प्रभात खबर ने बंगाल में हिन्दीभाषियों के हित की चिंता की

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प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क
आप पढ़ रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की धारावाहिक कड़ियां। आज के अंश का प्रसंग कोलकाता में प्रभात खबर की हिन्दीभाषियों की मांगों को लेकर अभियान पर आधारित है

मेरे पत्रकारिता जीवन का कोलकाता माइल स्टोन रहा है। संबंध, सरोकार, कैरियर और काम का जितना अवसर-अनुभव कोलकाता ने दिया, अब तक के पत्रकारीय जीवन में उतना शायद ही हासिल हुआ। इसलिए आज भी मेरा मानना है कि कोलकाता संबंध और सरोकार का शहर है। पत्रकारीय जीवन में कोलकाता को दो बार पड़ाव बनाया। पहली बार 1991 में जनसत्ता के लिए चयनित होकर गया और मार्च 1995 तक जनसत्ता के साथ रहा। अप्रैल 1995 से मई 1997 तक प्रभात खबर समूह के अनुषंगी प्रकाशन साप्ताहिक कारोबार खबर के साथ रहा। यानी पहली बार में लगातार 1991 से 1997 तक रहा। दो-ढाई साल के विराम के बाद वर्ष जनवरी 2000 में प्रभात खबर के प्रकाशन के लिए कोलकाता को दूसरी बार पड़ाव बनाया।

कोलकाता से प्रभात खबर के प्रकाशन के पूर्व ग्राउंड वर्क इतना पुख्ता किया था कि अगर अब अखबार बड़ा बन गया है तो इसके पीछे वही ग्राउंड वर्क है। कोलकाता में मैंने बांग्ला अखबारों के बारे में जाना-समझा तो हिन्दी के अखबारों के कंटेंट-कलेवर का अध्ययन किया। तब बांग्ला अखबारों में एक खूबी देखी कि अगर बंगाल से बाहर कोई घटना-दुर्घटना हो जाये और उसका कोलकाता कनेक्शन बन रहा हो तो खबर की हेडिंग बनती थी- कश्मीर में बस पलटने से चार पर्यटकों की मौत, उनमें दो बंगाली। मैंने इसी सूत्र को पकड़ा और प्रभात खबर को किसी भाषा सेतु का अखबार बनाने के बजाय सिर्फ और सिर्फ हिन्दीभाषियों का अखबार बनाने की कल्पना की।

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अखबार का प्रवेशांक का विषय रखा- बंगाल में नरक की जिंदगी जी रहे हिन्दीभाषी। आवरण कथा तब के कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. अमरनाथ के एक लेख को बनाया। उनका लेख किसी छोटी पत्रिका में छपा था। मैंने उसे कवर स्टोरी बनाया। उनका लेख किसी छोटी पत्रिका में छपा था। मैंने उसे संभाल कर रखा था। तब बंगाल में वाम मोरचा की सरकार थी। विपक्षी नेताओं से बंगाल में बसे हिन्दीभाषियों की समस्याओं पर लिखवाया। सरकार से संतुलन बनाये रखने के लिए वाममोरचा के नेताओं के लेख भी उस परिशिष्ट में समाहित किये। पहले दिन के अखबार का स्वर सीधा और साफ था कि हम हिन्दी के अखबार हैं तो हिन्दीभाषियों की मुखर आवाज बनेंगे।

हिन्दीभाषियों में इसका अच्छा संदेश गया। सरकार से भी रिश्ते बिगड़े नहीं। अखबार के संतुलित चरित्र के कारण प्रभात खबर को बड़ा फायदा हुआ। 31 अक्तूबर 2000 को अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ था और अप्रैल 2001 में बिना छह माह पूरे किये राज्य सरकार ने विज्ञापन के पैनल में इसे शामिल कर लिया। उसी साल विधानसभा के चुनाव हुए तो हर पार्टियों के विज्ञापन प्रभात खबर को मिले। ऐसा इसलिए हुआ कि अखबार सभी दलों के साथ संतुलन बना कर चल रहा था।

