- जे.एन. ठाकुर
लालू यादव के लिए पिछड़ी जाति के लोग काफी मायने रखते हैं। पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उन्होंने सामाजिक न्याय का जो ताना-बाना बुना, उसी की फसल वे अब तक काट रहे हैं। बाबरी विध्वंस के बाद वे मुसलमानों के मसीहा बन गये, तो पिछड़ी और दलित जातियों को स्वर्ग तो नहीं दे पाये, पर स्वर उन्होंने जरूर दिया। अगर किसी को लालू यादव की राजनीति की सफलता को समझना हो तो डेवलपमेंट जैसे शब्दों की रटी रटायी परिभाषाओं से बाहर निकलना होगा। लालू का शासन स्कूल, हॉस्पिटल, सड़क, बिजली मुहैया करवाने या इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने के लिए कभी था ही नहीं। मुख्यत: यह सिर्फ 3 चीज़ों के लिए था- बिहार के सामंती समाज में जातिवाद की जड़ों को हिलाना, गैर ऊंची जाति के लोगों को सामाजिक न्याय देना और 1990 के दशक के दौरान राममंदिर के नाम पर हो रही हिंसा से मुस्लिम समुदाय को बचाना।
तब मैं अपने स्नातक की पढ़ाई के शुरुआती दौर में था। अंग्रेज़ी मीडिया और अपने आसपास के लोगों से यही सुनता था कि लालू यादव कितने भ्रष्ट हैं और 1990-2005 के बीच जब बिहार में उनकी वजह से पूरे राज्य में कानून व्यवस्था कैसे चरमरा गई थी। बिहार अराजकता का पर्याय बन चुका था और लालू के शासन को जंगलराज कहा जाने लगा। 2005 में आई अजय देवगन की फिल्म अपहरण राज्य के तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को समझने के लिए सटीक उदाहरण माना जाने लगा था।
और फिर नीतीश कुमार आए। नवंबर 2005 में वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। भाजपा के साथ गठबंधन वाली सरकार में नीतीश कुमार ने बिहार की अराजकता वाली छवि को बदलने में काफी हद तक सफलता हासिल की। मेनस्ट्रीम मीडिया में इस तरह की खबरें भी शुरू हुई कि नीतीश ने वो सब ठीक कर दिया है जो लालू और उनकी पार्टी ने बिगाड़ा था।
और फिर आया 2015 का बिहार चुनाव। नीतीश कुमार और लालू यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन कर भाजपा को रोकने के लिए एक साथ खड़े थे। वे कामयाब भी हुए। लेकिन इसमें जो गौर करने वाली बात थी, वह यह कि लालू यादव की पार्टी RJD को 80 सीटें मिलीं और नीतीश कुमार के JD(U) को 71। RJD का वोट शेयर 18.4% रहा, जबकि JD(U) का 16.8%। दोनों ही पार्टी के सदस्यों ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था।
इन नतीजों के बाद कुछ सवाल मेरे मन में आए। वह नेता जो ₹950 करोड़ के घोटाले में कन्विक्ट हो चुका है, लोगों के बीच इतना पॉप्युलर क्यों है? क्या ये सिर्फ अच्छी मार्केटिंग का नतीजा हो सकता है या बिहार में 1990-2005 के बीच कुछ ऐसी चीज़ें हुईं, जिसने लालू को बिहार का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया?
लालू प्रसाद यादव की एक बात काफी मशहूर हुई। वे अक्सर कहा करते थे, “भले ही मैं समाज के कमज़ोर तबके को स्वर्ग ना दे पाऊं, लेकिन स्वर तो ज़रूर दूंगा।” और अगर पत्रकारों और शिक्षाविदों की मानें तो लालू ने किया भी यही। शिक्षाविद जेफरी विटसो की मानें तो लालू की राजनीति, राज्य की संस्थाएं जैसे कि पुलिस और प्रशासन को जान-बूझकर कमज़ोर करने तथा पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथ में सत्ता देने की थी। ऐसा करने का मकसद साफ था कि बदले में वह नेता अपने क्षेत्र के पिछड़ी जाति के लोगों की मदद कर सके।
विट्सो 2002 से एक डेटा बताते हैं : पूरे बिहार कैडर में कुल 224 IAS अफसर में से अगड़ी जाति के 133 IAS अफसर थे, जिसमें ज़्यादातर भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूत थे। जबकि कुर्मी, कोयरी और यादव जो की 3 सबसे बड़े OBC समुदाय हैं, उन्हें मिला कर सिर्फ 7 थे। अगर विधानसभा में पिछड़ी जाति के प्रतिनिधित्व की बात करें तो तस्वीर तब बिल्कुल अलग थी। 234 विधायकों में से सिर्फ 54 उन 4 ऊंची जाति के थे और 100 तीन सबसे बड़े OBC समुदायों में से।
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कैरवां मैगज़ीन की एक रिपोर्ट की बात करें तो बिहार के बरबिघा में यादव समुदाय खुद को मनोवैज्ञानिक रूप से काफी सशक्त मानने लगे। लालू यादव के सत्ता में आने से पहले यादवों को भूमिहारों के घर के सामने से गुज़रते हुए अपनी चप्पल सर पर रखनी पड़ती थी। पुलिस भी पहले यादवों की शिकायत दर्ज करने में आनाकानी करती थी, लेकिन यह सब 1990 में लालू के सत्ता में आने के बाद बदल गया।
