रवि प्रकाश, लंग्स कैंसर, मित्रों की मदद, भावुकता और संघर्ष का जज्बा

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कई अखबारों के वरिष्ठ पदों पर रहे और फिलवक्त BBC और दूरदर्शन के लिए काम करने वाले  पत्रकार रवि प्रकाश ने कैंसर को वरदान के रूप में अंगीकार कर लिया है
कई अखबारों के वरिष्ठ पदों पर रहे और फिलवक्त BBC और दूरदर्शन के लिए काम करने वाले  पत्रकार रवि प्रकाश ने कैंसर को वरदान के रूप में अंगीकार कर लिया है
रवि प्रकाश, लंग्स कैंसर, मित्रों की मदद, भावुकता और संघर्ष का जज्बा। जी, पत्रकार रवि प्रकाश की बात हो रही है, जो इनदिनों मुंबई में लंग्स कैंसर का इलाज करा रहे हैं। अपने 45वें जन्मदिन के तुरंत बाद ही उन्हें इस बीमारी का पता चला। रवि प्रकाश को जानने वालों को मालूम है कि परिस्थितिवश उन्हें सक्रिय पत्रकारिता छोड़ स्वतंत्र पत्रकारिता को जीवन यापन का आधार बनाना पड़ा। मुंबई में रह कर लंग्स कैंसर से लड़ते हुए उन्होंने इस बारे में अपने अनुभव साझा किये हैं। आप भी पढ़ेः  
बीमारी का पता चलने के कुछ ही दिन पहले रवि प्रकाश ने अपना जन्मदिन मनाया था
बीमारी का पता चलने के कुछ ही दिन पहले रवि प्रकाश ने अपना जन्मदिन मनाया था

बीसवीं सदी के मध्य में जब जार्ज ऑरवेल ने अपना मशहूर उपन्यास 1984 ( नाइन्टीन एटी फ़ोर) लिखा, तब शायद उन्हें आभाष नहीं रहा हो कि इक्कीसवीं सदी के साल 2019, 20-21 में कोरोना जैसा वायरस फैलेगा। इससे दुनिया भर के लोग खाँसने-छींकने लगेंगे। उन्हें तेज बुख़ार आएगा। लोगों के फेफड़े ख़राब होने लगेंगे। सभ्य दुनिया इसे पैनडेमिक (वैश्विक महामारी) कहेगी।

इस कारण कई लाख लोग मर जाएंगे। लेकिन, ऐसा हुआ। एक-दूसरे से अलग रहने की नसीहतें दी गईं। बेटे ने बाप की लाश तक छूने से इनकार कर दिया। हर आदमी मानो एक-दूसरे का दुश्मन बन गया हो। यह दुनिया की क्रूरतम हक़ीक़त थी। अब भी है और अगले कुछ सालों तक शायद बनी रहेगी। यह मौजूदा कोरोना काल की एक झलक थी।

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मैं यहाँ इसी काल में हुए ‘कैंसर’ की कथा सुनाऊँगा। जो मुझे हुआ। जहां, लोग साथ आए। हिम्मत दी। अब एक ऐसी जंग में जीत की तमन्ना है, जिसका परिणाम हमें पहले से पता है। फिर भी मोहब्बत और अदावत दोनों दिल से करनी चाहिए। सो, कैंसर से अदावत पूरे मन और ताक़त से है।

रोना चाहता था, रो नहीं सका 

सीने में हल्के दर्द और बुख़ार के बाद जब मैं राँची में डॉक्टर निशिथ कुमार से मिला, तो अंदाज़ा नहीं था कि इसकी वजह लंग्स कैंसर है। क्योंकि, मैं स्मोकर नहीं हूँ और न किसी इतने प्रदूषित शहर में रहता हूँ, जिस कारण फेफड़ों का कैंसर हो जाए। तभी तो सीने में जमा पानी निकलवाने के बाद मैं सीधे दूरदर्शन गया और

कैंसर से जंग के बीच होली के मौके पर पत्नी संग रवि प्रकाश
कैंसर से जंग के बीच होली के मौके पर पत्नी संग रवि प्रकाश

अपने लाइव शो की एंकरिंग की। मुझे तब भी ये लगा कि पानी (प्ल्यूलर फ्लुईड) जमा हो गया होगा। निकल गया। अब बात ख़त्म। उस पानी की जांच में मेलिगेंसी निगेटिव आई लेकिन टीबी की भी पुष्टि नहीं हुई।

