राजेंद्र माथुरः हिन्दी पत्रकारिता को नई धार देनेवाले व्यक्ति

0
227
राजेंद्र माथुर
राजेंद्र माथुर
  • प्रवीण बागी

राजेंद्र माथुर, हिन्दी पत्रकारिता को नई धार देनेवाले व्यक्ति की आज जयंती है। वे पत्रकारिता के मेरे गुरु रहे हैं। उनकी छत्रछाया में पत्रकारिता का अवसर मिला। नवभारत टाइम्स, पटना में नियुक्ति के लिए 1986 में दो चरणों में हुई लिखित परीक्षा में सफल होने के  बाद माथुर साहब ने ही मेरा इंटरव्यू लिया था। उनके जैसा विद्वान और सहज-सरल  संपादक मुझे फिर नहीं मिला।

यह भी पढ़ेंः गिरिराज सिंह की कुल संपत्ति  6 करोड़ 68 लाख 36 हजार 332 रुपये

- Advertisement -

इंटरव्यू कब शुरू और कब समाप्त, यह पता ही नहीं चला। सवाल-जवाब, जो आमतौर पर साक्षात्कार में होता है, वह हुआ ही नहीं। समसामयिक विषयों पर सिर्फ बातचीत हुई। वह भी गपशप के अंदाज में। उन्होंने कहा कम, सुना ज्यादा। मैं सवाल का इन्तजार ही करता रह गया। अचानक उन्होंने पूछा, कहां काम करना पसंद करेंगे- डेस्क या रिपोर्टिंग। मैं अचंभित रह गया। हड़बड़ाते हुए अपनी पसंद रिपोर्टिंग बताई। फिर उन्होंने पूछा रिपोर्टिंग क्यों, मैंने वजह बताई। वे उससे संतुष्ट हुए।

यह भी पढ़ेंः बिहार में मुद्दों की भरमार, पर भुनाने में नाकाम रहा विपक्ष

उस समय MA करने के बाद मैं बैचलर ऑफ़ जर्नलिज्म की पढाई कर रहा था। पत्रकारिता का ककहरा भी नहीं जानता था। अखबारों में समसामयिक विषयों पर कुछ लेख जरुर लिखे थे। मगर माथुर साहब ने कभी अपनी गुरुता दर्शाने या मैं पत्रकारिता का नवसिखुआ हूँ, यह अहसास कराने की कोशिश नहीं की। जैसे कोई अपने समकक्ष के साथ व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार उनका मेरे प्रति था। आज के पत्रकारों में इसकी कमी अखरती है।

यह भी पढ़ेंः चुनाव के खेल को समझना चाहते हैं तो पढ़ लें यह किताब

उनकी लेखनी ने उन्हें कालजयी बना दिया है। अगस्त 1963 में  उनका लिखा आज के सन्दर्भ में भी कितना सटीक है, इसकी एक बानगी पेश है। उन्होंने लिखा था- ‘हमारे राष्ट्रीय जीवन में दो बुराइयाँ घर कर गई हैं, जिन्होंने हमें सदियों से एक जाहिल देश बना रखा है। पहली तो अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्पहीनता को जायज ठहराने की बुराई, दूसरी पाखंड की बीमारी, वचन और कर्म के बीच गहरी दरार की बुराई।’

यह भी पढ़ेंः एक्ट्रेस वीना की पहचान होती थी बोलती आंखें और रौबीला चेहरा

उनकी विचारधारा को लेकर हमेशा एक संशय रहा। कभी उन्हें कांग्रेसी माना गया तो कभी हिंदूवादी तो कभी समाजवादी। इस सन्दर्भ में वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने अपनी किताब ‘सपनों में बनता देश’ में राजेन्द्र माथुर के बारे में लिखा है- ‘1984-86 के दौरान गुप्तचर एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सवाल किया, आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से वे कभी कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिन्दूवादी संघी, तो कभी समाजवादी? क्या है उनकी पृष्ठभूमि? उस जासूस की उलझन भरी बातों से मुझे खुशी हुई। मैंने कहा माथुर साहब हर विचारधार में डुबकी लगाकर ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी भी पार्टी या विचारधारा में नहीं है। वह कभी किसी एक के साथ नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थो में राष्ट्र भक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने भी बड़े बलिदान और त्याग के पक्षधर हैं।’ ऐसे माथुर साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि! (फेसबुक वाल से साभार)

यह भी पढ़ेंः पैंसठ वर्षीय पिता ने प्रोफेसर पुत्र को लिखा पत्र, दी ऐसी सलाह 

यह भी पढ़ेंः बिहार की राजनीति का कंट्रोल रूम बन गया है वैशाली

- Advertisement -