![paswan रामविलास पासवान आज पंचतत्व में निलीन हो गये, लेकिन कई लोगों के लिए कई यादें छोड़ गये हैं। कोई उनकी सज्जनता तो कई लोग उनकी कार्य प्रणाली की चर्चा करते हैं।](https://www.sarthaksamay.com/wp-content/uploads/2018/10/paswan-1-696x392.jpg)
पटना। लोकसभा चुनाव में भले ही देर हो, पर बिहार में इसकी सरगर्मी कुठ अधिक ही महसूस की जा रही है। कभी सीटों की हिस्सेदारी को लेकर माहौल कर्म होता है तो कभी जातीय वोटरों का दिल जीतने की मशक्कत करती राजनीतिक पार्टियां दिखती हैं। हाल के दिनों में जातीय वोटरों में दलित और पिछड़े हॉट केक बने हुए हैं। हर दल अपने अंदाज में दलित-पिछड़ों का हितैषी बनने का दावा कर रहा है। चाहे भाजपा हो या जदयू या फिर एनडीए के दूसरे घटक दल, सब दलित-पिछड़ों के हमदर्द बनने का दंभ भर रहे हैं। महागठबंधन का राजद भी किसी से पीछे रहने के मूड में दिखाई नहीं देता। जदयू के आरसीपी सिंह अपने नेता नीतीश कुमार की सलाह पर दलित सम्मेलन जगह-जगह कर रहे हैं। नीतीश कुमार ने तो बिहार की सत्ता संभालने के साथ ही दलितों को पटाना शुरू कर दिया था दलित-महादलित की श्रेणी बना कर।
जदयू के राज्यसभा सदस्य आर.सी.पी सिंह ने दलितों का राज्यभर में सम्मेलन कर रहे हैं। बिहार सरकार ने तो तरह-तरह की लुभावनी घोषणाएं ही दलितों के लिए नहीं की है, बल्कि वह उस पर अमल भी कर रही है। नीतीश कुमार ने दलितों में दो श्रेणियां पहले ही बना दी थीं- दलित-महादलित। पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का बंटवारा भी पहले ही हो चुका है।
बिहार में दलितों के दो ही दावेदार परंपरागत दिखते हैं- रांविलास पासवान और जीतन राम मांझी। रामविलास अपनी लोजपा के साथ एनडीए में हैं तो मांझी अपनी पार्टी हम (से) को लेकर राजद के साथ सटे हुए हैं। अपने जातीय वोटरों के साथ इनकी गोलबंदी-लामबंदी तो समझ में आती है, लेकिन बाकी दलों ने इनके वोट आधार में सेंध लगानी शुरू कर दी है। नीतीश कुमार ने तो सत्ता संभालने के साथ ही दलितों को साधना शुरू कर दिया था। दलित-महादलित का विभाजन कर सहूलियतें बढ़ा दीं। पंचायतों में इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की। अब इनके बच्चों को पढ़ने-लिखने के लिए आर्थिक सहायता का भी प्रावधान कर दिया है।
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सामाजिक न्याय के नाम पर लालू प्रसाद ने दलितों-पिछड़ों को अपना वोट बैंक बनाया था, लेकिन सच्चाई यह है कि अब महज यादव-मुसलिम ही उनके साथ थोक में बचे हुए हैं। दलितों को सर्वाधिक लपका है नीतीश कुमार ने। जहां तक रामविलास पासवान की बात है तो वह दलित नेता जरूर हैं, लेकिन दलितों के सर्वमान्य नेता मायावती-कांशीराम की तरह वह कभी नहीं रहे। एनडीए में चूंकि जदयू के साथ लोजपा भी है, इसलिए वोट इनके पास रहे या उनके पास कोई फर्क नहीं पड़ता। आश्चर्यजनक ढंग से लोजपा दलितों का ऐसा कोई सम्मेलन आयोजित नहीं कर रही है, जैसा जदयू या दूसरे करने में लगे हैं। अब तो एनडीए के एक और घटक रालोसपा के नेता उपेंद्र कुशवाहा भी इस होड़ में कूद पड़े हैं।
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दरअसल बिहार में कोई कुछ भी कर ले वोटों का आधार जातीय ही होता है। इसलिए हर पार्टी की नजर अत्यंत पिछड़ा वर्ग के 23 प्रतिशत, महादलितों के 10 प्रतिशत और दलितों के 06 प्रतिशत वोटों पर टिकी हैं। इनके वोटों का समकेति आंकड़ा तकरीबन 39 प्रतिशत होता है। जाहिर है कि इतने वोट जिसे मिलेंगे, उसके माथे मउर (मौर) सजना तय है।
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