मेरे डॉक्टर को तभी शक हुआ होगा। उन्होंने CECT Thorax कराने की सलाह दी। उस सीटी स्कैन में मिली तस्वीरें भयावह थीं। मेरे दोनों फेफड़ों में कैंसर के ट्यूमर दिखे और भारी मन से डॉ निशिथ ने मुझे सलाह दी कि अब बायोप्सी करानी होगी। यह कैंसर की तरह है। मैं उनके सामने नि:शब्द बैठा था और वे सीटी स्कैन की फ़िल्म दोबारा देखने लगे। मैं सिर्फ़ यह कह सका कि मैं तो सिगरेट नहीं पीता। मुझे लंग्स कैंसर कैसे हो सकता है। डॉ निशिथ बोले, जरूरी नहीं कि लंग्स कैंसर सिर्फ़ स्मोकर्स को हो। मैं फिर नि:शब्द हो चुका था।

मेरी आंखें मेरी भावनाओं के साथ बहना चाहती थीं, लेकिन मुझे मज़बूत बने रहना था। मैं उनके चैंबर से नीचे आया। सीढ़ियों पर बैठा। एकबारगी लगा कि मेरी आंखों के सामने अंधेरा है। मेरा अस्तित्व ख़त्म होने वाला है। उस शाम भी दूरदर्शन पर मेरा शो था। मैंने अपने प्रोड्यूसर को फोन लगाया। यह बात साझा की और गेस्ट को स्टूडियो आने से मना करने को कहा।

ऐसा नहीं था कि मुझमें ताक़त नहीं थी। दरअसल, मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। मैं जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था। पत्नी और बेटे से यह बात साझा करना चाहता था। आगे की योजनाएं बनाना चाहता था। मन भर रोना चाहता था, ताकि दिल का बोझ हल्का हो। लेकिन, आंखों में आंसू होते हुए भी आप कई बार रो नहीं पाते। मेरे साथ भी वही हुआ। मैंने टैक्सी ली और सीधे घर चला आया।

यहां आकर तो और भी मज़बूती दिखानी थी। न मैं रो सका और न किसी को रोने दिया। काश, तब सबलोग रो लिए होते। हमलोग एक-दूसरे से छिप-छिपाकर रोए और आगे की योजनाओं पर बातचीत शुरू की। वह जनवरी महीने की 30 तारीख़ थी, साल 2021। कुछ नतीजे पर पहुंचते, इससे पहले ही दोस्तों का आना शुरू हो गया। मेरे दिमाग में कोई नया आइडिया नहीं था। मैं उन निराश लोगों की तरह हो चुका था, जो कैंसर को ‘डेथ वारंट’ की तरह लेते हैं। मेरी सारी ऊर्जा मानो ख़त्म हो गई हो। उस रात हमलोग ठीक से खा भी नहीं सके।

तभी एक डॉक्टर मित्र ने तत्काल मुंबई जाने की सलाह दी। हम किसी तरह सोए। सुबह हुई। फिर से दोस्तों की भीड़। अनिर्णय की स्थिति। शाम होने तक मैंने अपने को ठीक करने की कोशिश की। दोस्तों को घर से विदा किया। फिर मुंबई का टिकट कराया। तय किया कि अब रोना नहीं है। लड़ना है। अगले दिन मुंबई रवानगी थी। घर से जाते वक्त कुछ दोस्त पैसे वाला लिफाफा पकड़ा चुके थे। कुछ ने बैंक ट्रांसफ़र किया। घर से भी 2 लाख रुपये आए। अब हमारे पास मुंबई जाने और इलाज शुरू कराने लायक़ पैसे थे और हिम्मत भी।

1 फ़रवरी की शाम एयरपोर्ट पर पहुंचे दोस्तों को देखकर मेरी आंखों में आंसू की बूंदें थीं। भविष्य की चिंताएं और पत्नी-बेटे-मां-पापाजी के चेहरे मेरी आंखों में घूम रहे थे। लेकिन, सार्वजनिक जगहों पर कैसे रोते। मैं खुद से जद्दोजहद कर रहा था। मुझे मजबूत बने रहना था, लेकिन ये बातें अंदर से मुझे कमजोर कर रही थीं। मैं रोना चाहता था, लेकिन रो नहीं सका। मैं मजबूत और कमजोर रवि प्रकाश के बीच झूलता हुआ महसूस कर रहा था। कुछ घंटे बाद जब रात हुई, हम मुंबई में थे। आगे के इलाज के वास्ते …। इससे सिर्फ़ एक महीने पहले मैंने अपना 45 वाँ जन्मदिन मनाया था। (जारी)

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