एक वैज्ञानिक, जिसने बताया कि पौधों को भी दर्द होता है

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जयंती पर विशेषः पेड़-पौधों में जीवन का राज बताने वाले जगदीश चंद्र बोस

  • नवीन शर्मा
आधुनिक भारत में जिस भारतीय वैज्ञानिक ने सबसे पहले विश्व को अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा का लोहा मनवाया था, वे प्रोफेसर जगदीश चंद्र बोस थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बोस ने ही  यह बात वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित की कि पेड़़-पौधों में भी जीवन है। उन्होंने ही रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स के सिद्धांत का अविष्कार किया।  वे भौतिक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ जीव वैज्ञानिक, वनस्पति वैज्ञानिक, पुरातत्वविद और लेखक भी थे। जेसी बोस ऐसे समय पर कार्य कर रहे थे, जब देश में विज्ञान शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर थे। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी बोस ने विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान दिया। रेडियो विज्ञान के क्षेत्र में उनके अद्वितीय योगदान और शोध को देखते हुए ‘इंस्टिट्यूट ऑफ इलेक्टि्रकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर’ (आईईईई) ने उन्हें रेडियो विज्ञान के जनकों में से एक माना।

हालांकि रेडियो के अविष्कारक का श्रेय इतालवी अविष्कारक मार्कोनी को चला गया, परन्तु बहुत से भौतिक शास्त्रियों का कहना है कि प्रोफेसर जगदीश चंद्र बोस ही रेडियो के असली अविष्कारक थे। जेसी बोस के अनुसंधानों और कार्यों का उपयोग आने वाले समय में किया गया। आज का रेडियो, टेलीविजन, भूतलीय संचार रिमोट सेन्सिग, रडार, माइक्रोवेव ओवन और इंटरनेट, जगदीश चन्द्र बोस के कृतज्ञ हैं।

जन्म 30 नवंबर, 1858 को बिक्रमपुर हुआ था, जो अब ढाका , बांग्लादेश का हिस्सा है। इनके पिता भगवान सिंह बसु डिप्टी कलेक्टर थे। उस दौर में अफसर लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ा कर अफसर बनाना चाहते थे, लेकिन भगवान सिंह बसु अपने बेटे को अफसर नहीं, बल्कि सच्चा देश सेवक बनाना चाहते थे। इसलिए जगदीशचंद्र बसु को पास के स्कूल में दाखिला दिला दिया गया, वहाँ अधिकतर किसानों और मछुआरों के बच्चे पढते थे। वे पढ़ाई भी करते थे, साथ-साथ खेती और दूसरे कामों में अपने घर वालों का हाथ भी बँटाते थे। उन बच्चों के साथ रहकर बसु ने जीवन की वास्तविक शिक्षा को अपनाया।

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बचपन के प्रश्नों के उत्तर की खोज 
पेड़-पौधों के बारे में जब उनके सवालों का उत्तर बचपन में स्पष्ट नहीं मिला तो वे बङे होने पर उनकी खोज में लग गये। बचपन के प्रश्न जैसे- माँ पेड़ के पत्ते तोड़ने से क्यों रोकती थी? रात को उनके नीचे जाने से क्यों रोकती थी? ये बातें उनके जेहन में थी। वे इनका जवाब जानना चाहते थे। अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण आगे चलकर उन्होंने अपनी खोजों से पूरे संसार को चकित कर दिया।

समान काम के लिए समान वेतन के लिए किया संघर्ष
लंदन से रसायन शास्त्र और वनस्पति शास्त्र में उच्च शिक्षा ग्रहण कर 1885 में स्वदेश लौटे। भौतिक विषय के सहायक प्राध्यापक के रूप में ‘प्रेसिडेंसी कॉलेज’ में अध्यापन करने लगे। यहाँ वह 1915 तक कार्यरत रहे। उस समय भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज़ शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिया जाता था। इसका श्री जगदीश चंद्र बोस ने बहुत विरोध किया और तीन वर्षों तक बिना वेतन लिए काम करते रहे। वे आर्थिक संकटों में पड़ गए और कलकत्ते का पुश्तैनी बढ़िया घर बेचकर उन्हें शहर से दूर सस्ता मकान लेना पड़ गया। कलकत्ता काम पर आने के लिए वे पत्नी के साथ हुगली नदी में नाव खेते हुए आते थे। फिर पत्नी नाव लेकर अकेली लौट जाती और शाम को वापस नाव लेकर उन्हें लेने आतीं। लम्बे समय तक दृढ़निश्चयी पति-पत्नी इसी प्रकार नाव खेकर अपने आने-जाने का खर्चा बचाते रहे। अंग्रेज अधिकारी लंबे समय तक बोस के झुकने का इंतज़ार करते रहे, पर अंततः उन्हें ही झुकना पड़ा। बोस को अंग्रेज अध्यापकों के बराबर मिलनेवाला वेतन देना स्वीकार कर लिया।

