रामकृष्ण परमहंस के आविर्भाव दिवस पर उन्हें समझिए

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रामकृष्ण परमहंस के आविर्भाव दिवस पर उनके विचारों और जानिए-समझिए। 18 फरवरी 1836 को उनका आविर्भाव दिवस है। रामकृष्ण स्वामी विवेकानंद के कुरु रहे।
रामकृष्ण परमहंस के आविर्भाव दिवस पर उनके विचारों और जानिए-समझिए। 18 फरवरी 1836 को उनका आविर्भाव दिवस है। रामकृष्ण स्वामी विवेकानंद के कुरु रहे।

रामकृष्ण परमहंस के आविर्भाव दिवस पर उनके विचारों और जानिए-समझिए। 18 फरवरी 1836 को उनका आविर्भाव दिवस है। रामकृष्ण स्वामी विवेकानंद के कुरु रहे। परमहंस श्रीश्री रामकृष्ण देव के 185 वें आविर्भाव दिवस के अवसर पर सबसे पहले उन्हें सादर नमन-पुष्पांजलि।

18 फरवरी 1836 ई (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया बुधवार 1873 वि) को परमहंस देव का आविर्भाव हुआ था। मात्र 50 वर्षों की जीवन यात्रा में संपूर्ण आध्यात्मिक जगत को अपनी प्रतिभा से चमत्कृत ढंग से आलोकित कर 15 अगस्त 1886 रविवार को उन्होंने अपनी लीला का संवरण कर लिया। लीला संवरण के कुछ घड़ी पहले अपनी प्रिय मां काली का स्मरण कर वह जैसा कहा करते थे- “एक कमरे से दूसरे कमरे में चले गए।”

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रामकृष्ण परमहंस कहते थे- “मुझे दाल-रोटी प्राप्त कराने वाली विद्या नहीं चाहिए, मुझे तो वही विद्या चाहिए, जिससे हृदय में ज्ञान का उदय होकर मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।” परमहंस रामकृष्ण के इस कथन में कितनी गहराई है, यह इस कथन से स्पष्ट है। आज का समाज दाल-रोटी वाली विद्या की ओर ही भागता है। मुष्य बनने की बात आदमी सोचना ही नहीं, जिससे हृदय में ज्ञान का उदय हो।

मेरे गुरुदेव कहा करते थे, “इस संसार की किसी ली-दी जाने वाली वस्तु की अपेक्षा धर्म अधिक आसानी से दिया तथा लिया जा सकता है। अतः प्रथम स्वयं तुम ही आत्मज्ञानी हो जाओ तथा संसार को कुछ देने के योग्य बन जाओ और फिर संसार के सम्मुख देने के लिए खड़े होओ। धर्म बात करने की चीज नहीं है, ना वह सांप्रदायिकता है, ना मतवाद विशेष।

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धर्म किसी संप्रदाय अथवा संस्था में आबद्ध हो कर कैसे रह सकता है। यह तो आत्मा के साथ परमात्मा का संबंध है। अतः किसी एक संस्था में बंद होकर यह कैसे रह सकता है? ऐसा होने से धर्म तो व्यवसाय ही हो जाएगा और धर्म जब व्यवसाय बन जाता है, तब धर्म का लोप हो जाता है। मंदिर तथा गिरजाघर बनवा देने तथा सामुदायिक पूजा में उपस्थित हो जाने का नाम धर्म नहीं है। यह पुस्तकों में, शब्दों में, व्याख्यान में, अथवा संस्थानों में नहीं रहता है। आत्मसाक्षात्कार में ही है।

(स्वामी विवेकानंदजी द्वारा न्यूयॉर्क में दिया हुआ भाषण  से), प्रस्तोता- रामजन्म मिश्र

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