और कोलकाता में खबरों का ट्रेंड सेटर बन गया प्रभात खबर

0
635

आप लगातार पढ़ रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की संस्मरणों पर आधारित पुस्तक मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की धारावाहिक कड़ियां। इसी कड़ी में आज पढ़ें कि कैसे उन्होंने कोलकाता से प्रभात खबर की शुरुआत की

विश्वास सदा सुफल ही देता है, दुर्गति नहीं। इसी सुफल की कामना में कोलकाता से प्रभात खबर के प्रकाशन के लिए मैं आया था। नये-नवेले दर्जन भर लड़कों की टीम और दूसरे विभागों में चार-पांच लोगों के साथ प्रभात खबर निकालने की तैयारी शुरू हो गयी। अकाउंट्स में साथी बने उत्तम दीवान, जो अभी जमशेदपुर में किसी निजी कंपनी में हैं, विज्ञापन में सुशील कुमार सिंह, जो अभी वहीं बिजनेस हेड हैं और सर्कुलेशन में देवाशीष ठाकुर साथी बने। सहायकों में श्रीप्रकाश, अरुण ठाकुर सबसे पहले आये। केके गोयनका जी यूनिट का प्रबंधन देखने आये थे। कोलकाता से प्रभात खबर के प्रकाशन के पूर्व बनी कंटेंट प्रोफाइल में राजस्थान की खबरों के लिए एक कोना बनाया तो बिहार-झारखंड के लिए पूरे पन्ने का प्रावधान रखा। पूर्वी उत्तर प्रदेश की खबरों को भी अखबार में जगह दी। इस मामले में प्रभात खबर ट्रेंड सेटर बना। दूसरे अखबारों ने भी बाद में इसे फालो किया।

इधर दफ्तर का काम चल रहा था, उधर नवेले साथियों की ट्रेनिंग हो रही थी। मैं अपनी संपादकीय जोना के साथ सारे काम देख रहा था। मैंने अपने साथियों को एक सर्वे में लगाया। यह कोई प्रोफेशनल सर्वे नहीं था, इंटरनल था। हिन्दीभाषियों के घरों में हमारे साथी जाकर पूछते कि कौन-सा अखबार पढ़ते हैं और क्यों। सन्मार्ग पढ़ने वाले घरों से एक जानकारी मिली। उसमें लाइट मूड के आर्टिकल ज्यादा पढ़े जाते हैं। मसलन भूत-प्रेत, देवी-देवताओं की कहानियां, हंसने-हंसाने वाले चीजें वगैरह। जिन हिन्दीभाषी घरों में अंग्रेजी और बांग्ला के अखबार आते थे, उनका फीडबैक था कि हिन्दी अखबारों में ऐसा कुछ नहीं होता, जिससे उनके बच्चों की पढ़ाई या करियर में कोई लाभ मिले। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि कोलकाता से निकल रहे प्रमुख अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ को ऐसे घरों में इसलिए पसंद किया जाता था कि उसमें बच्चों का ज्ञान बढ़ाने वाला किड्स और उनके करियर के लिए लाभकारी करियर ग्राफ पुलआउट के रूप में हर सप्ताह मिलते थे। खबरों की क्वालिटी तो अच्छी रहती ही थी।

- Advertisement -

पाठक तलाशने के क्रम में राज्य सरकार की एक रिपोर्ट से यह पता चला कि साढ़े तीन लाख मजदूर जूट मिलों में हैं और 80 प्रतिशत टैक्सी चालक हिन्दी भाषी प्रदेशों के हैं। मसलन बिहार-यूपी-झारखंड के। 1981 की जनगणना रिपोर्ट से एक जानकारी यह मिली कि बंगाल में 4.5 लाख हाउस होल्ड हिन्दीभाषियों के हैं। इनमें ढाई लाख शहरी इलाकों और दो लाख ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। तब कोलकाता में छप रहे या बाहर से आ रहे हिन्दी अखबारों की प्रसार संख्या लगभग लाख-सवा लाख थी। अपने पाठकों की तलाश के लिए मुझे एक छोर मिल गया कि अगर शहरी इलाकों को ही पाठक संख्या का आधार बनाया जाये तो ढाई लाख शहरी हाउस होल्ड हिन्दी अखबारों के पाठक होने चाहिए। इसलिए कि शहरी इलाके में रहने वालों के पास अखबार खरीदने की क्रय शक्ति होती है। तब बाकी करीब डेढ़ लाख हिन्दी पाठक या तो अखबार नहीं खरीदते या फिर दूसरी भाषाओं के अखबार पढ़ने की उनकी मजबूरी है। इसी सूत्र के सहारे मैंने सर्वे से पता करने की कोशिश की कि आखिर हिन्दी के ये पाठक गये कहां।

सन्मार्ग तब अनबिटेबल नंबर वन था। दूसरे नंबर पर जनसत्ता और तीसरे पर विश्वमित्र था। लेकिन नंबर वन से नंबर दो और तीन के अखबारों की प्रसार की संख्या में इतना बड़ा अंतर था कि उनको प्रतिस्पर्धा में कहीं नहीं खड़ा किया जा सकता था। मैंने अपने पाठकों की रुचि का ख्याल रखा और उन्हें कुछ नया देने की योजना बनायी। कंटेंट प्रोफाइल तैयार करते समय मैंने बिहार-झारखंड-पूर्वी उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खबरों के लिए पन्ने पर जगह बनायी। पाठक की बड़ी आबादी को देखते हुए बिहार को सर्वोपरि रखा। झारखंड और बंगाल की सीमा के बीच पांच-छह घंटे की ही दूरी थी, इसलिए यहां-वहां के लोगों का आना-जाना कोलकाता खूब होता था। इसलिए झारखंड की खबरों के लिए एक कोना बनाया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़, बलिया, मऊ, गाजीपुर, देवरिया जैसी जगहों के लोगों की बंगाल में आबादी को देखते हुए उत्तर प्रदेश की खबरों को जगह दी। राजस्थान की वैसी जगहों की खबरें चुन-चुनकर राजस्थान की खबरों के लिए अखबार में कोना बनाया, जहां के लोग कोलकाता में बहुतायत रहते हैं। इस तरह मेरी पेज-कंटेंट की प्रोफाइलिंग हो गयी।

