शिव देवाधिदेव महादेव कैसे बने, शिवरात्रि के मौके पर पढ़ें रोचक कथा

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शिव देवाधिदेव महादेव कैसे बने, शिवरात्रि के मौके पर यह जानना चाहिए। कभी उनकी पूजा सिर्फ आदिवासी जातियां ही करती  थीं। वे सर्वहारा के देवता थे।
शिव देवाधिदेव महादेव कैसे बने, शिवरात्रि के मौके पर यह जानना चाहिए। कभी उनकी पूजा सिर्फ आदिवासी जातियां ही करती  थीं। वे सर्वहारा के देवता थे।
  • अशोक त्रिपाठी

शिव देवाधिदेव महादेव कैसे बने, शिवरात्रि के मौके पर यह जानना चाहिए। कभी उनकी पूजा सिर्फ आदिवासी जातियां ही करती  थीं। वे सर्वहारा के देवता थे। आज जिस भगवान शंकर की घर-घर में पूजा होती है, जो पुरुषों और नारियों में समान रूप में पूजित हैं, एक जमाने में उनकी पूजा सिर्फ आदिवासी जातियां ही करती  थीं। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार- “शिव” तमिल भाषा का शब्द है। “तमिल पुराण” में तमिल भाषा की उत्पत्ति “शिव” से मानी जाती है। यह शब्द प्राचीन काल में ही “आर्य भाषा” में प्रवेश कर चुका था। इसी के आधार पर लोग दक्षिण भारत में शिव का प्रभाव अधिक मानते हैं। वैसे हिन्दू संप्रदाय में शिव का महत्वपूर्ण स्थान है। आज भारत के सभी अंचलों में शिव की पूजा बड़े धूमधाम से होती है। वैष्णव, शाक़्त सभी शिव की पूजा करते हैं।

ऋग्वेद में “शिव” शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। वहां शिव की जगह “रूद्र” हैं। रूद्र का नाम देवताओं की श्रेणी में आया है। इसमें कहा गया है कि रूद्र के हाथों में “वज्र” है। वे धनुष-वाण भी धारण करते हैं। प्राचीन काल में रूद्र की गणना संहारकों में होती थी। देवता रूद्र से प्रार्थना करते हैं कि वे इनका नाश न करें। देवताओं की प्रार्थना सुनकर “रूद्र” निरपराध लोगों की हत्या बंद कर देते हैं। और, वहीं से उनका नाम “पशुपति” के रूप में समाज के सामने आता है। गौरतलब है कि शिव का एक नाम “पशुपतिनाथ” भी है। पशुपति का अर्थ “पशुओं के रक्षक” के रूप में आया है। वैदिक काल के लोग “रूद्र” से काफी भयभीत रहते थे। इसीलिए ऋग्वेद में कहा गया है- हे रूद्र! क्रोधवश हमारे बच्चों, वंशजों, मनुष्यों और अश्व (घोड़ों) का विनाश मत करो। हम तुम्हारा आवाहन करते हैं। इसके बाद ही देवता के रूप में “शिव” को प्रसिद्धि मिली।

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“शतरुद्रीय” में रूद्र अनेक रूपों में समाज के सामने आते हैं। इनमें उनका विकसित रूप मिलता है। शिव के मंगलमय रूप और क्रोधी स्वभाव की व्याख्या “शतरुद्रीय” में ही मिलती है। कहा जाता है कि शिव खुले मैदान में  विचरण करते थे। खुले मैदान में ही पशुओं का रहना होता था। इस तरह पशु उनके अधिकार में थे। खुले मैदान में पशुओं पर राजत्व ने शिव को “पशुपति” बना दिया। शिव को “दिशाओं का पति” भी कहा गया है। उनका एक नाम “कपिर्दन” भी है। जब उनका गुस्सा शांत हो जाता है, तब वे शम्भू, शंकर और शिव बन जाते हैं। पुराण साहित्य में ऐसा उल्लेख मिलता है कि शिव चमड़ा पहनते थे। प्राचीन काल में ही शिव को नीची जातियों का देवता माना गया। शिव “सर्वहारा” के देवता थे। कहा जाता है कि कुम्हार, रथकार, निषाद और तक्षकों (नाग जातियों) से उनके गहरे संबंध थे।

अथर्व वेद में परिस्थितियां बदलीं। रूद्र को महिमामंडित किया गया। अथर्व वेद के अनुसार- रूद्र जल, आग, औषधि और वनस्पतियों में व्याप्त हैं। धनुष चलाने में उनके समान दूसरा कोई नहीं है। उनकी हजार आंखें हैं। कोई भी देवता या मानव रूद्र के प्रहार को नहीं झेल सकता। श्वेताश्व तर उपनिषद में रूद्र को “देव” कहा गया है। “शतपथ ब्राह्मण” और “कौशितकी ब्राह्मण” में रूद्र को उषा का पुत्र स्वीकारा गया। शिव विनाश भी करते हैं और कल्याण भी। प्राचीन ग्रंथों में इनके अलग-अलग नाम गिनाए गए हैं। विनाशकारी शक्ति के रूप में शिव का नाम रूद्र, उग्र और अशनि गिनाया गया है। अंतिम चार यानी भव, पशुपति, महादेव और ईशान शिव का कल्याणकारी रूप है।

