शहर बदलते ही क्यों बदल जाती है हमारी तमीज और तहजीब

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  • नागेन्द्र प्रताप
नागेंद्र प्रताप
नागेंद्र प्रताप

शहर या मुल्क बदलते ही हमारे तहजीब और तमीज बदल जाती है। ऐसा क्यों होता है, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप। उन्हें दक्षिण की यात्रा में एहसास हुआ। इसकी वजह की पड़ताल उन्होंने बखूबी की है।

पिछले दिनों ऊटी से बेंगलुरु के रास्ते में जब हमारी टैक्सी में पीछे से किसी वाहन ने टक्कर मारी तो झटका लगने के बावजूद हमारे ड्राइवर ने कोई हल्ला नहीं मचाया। हम सब जरूर हतप्रभ थे। पीछे मुड़कर गुस्से में उस गाड़ी को देख रहे थे कि पकड़ में आया तो न जाने क्या कर देंगे। खैर, हमारे दक्षिण भारतीय ड्राइवर ने ऐसा कुछ नहीं किया। बस थोड़ा आगे बढ़कर गाड़ी साइड में लगा ली। तब तक पीछे वाले चालक ने भी ओवरटेक करते हुए अपनी गाड़ी हमारी गाड़ी के आगे खड़ी कर दी थी।

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हमें लगा कि टक्कर देने के बावजूद इसने जिस तरह गाड़ी हमारी गाड़ी के आगे लगाई है, कुछ न कुछ बावल होना तो तय है। लेकिन वहां तो कुछ और ही चल रहा था। हमारा ड्राइवर और उस गाड़ी का चालक, जो स्वाभाविक रूप से उसका मालिक भी था, बड़े सहज भाव में बातें कर रहे थे। एक दूसरे का नुकसान देख रहे थे। कुछ तर्क-वितर्क भी स्वाभाविक रूप से रहे ही होंगे। लेकिन अजब बात थी कि किसी के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था। बातें चल ही रही थीं कि हम भी कौतुक में गाड़ी से उतर आए। लेकिन यह क्या, यहां तो पीछे से टक्कर मारने वाला शख्स आसानी से हर्जाना देने पर तैयार हो चुका था और हमारे ड्राइवर का पेटीएम या यूपीआई नम्बर मांग रहा था। दोनों में एक राशि पर समझौता हो गया था और उसने वहीं पर उसका भुगतान भी कर दिया था।

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अब हमारे सामने यह बड़ा सवाल दरपेश था कि यही सब हमारे यूपी-बिहार-एमपी में हुआ होता तो क्या होता? हमारे नोएडा-गाजियाबाद में होता तो क्या होता? भुगतान तो दूर, शायद मार-पीट की नौबत आ चुकी होती! ऐसी कई घटनाओं में जब किसी ने किसी की गाड़ी जबरिया छुई है या रगड़ दी है तो उल्टे भुक्तभोगी को ही गलत ड्राइविंग का दोषी ठहरा कर पीट तक दिया जाता है। वसूली तो हो ही जाती है। पुलिस तक को ऐसे मामलों का निपटारा करने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

यूपी के हरदोई से गये और लम्बे समय से बेंगलुरु में ही रह रहे स्वप्निलकांत दीक्षित इसका बहुत रोचक कारण बताते हैं। उनकी नजर में ‘दक्षिण का आदमी यूं भले ही सडक पर कितने भी नियम तोड़े, लेकिन अगर उसके कारण आपको या आपके वाहन को कोई नुक्सान हुआ है तो खेद जताने और जरूरत पड़ने पर आपस में ही नुकसान की भरपाई करने से पीछे नहीं हटता। वह अपने ‘पूरब’ की तरह मरने-मारने पर उतारू नहीं हो जाता। स्वाभाविक तौर पर पुलिसिया सख्ती इसका एक बड़ा कारण होगा कि लोग किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहते।’

यहां सवाल यह है कि नियमों के मामले, खासतौर से सड़क सुरक्षा के मामले में दक्षिण और पूरब में यह भेद देखने में क्यों आता है। दरअसल यह जन जागरूकता का मामला है और इसके लिए किसी अलग पाठशाला की जरूरत नहीं, स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए नियमों-कानूनों के प्रति जागरूक ही नहीं प्रतिबद्ध होने की भी जरूरत है। जिसकी पढ़ाई घर के बड़े और जिम्मेदार लोगों के आचरण से सीखते-समझते होती है।

