तीसरा फ्रंट फिलहाल संभव नहीं, चुनाव बाद बन सकती गुंजाइश

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प्रेमकुमार मणि
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  • प्रेमकुमार मणि

मैंने पहले बतलाया है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच वोटों का हिसाब क्या था। एनडीए यानी भाजपा गठबंधन को प्राप्त 34 .1 फीसद वोट उसकी नयी ताकत के परिचायक थे। उसे सीटें भले कम मिलीं, लेकिन हासिल वोट उल्लेखनीय थे। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू के इकट्ठे वोट 41 .7 फीसद थे। इन वोटों के विश्लेषण से एक तथ्य जो उभर कर आता है, वह यह कि दलित-पिछड़े तबकों के वोट, महागठबंधन के मुकाबले भाजपा गठबंधन को अधिक मिले। महागठबंधन को प्राप्त 41 .7 फीसद मतों में से लगभग 20 फीसद वोट मुसलमानों और तथाकथित ऊँची जातियों के थे। महागठबंधन में ऊँची जातियों के 33 उम्मीदवार थे (आरजेडी के 06 , जेडीयू के 10 और कांग्रेस के 17 )। इसके अलावा इस तबके के भाजपा विरोधी वोटों का भी एक हिस्सा महागठबंधन को मिला था। इस तरह एक आकलन है कि ऊँची जातियों के कुल 13 फीसद वोटों में से कम से कम तीन फीसद वोट तो महागठबंधन को मिले ही। मुसलमानों के लगभग 17 फीसद वोटों के साथ इसे जोड़ दिया जाये तो यह 20 फीसद हो जाता है। महागठबंधन को प्राप्त शेष 21 .7 फीसद वोट ही दलित-पिछड़े तबके से हैं। इसका बड़ा हिस्सा उच्च पिछड़ों का है, अर्थात निम्न पिछड़ों और दलितों के वोट कम हैं। सीएसडीएस ने चुनाव के बाद बतलाया था कि उच्च पिछड़ों के 80 फीसद वोट महागठबंधन को मिले। कुल वोटों का यह 16 फीसद होता है। अर्थात अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों के मात्र 5 .7 फीसद वोट ही महागठबंधन को मिले। इसके मुकाबले भाजपा गठबंधन को प्राप्त 34 फीसद मतों में यदि 10 फीसद ऊँची जातियों का मान लिया जाये तो शेष 24 फीसद वोट मुख्यतया दलित और निम्न पिछड़ी जातियों का है। क्योंकि उच्च पिछड़े तबकों का बहुत कम समर्थन भाजपा गठबंधन को मिल सका था। मुसलमानों का तो मिला ही नहीं था।

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नीतीश कुमार के महागठबंधन से हट जाने और एनडीए से जुड़ जाने से प्रथमदृष्टया एक अंतर आया है। यह तय है कि कई कारणों से नीतीश ने अपना जनाधार खोया है। उनका स्वतन्त्र जनाधार यूँ भी कभी बहुत व्यापक नहीं रहा था। दो बार उन्होंने स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़े। 1995 का विधानसभा चुनाव और 2014 का लोकसभा चुनाव। दोनों बार बुरी तरह पिट गए। इस दफा आयाराम -गयाराम चरित्र के कारण भी उन्होंने विश्वसनीयता खोयी है। लेकिन जाति-बिरादरी वाले बिहार में यह कहना मुश्किल है कि उनने अपनी जमीन पूरी तरह खो दी है। यदि कुल छह-सात फीसद मतों को प्रभावित करने की क्षमता भी वह रखते हैं और इस वोट को वह एनडीए के साथ टैग कर सकते हैं, तब वह एनडीए को मज़बूत कर सकते हैं। एनडीए को पिछले विधानसभा में प्राप्त वोट यदि स्थिर रहता है, तब भविष्य के चुनाव में उसे 40 फीसद से अधिक वोट मिलते दिखते हैं। इसके मुकाबले महागठबंधन सिमट कर वहां पंहुच सकता है, जहाँ एनडीए था; यानी 34 -35 फीसद वोटों के इर्द-गिर्द। इस स्थिति में नतीजों का अनुमान कोई भी कर सकता है।