वनस्पति पर अनुसंधान
बायोफिजिक्स (Biophysics ) के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने बताया कि पौधों में उत्तेजना का संचार वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) माध्यम से होता है, न कि केमिकल माध्यम से। बाद में इन दावों को वैज्ञानिक प्रोयोगों के माध्यम से सच साबित किया गया था। आचार्य बोस ने सबसे पहले माइक्रोवेव के वनस्पति के टिश्यू पर होने वाले असर का अध्ययन किया था। उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले असर का अध्ययन किया था। इसके साथ-साथ उन्होंने रासायनिक इन्हिबिटर्स (inhibitors ) का पौधों पर असर और बदलते हुए तापमान से होने वाले पौधों पर असर का भी अध्ययन किया था। अलग- अलग परिस्थितियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि पौधे संवेदनशील होते हैं। वे “दर्द महसूस कर सकते हैं, स्नेह अनुभव कर सकते हैं इत्यादि”।
नाइट की मिली उपाधि
1917 में जगदीश चंद्र बोस को “नाइट” (Knight) की उपाधि प्रदान की गई तथा वह भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए रॉयल सोसायटी लंदन के फेलो चुन लिए गए। बोस ने  पूरा शोध कार्य बिना किसी अच्छे  उपकरण और प्रयोगशाला के किया था, इसलिए वह एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे। “बोस इंस्टीट्यूट” (बोस विज्ञान मंदिर) इसी सोच का परिणाम है, जो विज्ञान में शोधकार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है।

प्रयोग और सफलता
जगदीश चंद्र बोस ने सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव) के क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्य तथा अपवर्तन, विवर्तन और ध्रुवीकरण के विषय में अपने प्रयोग आरंभ कर दिये थे। लघु तरंगदैर्ध्य, रेडियो तरंगों तथा श्वेत एवं पराबैंगनी प्रकाश दोनों के रिसीवर में गेलेना क्रिस्टल का प्रयोग बोस के द्वारा ही विकसित किया गया था। मारकोनी के प्रदर्शन से दो  वर्ष पहले ही 1885 में बोस ने रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन में जगदीश चंद्र बोस ने दूर से एक घण्टी बजाई और बारूद में विस्फोट कराया था।

आजकल प्रचलित बहुत सारे माइक्रोवेव उपकरण जैसे वेव गाईड, ध्रुवक, परावैद्युत लैंस, विद्युतचुम्बकीय विकिरण के लिये अर्धचालक संसूचक, इन सभी उपकरणों का उन्नींसवी सदी के अंतिम दशक में बोस ने अविष्कार किया और उपयोग किया था।
बोस ने ही सूर्य से आने वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण के अस्तित्व का सुझाव दिया था जिसकी पुष्टि 1944 में हुई। इसके बाद बोस ने, किसी घटना पर पौधों की प्रतिक्रिया पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया। बोस ने दिखाया कि यांत्रिक, ताप, विद्युत तथा रासायनिक जैसी विभिन्न प्रकार की उत्तेजनाओं में सब्जियों के ऊतक भी प्राणियों के समान विद्युतीय संकेत उत्पन्न करते हैं। उन्होंने एक यन्त्र क्रेस्कोग्राफ का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से उन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है।
जगदीश चंद्र बोस ने अपने बारे में एक व्याख्यान में बताया कि उस समय बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी मानी जाती थी। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया, वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम नौकर का बेटा बैठा करता था। मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क मे प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।

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वे हमेशा कहते थे कि जब भी मैं अपने स्कूल के साथियों के साथ घर वापस आता था, तो मेरी माँ सभी का एक साथ बिना भेदभाव के स्वागत करती थी। मेरी माँ एक पुराने संस्कारों की महिला थी, लेकिन फिर भी भेदभाव और अछूतों की बातों पर उन्हें जरा भी भरोसा नहीं था। वह इन सारी बातों  को बेतुका मानती थीं। उन्होंने हमेशा मुझे समभाव की शिक्षा दी और मैं भी इन भेदभाव की बातों  को नहीं मानता था। उस समय में छोटी जाति के लोगों  को जानवरों या राक्षसों  के समान माना जाता था, लेकिन मैंने कभी जाति का भेद नहीं किया। मेरे लिए मेरे सभी साथी सामान थे। मेरे जीवन में भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी। मुझे अपने जीवन में कभी यह नहीं लगा कि हमें हिन्दू और मुस्लिम में भेदभाव करने की जररूरत है। आचार्य बोस का देहान्त 3 नवम्बर 1937 को बंगाल प्रेसीडेंसी के गिरिडीह (अब झारखंड में) में हुआ। मृत्यु के समय वह 78 साल के थे।

सम्मान

  • 1896 में लंदन विश्‍वविद्यालय से विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की
    1920 में रॉयल सोसायटी के फेलो चुने गए
  • इन्स्ट्यिूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एण्ड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियर्स ने  बोस को  ‘वायरलेस हॉल ऑफ फेम’ में सम्मिलित किया
  • 1903 में ब्रिटिश सरकार ने बोस को कम्पेनियन ऑफ़ दि आर्डर आफ दि इंडियन एम्पायर (CIE) से सम्मानित किया
  • 191 में उन्हें कम्पैनियन ऑफ़ द आर्डर ऑफ दि स्टर इंडिया (CSI) से विभूषित किया गया
  • 1917 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नाइट बैचलर की उपाधि दी।

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