जयंती पर विशेषः आज़ाद हिन्द फौज वाले नेताजी को सलाम!

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस पत्रकार भी थे। यह बात नयी पीढ़ी के पत्रकारों को शायद मालूम न हो। नेताजी ने साप्ताहिक ‘फारवर्ड ब्लाक’  का संपादन किया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस पत्रकार भी थे। यह बात नयी पीढ़ी के पत्रकारों को शायद मालूम न हो। नेताजी ने साप्ताहिक ‘फारवर्ड ब्लाक’  का संपादन किया।
  • नवीन शर्मा

नेताजी सुभाष बोस स्वतंत्रता संग्राम के सबसे लाजवाब हीरो हैं, लेकिन हमारे देश की सरकारों ने उन्हें उतना सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार हैं। वे हर मामले में अव्वल ही रहे। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की। पाठ्य पुस्तकों में गांधी और नेहरू के अलावा किसी तीसरे नेता को सामने आने ही नहीं दिया। पूरे देश में सड़कों, योजनाओं तथा विभिन्न संस्थानों के नामों पर केवल गांधीजी औऱ नेहरू परिवार का ही ठप्पा लगता रहा है। विभिन्न शहरों व कस्बों में किसी गली मोहल्लें, सड़कों व चौराहों के नाम अन्य स्वतंत्रता सेनानियों पर हैं तो इसे आम लोगों ने खुद रखा है।

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओडि़शा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता  जानकीनाथ बोस और मां प्रभावती थीं। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। नेताजी के व्यक्तित्व की कुछ बातें ऐसी हैं, जो उन्हें अपने समकालीन नेताओं से विशिष्ट बनाती हैं। वे पढ़ाई में भी अव्वल थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की तत्कालीन सिविल सेवा परीक्षा (आईसीएस) में टॉपर की सूची में चौथे स्थान पर रहे थे। वे चाहते तो आराम से ऐशो आराम की जिंदगी बसर कर सकते थे, लेकिन नियति ने तो उनके लिए कुछ और ही भूमिका सोच रखी थी। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की सेवा करने के बजाय देश सेवा करने की ठानी। उन्होंने नौकरी नहीं की ।

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सुभाष बोस ने समय की आवाज को पहचाना और खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने वरिष्ठ कांग्रेस नेता चितरंजन दास के मार्गदर्शन में बंगाल में राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होना शुरू किया।1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया।

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष बोस महात्मा गाँधी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।

1925 में क्रान्तिकारी गोपीनाथ साहा  फाँसी की सजा दी गयी। सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के मांडले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया। मांडले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया।  इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।

1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।

सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया।

1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।

सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने के लिए ठहरे हुए थे। उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने के लिए एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए सन् 1942 में बाड गास्टिन  हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसका नाम अनिता बोस रखा था।

1938 में सुभा बोस कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए। कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे। आखिरकार चुनाव की नौबत आई। सुभाष को चुनाव में 1580 मत और गांधीजी व नरमपंथियों के सर्मथन के बाद भी पïट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गांजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया।

1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। गांधीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। 3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिडऩे की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये।

अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद जिय़ाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमो तक पहुँचाया। गोमो रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। वहां से काबुल की ओर निकल पड़े। काबुल में सुभाष दो महीनों तक रहे। वहाँ जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

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बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे।

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आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। अन्त में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे।

आजाद हिंद फौज की स्थापना

सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था। जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।

21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनाई गई।

पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने  दिल्ली चलो का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आज़ाद-हिन्द फौज के नियंत्रण में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को शहीद द्वीप और स्वराज द्वीप का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया।

6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता कहा तभी गांधीजी ने भी उन्हें नेताजी कहा।

नेताजी की आजाद हिंद फौज की वजह से भी भारतीय सेना पूरी तरफ अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान नहीं रही।  आजाद हिंद फौज के कैप्टन शाहनवाज व ढिल्लों पर लाल किले में हुए मुकदमें ने तय कर दिया की अब अंग्रेज भारत में ज्यादा दिन नहीं टिकनेवाले हैं। इसके बाद यह बात चली की विमान दुर्घटना में सुभाष बोस का निधन हो गया। कई कमीशन बैठाने के बाद भी नेताजी की मृत्यु के बारे में पक्का पता नहीं चल पाया है कि वे विमान दुर्घटना में मारे गए थे या नहीं। उनके बारे में कई किंदतियां भी हैं कि वे स्वतंत्र भारत में भी किसी साधु के रूप में जीवन बीता रहे थे।

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