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लेकिन नीतीश का साथ एनडीए के लिए कुछ मुसीबतें भी खड़ी करेगा। घपले-घोटालों की बात छोड़ भी दें, तो प्राप्त सूचनाओं के अनुसार कल्याणकारी योजनाओं को कार्यान्वित करने में सरकारी मशीनरी बुरी तरह विफल रही है। भ्रष्टाचार चरम पर है। शिक्षा, स्वास्थ्य सहित सभी महकमों के प्रति जनता उदासीन है।  एक निराशा गांव-कस्बों में गहराती जा रही है। यह सब व्यवस्था विरोधी गुस्से में उभर सकता है। इसका खामियाज़ा एनडीए को भुगतना पड़ सकता है।

और समीकरणों के हिसाब से क्या एनडीए अक्षुण्ण है? शायद नहीं। पिछले 4 वर्षों में भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति ने दलितों और पिछड़े तबकों को चिड़चिड़ा बना दिया है। इस गुस्से की राजनीतिक अभिव्यक्ति भी हुई है। एक अध्ययन के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में दलितों के 23 फीसद वोट भाजपा, 19 फीसद वोट बसपा और 14 फीसद वोट कांग्रेस को मिले थे। आगामी लोकसभा चुनाव में यह स्थिति नहीं रहने वाली है, यह तय है। पिछड़े तबके के वोटों में भी भाजपा से विकर्षण बढ़ा है। इन सब के समवेत प्रभाव उसके जनाधार को निश्चित रूप से संकुचित करेंगे। बिहार में पिछले चुनाव में जीतन राम मांझी भाजपा के साथ थे, इस बार नहीं रहेंगे। यदि एनडीए का एकाध धड़ा और टूट गया तो भाजपा धड़ाम हो सकती है।

अब महागठबंधन की स्थिति देखें। इसकी सब से बड़ी पार्टी आरजेडी का पार्टीगत ढांचा बेहद लचर है।  विचार के नाम पर मंडल कमीशन की रिपोर्ट है। हालांकि इसके नेता राजनीतिक तौर पर ऐतिहासिक जेपी आंदोलन के गर्भ से निकले हैं। 1990 में पहली दफा भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने, लेकिन साल भर के भीतर परिस्थितियों ने उससे अलग कर दिया और फिर कभी उसके साथ नहीं गए। फिलहाल वह मुकदमों से घिरे हैं और पार्टी की बागडोर उनके बेटे तेजस्वी ने संभाली हुई है। आरजेडी के विधायक दल के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी ने अपनी क्षमता का बेहतर प्रदर्शन किया है और उनकी प्रशंसा उनके विरोधी भी करते हैं। नीतीश कुमार ने उन्हें एकबारगी उपमुख्यमंत्री से नेता बना दिया। यह तेजस्वी की तरक्की थी। तेजस्वी ने अपनी योग्यता भी प्रदर्शित की, लेकिन मुश्किलें उनके घर से ही बार-बार उभर रही हैं। पार्टी के प्रचार होर्डिंगों पर पूरे परिवार की चित्रमाला किसी जाति विशेष के कबायली हिस्से में भले ही कुछ उत्साह जगाती हो, अन्य पिछड़े वर्गों में वैसा ही चिड़चिड़ापन और विकर्षण पैदा करती है, जैसा भाजपा का रामनामी हिंदुत्व।

