जलियांवाला बाग का नरसंहार मानवता के नाम पर  कलंक है 

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जालियांवाला बाग नरसंहार
जालियांवाला बाग नरसंहार
  • शेष नारायण सिंह

जलियांवाला बाग का नरसंहार मानवता के नाम पर कलंक है। इसका नाम हर उस चर्चा में लिया जायेगा, जहां  सरकारी मनमानी के खिलाफ जनता के प्रतिरोध का जिक्र होगा। आज से  ठीक सौ साल पहले बैशाखी के दिन अमृतसर में  स्वर्ण मंदिर के क्षेत्र में स्थित  इस बाग़ में पंजाब के हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईसाई इकठ्ठा हुए थे और ब्रिटिश सरकार के  तथाकथित  “अराजकता और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919” का विरोध कर रहे थे। इस अधिनियम को आम बोलचाल की भाषा में रौलेट एक्ट या काला कानून कहा  जाता था।

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इस कानून के  लेखक एक अंग्रेज़ जज, सिडनी आर्थर रौलेट थे। उन्हीं के नाम पर इसको रौलेट एक्ट नाम दिया गया। यह कानून फरवरी में दिल्ली की काउन्सिल में पेश हुआ और भारी विरोध के बावजूद पास करवा लिया  गया। भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का आगमन तब तक हो चुका था और उन्होंने अहिंसक तरीके से इसके विरोध  का आवाहन किया। 6 अप्रैल को दिल्ली में  इसके विरोध में सफल हड़ताल रही, कहीं कोई काम पर नहीं निकला। बंबई में महात्मा जी खुद भी विरोध में शामिल हए। पूरे देश में इस काले क़ानून का विरोध हुआ, लेकिन  विरोध का आन्दोलन अहिंसक नहीं रह सका।

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पंजाब में हिंसा शुरू हो  गयी तो महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की। पंजाब में सरकार ने फौज को बुला लिया था। अंग्रेजों ने नेताओं की धर-पकड शुरू कर दी थी। इसी काले क़ानून के तहत पंजाब के स्वतंत्रता संगाम सेनानी और कांग्रेस के बड़े नेता, डॉ सत्यपाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू को 10 अप्रैल 1919 को गिरफ्तार कर लिया गया था। पंजाब के इन लोकप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी से पूरे पंजाब में गमो-गुस्से का  माहौल था।

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13 अप्रैल को बैशाखी के पर्व के अवसर पर अमृतसर के जलियाँवाला बाग में आम लोग इकठ्ठा हुए। यह बड़ा-सा बाग था, लेकिन आमतौर पर खाली पड़ा रहता था। तत्कालीन पंजाब सरकार ने हालात पर काबू रखने के लिए ब्रिटिश इन्डियन आर्मी के एक  कर्नल, रेजिनाल्ड   डायर की ड्यूटी लगाई, लेकिन उस अपराधी ने वहां मौजूद लोगों पर गोलियां चलवा दीं। हज़ारों की संख्या में लोगों की मृत्यु हो गयी। उस   संगत में बच्चे भी थे , औरतें भी थीं और बुज़ुर्ग भी थे। बाग से निकलने का एक ही दरवाजा था। उसी दरवाज़े पर फौज खड़ी थी और लगातार बंदूकें चल रही थीं।  गोलियों से बचने के लिए बहुत सारे लोग बाग में बने हुए एक कुएं में कूद गए थे।

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रौलेट एक्ट  इसलिए लाया गया था कि प्रेस को कंट्रोल किया जा सके। किसी को भी बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सके। बिना कोई मुकदमा चलाये अनंत काल तक जेलों में बंद रखा  जा सके और बिना  किसी वकील और दलील के मनमाने तरीके से मुकदमा चलाया  जा सके।

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जलियांवाला बाग के नरसंहार के बाद इस एक्ट का पूरे देश में  ज़बरदस्त विरोध  शुरू हो गया। कांग्रेस कमेटी ने  जलियांवाला बाग के नरसंहार के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने के लिए एक समिति बनाई। मोतीलाल  नेहरू उसके अध्यक्ष थे और मोहनदास करमचंद गांधी उस समिति के सचिव थे। समिति के सचिव के रूप में महात्मा गांधी ने रिपोर्ट लिखी। उसने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। अंग्रेजी सीखने वालों को पहले के जमाने में शिक्षक यह बात ज़रूर बताते थे कि अच्छी अंग्रेजी लिखने के लिए कांग्रेस की जलियांवाला बाग की रिपोर्ट ज़रूर पढ़ लो। अंग्रेज़ी गद्य के लेखकों में महात्मा गांधी का नाम बहुत ही  सम्मन से लिया जाता है और यह रिपोर्ट गांधी जी के गद्य लेखन का प्रतिनिधि नमूना है।

