राम दहिन ओझा ने अहिंसावादी आंदोलन में पहली शहादत दी थी

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राम दहिन ओझा ने एक पत्रकार के रूप में अहिंसावादी आंदोलन में पहली शहादत दी थी, जैसे सशस्त्र संग्राम में पहली शहादत मंगल पांडेय ने दी थी।
राम दहिन ओझा ने एक पत्रकार के रूप में अहिंसावादी आंदोलन में पहली शहादत दी थी, जैसे सशस्त्र संग्राम में पहली शहादत मंगल पांडेय ने दी थी।
  • कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे

राम दहिन ओझा ने एक पत्रकार के रूप में अहिंसावादी आंदोलन में पहली शहादत दी थी, जैसे सशस्त्र संग्राम में पहली शहादत मंगल पांडेय ने दी थी। इतिहासकार दुर्गा प्रसाद गुप्त ने शहीद राम दहिन ओझा की स्मृति में निकली शहीद स्मारिका में जनक्रांति की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए लिखा है, “मंगल पांडेय की शहादत के 73 वर्ष बाद 1931 में सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान पहली शहादत पत्रकार राम दहिन ओझा ने दी थी। इस तरह सशस्त्र आन्दोलन और अहिंसावादी आन्दोलन दोनों में शहादत देने का गौरव बलिया जनपद को मिला।”

इतिहासकार दुर्गा प्रसाद गुप्त ने यही बात अपनी पुस्तक ‘बलिया में सन बयालीस की जनक्रांति’ में भी लिखी है। प्रसिद्ध नारायण सिंह ने ‘लखनऊ जेल के प्रसिद्ध राजनीतिक कैदी’ नामक किताब में मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और मदन मोहन मालवीय के साथ राम दहिन ओझा का उल्लेख किया है। यह किताब 1924 में यानी राम दहिन ओझा के जीवन काल में ही आ गई थी।

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अंग्रेज सरकार राम दहिन ओझा से इस कदर भयाक्रांत रहती थी कि उन्हें इस जेल से उस जेल में भेजती रहती थी। राम दहिन ओझा (1901-1931) स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ ही बड़े पत्रकार तथा कवि थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के बाँसडीह में 1901 की महाशिवरात्रि को हुआ था। स्कूली शिक्षा वहीं हुई। कुछ बड़ा होने पर आगे की पढ़ाई के लिए पिता राम सूचित ओझा उन्हें कलकत्ता ले गए। कलकत्ता महानगर तब क्रांतिकारियों की भूमि के रूप में विख्यात था। वहां की आबोहवा ने राम दहिन ओझा को स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने की प्रेरणा दी। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से संपर्क साधा और कलकत्ता, बलिया और गोरखपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

आजादी के लिए प्रेरक लेखनी और ओजस्वी भाषण की कीमत उन्हें बंगाल और बाद में बलिया और गाजीपुर से निष्कासन के रूप में चुकानी पड़ी। सन् 1921 में महात्मा गांधी की अपील पर बलिया में जो सात सत्याग्रही जेल गए थे, उनमें रामद हिन ओझा सबसे कम उम्र के थे। इन सत्याग्रहियों को महात्मा गांधी ने सप्तर्षिमण्डल की संज्ञा दी थी। 11 मार्च, 1921 को बलिया के कलक्टर ने राम दहिन ओझा को जिला छोड़ने का आदेश दिया। वे बलिया छोड़कर गाजीपुर आ गए, लेकिन वहाँ भी वे जल्द ही अंग्रेज सत्ता के लिए सिरदर्द बन गए।

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15 अप्रैल, 1921 को गाजीपुर के कलक्टर ने भी उन्हें जिला बदलने का आदेश दे दिया। उसके एक महीने बाद 16 मई, 1921 को उन्हें भारतीय दंड विधान की धारा 347 और 395 के तहत गिरफ्तार कर छह महीने के कठोर कारावास की सजा दी गई। उनकी तीसरी गिरफ्तारी 3 जनवरी, 1922 को हुई और उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई। इन गिरफ्तारियों के बाद उन्हें कई जेलों में रखा गया। तीसरी गिरफ्तारी से छूटने के बाद राम दहिन ओझा कलकत्ता चले गए और पत्रकारिता करने लगे। वे ‘युगान्तर’ के सम्पादक बन गए।

उनकी पुण्यतिथि (18 फरवरी) पर आज शाम चार बजे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय  कला केंद्र ने एक वेबिनार का आयोजन किया है, जिसमें पत्रकारिता के इतिहास के विशेषज्ञ कृष्ण बिहारी मिश्र, विजय दत्त श्रीधर, अच्युतानंद मिश्र, राम बहादुर राय, हरिवंश, प्रभात ओझा और रमेश गौड़ भाग लेंगे। एक संक्षिप्त वक्तव्य मेरा भी होगा। कार्यक्रम का सजीव प्रसारण Indira Gandhi National Centre for the Arts के फेसबुक पेज (Indira Gandhi National Centre for the Arts) पर किया जाएगा। गांधी युग की पत्रकारिता में रुचि रखनेवाले कार्यक्रम से जुड़ सकते हैं।

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