नया कोई गुल खिलायेगा तेरा-मेरा मिलना, बसपा-सपा का गठबंधन

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लखनऊ। गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में प्रयोग के तौर पर बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) जिस फार्मूले को आजमा कर भाजपा लहर को दो साल पहले कुंद कर दिया था, उस ट्रेलर की असली फिल्म इस बार लोकसभा चुनाव में दिखेगी। बसपा-सपा गठबंधन ने बराबर-बराबर (38-38) सीटों के बंटवारे के साथ जिस गठबंधन का ऐलान किया है, वह राजनीतिक परिणाम की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। यह सभी जानते हैं कि संसद पर सत्तानशीन होने का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर ही गुजरता है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं तो बिहार में 40 और बिहार का ही कभी हिस्सा रहे झारखंड में 14 सीटें। यानी अविभाजित बिहार और उत्तर प्रदेश की सीटों को मिला दें तो 134 सीटें होती हैं, जो लोकसभा की 543 सीटों की एक चौथाई हैं।

वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में चार ध्रुव थे। कांग्रेस अलग थी तो सपा और बसपा अलग। भाजपा परिवर्तनकारी लहर में अकेले सबसे बड़ी पार्टी थी। बिहार में भी तीन बड़े ध्रुव- राजद, जदयू और भाजपा थे। तब जनता के मन में सत्ता विरोधी लहर यानी कांग्रेस से मुक्ति की छटपटाहट थी। महंगाई और बेरोजगारी तब भी बड़े मुद्दे थे। 2014 के चुनाव के नतीजो का विश्लेषण करें तो प्रथमृदष्टया यही सामने आयेगा कि जब ज्यादा ध्रुव बने तो भाजपा ताकतवर होकर उभरी। मोदी का हिन्दुत्वकारी चेहरा और गुजरात के विकास को माडल के तौर पर पेश कर भाजपा जनता को यह सब्जबाग दिखाने में कामयाब रही कि मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही देश का नक्शा बदल जायेगा। यानी विकास सिर चढ़ कर बोलेगा। मोदी के उस भाषण ने, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश का काला धन विदेशों से लाने की पहल उनकी सरकार करेगी और अगर वह धन आ गया तो देश के हर आदमी के खाते में कम से कम 15 लाख रुपये आ जायेंगे। इस भाषण ने लोगों में उम्मीद की ऐसी किरण पैदा कर दी कि सभी सपने देखने लगे और आंख मूंद कर पूरा देश सारी सीमाएं तोड़ कर मोदी के समर्थन में खड़ा हो गया।

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मोदी की सरकार बन तो गयी, लेकिन इस सरकार के अनुभव काफी खट्टे रहे। नोटबंदी जिस तर्क के साथ लागू की गयी, वह निहायत नौटंकी के सिवा कुछ भी नहीं दिखी। महंगाई, नये टैक्स स्ट्रक्चर (जीएसटी) और बेरोजगारी की पहले से जड़ जमा कर बैठी बेरोजगारी ने और विकराल रूप धारण कर लिया। सामाजिक ताना-बाना इस कदर बिखरा कि हिन्दू-मुसलमान, सवर्ण-दलित जैसे खांचे में बंट कर लोग एक दूसरे के दुश्मन बन गये। काला धन तो लौटा नहीं, उल्टे आर्थिक भगोड़ों के नये-नये मामले सामने आने लगे। सीबीआई, सीवीसी, रिजर्व बैंक जैसे संस्थान भी खांचों-गिरोहों में बंट गये और सवालों के घेरे में आ गये।

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इस बार लोकसभा की लड़ाई दो ध्रुवीय बन रही है। बिहार में एनडीए और महागठबंधन की जंग है तो उत्तर प्रदेश में गठबंधन और एनडीए के बीच सीधी लड़ाई है। बंगाल में भी विपक्षी गठबंधन की संभावना अभी बरकरार है। भाजपा शासन के फेल कर चुके वादे विपक्ष के पास बैठे-बिठाये मुद्दों की तरह उपलब्ध हैं। इसलिए विपक्षी दलों के गठबंधन भारतीय राजनीति में नया कोई गुल खिला दें तो आश्चर्य की बात नहीं।

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