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लोकसभा में सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी उस दिन जब सड़क सुरक्षा (संशोधन) विधेयक पेश करते हुए खुद के और कुछ मंत्रियों के ड्राइवरों की कहानी सुना रहे थे, ऊटी से बेंगलुरु का यह एकदम ताजा किस्सा जहन में कौंध उठा। गडकरी बता रहे थे कि किस तरह उनके ड्राइवर की आंख में मोतियाबिंद था और उसे ठीक से दिखाई नहीं देता था, लेकिन विभागीय मेहरबानी से वह बाकायदा सरकारी वाहन चला रहा था। एक मुख्यमंत्री का किस्सा तो कुछ यूं बताया कि उसकी तो दोनों ही आंखों में समस्या थी और वह किसी ‘अदृश्य’ शक्ति के सहारे गाड़ी लंबे समय से चला रहा था।

खैर, यह सब ड्राइवरों नहीं प्रशासन की अराजक व्यवस्था का मामला ज्यादा था, जहां बिना किसी फिटनेस परीक्षण के सरकारी वाहन चालक यूं ही अपनी और कई लोगों की जान जोखिम में डालकर रिटायरमेंट का इंतजार करते रहते हैं। इस मुद्दे पर अलग से गम्भीर चर्चा की गुंजाइश है।

फिलहाल गडकरी के किस्से के बहाने सहज सवाल यह कौंधा कि आखिर नियमों के मामले में हम इस तरह फिसड्डी क्यों हैं? फिसड्डी की जगह ‘अराजक’ कहना शायद ज्यादा उचित होगा! ऐसा क्यों है कि सारे कानून हमें मुसीबत में ही याद आते हैं। आमतौर पर या आम दिनों में हम इन्हें ठेंगे पर ही रखना पसंद करते हैं। हम पड़ोस की दिल्ली में वाहन चलाते वक़्त ठीक रहते हैं, लेकिन यूपी की सीमा पर पहुंचते ही अलग ही दुनिया में आ चुके होते हैं। हमारी सीट बेल्ट भी खुल जाती है। हमें ड्राइव करते हुए मोबाइल से बात करना भी भाने लगता है। मैंने तो अपने खासे पढ़े-लिखे मित्र को यह तक कहते सुना है कि ‘अभी ड्राइव कर रहे हैं और दिल्ली में हैं, गाजियाबाद पहुंचकर बात करते हैं।’ इतना ही नहीं, जिस दिल्ली में कई बार हम इसलिए शराब नहीं पीते कि वापस गाड़ी खुद से ड्राइव करते हुए जाना है (क्योंकि पकड़े जाने का भय रहता है), लेकिन नोएडा-गजियाबाद में सड़क के किनारे ‘कारो-बार’ खोल कर आराम से बैठ ही नहीं जाते, पुलिस वाले से बहस करने में भी पीछे नहीं रहते, गोया यह तो हमारा मौलिक अधिकार ही है जिसका ‘हनन’ करने का उसे कोई हक नहीं। अंततः हम ‘नेगोशिएट’ करने पर आ जाते हैं और कुछ ले दे के निकलने में ही भलाई समझ में आती है। हमारे आसपास ऐसे नजारे आम हैं।

मैं निजी तौर पर यातायात नियमों को लेकर सख्त कानूनों के पक्ष में हूं। लेकिन यह व्यवस्थाएं ऐसी होनी चाहिए कि इनका सख्ती से अनुपालन तो हो ही, दुरुपयोग सबसे पहले सुनिश्चित किया जाए। क्योंकि यह कहने और मानने में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए कि हम उस महादेश में रहते हैं, जहां जितने सख्त कानून, उतनी ही आसान उसकी काट है, जो बड़े आर्थिक दोहन के रूप में सामने आती रही है।

बिहार में शराबबंदी के सख्त कानून के बाद जिस तरह वहां छोटे से छोटा पुलिसवाला भी ‘बड़ा’ बनकर उभरा और एक नये तरह का माफिया विकसित हुआ है, वह भ्रष्टाचार जैसे ‘उन्नत क्षेत्र’  में एकदम ताजातरीन नवाचार के जीवंत रूप में उभरकर सामने आया है।

