एक्ट्रेस वीना की पहचान होती थी बोलती आंखें और रौबीला चेहरा

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  • वीर विनोद छाबड़ा 

बोलती आंखें और रौबीला चेहरा एक्ट्रेस वीना की पहचान हुआ करती थीं। वीना बला की खूबसूरत भी थीं। फिल्मी दुनिया में एक नहीं सैकड़ों ऐसी दिलचस्प दास्तानें हैं, जब किसी आर्टिस्ट को टॉप का ताज मिलते-मिलते रह गया या हाथ से फिसल गया। एक्ट्रेस वीना का नाम ऐसे आर्टिस्टों की फेहरिस्त में शायद सबसे पहले ऊपर है। वो बहुत खूबसूरत थीं। उन्हें ‘इंडियन मोनालिसा’ भी कहा जाता था। मगर उनकी शख़्सियत का एक अन्य पहलू भी था, जो बहुत भारी पड़ता था। उनका अंदाज रॉयल यानी राजसी था। आवाज़ में हनक थी, चेहरा रौबीला था। जब वो किसी को तरेर कर देखतीं थीं तो अगला दहल जाता था। यानी स्पीकिंग बोलती आंखें।

शूटिंग के दौरान भी किसी को आजादी लेने की इजाजत नहीं थी। गौरव और सम्मान नंबर वन रखती थीं। एक बार ‘फूल’ (1945) की शूटिंग के दौरान हीरो पृथ्वीराज ने उनके कंधे पर हाथ रख दिया। वीना भड़क गयीं, पापा जी ये क्या है? पृथ्वीराज मुस्कुराये, डरो मत, ये एक्टिंग है। वो पृथ्वीराज का बहुत सम्मान करती थीं। उन दिनों वो पापा जी के नाम से प्रसिद्ध थे। उस फिल्म का एक स्टिल, जिसमें वो दोनों साथ-साथ खड़े थे, पापा जी को बहुत पसंद था। ये उनके ड्राइंग रूम की दीवार पर सालों तक टंगा रहा। लोग पूछते थे, शम्मी के साथ ये खूबसूरत लेडी कौन है? पापा जी हंस देते थे, अरे ये मैं हूँ, वीना के साथ।

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बात खूबसूरती की चली है, तो उल्लेख करना ज़रूरी है कि उनके एक्टर पति अल नासिर ने जब एक शेर का शिकार किया और प्रेस को इस कारनामे को दिखाने के लिए बुलाया तो प्रेस वालों की दिलचस्पी शेर में कम और ‘शेरनी’ यानी वीना में ज़्यादा थी। नाडियाडवाला की ‘ताजमहल’ (1963) उनकी पहली रंगीन फ़िल्म थी जिसमें वो नूरजहां के किरदार में थीं। उनकी रॉयल खूबसूरती के सामने मुमताज़ महल (बीना रॉय) भी फ़ीकी पड़ गयीं थीं। ‘छोटी सी मुलाक़ात’ (1967) में वो वैजयंतीमाला की मां के किरदार में थीं जो पुराने रस्मों-रिवाज़ को तोड़ने के हक़ में थीं। जब शूटिंग पर वीना सज-धज कर आयीं तो वैजयंती सहित तमाम लोगों की आँखें चौंधिया गयीं, हीरोइन कौन है?

वीना, उनका असली नाम नहीं था। वो जब 4 जुलाई 1926 को बलूचिस्तान के क्वेटा में जन्मी थीं तो ताजवर सुल्ताना थीं। पिता रेलवे में थे, शहर-शहर घूमना होता था। उनका एक भाई फिल्मों में असिस्टेंट कैमरामैन था, शहज़ादा इफ़्तेख़ार। वो तब अमृतसर के एक गर्ल्स हॉस्टल में रह कर इंटरमीडियट कर रही थीं। पंजाबी फिल्म ‘गवांडी’ (पड़ोसी) के लिए हीरोइन का इश्तेहार देख कर उनकी टीचर ने दरख़्वास्त भेजी। बातचीत के लिए डायरेक्टर गर्ल्स हॉस्टल में मिलने आये, साथ में कैमरामैन भी था जो इत्तिफ़ाक़ से वीना का भाई शहज़ादा था। ठीक से पंजाबी न बोल पाने की वज़ह से बात बनी नहीं। ताज ने दिल से सवाल किया, मुझ पंजाबन में क्या कमी है? धारावाह पंजाबी बोलती हूं। उन्होंने भाई से बात की। थोड़ी-बहुत ना-नुकुर के बाद भाई मान गया। और इस तरह वो ‘गवांडी’ की हीरोइन बन गयीं और साथ ही ताजवर से वीना। शूटिंग के लिए हॉस्टल से चोरी-चोरी निकल कर लाहोर जाना पड़ा। इसी दौरान ‘रावी पार’ मिल गयी, जिसके हीरो सत्यदेव यानी एसडी नारंग थे जो कालांतर में मशहूर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर बने। मगर घरवालों को जब पता चला तो उन्हें बहुत ख़राब लगा। प्रोड्यूसर के घर धावा बोला, प्रिंट जला दो। मगर ये नामुमकिन था। तब वीना को घर में क़ैद कर लिया गया। उसकी शादी करने की कोशिश की गयी। लेकिन वीना ने विद्रोह कर दिया। वो बहुत स्ट्रांग लेडी थीं। भाई के साथ लाहोर से दिल्ली आ गयीं। पहली फिल्म मिली मज़हर खान की ‘याद’ और अभी फ़िल्म बीच में थी कि महबूब खान ने उन्हें ‘नजमा’ के लिए साइन कर लिया। ‘याद’ हिट हुई, लेकिन नजमा सुपर हिट। ‘फूल’ (1945) में वो टॉप क्लास हीरो पृथ्वीराज के साथ आयीं। टॉप क्लास एक्ट्रेस में उनका नाम दर्ज हो गया।

