जगजीवन राम, जिन्हें कभी अगड़ों ने दुत्कारा, फिर बाबूजी कह पुकारा

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आरा। जगजीवन राम देश की गुलामी का कारण भी जाति प्रथा को मानते थे। आरा  क्षेत्र की पहचान उसकी भोजपुरी, कुंवर सिंह और जगजीवन राम से है। अजेय महान नायक की कमी आज इस क्षेत्र में सबको सालती है। जी, वही जगजीवन राम, जिन्हें हमारी सामाजिक व्यवस्था के प्रपंचों ने बारंबार अपमानित किया। उनके मान-सम्मान पर कुठाराघात किया। फिर भी उन्होंने हालात से हार नहीं मानी। वे विष पीकर अगड़ों के लिए तीखे बोल नहीं बोले। अंतत: वही अगड़े उन्हें प्यार से बाबूजी कहने लगे थे।

जिन ठाकुरों के सामने खाट पर ब्राह्मणों के बैठने की हिम्मत नहीं होती थी, वहीं उन्हें पहले खाट पर बिठा कर पैर छूकर प्रणाम करते थे। ऐसा करते हुए रोहतास जिले के पूर्व मंत्री व स्व. गिरीश नायायण मिश्रा और स्व. आशुतोष बहादुर सिंह जैसे कई नामचीन हस्तियों को अक्सर देखा जाता था।

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जगजीवन राम को सबसे पहले किसने बाबूजी कहा, इस पर विवाद की थोड़ी गुंजाइश बन सकती है, लेकिन शाहाबाद क्षेत्र में जगजीवन राम को बाबूजी कहते सभी को सुना जा सकता है। वैसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सरेआम उन्हें बाबूजी ही कहती थीं।

1946 से लेकर 1986 निरतंर 40 वर्षों तक सासाराम संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर उन्होंने विश्व कीर्तिमान बनाया। 1937 में  पूर्व मध्य शाहाबाद ग्रामीण क्षेत्र से  बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। उनका निर्वाचन निर्विरोध हुआ था। 24 जनवरी 1979 को देश के उप प्रधानमंत्री बने। जगजीवन राम उस दौर में पैदा हुए थे, जब आदमी की बात कौन कहे, अगर पत्थर की मूर्ति को भी वे छू देते तो अपमानित होना पड़ता।

गांव में दलित परिवार में जन्म लेने के बाद किन बीहड़ रास्तों से गुजरते हुए उन्होंने अपने जीवन का रास्ता बनाया होगा। जिस व्यक्ति को इस देश का रक्षा मंत्री होने के बाद भी उच्च जातियों द्वारा अपमान का सामना करना पड़ा हो, इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।

24 जनवरी 1978 को जगजीवन राम ने रक्षा मंत्री के रूप में वाराणसी में जब संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण किया तो, ब्राह्मणों ने उस मूर्ति को गंगा जल से धोकर पवित्र किया। इस घटना ने उन्हें व्यथित कर दिया था।

गांव के प्राइमरी स्कूल में उन्होंने 1914 में प्रवेश लिया। उसके बाद आरा के मिडिल स्कूल से पढाई की। 1922 में आरा टाउन स्कूल में प्रवेश लिया।  जैसा कि होता ही रहा है, दलित समाज के इस विद्यार्थी को भी विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा। गैर-दलित छात्रों ने  घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका। उनके लिए अलग घड़े का इंतजाम किया गया। यह दीगर बात है कि उनकी विद्रोही चेतना ने इसे स्वीकार नहीं किया। सामाजिक बदलाव की चेतना उनके भीतर जन्म लेने लगी।

1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। मालवीय जी ने काशी विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने वहां नामांकन कराया,  लेकिन अछूत होने से कहां मुक्ति मिलने वाली थी। मेस में बर्तन धोने वाले ने उनका बर्तन धोने से इंकार कर दिया। नाई ने बाल काटने से इंकार कर दिया। इस कारण हिंदू विश्वविद्यालय का छात्रावास छोड़ना पड़ा। उन्हें अस्सीघाट में एक केवट के यहां शरण लेनी पड़ी।

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जाति के संदर्भ में उनका कहना था कि, ‘जाति ने हिंदुस्तान का जितना नुकसान किया है, वह सभी प्रकार के नुकसानों से ज्यादा है। वे देश की गुलामी का कारण भी जाति प्रथा को मानते थे। उनका कहना था कि ‘भारतीय समाज में समता और सम्मान सभी नागरिकों के लिए एक आकाश कुसुम है। विषमता की सीढियां हैं, ऊपर से नीचे, उसके नीचे और नीचे का अंत नहीं, इसको बदलना है।

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