यानी इस मामले में पारदर्शिता और व्यापकता पहली शर्त है। ये कानून और इनकी पालना ऐसा हो कि दिल्ली-मुम्बई-बेंगलुरू और लखनऊ-पटना-भोपाल या देवरिया-रींवा-दरभंगा में भी कोई भेद न दिखे। मसलन सीट बेल्ट या हेलमेट लगाना एक जगह जरूरी हो तो कहीं भी हो। दिल्ली में पीछे बैठने वाले के लिए भी हेलमेट जरूरी हो तो लखनऊ, पटना या भोपाल में क्यों नहीं। यही नियम रफ्तार को लेकर भी होना चाहिए। अगर सौ या 120 से ऊपर चलना नोएडा एक्सप्रेस वे पर दण्डनीय हो तो किसी भी हाई वे पर यही नियम क्यों न लागू किया जाय। अगर एक ‘एक्सप्रेस-वे’ पर स्वतः यानी ऑटोमेटिक चालान की व्यवस्था हो सकती है तो यह पूरे देश के राष्ट्रीय राजमार्गों पर क्यों नहीं लागू होनी चाहिए, जो वाहन स्वामी का नाम और रसूख देखे बिना समान रूप से सब पर लागू हो और चालान ऑटोमेटिक घर पर तो पहुंचे ही, बाध्यकारी भी हो। मतलब सवाल समान अपराध पर समान दण्ड का है और जो भेदभाव की बात नहीं करता। यहां दिल्ली ही नहीं कई शहरों की मेट्रो रेल और मुम्बई की लोकल ट्रेन की व्यवस्थाओं ही नहीं ‘उसकी संस्कृति’ का भी उदाहरण लिया जा सकता है।

नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली/एनसीआर की मेट्रो में आमतौर पर न कोई अराजकता दिखती है न ही अनुशासन का बड़ा मामला। क्यों ऐसा होता है कि गाजियाबाद/नॉएडा की सड़कों पर बात-बेबात किसी की भी औकात नाप लेने वाला भी मेट्रो में बैठते ही अचानक ‘संस्कारी’ हो जाता है। मुम्बई लोकल तो अपने आप में उदाहरण है, जहां गलती से भी दरवाजे पर लटकने की कोशिश करने वाले को सहयात्री ही अंदर खींच लेते हैं और जरा सी गड़बड़ी करने वाले को खुद ही अच्छा-खासा पाठ पढ़ा देते है। यह नियम की सख्ती के साथ स्वतः स्फूर्त अनुशासन का मामला भी है।

मुंबई में ही पले बढ़े लेकिन यूपी-बिहार सहित तमाम राज्यों-शहरों का अनुभव रखने वाले युवा जकी शाह की यह टिप्पणी गौर करने लायक है कि – ‘यह तो किसी को भी सोचना चाहिए कि मुबई के चौराहों पर रात के 12 बजे भी अगर कोई सिपाही नहीं है, लाल बत्ती है तो लोग वाहन स्वतः रोक लेते हैं और हरी बत्ती का इंतजार करते है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वहाँ उस वक्त कोई ट्रैफिक का दबाव भी नहीं है। लेन ड्राइविंग हमारे जहन में है कि अगर हमें बाएं मुड़ना है तो एक किलोमीटर पहले से ही हम अपनी लेन में आ जाते हैं जो हमें तो सहूलियत देता ही है, औरों को भी परेशान नहीं करता। यह एक संस्कृति है जो मुम्बइकर के अंदर रच-बस गई है। जो शायद हमारे घरों से ही निकली होगी।’

दरअसल हम जब समान अपराध पर समान दण्ड की बात करते हैं तो इसके मूल में मुद्दों पर जागरूकता की वह भावना जगाना है, जिसकी आज सबसे ज्यादा कमी है। और जो शहर-शहर के आधार पर हमारे मन में, हमारे जहन में हमारे असुरक्षा बोध और दण्ड के भय की गम्भीरता को भी कम-ज्यादा कर देता है। यह उसी ‘बोध’ का मामला है जहां हम अधिकारों की बात तो करते है, लेकिन जिम्मेदारियों – जागरूकता की बात नहीं करते। जिसका उदाहरण बेंगलुरू और मुम्बई के इन युवाओं की बात में भी झलकता है।

आखिर क्या कारण है कि एक इंसान अमेरिका जाता है, वहां परिवार के साथ पूरे छह महीने, एक साल या इससे भी ज्यादा रहता है। ड्राइव करते वक़्त अपने छोटे से बच्चे को भी कार में निर्धारित जगह पर ‘कार-किट’ में रखकर ही लाना होता है (इसे सीटबेल्ट संस्कृति की तरह देख सकते हैं) और जिसका पालन सब ख़ुशी-खुशी करते हैं, लेकिन ‘इंडिया’ की धरती पर कदम रखते ही उन्हें न ऐसी कोई कार-किट याद रह जाती है, न सीट बेल्ट या तयशुदा स्पीड लिमिट की। वह तो यह भी भूल जाता है कि उसकी कार सिर्फ चार या छह लोगों के लिए बनी है और वह इसमें और-और ज्यादा लोगों को बैठाने से बाज नहीं आता।

