रहिमन पानी राखिए………. : रमेश चंद्र की कहानी

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रहिमन पानी राखिए..! यह रमेश चंद्र की कहानी का शीर्षक है। शिक्षा महकमे के अधिकारी रमेश चंद्र ग्रामीण परिवेश से आते हैं। उनकी रचनाओं में इसकी झलक मिलती है।पढ़ें पूरी कहानीः

चुनिया मय गांव कह आई, मइया आज धान का भात बना रही है। रनिया न मानी- बक लबरी, सगरी गांव त कोदो, चीना, सांवा व मकई का भात खाता है। तोरे इहाँ सुरुज का पछिम में उगे हैं? धत, जहां गाछ ना बृक्ष तहां रेंड़ परधान! चुनिया किरिया खा बोली- तू न पतियाती है त चल के देख ले। भला मामा के आने पर धान का भात न बने त कब बने ? मइया भोरे-भोर सहुआइन से ले आई है। उ त ना दे रही थी। बाकि, मइया भी लिए बिना ठौर न छोड़ी। बोली-‘भले सेर भर चाऊर के बदले आसाढ़ में पांच दिन रोपनी, चाहे सावन में सात दिन सोहनी करवा लेना बाकि आज इज्ज़त रख लो।’ चुनिया की बात में दम था। सो शक की गुंजाइश न रही। तब उधारी ऐसे ही मिलती थी। कर्ज़ के लिए ख़ुद को दांव पर लगाने से लोग बाज न आते थे। शक्तियाँ चंद मुठ्ठियों में सिमटी थीं। ‘तब तो बताशे भी मिलेंगे ?’ जीभ चटकाती रनिया बोली। काहे ना..? तू तनिक हमरी बछिया-बकरी को साथ लिए आना। चितकबरी पर नज़र रखना, रेहन में निरासी बड़ी तेज भागती है। मामा कभी आ सकते हैं। चुनिया कुलांचे मार फुर्र हो गई।

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जब घर पहुँची तो मामा सचमुच आ गए थे। मइया उनके पैर पकड़ रो रही थी। बीच-बीच में मामा मइया को चुप करा रहे थे। बारे बरिस से थमे आँसू रिश्तों की नमी पा रिसने लगे। फिर बांध तोड़ बह चले। इन आंसुओं में गोतिया-पड़ोसिया व दर-देयाद के ताने-बाने सब बहे जा रहे थे। धनुकी को डोली उतरे चार दिन भी न हुए थे कि निकम्मे पाहुन की परछाईं लांघ बाबू खेते कटनी करने जाना पड़ा। बहके देवर महावर लगे पैरों पर कईसे फब्तियां कसते थे! कलिया आया तो उम्मीद जगी। लेकिन उहो बापे के मुड़ी हाथ धरे पैदा हुआ। जैसे बांस के जरी बांसे जनमता है। एक निकम्मा त दूसरा निठल्ला।

पिछले सोमारी बाप कटहल तोड़ते पकड़ा गया। उ त मुखलाल माट साहेब भले आदमी थे जे पांच बार उठा-बैठी करा छोड़ दिए। दोसर रहता त हुक्का-पानी बन्द करा देता। पानी उठ जाता परिवार का। कलिया त सेर ऊपर पसेरी साबित हुआ। कई बार परधान के पोखर से मछली मारते पकड़ाया। खूब पिटाया बाकि आदत से बाज न आया। अइसही एक दिन जुम्मन चाचा के गाछे चढ़ गया। करीकी जामुन के चक्कर में भुभुन फोड़वा लिया। अगिला दु दांत स्वाहा हो गए। गांव में कहीं खर खरखराता, लोग चट से पुरवा-साक करने पहुँच जाते। जब अपने सवांग पसंगा घाट निकल जाय त अबरा के मेहरारू को भर गांव के भौजाई बनने से के रोकेगा ? बेचारी कोल्हू के बैल की तरह पिसती रही।