अखबार 31 अक्तूबर 2000 को निकला, लेकिन जून में मैंने एक डमी तैयार की और उसका प्रकाशन मैग्जीन आकार (ए-4 साइज) में ह्वाइट पेपर पर हजार कापी के करीब कराया। इस डमी को लेकर मैंने कोलकाता में पहली बार हिन्दी अखखबार की बुकिंग शुरू करायी। बिना अखबार निकले लगभग हजार-डेढ़ हजार की बुकिंग आनन-फानन में हो गयी। उत्साह से लबरेज नयी टीम का जज्बा देखने लायक था। यह अलग बात थी कि डिलीवरी की तकनीक का सही ज्ञान नहीं होने के कारण हमारा यह अभियान फ्लाप हो गया। जिनकी बुकिंग हुई, उनके घरों तक ठीक से अखबार की डिलीवरी का सिस्टम नहीं बन पाया। कुछ लोगों के पैसे वापस करने पड़े।

चूंकि अखबार के प्रकाशन के वक्त प्रचार की कोई योजना नहीं थी। भाड़े की मशीन के कारण ज्यादा दिन तक डमी भी नहीं छाप सकते थे। इसलिए कुछ हैंडबिल रांची की मशीन पर छपवा कर मंगाये गये और उन्हें दूसरे अखबारों में इनसर्ट कर बंटवाया गया। मुझे याद है, तब अव्वल अखबार के तत्कालीन संपादक ने किसी से कहा था कि अखबार बच्चों से नहीं निकलता है। वाकई उनकी सोच तब वाजिब थी। इसलिए कि तब तक माना जाता था कि अखबारों में जो जितना बुजुर्ग है, वह उतना ही जानकार और काम का होगा। लेकिन लड़कों को लेकर ही मैंने अखबार की शुरुआत की। पहले दिन के प्रिंट आर्डर के बारे में मेरी अपनी राय थी कि प्रिंट आर्डर पहले ही दिन से इतना रखा जाये कि हम दूसरे नंबर का अखबार कहलायें। उस वक्त कोलकाता यूनिट का काम देखने रांची से आये केके गोयनका जी (अभी प्रभात खबर के प्रबंध निदेशक) से मैंने अपने मन की बात कही थी। उन्होंने कहा कि वेस्टेज बढ़ेगा। मैंने हफ्तेभर के लिए यह व्यवस्था करने की बात कही। वह मान गये।

यह भी पढ़ेंः कोलकाता में कामयाबी की इबारत लिखी प्रभात खबर ने

इस बीच अपने साथियों को मैंने अंग्रेजी-बांग्ला अखबारों की पांच-छह महीना पुरानी फाइलें देख कर स्पेशल स्टोरीज खोजने के काम में लगाया। कुछ स्टोरी के विषय मिले तो कुछ को अपडेट कर ताजा बना दिया। मेरा मानना है कि अखबारी पाठकों की याददाश्त काफी कमजोर होती है। आज छपी खबर तो उन्हें याद रहती है, लेकिन चार दिन पहले छपी खबर वे भूल जाते हैं। मेरा यह नुस्खा भी कामयाब रहा।

यह भी पढ़ेंः प्रधान संपादक हरिवंश जी ने प्रभात खबर में कहां-कहां नहीं घुमाया

इस प्रसंग का जिक्र करते समय मुझे खबर का एक विषय याद आता है। बर्दवान के किसी गांव के बारे में स्टेट्समैन ने एक खबर छापी थी- विधवाओं का एक गांव। उस वक्त मेरी मित्र नीलम शर्मा अंशु (केंद्र सरकार में राजभाषा से जुड़ी हैं) अपने भाई चंदन स्वप्निल को लेकर आयीं कि इसे भी कहीं खपा लीजिए। टटोलने के लिए मैंने चंदन से कहा कि बर्दवान के पास कोई गांव है, जहां हर घर में विधवाओं की भरमार है। शायद स्टेट्समैन की खबर में उस गांव का नाम था। मैंने वह गांव बताया। कहा कि जाकर स्टोरी कर सकते हो। उसने तुरंत हां-ना तो नहीं कहा, लेकिन अगले दिन खोजते-खोडजते उस गांव तक पहुंच गया और आकर अच्छी खबर बनायी। इसी तरह बंगाल में लिंचिंग की घटनाओं को केंद्र कर अंग्रेजी अखबार में ही कोई खबर छपी थी। मैंने आंकड़ों को अपडेट कराया और पुलिस-पालिटिकल महकमे से वर्जन लेकर खबर को नये अंदाज में पेश करने के लिए रख लिया। चंदन स्वप्निल अभी भास्कर में पंजाब के किसी संस्करण में न्यूज एजिटर हैं।

यह भी पढ़ेंः और प्रभात खबर में वाउचर पेमेंट वालों को कांट्रैक्ट लेटर मिला

यह भी पढ़ेंः और जब हरिनारायण सिंह के प्रभात खबर छोड़ने पर मची उथलपुथल

- Advertisement -