यह वही मामला है जब एक ही इंसान बेंगलुरु-दिल्ली-मुंबई में ड्राइव करते वक़्त अलग आचरण करता है और यूपी, एमपी या बिहार की सीमा में प्रवेश करते ही उसके अंदर के अनुशासन का ऑटोमोड अचानक मैनुअल मॉड में तब्दील हो जाता है। यह सब स्वतः स्फूर्त ढंग से होता है। इसके लिए उसे किसी अतरिक्त मोटिवेशन या इशारे की जरूरत नहीं पड़ती। यह उसके मन में बनी-बैठी एक मजबूत धारणा या सोच का कुफल है। दरअसल इसी बनी-बैठी मजबूत धारणा या सोच को बदलने की जरूरत है। और यह करने के लिए किसी अतिरिक्त ऊर्जा, समय और मशीनरी की जरूरत नहीं है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि ऐसे कानून स्वतः स्फूर्त ढंग, सख्ती लेकिन पूरी पारदर्शिता के साथ लागू किए जाएं, लेकिन इससे पहले नियामक तन्त्र के साथ-साथ आम इंसान में भी व्यापक जागरूकता जगाने की जरूरत है। वही जागरूकता जो घर से शुरू होती है और बड़ों के रास्ते आने वाली पीढ़ी को भी संदेश दे जाती है। यहां एक लोकप्रिय अमेरिकी जज के उस वीडियो को नजीर के तौर पर देखा जा सकता है जो भरी अदालत में भी यातायात नियम तोड़ने वाले शख्स के छोट से बच्चे से पूछता है कि क्या उसके पिता ने नियम तोड़ा था। बच्चे के ‘हां’ में सर हिलाने पर वह पिता को भविष्य के लिए हिदायत देकर महज प्रतीकात्मक जुर्माना लगाकर इसलिए छोड़ देता है कि उसने बच्चे को कोई गलत सीख नहीं दी। हमारे सिस्टम में भी ऐसे उदाहरण पेश करने वाले लोगों की जरूरत है।

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बड़ा संकट यह है कि नियम कानून तो पहले से भी हैं, नए भी बनते ही रहते हैं। लेकिन इनका पालन कराने वाला तंत्र कैसा है, यह बड़ा सवाल है। सारी कमी तो इसी तंत्र की है। मसलन किसी शहर के मुख्य बाजार में कभी एक नियम अचानक से बड़ी जोर-शोर से लागू होता दिखता है, फ़िर महीनों उसे या उसके बारे में कोई पूछता भी नहीं। सड़क किनारे की अवैध पार्किंग का मामला हो, सीटबेल्ट या हेलमेट न लगाने का मामला या फिर सड़क किनारे गाड़ी खड़ी कर शराबनोशी का शौक। यह सब पुलिस अपनी सुविधा से रोकती है और अक्सर सुविधा शुल्क लेकर छोड़ भी देती है और आसपास के कोई प्रतिरोध भी नहीं होता। असल संकट यहीं है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली की पुलिस कभी ऐसा नहीं करती। ऐब वहां भी हैं। लेकिन यह तो सच है न कि वहां न तो जहां-तहां गाड़ी खड़ी करने की हिम्मत पड़ती है, न ही किसी तरह के अन्य उल्लंघन की। लोगों को हमेशा यह भय बना रहता है कि किसी भी उल्लंघन पर किस कोने से सिपाही निकलेगा और मौके पर ही चालान काट देगा। उसके हाथ की पीओएस मशीन बड़े-बड़ों की बोलती बंद करने के लिए पर्याप्त है। चौराहों पर स्वचालित कैमरों की मदद से सीधे आपके मोबाइल पर पहुंच जाने वाले चालान की व्यवस्था ने भी बड़ा काम किया है।

गोया कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे कानून और उनकी पालना हमेशा सख्त से सख्त ही होनी चाहिए। नए प्रस्तावित कानून में अगर सीट बेल्ट न लगाने, नशे में ड्राइविंग से लेकर ओवरस्पीड तक के मामलों में पहले की अपेक्षा कई गुना ज्यादा चालान राशि की व्यवस्था है तो इससे किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। इस तर्क पर तो बिल्कुल ही नहीं कि युवाओं को इसलिए इससे बरी कर देना चाहिए कि वे इतनी जुर्माना राशि देने में सक्षम नहीं होंगे। कल को इसी तर्क पर महिलाओं के लिए फिर वृद्धों के लिए छूट की बात होगी। यह बचकाने तर्क हैं, जो टीवी की अनर्गल बहसों में सुनने में भले ही किसी को अच्छे लगें। होना तो यह चाहिए कि अगर युवा गलती करता है तो एक उम्र तक उसके अभिभावक को ही इसके लिए क्यों न जिम्मेदार बना दिया जाए। वही अभिभावक जिसपर उसे ऐसी गलतियां न करने की सीख देने की जिम्मेदारी है, और जो वह यातायात नियमों को  खुद से मानते-तोड़ते हुए अनायास ही अपने आचरण से अपने बच्चे को सिखा रहा होता है।

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