कवनो गाछ न मिला जेके साया तले सुस्ताए। धनुकी ढेर देर रोती रही। जब चुप हुई तो गला बझ गया था। बड़की बेटी, मुनिया थरिया में पानी लायी। मइया मामा के पैरों को रगड़-रगड़ कर धोती रही। फिर अपने आँचल से पोंछते हुए बोली- भईया, भउजी के समाचार कइसा है, धिया-पुता सभे निरोग हैं न? मामा ने सरसरी निगाह घर-दुआर पर डाली- उफ़,आपन पगरी देखें कि बहिन की लुगरी निहारें! कुछ भी तो न बदला था! बांस के डोलते खम्भों पर हिलती पलानी। बरसात में बरसाती ओढ़ दिन काटता परिवार। सामने क़दम का गाछ। बूढ़ा बरगद कब का गिर चुका था। पाकड़ भी उखड़ गई थी। बहिन पेवन लगे लुगा पहनी थी। याद है जब आख़िरी बार आए थे तो मुनिया महज चार साल की थी। गोहाटी गए तो वहीं के होकर रह गए।

जब लौटे तो सबकुछ बदल गया था। ख़ैर, अब तो मुनिया सेयान भी हो गई थी। देखा, पियरी माटी से आंगन लीप चूल्हा जला ली थी और अब अदहन रखने जा रही थी। पॉकिट से बताशे निकाले और चुनिया को गोदी में बिठा खिलाने लगे। चुन्नी को लगा, चांद के पार जा रही है। सितारों में सैर कर रही है। आज जानी, मामा कितने प्यारे होते हैं! दुनिया की सारी खुशी मिल गई। काश, इस घड़ी को संगी-सहेलियां देख लेती! तभी उसे रनिया से किया वादा याद आया। बताशे सहित भागी। मामा मुस्कराए और बहिन से पूछे- बबुनी, पाहुन व कलिया न दीख रहे हैं? होंगे दोनों परधान के पोखर पर! ना गांव में घर, ना सरेह में डेरा!

शायदे कवनो दिन गुजरे जेहिया बाप-बेटा के ओरहन न आए। ताड़ी-भांग खा के मताईल होंगे। भूख लगते ही छाती पर असवार हो जाएंगे। ताड़ का पंखा झलते धनुकी बोली। रे, मुनिया ख़ातिर कहीं लड़िका ना देखी? मामा ने बात बदली। का कहें भैया, घर मिलता है तो वर ना आ वर मिलता है तो घर ना। चासा-बासा, हाड़-काठ देखे बिना कईसे हां कह दें? हम त कछुई के लीला में पड़ गए हैं। एही चिंता आसमान ताकते-ताकते सताहवा उग जाता है। पांडेपुर में पता चला है। खाता-पीता परिवार है। लड़िका पंजाब के फारम में मुंशीगिरी करता है। परियार रामनवमी मेला में मुनिया को देख लिया। मुनिया ओके खूब पसंद है। बाकी बड़ घर में रिश्ता छोटन के बूता से बाहर है। हमन के कहाँ हिम्मत! सुनीला, ओ गांव में एको माटी के घर न है। सड़कियो पक्का है। अब त उहाँ लोहा-लक्कड़ का भारी कारखाना बैठ रहा है। पांडेपुर का तो भागे जाग गया!

