सेंसर बोर्ड हिंसा, झूठ के फंदे को सेंसर नहीं करता : अरुण कमल

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सेंसर बोर्ड हिंसा, झूठ के फंदे को अब सेंसर नहीं करता। पटना फिल्मोत्सव का उद्घाटन करते हुएवरिष्ठ कवि अरुण कमल ने यह बात कही।
सेंसर बोर्ड हिंसा, झूठ के फंदे को अब सेंसर नहीं करता। पटना फिल्मोत्सव का उद्घाटन करते हुएवरिष्ठ कवि अरुण कमल ने यह बात कही।
  • विशद कुमार 

पटना। सेंसर बोर्ड हिंसा, झूठ के फंदे को अब सेंसर नहीं करता। पटना फिल्मोत्सव का उद्घाटन करते हुएवरिष्ठ कवि अरुण कमल ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि  सिनेमा ने शुरू से ही गरीबों और संघर्ष करने वालों का साथ दिया। चाहे चार्ली चैप्लिन हों, बाइसिकिल थीफ हो, कुरोसावा की फिल्में हों या सत्यजीत राय, विमल राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल हों, इन सबने उन दृश्यों को हमारे सामने लाया, जो अब तक बाहर थे। लेकिन आज हम अपनी सिनेमा की दुनिया को देखते हैं तो एक सेंसर बोर्ड भी है, जो सब कुछ को सेंसर करता है, लेकिन हिंसा, झूठ और लोगों को दिमागी गुलामी में ले जाने वाले फंदे को सेंसर बोर्ड सेंसर नहीं करता। सारा मारधाड़ का कारोबार सिनेमा के नाम पर चलता है। ग्लैमर, मारधाड़, हिंसा और अश्लीलता पूंजीवाद के हक में जाते हैं। इसीलिए पूंजीवाद इन सबको अपने खेलों और सिनेमा के जरिये बरकरार रखता है। जब कभी सत्ताधारियों पर संकट आता है तो वे तुरंत क्रिकेट खेलने वालों और सिनेमा में काम करने वालों को बुलाते हैं और अपने पक्ष में बयान दिलवाते हैं। सेंसर ोबर्ड इस पर खामोश रहता है।

किसान आंदोलनों की पृष्ठभूमि में हो रहे इस फिल्मोत्सव को संबोधित करते हुए अरुण कमल ने कहा कि किसान भीषण ठंढ में डेरा डाले हुए हैं और अब तो शायद भयानक गर्मी में भी डेरा डाले रहेंगे। यह एक ऐसी लड़ाई है, जिसके अंत का कुछ पता नहीं। जब इकबाल ने कहा था- जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी, उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो, तब कोई यह नहीं सोचता था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब अनाज पैदा करने वाले इस बात के लिए लड़ेंगे कि उनको अनाज पैदा करने दिया जाए। जब निराला किसानों, सभी मजलूमों और दलितों का आह्वान कर रहे थे कि आओ, आओ, जल्दी जल्दी पैर बढ़ाओ…और एक टाट बिछाओ… और सब एक पाठ पढ़ेंगे और तब अंधेरे का ताला खोलेंगे, तब कोई यह नहीं सोचता था कि सचमुच एक ऐसा दिन आएगा। अंधेरे की चाभी खोलने के लिए हमें चाभी भी अंधेरे में ही मिलेगी। जो सत्ताधारी हैं, वे ताले लगाते हैं या ताले तोड़ते हैं, ताकि लूटा जा सके और हम लोग, किसान, मजदूर, दलित निराला के शब्दों में, अंधेरे के ताले को खोलते हैं।

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उन्होंने कहा कि आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां बोलने, अपनी बात कहने और करोड़ों लोगों तक एक साथ पहुंचने की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन साथ ही यह भी सही है कि जितनी पाबंदी अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने पर आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। दुनिया की सारी दीवारें हवा की इन दीवारों के सामने तुच्छ हो गई हैं। अब पलक झपकते हमारी बात को रोका जा सकता है, पलक झपकते किसी भी बोलने वाले को खींचकर जेल में डाला जा सकता है। ये हालत पूरी दुनिया में है। ऐसे में प्रतिरोध का सिनेमा जैसे समारोह ऐसे अवसरों को ढूंढ निकालने का एक क्षण है, जहां हम इकट्ठा होकर उन दृश्यों और फिल्मों को देख सकें, जो आमतौर पर उपलब्ध नहीं होतीं।