इंडिया टुडे के 1995 की एक रिपोर्ट में बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में 45 साल का एक भूमिहीन मज़दूर बताता है कि कैसे अब ज़मींदार के सामने उसे नतमस्तक नहीं होना पड़ता और अपना सर ज़मीन में नहीं लगाना पड़ता। उसने कहा, “मैं अब अपने ज़मींदार को देख कर यह नहीं करता, क्योंकि लालू ने ऐसा कहा।”
इतिहासकार ज्ञान प्रकाश Al Jazeera में अपने एक लेख में लिखते हैं, “मुख्यमंत्री के तौर पर वो डंके की चोट पर दलितों के पास गए। उन्होंने अपने बंगले का दरवाज़ा गरीब और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए खोल दिया। ऊंची जाति के लोगों के लिए यह ऑफिस का अपमान था, लेकिन लालू घर-घर में अब चर्चा का विषय थे।”
स्क्रोल में सबा नकवी अपने लेख में लालू के राज को कुछ यूं बताती हैं, “मेरे हिसाब से जो अराजकता लालू के राज में थी, वो पुरानी व्यवस्था को हिलाने के लिए जान-बूझकर फैलायी गई थी। ऊंची जाति का अपमान और पुरानी व्यवस्था का बहिष्कार, लालू की राजनीतिक और सामाजिक रणनीति का हिस्सा थे।”
ऊंची जातियों के द्वारा सदियों तक दमन के बाद पिछड़ी जातियों का मनोवैज्ञानिक तौर पर सशक्त होना शायद लालू यादव की राजनीति का सार था और शायद इसलिए बिहार की जनता लालू यादव को आज भी वोट करती है और उनके साथ खड़ी होती है।
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इस पूरे समुदाय के लिए आत्मसम्मान खोई हुई प्रतिष्ठा पाना सबसे ज़रूरी चीज़ थी, जो कि सदियों से चली आ रही बिहार की जातिवादी व्यवस्था ने उनसे छीन ली थी। और शायद लालू यादव, राज्य व्यवस्थाओं को कमज़ोर कर, पिछड़ी जाति के क्रिमिनल छवि वाले नेताओं को प्रोत्साहित कर और एक अराजकता का माहौल बना कर, उन्हें यही लौटाने में सफल हुए थे।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सबका सबसे बड़ा फायदा कुछ खास जातियों और वर्गों तक ही सीमित रह गया, जैसे- यादव। वो खुद भी शोषण करने लगे, जिसका दंश बिहार में आज भी देखने को मिलता है। लगभग 10 दिन पहले तेजस्वी यादव के विधानसभा क्षेत्र राघोपुर में ही यादव समुदाय के लोगों ने तथाकथित तौर पर ज़मीन विवाद में दलितों के घर में आग लगा दी। 1995 की इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक लालू यादव ने जातीय हिंसा, जो खासकर यादव समुदाय के लोगों द्वारा की जा रही थी, उसको नज़रअंदाज़ कर दिया। लेकिन बिहार के ज़्यादातर क्षेत्रों में लालू, OBC, दलित और मुस्लिमों के बीच गठबंधन बनाने में कामयाब रहे।
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2015 के चुनाव नतीजों के बाद लालू यादव का 1990 का वो भाषण ट्रेंड करने लगा, जिसमें वो आडवाणी को अयोध्या राम मंदिर बनाने को लेकर अपनी रथ यात्रा को समाप्त करने के लिए अपील कर रहे हैं। और इसके बाद आडवाणी को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। रातोंरात लालू मुस्लिम समाज के लिए एक हीरो बन गए थे।
1989 भागलपुर हिंसा के बाद मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से अलग हो रही था और उन्हें लालू के रूप में अपना नया नेता मिल गया था। हालांकि यह कहानी तो लालू की सेक्युलर छवि गढ़ने की सबसे मशहूर कहानी है, लेकिन ऐसे और भी कई किस्से हैं।
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स्क्रोल में एक पत्रकार ने लिखा है कि कैसे एक बार आधी रात के बाद भी लालू यादव ने सांप्रदायिक तनाव कम करने के लिए आम जनता का फोन उठाया।। वो सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इलाकों में खुद जाते थे और वहां की पुलिस को धमकाते थे कि अगर हिंसा हुई तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।
अपने पूरे राजनीतिक जीवन में लालू ने BJP के साथ गठबंधन करने की किसी भी संभावना को नकारा है। 1990 से 2017 के बीच के किसी भी इंटरव्यू में लालू ने हमेशा से यही कहा है कि BJP के साथ गठबंधन उनके लिए असंभव है।
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हालांकि ये सच है कि लालू के शासन में बिहार के कई हिस्सों में अराजकता का माहौल था, लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि उसी दौर में समाज के कई पिछड़े और शोषित वर्गों का भी उत्थान हुआ। और क्या वजह हो सकती है कि लाखों लोग एक ऐसे शख्स की पार्टी को वोट करेंगे जिस पर भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त होने का आरोप लगा है?
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