गये तिजहरिया तीन जन खाने बैठे। भात-दाल पर आलू की भुजिया अउर ततवल धनिया की चटनी, ऊपर से सजाव दही।कलिया व उसके बाबू एक थाली में खा रहे थे जबकि मामा अकेले बैठे थे। मुनिया परोस रही थी। मइया पंखा झल रही थी। चुनिया मामा से मिले नए कपड़ों में तितली-सी इठला रही थी। कभी ममहर न गयी थी लेकिन सखियों से मामा-गांव का ऐसे बखान कर रही थी जैसे कल ही लौटी हो। उधर धान के भात पर बाप-बेटे ऐसे टूट पड़े जैसे हरखुआ मील से गन्ना गिरा लौटे बैल सानी-पानी देख नाद में नाक डुबा लेते हैं। मइया बार-बार बाप-बेटे को मितव्ययिता का ईशारा करती लेकिन आज सुनने वाला कौन था ? खुदा का ख़ैर कहिए कि खाना कम न पड़ा और तीनों भर पेट खा कर उठे। मामा गई रात तक बाप-बेटा को समझाते रहे। सगरी ऊंच-खाल दिखाए। तोख-परतोख दिए। दोनों हुंकारी भरते रहे और वादा किए कि मेहनत से काम करेंगे। परिवार पर पूरा ध्यान देंगे। सुबह हुई। मामा जाने लगे। बहिन को भरोसा दिया कि मुनिया की शादी में भरपूर मदद करेंगे। चलने लगे तो सोचा, बहिन के हाथ में पांच-दस दे दें। सो पॉकिट में हाथ डाले। अफशोष, पॉकिट ख़ाली था। मन मसोश कर रह गए। कुठहरा घाव आ भसुर ओझा! किससे क्या कहें! चुप-चाप चल दिए। उधर परधान के पोखर पर जश्न जैसा माहौल था। मांस भुजा जा रहा था। तीन लबनी ताड़ी रखी जा चुकी थी। गुरदेलिया, रमसुरता व इन्द्रासना जैसे कमासुत पहले से पहुँच चुके थे। भरदुलवा से रहा न गया सो पूछ बैठा- भाई, आज किधर हाथ मारे ? कलिया रुआब से बोला-तुमको आम खाना है कि गुठली गिनना है ? दिन भर भोज चलता रहा। उधर मामा ढेबुआ बिना पांच कोस पैदल खींच रहे थे। कोई असवारी ना मिली।

दियरी-बाती बाद गोधन कुटाई जब हो गया तो लगन-पतायी का शुभ मुहूर्त शुरू हुआ। लोग जातरा बना जहां-तहां जाने लगे। धनुकी के लिए एक-एक दिन पहाड़-सा गुजरता था। मोलनापुर के महावीरी मेले की बात याद कर सिहरन हो जाती थी। तब गांव की ढेरों लड़कियों के साथ चुनिया-मुनिया भी मेला देखने गई थी। भारी भीड़ होने के चलते दोनों बहनें एक दूसरे का हाथ पकड़ चल रही थीं। मनिहारी की दूकान देख मुनिया का मन ललच गया। किसिम-किसिम के साज-सिंगार मन मोह रहे थे। चूड़ी-लहठी, पायल, अंगूठी व सतरंगी रिबन पर लड़कियां टूट पड़ी थी। लेकिन यहाँ पास में उतने पैसे कहाँ थे ? दो रुपये बारह आने में सब कुछ कर लेना था। इसी में गाय के लिए पगहा, बछिया के लिए घुघुर और बाल्टी का उबहन ख़रीदना था। चुनिया चार बार लेमनचूस व हवा-मिठाई खा चुकी थी। इसमें चार आने निकल चुके थे। जांत-चकरी के लिए ज़िद पर अड़ी थी।

मुनिया ने डांट कर कह दिया था- अब अधेले का भी कुछ न किनेगी। तबसे चुनिया ठुनुक रही थी। मइया का तकाज़ा था, सब कुछ किन-बेसह कर साँझ से पहिले घर आ जाना है। और हां, पैसा उबरे तो एक जोड़ी खुरपी-हंसुआ भी ले लेना। अब एइमें कोई का खाए, का पिए आ का ले परदेस जाए.! मन न माना तो पीछे लौट हिम्मत कर चोटी-जुड़ा अउर सगिया का दाम पूछी। बारह आने में सब आ रहे थे लेकिन सिंगार के इन सामान के चलते जरूरी चीजों की अनदेखी नहीं की जा सकती थी, सो मन मशोस कर आगे बढ़ गई। मय मेला घूम-घाम कर लौट रही थी कि अचानक निरंजना सामने आ गया। एक पोटली थमाते बोला- रे मुनिया, ई रख ले। सब तोरे लिए है। और, बिना रुके भाग गया। मुनिया हक्की-बक्की रह गई। निरंजना को आवाज़ लगाई लेकिन वह तो भीड़ में समा गया था। मुनिया के सगरी देह सुरसुरी समा गई। पोटली खोल कर देखी, उसमें वही सारी चीजें थी जिनके भाव मोलाकर लौटी थी। घर वापसी अब आसान न थी। क़दम रखना भारी पड़ रहा था। चुनिया को फुसलाया न जा सकता था। अपनी जांत-चकरी न मिलने से वह मुंह फूलाए बैठी थी। दोनों चुप-चाप चलने लगी। तभी चुनिया टोक बैठी- दीदी ई कौन था और ई सब तुझे क्यों दिया?

