमारी ने अपनी ज़िंदगी का आख़िरी प्रीमियर अटेंड किया। राजकुमार ने मीना का हाथ चूमा और कमाल मीना के बगल में बैठे। म्युज़िक डायरेक्टर मोहम्मद जहूर खय्याम ने मीना को मुबारकबाद दी, शाहकार फिल्म बनी है। आदमी और औरत की मोहब्बत का अंजाम आखिर चौदह साल बाद रंग लाया। मगर अफसोस इसको बेमिसाल कामयाबी मीना के 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से उठ जाने के बाद मिली। बेरहम फिल्मफेयर मैनेजमेंट ने इस शानदार फिल्म को सिर्फ बेस्ट आर्ट डायरेक्शन का अवार्ड दिया। बेस्ट म्युज़िक के लिए गुलाम मोहम्मद और बेस्ट एक्ट्रेस के लिए मीना नॉमिनेट हुए। मगर अवार्ड नहीं दिया गया। तर्क दिया गया, मरे लोगों को अवार्ड नहीं दिया जाता। ट्रेजडी क्वीन के साथ आख़िरी ट्रेजडी।

यह भी पढ़ेंः चुनाव के खेल को समझना चाहते हैं तो पढ़ लें यह किताब

- Advertisement -