राजनीति में सार्वजनिक मर्यादा का क्षरण, कहीं हताशा की वजह तो नहीं

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नयी दिल्ली। राजनीति में भाषा और गरिमा का स्तर लगातार गिर रहा है। बोल-बयान में निजी हमले हो रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप के गिरते स्तर से सभ्य समाज आहत है। समाज शास्त्री इस पर चिंता व्यक्त करते हैं। रजनी कोठारी अक्सर कहा करते थे कि सत्ता में बड़ा आकर्षण होता है। यह जितना सुख लेकर आती है, उतना ही राजनीतिक जमीन को कमजोर होने का एहसास करा जाती है। वे कहते थे कि जिसके पास सत्ता होती है, वह अपनी कमजोरी छिपाने के लिए विपक्ष पर हमलावर होने में मर्यादा भूल सकता है। ऐसा ही विपक्ष के साथ होता है। विपक्ष जवाब में उतना ही धारदार होता जाता है। इतना ही नहीं, जिसके पास सत्ता होती है, उसके विरुद्ध विपक्ष में मौजूद दल भी सत्ता में हिस्सेदारी और अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए एकजुट होते चले जाते हैं।

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पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1984 साल में ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त कर सरकार बनाई थी, लेकिन जब उन पर बोफोर्स घोटाले की तोहमत वीपी सिंह ने लगाई तो वे अपना आपा खो बैठे थे। उन्होंने संसद में वीपी सिंह को निशाना बनाया। वीपी सिंह को जयचंद और मीरजाफर तक कह डाला था। शायद उन्हें एहसास हो गया था कि सत्ता की लगाम अब दूर जा रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण का लोकसभा में जवाब देते हुए 7 फरवरी को कुछ ऐसा ही संकेत दिया। पहली बार प्रधानमंत्री ने अगली सरकार के गठबंधन वाली सरकार होने की संभावना जताई। हालांकि भाजपा ने अबकी बार फिर मोदी सरकार का नारा दिया है।

प्रधानमंत्री ने सदन को बताया कि 34 साल बाद देश की जनता ने भाजपा नेतृत्व को पूर्ण बहुमत दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के 34 सालों में देश में मिलावट वाली सरकार सत्ता में आई और अब महामिलावट वाली सरकार आने वाली है। हालांकि उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और बाद में इसमें काफी सुधार भी किये। सियासी पंडित इसे कहीं न कहीं सत्ता पक्ष का डोल रहे आत्मविश्वास के रूप में देख रहे हैं।

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