महबूब की हुमायूँ’ (1945) में उन्होंने एक उग्र राजपूतानी राजकुमारी के किरदार में अशोक कुमार और नरगिस को पीछे छोड़ा। ‘पहली नज़र’ (1945) में वो मोतीलाल के साथ रोमांटिक लीड में थीं। मुकेश ने अपना पहला गाना ‘दिल जलता है तो जलने दे…’ इसी में गाया था। यानी अब तक वीना उस दौर के तमाम टॉप हीरो के साथ काम कर चुकी थीं। उनके हुस्न और रॉयल रोबीली आवाज़ के सब कायल हो चुके थे। उनको नज़र में रख कर रोल लिखे जाने लगे। मिस्ट्री थ्रिलर ‘अफ़साना’ बीआर चोपड़ा की पहली डायरेक्टेड मूवी थी जिसमें अशोक कुमार का डबल रोल था। वीना ने इसमें यादगार परफॉरमेंस दी। एआर कारदार की ‘दास्तान’ (1950) में वीना का एंटी-हीरोइन का एक नया रूप देखने को मिला। राज कपूर-सुरैया के प्रेम को एक भयावह स्कीम के अंतर्गत तबाह कर दिया और अंत में उन्हें सब छोड़ कर चले गए, बेपनाह धन-दौलत के साथ हवेली में वो अकेली ही रह गयीं।

एमजीएम की ‘एनहांसमेंट’ पर आधारित ‘दास्तान’ उस दौर की सबसे कामयाब फिल्म रही बल्कि ओरिजिनल से बेहतर भी। वीना के एंटी-हीरोइन के किरदार की बहुत तारीफ़ भी हुई। लेकिन उन्हें नुक्सान भी बहुत हुआ। उनकी इमेज ख़राब हो गयी। बकौल प्रोड्यूसर्स अब ऑडियंस उन्हें करैक्टर रोल्स या सेकंड लीड में देखना चाहती है। ‘कागज़ के फूल’ में छोटे से रोल में अमीर वीना गुरुदत्त की पत्नी हैं जिन्हें गुरू का फिल्मों से वास्ता इतना नापसंद है कि न सिर्फ़ उसकी ज़िंदगी नर्क करती है बल्कि बेटी तक से मिलने पर पाबन्दी लगा देती है। ‘ताज महल’ (1963) वीना नूरजहां के किरदार में थीं। वो इससे पहले भी नूरजहां का किरदार कर चुकी थीं, मगर ये वाला किरदार ज़्यादा चुनौती वाला था। नशे में डूबे रहने वाले जहांगीर की बजाये हुकूमत वो चलाती थीं। प्रदीप कुमार-बीना रॉय से ज़्यादा उन्हें भाव मिले। बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला। 1967 में शेख मुख़्तार ने उन्हें ‘नूरजहां’ के लिए साइन किया। लेकिन इस बार नूरजहां के लिए नहीं बल्कि नूरजहां की मां के किरदार के लिए। उन्होंने इसे इस हिचक के साथ स्वीकार किया कि पब्लिक उन्हें नूरजहां की मां के रूप में स्वीकार नहीं करेंगी। अच्छा ही हुआ वो फिल्म देखने नहीं गयीं, वरना उन्हें अफ़सोस होता कि टैलेंट बर्बाद हुआ। ‘आशीर्वाद’ (1968) में वीना को फिर आततायी पत्नी का किरदार मिला, जो गरीबों की ज़मीन हड़प लेती है। पति (अशोक कुमार) उसकी इस घिनौनी हरकतों से परेशान होकर कभी न लौटने के लिए घर छोड़ देता है।