मुनिया भरमाने की कोशिश की। जानती हो, ई परानपुर का निरंजन है। बचपन में हमलोग साथ बकरी चराते थे। बस, अउर कुछ नहीं। तौलकर जवाब चुनिया दी- हमरे भी तो बहुत साथी मेला आए थे जो साथ बकरी चराते हैं, फिर उन लोगों ने मुझे कुछ क्यों न दिया ? क्या जवाब दे मुनिया ? चुप हो जाने में ही भलाई थी। जैसे-तैसे घर आया। कलिया व उसके बाबू अभी मेले से लौटे नहीं थे। मइया को सामान दे मुनिया अंदर जाने लगी, तभी चुनिया बोल पड़ी- दीदी आ उ सामान दिखा ना जिसे निरंजना ने तुझे दिया है। बज्रपात हुआ मुनिया पर। वही हुआ जिसका डर था। इसके पहले कि मइया कुछ पूछे, वह खुद सबकुछ बताती चली गई। आख़िर उसका कसूर क्या था ? जानबूझ कर थोड़े कुछ लिया था ! अपनी बात कह चुपचाप खड़ी रही। ऊपर से भरसक खुद को सामान्य रखने की कोशिश कर रही थी लेकिन अंदर तो कलेजा लोहार के भाथी की तरह चल रहा था। तभी तड़ाक, तड़ाक कई थप्पड़ जड़ दी धनुकी- आभागी, कहीं डूब-धस के मर काहे ना गई कि उ निरंजना से चोटी-जुड़ा, सगिया ले आई। का तू ओकरे आंगन बैठना चाहती है? रे करमजली, तोके अतना भी मालूम नहीं कि ओ गांव का पानी उठ गया है ! बाल पकड़ धनुकी ढेर देर मुनिया को मारती रही। बाद में बैठकर खुद रोने लगी- अगर किसी तरह कलिया जान गया त  कच्चे चबा जाएगा। बपा त माहुरे खिला देगा। अब समझ में आया, काहे निरंजना पिछली सावनी पूजा पर मुनिया को बार-बार निहार रहा था ! कहीं मुनिया भी .. ! सोचकर सिहरन होने लगी।

उधर चुनिया अब भी समझ न पा रही थी ऐसा क्या हो गया कि मइया अतना आग बबूला हो गयी ? और, और उसी रात धनुकी निरंजना का सारा सामान उसके घर फेंख आई। आते-आते उसकी मइया से दो-दो हाथ भी कर आई। उस दिन चूल्हा न जला। सभी बिना खाए सोए। कलिया व उसके बपा से बता दिया गया कि घर में खर्ची ख़तम था। मुनिया मय रात सुबकती रही। चुनिया ने चुप कराना चाहा तो उसे झिड़क दी। अब चुनिया पछता रही थी, नाहक ही निरंजना वाली बात मइया से कही। शायद, दीदी कभी उससे बात न करे। फिर वह भी सिसकने लगी। आज की रात कुछ लंबी तन गई ..!

बात साल पुरानी हो गई लेकिन टीस ताज़ी रही। बेटी को लेकर धनुकी कभी निरभेद सो न सकी। वैसे भी सेयान बेटी की मां और बाढ़ में बांध पर बसे लोग सो कहाँ पाते हैं! बाप-बेटा को घर-गृहस्ती से कोई सरोकार न था। कई बार कही लेकिन कान काट कर तो परधान के पोखर पर रखा था! देखते-देखते होली बीती। चइत चढ़ गया। गांव में कई घरों में मांड़ो गड़े। जब कई लड़कियां ब्याह कर बिदा हो गईं तो धनुकी से रहा न गया। उसने मन बना लिया, परसों पांडेपुर खुद जाएगी। अगर साथ-समाज सही मिला और पटरी बैठ गया तो किसी तरह बेटी के हाथ पीले कर देगी। गाय, बछिया, बकरी व कड़ा-छड़ा सब इसी दिन के लिए संजो कर रखें हैं। कमी-बेसी के लिए भैया का चौखट निराश न करेगा।