हिन्दीभाषियों के हक की दो लड़ाइयां प्रभात खबर ने शिद्दत से लड़ीं। एक घटना याद आती है। कोलकाता नगर निगम के चेयरमैन सुब्रत मुखर्जी होते थे। उन्होंने एक बयान में कहा कि गंगासागर स्नान के लिए बाहर से जो लोग आते हैं, वही सर्वाधिक गंदगी फैलाते हैं। प्रभात खबर ने इसे मुद्दा बनाया। बाहर से आने वाले अधिकतर तीर्थयात्री हिन्दी प्रदेशों को होते थे। इस पर लोगों की प्रतिक्रिया का अभियान चलाया। सुब्रत मुखर्जी को बड़ाबाजार इलाके से चुनाव लड़ना था। शायद लोकसभा का चुनाव था। उनके खिलाफ सुदीप बंद्योपाध्याय थे। सुब्रत दा को चिंता थी कि हिन्दीभाषी बाहुल्य बड़ाबाजार में अखबार से उनकी छवि खराब हो रही है। उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता विजय उपाध्याय से संदेश भेजवाया कि संपादक से मिलना है। मैं उनके साथ ही कार्पोरेशन आफिस गया। वहां जाने पर पता चला कि हमें ही नहीं, बल्कि तमाम हिन्दी अखबारों के संपादकों को उन्होंने बुलाया है। मन तो वहीं से खिन्न हो गया।

बहरहाल, उनके साथ सभी बैठे। हिन्दी के संपादकों ने उनके कशीदे पढ़ने शुरू किये। आपको तो सीएम की कुर्सी पर होना चाहिए। किसी ने कहा कि आपको दिल्ली जाना चाहिए। वे खुश हो होते-इतराते रहे। मैं चुपचाप बैठा रहा। चाय-नाश्ते के बाद आखिर में उन्होंने एक पेशकश की कि आप लोग प्रेस और दफ्तर के लिए जमीन ले लीजिए। बैठक के बाद सभी विदा हो गये। लौटते समय सुब्रत मुखर्जी ने मुझसे कहा- चुनाव सामने है। अब मत लिखिए। मैंने भी उन्हें हामी भर दी। ऐसा इसलिए किया कि पहली बार हिन्दी अखबार की खबर पर किसी नेता ने नोटिस लिया था। मैं तो इसी में खुश था। मैंने लौट कर एक खबर बनायी, जिसमें बैठक की बतकही और उनके प्रस्ताव का आंखोंदेखा वर्णन था। जमीन के बारे में मैंने हरिवंश जी से सलाह ली तो उन्होंने साफ मना कर दिया। कहा कि भूल कर भी ऐसा मत करना। कल तक तुमने अभियान चलाया और आज से खामोश हो गये हो। अब अगर जमीन का आवेदन दोगे तो लोग यही कहेंगे कि जमीन के लिए ही तुमने यह सब किया था। प्रभात खबर को जमीन नहीं मिली, लेकिन शायद दूसरे हिन्दी अखबारों ने जमीन अलाट करा ली। चुनाव हुआ तो सुदीप बंद्योपाध्याय जीत गये।

हिन्दीभाषियों की दूसरी लड़ाई उनके बच्चों की जरूरत को लेकर थी। बंगाल में हिन्दीभाषी बच्चे मैट्रिक और इंटर की पढ़ाई तो हिन्दी भाध्यम से कर लेते थे, लेकिन उन्हें परीक्षा का प्रश्नपत्र हिन्दी में नहीं मिलता था, जबकि नेपाली लोगों की कम आबादी के बावजूद उन्हें उनकी भाषा में प्रश्नपत्र दिये जाते थे। प्रभात खबर ने इसको लेकर अभियान चलाया। 2001 में विधानसभा चुनाव का समय था। वाममोरचा के चेयरमैन विमान बोस ने संदेशा भेजवाया मिलने के लिए। मैं अलीमुद्दीन स्ट्रीट वाम मोरचा के मुख्यालय गया। उन्होंने कहा कि चुनाव का टाइम है। आप जो कैंपेन चला रहे हैं, उसका उल्टा असर पड़ेगा। मैंने अपने ढंग से उनको समझाया और वह न सिर्फ मान गये, बल्कि कहा कि मेरे नाम से आप खबर बना लीजिए कि वाम मोरचा की इस बार सरकार बनी तो हिन्दी में प्रश्नपत्र देने पर गंभीरता से विचार किया जायेगा। प्रभात खबर में एक्सक्लूसिव लीड खबर छपी। अब तो हिन्दी में प्रश्नपत्र मिलने भी लगा है।

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