महागठबंधन की दूसरी मुश्किल कांग्रेस है। बिहार कांग्रेस ऊँची जातियों के प्रभाव में रही है। पचास के दशक में कांग्रेस भूमिहारों और राजपूतों के वर्चस्व की पार्टी थी। बड़ी मुश्किल से केबी सहाय ने इस वर्चस्व को पार्टी के भीतर ही तोड़ा और 1963 में मुख्यमंत्री हुए। वह बिहार के पहले राजनेता थे, जिन्होंने बिहार की राजनीति में ऊँची जातियों के वर्चस्व को तोडा था। दो साल में ही उन्हें लालू की तरह ही बदनाम कर के रख दिया गया। 1968 में सहाय ने अपनी क्षमता और प्रभाव प्रदर्शित कर गैर कांग्रेसी बीपी मंडल को मुख्यमंत्री बनाया और 1971 में कांग्रेसी दरोगा राय को। 1971 के बाद कांग्रेस इंदिरा गाँधी के प्रभाव में आयी। 1980 -90 का दशक कांग्रेस का रहा। इन दस वर्षों में पांच मुख्यमंत्री हुए। तीन ब्राह्मण और दो राजपूत। पिछड़े-दलित तबकों में इसकी प्रतिक्रिया हुई और नतीजा है पिछले अट्ठाइस वर्षों से अद्विज शासन चल रहा है।

कांग्रेस आज भी द्विज पार्टी बनी हुई है। सन 2000 में यह आरजेडी के साथ सत्तासीन हुई और थोड़े-बहुत मतभेदों और कभी-कभार के नोक-झोंक के साथ यह आरजेडी के साथ बनी रही है। 2015 के महागठबंधन में नीतीश ने कूटनीति की और चार विधायकों वाले कांग्रेस को दस गुना अधिक 40 सीटें दिलवा दी। नीतीश कांग्रेस को अपने प्रभाव में लेने की जुगत में थे। सफल न होने पर उसके चार विधान परिषद सदस्यों को अपनी पार्टी में मिला लिया। दल-बदल विधेयक नहीं होता तो कुछ विधानसभा सदस्यों को भी मिला लेते।

कांग्रेस का सवर्ण-असरफ प्रभुत्व आरजेडी के साथ सहज नहीं रहता। वह नीतीश के साथ होना चाहता है। लेकिन नीतीश की भाजपापरस्ती को केंद्रीय नेतृत्व बार-बार ठुकरा देता है। कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा आज भी लालू के साथ सहज नहीं है, लेकिन राजनीतिक मज़बूरी में साथ बने हैं। कांग्रेस के पास अपना वोट भले नगण्य हो, उसे बहुत अधिक सीटें चाहिए। चूँकि इस बार केंद्रीय आलाकमान हर हाल में आरजेडी के साथ होना चाहेगा, लेकिन बिहार कांग्रेस के अहदी-कामचोर और निठल्ले नेता कूबत भर अड़ंगा लगाएंगे। बिहार में कांग्रेस जितनी ज्यादा सीटें लड़ेंगी, भाजपा को उतना ही फायदा होगा।

महागठबंधन की पार्टियों के लिए जरुरी होगा कि या तो वे दलित-पिछड़े तबकों में आधार विकसित करें, या फिर उनके प्रभाव वाले दलों को अपने मोर्चे में शामिल करें। लेफ्ट से भी उसका पुख्ता समझौता लाजिम है, खासकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी धड़े से। गठबंधन को हर हाल में तकरीबन दस फीसद मतों को बढ़ाने की चिंता करनी होगी।

किसी तीसरे फ़्रंट की फिलहाल कोई सम्भावना नहीं दिखती, लेकिन यदि ऐसा फ़्रंट होता तो उसमें वैचारिकता अधिक होती। मैं ऐसे फ़्रंट की सम्भावना से इंकार नहीं करता, लेकिन यह सब लोकसभा चुनाव के बाद ही संभव प्रतीत होता है। बिहार विधानसभा का आगामी चुनाव इस नए राजनीतिक फ़्रंट का बेसब्री से इंतज़ार करेगा।

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