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उनकी रिपोर्ट के बाद अंग्रेजों ने एक कमेटी बनाई, जिसका नाम “रिप्रेसिव लॉज़ कमेटी” था। मार्च  1922 में इस कमेटी की रिपोर्ट को  भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया और रौलेट एक्ट वापस ले लिया  गया। लेकिन रौलेट एक्ट की आत्मा जिंदा रही। 53 साल बाद जून 1975  में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो उसमें भी वही प्रावधान थे, जो रौलट एक्ट में थे। तीन साल तक रौलेट एक्ट जिंदा रहा था और  दो साल के अंदर ही रौलेट एक्ट की स्थायी भावना को ध्यान में रख कर लगाई गयी इमरजेंसी को दफन कर दिया गया था। इसके साथ ही  एक बार फिर साबित  हो गया था कि आतताई  चाहे जितना ताक़तवर हो, जनता के खाली हाथ से किये गए विरोध के सामने उसको झुकना ही पड़ता है।

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रौलेट एक्ट का विरोध और जलियांवालाबाग के नरसंहार की कोई बात तब तक पूरी नहीं मानी जायेगी, जब तक उस नरसंहार को अंजाम देने वाले नरपिशाच, कर्नल रेजिनाल्ड  डायर की बात न कर ली जाए। इसी  राक्षस ने निहत्थे नागरिकों पर गोलियां चलवाई थीं। वह गोरखा राइफल्स, सिख रेजिमेंट और सिंध रेजिमेंट से चुनकर पचास सिपाही लेकर आया था। इन लोगों के पास   ली इनफील्ड की थ्री नॉट थ्री राइफलें थीं, जिससे निहत्थे लोगों पर निशाना लगाकर मारा गया था। सरकारी तौर पर तो बताया गया था कि चार सौ से कम लोग मरे थे, लेकिन महात्मा गांधी की रिपोर्ट और अमृतसर के सिविल सर्जन के अनुसार करीब  15 सौ लोगों को गोलियां मारी गयी थीं। कुएं में कूदकर मरने वालों की कोई गिनती नहीं की गयी।

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बाद में कर्नल डायर (अप्रैल 1919  में उसके पास अस्थायी तौर पर  ब्रिगेडियर का चार्ज  था ) रिटायर वह कर्नल ही हुआ। वह अविभाजित पंजाब के हिल स्टेशन मरी में पैदा हुआ था और लारेंस स्कूल और शिमला के बिशप काटन स्कूल का छात्र भी रहा था। उसके पिताजी की बियर की ब्रुअरी थी। डायर-मीकिन ब्रुअरी शिमला के पास सोलन में अब भी है, लेकिन अब उसका नाम मोहन मीकिन ब्रुअरी हो गया  है।

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एक शिक्षित पृष्ठभूमि से आने वाला यह फौजी बहुत ही  बड़ा अत्याचारी थी। जब जलियांवाला बैग में नरसंहार हुआ तो विरोध में सारे शहर की दुकानें बंद हो गयीं। उसके बाद कर्नल डायर ने एक धमकी भरा पर्चा बंटवाया, जिसमें लिखा  था कि ‘मेरा हुकुम मानना जरूरी है। सब लोग मेरा हुकुम मानें और अपनी अपनी दुकानें खोलें, वरना दुकानें राइफलों के जोर से खोल ली जायेंगी। अगर कोई दुकान बंद करने को कहे  तो उस बदमाश के बारे में मुझे बताओ। मैं  उसको शूट कर दूंगा।”

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डायर के काम की  भारत में तो निंदा हुई ही, ब्रिटेन में भी उसका विरोध हुआ। वह 1920 में रिटायर हो गया, लेकिन उसके आतंक के बाद  सारे भारतवासी एक हो गए और महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन में जुट गए। इस तरह से  जलियांवाला बाग में जो लोग शहीद हुए, उन्होंने ही भारत की आजादी के लिए शुरू हुए आन्दोलन को प्रेरणा दी और भावी आतताई शासकों को सन्देश भी दे दिया।

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