प्रभात खबर कोलकाता में प्रचार-प्रसार का नायाब नुस्खा अपनाया

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

अतीत के अनुभव और वर्तमान के यथार्थ पर ही भविष्य की इबारत लिखी जाती है। इसे कई बार महसूस किया तो बाज दफा दरकिनार करने से भी गुरेज नहीं हुआ। आगे कहीं प्रसंग आने पर इसका जिक्र करूंगा। बहरहाल, कोलकाता प्रभात खबर की रिपोर्टिंग के जो साथी याद आते हैं, उनमें गुरु सदृश बांग्ला अखबार प्रतिदिन से रिटायर होकर आये दिलीप घोष चौधरी (अब स्वर्गीय) थे। उनकेे अलावा गोपाल साव (जिनका नामकरण मैंने एस. गोपाल कर दिया था), अजय विद्यार्थी, अनवर हुसैन और कौशल किशोर त्रिवेदी (संप्रति संपादक, प्रभात खबर, गया) थे। बाद में रिपोर्टिंग टीम में ही जनार्दन सिंह (अमर उजाला), विद्यासागर सिंह (हिन्दुस्तान, जमशेदपुर), अनुपम मिश्रा (इंडिया टीवी), प्रकाश सिन्हा (स्टार आनंद बांग्ला चैनल), अमर शक्ति जैसे लोग आये। डेस्क पर अजय श्रीवास्तव, मनोज राय, अखिलेश सिंह, नवीन श्रीवास्तव थे। कोलकाता प्रभात खबर के पुराने साथियों की लंबी फेहरिस्त है। सबके नाम न तो फिलवक्त जेहन में आ रहे और न उल्लेख संभव है। वैसे साथियों से क्षमा मांगता हूं, जिनका उल्लेख नहीं कर पाया। हां, आरंभ से ही स्ट्रिंगर बतौर एक साथी पुरुषोत्तम तिवारी जुड़े हुए थे। वह चूंकि शिक्षक थे, इसलिए सर्वाधिक समय देने के बावजूद उन्हें स्टाफर बनाना संभव नहीं था। सभी की तनख्वाह दो हजार से छह-साढ़े छह हजार के बीच ही थी और सभी वाउचर पेमेंट पर थे। पर, उत्साह इतना कि कोई परमानेंट साथी भी उतने जज्बे से काम नहीं कर सकता।

पुरुषोत्तम तिवारी तब भी मेरे सुख-दुख के साथी थे और आज भी वह उसी अंदाज में संपर्क में हैं। उनके जिम्मे दो काम मैंने सौंप रखे थे। अव्वल तो कोलकाता में साधु-संतों के आये दिन प्रवचन होते रहते थे। उनके प्रवचन कवर करने का काम पुरुषोत्तम का था। सामाजिक संस्थाओं और व्यक्ति विशेष की खबरों और उन पर विशेष सामग्री के लिए सच्चिदानंद पारीक थे। दोनों का काम प्रकृति में समान था, इसलिए दोनों मिल कर करते थे।

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हिन्दीभाषी टैक्सी ड्राइवरों की संख्या को देखते हुए हमने एक कालम शुरू किया था- चार चक्के वाली। इसमें किसी एक ट्राइवर से बात कर खबर बनती कि घर-परिवार से दूर पर्व-त्योहारों के मौके पर उन्हें कैसा लगता है। उनको रोज किन-किन परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है। अगले दिन यह खबर छपती तो टैक्सीवाले बड़े चाव से पढ़ते। हमारा मकसद था कि शहर में चलने वाली टैक्सियों में ड्राइवरों के पास प्रभात खबर दिखे। इसमें काफी हद तक हम कामयाब भी हुए। बंगाल के आम हिन्दीभाषियों में प्रभात खबर की पहचान बिहारी अखबार के रूप में बनी। वैसे मैं इस तरह के किसी ठप्पे से बचना चाहता था। इसीलिए मैंने राजस्थान की खबरों के लिए भी अखबार में जगह बनायी थी। फिर भी बिहार-झारखंड की बहुतायत आबादी होने के कारण प्रभात खबर को बिहारी अखबार मान लिया गया था, इसलिए कि यह पटना और रांची से भी निकलता था।