टिशन से निकलते ही पांडेपुर के लिए सवारी मिल गई। बारह बजते-बजते जब गांव का सिमाना शुरू हुआ तो धूप माथे पर आ गई। कहीं गाछ-बृक्ष का पता न था। पक्की सड़कों को अपने सीने से निकालने के लिए किनारे खड़े घनेरी, शीतल छाँव देने वाले दरख्तों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी थी।धूप इतनी तीख़ी हो गई कि राह चलना दूभर होने लगा। स्याह स्लेटी सड़क पर सगड़ भागता जा रहा था। बगल से बाबुओं की मोटरगाड़ी धुंआ उड़ाती सर-से निकल जाती थी। लोहा-लक्कड़ का कारखाना बैठ चुका था। चिमनियों से निकलता धुंआ दूर से ही आसमान में पसरता नज़र आ रहा था। मोड़ पर उतर उसने पांडेपुर को भर नज़र निहारा जहां बेटी ब्याहनी थी। मालूम हुआ कि काश्तकारों ने अपनी जमीनें कारख़ाने को दे दी थी और उसके बदले उसी कारख़ाने का कुर्ता पहन उसी में काम करने लगे थे। मजे की बात, सब खुश भी थे ! धनुकी ने गांव को और क़रीब से देखा। कोई घर कच्चा न था। लेकिन, जो रे जमाना.. उन घरों में पानी का पता न था ! पिछले चार साल से इधर इंद्र भगवान ने कृपा न की थी। बादल आए जरूर मग़र बरसे नहीं। भरी जवानी में विधवा हुई धरती के चेहरे से खूबसूरती खींच ली गई थी। धनुकी ने देखा, गांव का एकमात्र कुंआ सुख गया था। दर्जनों औरतें दूर से पानी लाती दिखीं। तस्वीर धुंधली होने लगी। धनुकी को लगा, उसकी मुनिया भी उन औरतों के साथ घड़े में पानी ला रही है। बेचारी पसीने से तर-बतर है, हलक सुख रहा है और गिरते-पड़ते घर को भागी चली जा रही है। अचानक उसकी नज़र धनुकी पर पड़ती है। होठों पर फिंकी मुस्कान उभरती है- मइया, परानपुर का तो पानी उठ गया था लेकिन पांडेपुर कौन पानी बचा लिया था जो मुझे यहां ब्याह गई ? चलती हूँ मां, मेरे प्यासे बच्चे पानी बिन बिलबिला रहे होंगे। और हां, एक निहोरा जरूर करूंगी, कम से कम चुनिया को चंद झूठी आन के नाम पर किसी बंजर जमीन पर मत फेंकना..! फिर, बिना मुड़े मुनिया तेजी से निकल गई। दृश्य साफ़ हो चुका था। औरतें ओझल हो चुकी थी। धनुकी ख़ुद में लौटी। इसी बीच पानी-गाड़ी पहुंची और जोर से घण्टे बजाई। लोग घरों से निकल पानी के लिए यूँ दौड़ पड़े जैसे सश्रम कारावास के कैदी घण्टे लगते ही अपनी-अपनी थाली ले भोजन के लिए दौड़ पड़ते हैं और डंडे फटकारता जेल का जमादार सिटी मार उन्हें कतार में लगाने लगता है। अनपढ़ धनुकी समझ न सकी कि पांडेपुर का भाग जाग रहा है या बैठ रहा है। लेकिन इतना जरूर समझ में आ गया कि इस गांव में बेटी न ब्याहेगी। सामने सड़क पर सगड़ टिशन जा रहा था। बिना देर किए धनुकी जा बैठी।

परानपुर। निरंजना के बाबू कलकत्ता के चटकल में जोड़ी तांत चलाते थे। हर बैशाखी जब गांव आते तो खूब इज्ज़त होती थी। अफशोष, अबकी आए तो वापिस न जा सके। भगवान ने कुसमय ही उठा लिया। निरंजना अनाथ हो गया। आगे-पीछे कोई सहारा न रहा। दिन पहाड़ से लगते। रातें आंसुओं से भींगने लगीं। लेकिन पापी पेट पछतावे के आंसू से कहाँ भरते ! मजबूरन, माई-बेटा मजदूरी पर जाने लगे।