वैदिक साहित्य में शिव के आठ नामों के अलावा पांच और नाम गिनाए गए हैं। वे हैं- हर, मृड, शिव, भीम और शंकर। “पारस्कर गृहय सूत्र” में कहा गया है कि नदी पार करते समय, चौराहों पर पहुंचते समय, नाव पर चढ़ते समय, जंगल में प्रवेश करते समय, पर्वत पर चढ़ते समय, श्मशान और गौशाले के पास से गुजरते समय आत्मरक्षा के लिए रूद्र यानी शिव की वंदना करनी चाहिए।

महाभारत में शिव का आदिस्थान “मेरु पर्वत” बताया गया है। महाभारत में ही इनका निवास स्थान मुंजवान पर्वत भी कहा गया है। मुंजवान पर्वत कैलाश के ऊपर है। विष्णु पुराण के अनुसार मेरु और हिमालय पर्वत एक ही है। यह भी कहा जाता है कि शिव की नगरी काशी है। पौराणिक ग्रंथों में काशी के साथ शिव का संबंध काफी प्राचीन बताया गया है, किंतु ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि काशी में पहले यक्षों का रहना होता था। बाद में यक्षों के साथ शिव गणों का भयंकर युद्ध छिड़ गया। यक्ष हार गए और शिव ने काशी पर अपना कब्जा जमा लिया। बचे-खुचे यक्षों ने शिव को ही अपना स्वामी मान लिया। तब से शिव वहीं रहने लगे। काशी के यक्ष शैव हो गए।

शिव की पूजा प्रतिमा और लिंग दोनों रूपों में की जाती है, किंतु अधिकतर जगहों पर उनका लिंग रूप ही प्रधान है। वास्तव में लिंग पूजा की प्रधानता बाद के वर्षों में हुई। पतंजलि के समय तक लिंग पूजा का प्रचलन नहीं हुआ था। पाणिनि के सूत्रों में शिव की प्रतिमा पूजा का उल्लेख मिलता है। पाणिनि के समय तक शिव पूजा में “प्रतीक” का प्रयोग नहीं हुआ था। पतंजलि के समय तक भारतीय संस्कृति में शिव की स्थापना हो चुकी थी। “शिव संप्रदाय” के लोग अपने को “शिव भागवत” कहते थे। शिव भक्त शिव की तरह त्रिशूल धारण करते थे। अथर्व वेद में शिव का दूसरा नाम “भागवत” भी है।

गुप्तकाल आते-आते शिव का अनेक रूपों में आगमन हुआ। उसी काल में एकमुखी, दोमुखी तथा चारमुखी के अलावा आठमुखी शिव लिंग बने। गुप्त काल की प्रतिमाओं में शिव का मानवीकरण हुआ। इसके अलावा विष्णु धर्मोत्तर पुराण, बृहत संहिता और दूसरे कई पुराणों में भी शिव का “मानवीकरण” किया गया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार महादेव को बैल पर सवार होना चाहिए। उनका रंग सफ़ेद है। उनके दस हाथ हैं। दाहिनी तरफ की पांच भुजाओं में वे अक्ष माला, त्रिशूल, दंड, नीलकमल और एक बड़ा सर्प धारण किए हैं। बाईं भुजाओं में मातु लुंग धनुष, दर्पण, कमंडल और चर्म हैं। बृहत संहिता में शिव की मूर्ति के मस्तक पर चन्द्रमा बनाने का नियम है।

इसके अलावा ध्वजा में वृष, ललाट में तीसरा नेत्र, एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में पिनाक धनुष बनाने की परंपरा विकसित हुई। गुप्तकाल में ही शिव के भिक्षाटन, दक्षिण मूर्ति, वीर भद्र, अर्जुनाग्रह, नटराज, भैरव और एकपाद आदि रूपों को कला में उतारा गया। गुप्तकाल तक भारतीय हिन्दू समाज में शिव की पूजा अनेक रूपों में मौजूद थी। गुप्तकाल में भी शिव की पूजा लिंग पूजा के रूप में अधिक होती थी। शिव पूजा का अधिक महत्त्व काशी, उज्जैन, मथुरा, मंदसौर, राजगीर, मुंडेश्वरी (भभुआ, बिहार) आदि में दिया जाता था।

भारतीय जन मानस पर शिव का प्रभाव इतना अधिक पड़ चुका था कि साहित्यकार, लेखक और कवि भी इससे अछूते नहीं बचे। महाकवि कालिदास शिव से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने “कुमारसंभव” की रचना कर डाली। इसमें शिव-पार्वती की प्रेम कहानी है। शिव की चर्चा शिव-पार्वती, हर-गौरी आदि अनेक रूपों में मिलती है। उनका अर्द्ध नारीश्वर रूप भी समाज में स्वीकृत है। कालिदास ने “रघुवंश” शिव-पार्वती को वाणी और अर्थ के समान मिले हुए कहा है।

बाद के साहित्य में अनेक उतार-चढ़ाव आए। समय बदलने के साथ ही वैष्णवों, शाक्तों और शैवों के बीच लड़ाई शुरू हो गयी। गोस्वामी तुलसीदास ने इनको मिलाने का प्रयास किया। उन्होंने अपने “राम चरित मानस” में राम से शिव की और शिव से राम की पूजा कराई। यानी शैव और वैष्णव में बिगड़े संबंधों को जोड़ा। इस तरह सर्वहारा के उपासक “शिव” भारतीय संस्कृति के अटूट अंग बन गए।

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