बिहारीपन का दाग धोने के लिए मैंने एक और प्रयोग किया। कोलकाता में ज्यादातर सामाजिक संस्थाएं बिजनेस कम्युनिटी के लोगों द्वारा संचालित हैं। मैंने उन संस्थाओं की खबरों को विस्तार से देना शुरू किया। इन संस्थाओं के कामकाज को केंद्र कर सेवा में जुटी संस्थाएं स्तंभ शुरू किया। व्यक्ति आधारित स्तंभ भी शुरू किये। इस बीच मैंने जान लिया था कि बंगाल में बसने वाले राजस्थानी लोगों में 50 पार उम्र वालों को ही अपनी माटी से ज्यादा मोह है। इसलिए उनकी कंपनियों और उनके व्यक्तित्व पर ज्यादा फोकस किया। राजस्थान की खबरें सिर्फ बुजुर्गों के लिए थीं, जिनको अपने लांडनू-झुंझुनू जैसी जगहों से अब भी लगाव था। राजस्थानी समाज की बंगाल में बसी युवा पीढ़ी सिर्फ रस्मी तौर पर मुंडन-पूजन या शादी समारोहों में राजस्थान से लगाव रखती है। मेरा यह नुस्खा भी कारगर हुआ। जिन संस्थाओं या व्यक्तियों के बारे में विशेष कवरेज होता, उनसे हम पांच सौ-हजार कापी स्पांसर कराते और मार्निंग वाक के लिए सुबह विक्टोरिया मैदान जाने वाले इसी समाज के लोगों के बीच वितरित कराते। इससे मेरे अखबार का प्रचार भी होता और उन्हीं लोगों के बीच अखबार जाता, जो पाठक के साथ विज्ञापनदाता भी थे।

इसके साथ ही खुद को मैंने काम करते रहने वाली मशीन बना दी। बिजनेस कम्युनिटी को करीब लाने के लिए उनके समाजसेवी आयोजनों में शरीक होने लगा। खासकर शनिवार और रविवार को ऐसे आयोजनों की भरमार रहती थी। मैं बिना कार वाला पत्रकार था और कोलकाता मुख्य शहर से तकरीबन 14-15 किलोमीटर दूर एयरपोर्ट के पास दमदम कैंटोनमेंट में रहता था।

यहां एक प्रसंग का उल्लेख आवश्यक है। उन दिनों शहर-सूबे का अव्वल हिन्दी अखबार सामाजिक संस्थाओं की खबरों को तरजीह नहीं देता था। हमने यह सुविधा प्रदान कर दी थी। इसका दो फायदा हुआ। मेरी बुलाहट ऐसे कार्यक्रमों में खूब होने लगी और मैं जाने भी लगा। यह मेरी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। निमंत्रण कार्ड में मेरे नाम के साथ प्रभात खबर का भी उल्लेख रहता। यानी जितने लोगों को कार्ड भेजा गया, उतने लोगों के बीच मेरे नाम के साथ अखबार की ब्रांडिंग हुई। कार्यक्रम में उद्घोषक मेरे पहुंचने के पहुंचने के पहले कई बार घोषणा कर चुका होता कि कार्यक्रम में कौन-कौन लोग कहां से पधार रहे हैं। पहुंचने पर भी घोषणा होती कि प्रभात खबर के संपादक ओमप्रकाश अश्क पधार चुके हैं। स्वागत के लिए कहा जाता कि प्रभात खबर के संपादक अश्क जी का स्वागत करेंगे फलाने। फिर दो शब्द कहेंगे प्रभात खबर के संपादक अश्क जी। धन्यवाद ज्ञापन में भी प्रभात खबर के संपादक अश्क जी का उल्लेख होता। यानी एक कार्यक्रम में कई बार मेरे नाम के साथ प्रभात खबर की ब्रांडिंग होती। ऐसी संस्थाएं अपने आयोजनों का विज्ञापन भी खूब करतीं, जो दूसरे अखबारों के साथ प्रभात खबर को भी मिलता।

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इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि प्रभात खबर को बाजार में बड़ी तेजी से पहचान मिलने लगी। विज्ञापन भी बढ़ने लगा। जिस वक्त वर्ष 2000 में अखबार की शुरुआत हमने कोलकाता से की थी, तब प्रभात खबर की सालाना विज्ञापन बिलिंग 25 लाख रुपये के आसपास थी। आज उसी मेहनत का परिणाम है कि कोलकाता प्रभात खबर की सालाना बिलिंग करोड़ों में पहुंच गयी है।

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