साल लगने को आए। मोलनापुर का महावीरी मेला फिर लगा। भले भरदिनहा मेला था बाकि बरिस भर के लिए जरूरी सामान दे जाता था। अबकि धनुकी ख़ुद मेला गई। चुनिया तो कबसे तैयार बैठी थी। दौड़कर मइया की अंगुली पकड़ ली। मुनिया न जा रही थी लेकिन मइया की ज़िद पर उसे भी जाना पड़ा।

मेला बम-बम बोल रहा था। ढोल-नगाड़े कान फाड़े जा रहे थे। कई गांव के अखाड़ों का जब मिलान हो गया तो भारी भीड़ उमड़ पड़ी। धनुकी दोनों बेटियों के हाथ पकड़े सीधे मनिहारी की दूकान पँहुची। मुनिया की पशन्द की चूड़ियां ली। सगरी साज-सिंगार के सामान ख़रीदे। चुनिया के लिए गटा-कड़ाका ले रही थी तभी उसकी नज़र निरंजना पर पड़ी। बेचारा उदास खड़ा था। उसकी मां बेटे के लिए अंगौछी-गंजी मोल ले रही थी। दाम अधिक होने के कारन दोनों जाने लगे। धनुकी तेज कदमों उधर बढ़ गई। साँझ होने को आई। लोग लौटने लगे।  निरंजना फिर दीख गया। जब बाबू जिंदा थे तो मय मेला ख़रीद लेता था। कांटे भी चुभने से डरते थे। लेकिन अब संभल कर चलना पड़ रहा था। धनुकी ने देखा, बन्दा एकाध सामान सहित चला जा रहा था। फ़टी गंजी दूर से ही दीख रही थी। तेज क़दम भागी और बिल्कुल निरंजना के सामने जा खड़ी हुई। एक पोटली बढ़ाते हुए बोली- निरंजन बेटा, ये सब तुम्हारे लिए है। फिर उसकी मइया की बांह पकड़ बोली- बहिन, मुझे माफ़ कर देना। साल पहले अपनी हुई ग़लती का बहुत पछतावा है। आज इसी महावीरी मेले में बजरंगबली को साक्षी मान निरंजन को मैं अपने दामाद के रूप में छेंक रही हूँ। शगुन के सवा रुपये रख लो बहिन। लेकिन हमरे गांव का तो पानी उठ चुका है। फिर ब्याह की बात..! कहते हुए निरंजना-माई की आंखें पनीली हो गई। अपने आँचल से उमड़ आए आंसुओं को पोंछते हुए धनुकी बोली- मैं..मैं परानपुर का पानी रखूंगी। पुरखों से हुई किसी एक ग़लती की सज़ा कई पीढियां क्यों भोगे ? अपने बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है। फिर मेरी बहु कहाँ है ? खुश हो निरंजना की मां पूछी। धनुकी ने मुनिया की तरफ़ इशारा कर दिया जो कुछ दूर खड़ी थी। मइया दौड़ी और मुनिया का माथा चूम ली। शगुन की चवन्नी हथेली पर रखते बोली- बाप रे, ई चांद-सी दुल्हन को कहाँ छुपा कर रखूंगी। जल्दी आ जा बहु, अब तो अंगुलियों पर दिन गिनूँगी। मुनिया की आँखों से आँसू बरसने लगे। दौड़कर मइया को पकड़ ली और चीख़-चीख़ कर रोने लगी। साँझ गहरा रही थी। लोग घरों को भाग रहे थे। लेकिन यहां अब किसी को जल्दी न थी। सबने देखा, सामने चुनिया निरंजना से पोटली खोलने की ज़िद कर रही थी। उसने पोटली खोली। उसमें वही सारी चीजें थीं जिनका दाम अधिक होने के कारन मइया किन न पायी थी। चुनिया को ठिठोली सूझी। उसने अंगौछा निरंजना के सिर पर ढंक कर घूंघट-सा बना दिया। सबकी हंसी फुट पड़ी। रोती हुई मुनिया के चेहरे पर साल का सहमा सन्नाटा समाप्त हो गया। वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी..!

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