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कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ (1973) में वो कोठेवाली नवाब जान थीं जिसने साहिब जान (मीना कुमारी) को पाला-पोसा और मशहूर तवायफ़ बनाया और एक दिन नवाब शहाबुद्दीन को बताया कि वो जिसका मुजरा देख रहे थे, वो उनकी ही बेटी है। कमाल अमरोही की ‘रज़िया सुलतान’ (1983) वीना की आखिरी फिल्म थी जिसमें वो शहंशाह इल्तुमिश की साज़िश रचने वाली बीवी थीं। बावजूद इसके कि वीना ने अनेक एंटी-हीरोइन किरदार किये मगर उन पर खलनायिका का तमगा कभी नहीं लगा। मगर रोबीली और कठोर औरत की इमेज के रहते उन्हें ममतामई मां के किरदार नहीं मिले। लेकिन राजखोसला ने ‘दो रास्ते’ में इस मिथक को तोड़ते हुए उनसे करुणामई मां का किरदार कराया जिसमें वो बहुत क़ामयाब। इससे पहले वो एक कॉमेडी ‘चलती का नाम गाड़ी’ (1958) में अशोक कुमार की प्रेमिका का किरदार कर चुकी थीं। इस फिल्म की हीरोइन मधुबाला थी। शूटिंग के दौरान मधुबाला ने वीना से कहा था, तुम अपने पति की मौत के सदमे से उबर चुकी हो लेकिन मैं इतनी बदनसीब हूँ कि मेरा पति ज़िंदा होते हुए भी मेरे लिया मरा हुआ है। मधुबाला का ईशारा दिलीप कुमार के लिए था।

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वीना ने 1947 में अपनी मशहूरी की चोटी पर रहते हुए शादी की। बहुत लोगों को हैरानी हुई। उनके अभिनेता पति अल नासिर की ये चौथी शादी थी। मगर वीना को नासिर पर यक़ीन था। अल नासिर भोपाल के नवाबी खानदान से ताल्लुक रखते थे और बहुत बहादुर भी थे। शादी के बाद वीना और अल नासिर जूनागढ़ से बॉम्बे आ रहे थे। वो पार्टीशन के दिन थे। दंगाइयों ने ट्रेन को रास्ते में रोक कर घेर लिया। मना करने के बावजूद अल नासिर ने डिब्बे का दरवाज़ा खोल कर दंगाईयों को चैलेंज किया। लेकिन दंगाई उन्हें देखते ही बोले, अरे ये तो अल नासिर है, जाने दो। वीना की ज़िंदगी बहुत सकून से गुज़र रही थी। दो बच्चे हुए, बेटा और बेटी। मगर अचानक ही नासिर का 1957 में इंतक़ाल हो गया, टिटनस की वज़ह से।

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वीना को हालांकि सिनेमा ने बहुत इज़्ज़त दी और उनका नाम बेस्ट एक्ट्रेसेस में शुमार होता है और ख़ासकर जब खूबसूरती का ज़िक्र चलता है तो उन्हें ज़रूर याद किया जाता है। और शायद वो बहुत ऊंचे मुकाम पर होतीं, अगर उनका कोई ‘गॉडफादर’ होता। के.आसिफ़ की ‘मुगले आज़म’ की सबसे पहली अनारकली वीना ही थीं। मगर पार्टीशन हो गया। फाइनैंसर शीराज़ अली हक़ीम पाकिस्तान चले गए। और कई बरस बाद जब फिल्म दोबारा शुरू हुई तो वीना उसमें नहीं थीं। महबूब की ‘मदर इंडिया’ की ओरिजिनल राधा वीना थी, और बेटा बिरजू बने थे दिलीप कुमार। लेकिन नरगिस ने बहुत जोर लगा कर राधा का रोल उनसे छीन लिया। दिलीप कुमार ने विरोध किया तो वो भी हटा दिए गए। सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी’ की पहली चॉइस भी वीना थीं। मगर मोदी की पत्नी मेहताब को लालच आ गया। नतीजा वीना ड्राप हो गयीं। दिलीप कुमार के अपोज़िट ‘बाबुल’ और ‘उड़न खटोला’ की सेकंड लीड वीना को ऑफर हुईं, मगर व्यस्तता के चलते उन्हें ना करनी पड़ी। बाद में वो किरदार क्रमशः मुनव्वर सुल्ताना और सूर्या कुमारी की झोली में गए। महबूब ने जब दिलीप कुमार-राज कपूर के साथ ‘अंदाज़’ प्लान की तो वीना ने उनसे रोल माँगा। लेकिन महबूब ने उन्हें ये कह कर मना कर दिया कि ये नए लड़के हैं, फिल्म भी छोटे बजट की है और तुम्हारा क़द बहुत बड़ा है। लेकिन उन्होंने नरगिस को ले लिया और ये फिल्म तो हिस्ट्री बन गयी। इसके अलावा भी कई बड़े प्रोजेक्ट्स में वीना का नाम आया, लेकिन बदकिस्मती से शुरू ही नहीं हो पाए। और फिर ज़िंदगी में हर किसी को तो मुकम्मल जहानजहाँ मिलता नहीं है।

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14 नवंबर 2004 को एक छोटी सी ख़बर दूरदर्शन ने टेलीकास्ट की कि रॉयल किरदारों को उनकी ऊंचाई तक ले जाने में महारत रखने वाली वीना लम्बी बीमारी के बाद इंतक़ाल फ़रमा गयीं हैं।

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