कमल ने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा का एक विशेष अर्थ है। यह सत्ताधारियों के प्रतिरोध का, दमन और शोषण के प्रतिरोध का सिनेमा है। यह केवल प्रतिरोध का भी नहीं, यह एक नए विकल्प की तलाश का सिनेमा है, जो हॉलीवुड की या बंबइया फिल्में हैं, वे हमारे सोचने और सवाल उठाने की ताकत को कुंद करती हैं। प्रतिरोध का सिनेमा के अंतर्गत जो फिल्में हमने देखी हैं, उससे हम अपने लोगों के साथ, सताए हुए लोगों के साथ और प्रकृति के साथ एक गहरे प्रेम का अनुभव करते हैं। सिनेमा एक अद्भुत कला-माध्यम है, शायद इतना विशद, इतना संशलिष्ट और लोगों तक तेजी से पहुंचने वाला, असर करने वाला दूसरा कोई कला-माध्यम नहीं है। ऐसे कला-माध्यम की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक प्रतिबद्धता को बचाए रखना बेहद जरूरी है। आज यह हमारा दायित्व है कि इस कला-माध्यम को भी बचाएं। प्रतिरोध का सिनेमा इसलिए भी जरूरी है कि वह सिनेमा को व्यवसायीकरण से, प्रदूषण से और सत्ता की मार से बचाए। जब धर्म, जाति, क्षेत्र और संप्रदाय के नाम पर भयानक हिंसा हमारे देश में चारों तरफ फैली हुई है, तब प्रतिरोध का सिनेमा हमें आश्वासन देता है कि हम एक साथ मिलकर इसका मुकाबला कर सकते हैं।

अरुण कमल ने कहा कि हारने में कोई अप्रतिष्ठा या बेइज्जती नहीं है, बेइज्जती है गलत करके जीतने में। गलत करके जीतना मनुष्यता का अपमान है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए भी दैवीय नियमों का उल्लघंन है कि आप दूसरों को सताएं, हिंसा करें। प्रतिरोध का सिनेमा इसलिए भी जरूरी है कि वह बार-बार हमें याद दिलाता है कि हम मनुष्य हैं और इसीलिए हम सब एक हैं।

अपनी बीमारी के कारण समारोह में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित न होने की चर्चा करते हुए उअरुण कमल ने अपने वक्तव्य में कहा कि उन्हें लगता है कि जो लोग नजरबंद होते हैं, उनको कैसा लगता होगा। यह भी लगता है कि क्या हमारा पूरा देश एक दिन नजरबंद हो जाएगा? लेकिन उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि प्रतिरोध का सिनेमा तब भी होगा। अंधेरा होगा, पर अंधेरे के गीत भी होंगे। प्रतिरोध का सिनेमा भी अंधेरे का वह गीत ही है।

बताते चलें कि पटना फिल्मोत्सव के उद्घाटन वक्तव्य के पूर्व हिरावल के कलाकारों द्वारा मशहूर शायर फैज की नज्म ‘इंतेसाब’ के गायन से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण भी हुआ। फैज की नज्म ‘इंतेसाब’ से ‘बादशाह-ए-जहां…दहकां के नाम’ को 12वें फिल्मोत्सव का थीम बनाया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता गालिब खान ने फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष के बतौर उपस्थित दर्शकों का स्वागत किया। उन्होंने शायर इकबाल के हवाले से कहा कि “उठो मेरे दुनिया के गरीबों को जगा दो/ काख-ए-उमरा के दर ओ दीवार को हिला दो/ जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी/ उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो।” उन्होंने फिल्मोत्सव को एक वैकल्पिक हस्तक्षेप बताया। उद्घाटन सत्र का संचालन जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने किया।

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