पेड़ काट कर विनाश के खतरे को दावत दे दी है हमने

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पेड़ काट कर विनाश के खतरे को दावत दे दी है हमने। प्रकृति का कहर इसी वजह से हम झेल रहे हैं। बिहार में पेड़ काटने पर पाबंदी है, पर पटना उजड़ गया। सारे पेड़ विकास के नाम पर बेमरौव्वत काट डाले गये। विकास के नाम पर विनाश का खेल हुआ। अब पेड़ों की अहमियत समझ में आ रही है। वरिष्ठ स्तंभकार प्रेमकुमार मणि ने इस बाबत अपने फेसबुक वाल पर लिखा हैः

एक खबर के अनुसार बिहार सरकार ने पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी है। जहाँ  तक मेरी जानकारी है, ऐसा विधान पहले से ही है। लेकिन यह बस छोटे किसानों और गरीबों के लिए। हालांकि ये किसान और गरीब ही पेड़ों के सबसे बड़े रक्षक होते हैं। इसलिए क़ि उनकी आधी जिंदगी पेड़ों के छांव तले गुजरती है। न  वे लकड़ी के फर्नीचर इस्तेमाल करते हैं, न कोई अन्य ऐसे सरंजाम, जिनमें लकड़ी का बेजा इस्तेमाल हो। बँसखट पर उनकी जिंदगी गुजर जाती है। यह तो सरकार है, हमारी यह बिहार सरकार जो पेड़ों की जानी  दुश्मन बनी हुई है। इसलिए खबर देख कर कोई उत्साह नहीं हुआ। भूले-बिसरे नज्म की एक आधी-अधूरी पंक्ति जरूर याद आई-  ‘सब कुछ गंवा कर होश आया, तो क्या आया…’

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मैं बार -बार कहता रहा हूँ कि पूरी दुनिया में भौतिक विकास क़ी यह  जो संस्कृति विकसित हो रही है, उस  पर लगाम  की जरूरत है। विकास की यह आँधी मनुष्य जाति को विनाश की ओर तेजी से धकेल रही है। हड़प्पा और बेबीलोन की विनष्ट सभ्यता-संस्कृतियाँ बार-बार हमें चेतावनी देती हैं कि मुझ से सबक लो। लेकिन मनुष्य कब माननेवाला है। विनाश की ओर बढ़ने में उसे आनंद आता रहा है। पतंगा दीये के लौ को आनंद का केन्द्रक मानता है  और उसके चारों ओर मारे ख़ुशी के  समृद्ध वेग से नाचने लगता है। यही नाच उसकी मृत्यु का कारण बनता  है। आज पूरी मनुष्य जाति विकास के चारों ओर इसी तरह समृद्ध वेग से  नाच रही है।

हमारे बिहार में तो पर्यावरण नियमों की इस सरकार ने ही जिस तरह धज्जी उड़ाई है, उसके लिए इसे कड़ी से कड़ी सजा भी कम होगी। पूरे सूबे की बात नहीं करूँगा, केवल पटना शहर के अस्सी फीसद पेड़ सड़क निर्माण की भेंट चढ़ गए। मुख्यमंत्री रक्षा बंधन के रोज अपने कैंपस के किसी एक पेड़-गाछ को राखी बांधने का पाखंड करेंगे और फिर पूरे साल पेड़ों की कटाई करेंगे।  यह कुछ ऐसा ही है, जैसे बकरे को बलि देने के पूर्व उसको रोली-चंदन से पूजना। हमारा लोकतंत्र इतना विकसित नहीं है कि ऐसे गुनाहों के लिए ऐसी सरकारों को  बर्खास्त किया जाये या सजा दी जाये। लोगबाग भी अभी इन बातों के लिए सड़क पर नहीं  उतरते। पर्यावरण को छेड़ना  किसी भी भ्रष्टाचार से  बड़ा भ्रष्टाचार है- की भावना  जब  तक लोक-मानस  में जाग्रत नहीं होगी, तब तक बात नहीं बनेगी। हमारे निरक्षर पुरखे अधिक सभ्य थे, जिन्होंने पेड़ों की पूजा का रिवाज बनाया था। हम तो इतने काबिल हो गए हैं कि उन्हें काट कर विकास का ताल ठोंक रहे हैं।  अब जब प्रकृति आग बरसा रही है, तब फरमान निकाल रहे हैं। प्रकृति हम से कह रही है, अपने विकास को लेकर चाटो। हम तो तुम्हारे लिए छांव लेकर खड़े थे। तुम टँगारे लेकर खड़े हो गए।  तुमने हमें काट डाला। तुम जीत गए। हम बेजुबान हार गए। लेकिन आह की भी इजलास होती है। हमारी फरियाद खुद-ब-खुद  प्रकृति के इजलास में होती है। तय समय पर फैसला होता है।  मुकर्रर सजा को अब  भुगतो।

ओह !! सरकार यदि प्रायश्चित कर सके, तो अच्छी बात होगी। लेकिन प्रायश्चित की पहली शर्त होती है, गुनाह कबूलना। क्या सरकार यह करेगी?

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