लालू यादव से कम जातिवादी नहीं हैं नीतीश कुमार

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लालू यादव से कम जातिवादी नहीं हैं नीतीश कुमार। राजनीति में जातीय रैली से ही इन्हें उभार मिला।
लालू यादव से कम जातिवादी नहीं हैं नीतीश कुमार। राजनीति में जातीय रैली से ही इन्हें उभार मिला।

लालू यादव से नीतीश कुमार कम जातिवादी नहीं हैं। लालू यादव को मंडल कमीशन से तो नीतीश कुमार को जातीय रैली से उभार मिला। नीतीश के चहेते अफसरों में उनकी जाति के ही नेता अधिक हैं। पढ़ें आशीष चौबे का यह लेख

बिहार में विधानसभा के चुनाव की जंग जारी है। आरोप-प्रत्‍यारोप का दौर भी चरम पर है। इस बीच एक मुद्दा ऐसा भी है, जिसने इस बार भी जोर पकड़ लिया है। 15 वर्ष पहले इस मुद्दे के आधार पर ही बिहार में सत्‍ता परिवर्तन  हुआ था। वह मुद्दा था जंगलराज का। मगर जेहन में जो एक सवाल बना हुआ है, वह यह कि क्‍या पंद्रह वर्ष बाद भी यह मुद्दा उतना ही प्रासंगिक है, जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी चुनावी सभाओं में लगातार जिक्र कर रहे हैं। क्‍या सुशासन बाबू के नाम से ख्यात नीतीश कुमार अपने शासन काल में जंगलराज वाले को उनकी करनी की सजा दिलाने में असफल रहे या फिर विकास पुरुष का विकास कम पड़ गया, जो फिर से जंगलराज के तरफ रुख करने को उन्हें मजबूर होना पड़ा। क्‍या एनडीए फिर से जंगलराज का भय दिखाकर सत्‍ता पर काबिज होना चाह रहा है। क्‍योंकि ऐसा कोई मंच नहीं है, जिससे नीतीश कुमार जंगलराज की चर्चा न करते हों। नीतीश हर मंच से राजद पर जंगलराज का आरोप लगा रहे हैं और इस आरोप को मैं भी गलत नहीं मानता। मगर इसके साथ ही नीतीश जातिवाद का भी अरोप लगा रहे हैं। वे संकेतों में ही सही, ऐसा जरूर कह रहे हैं कि राजद के शासन काल में एक जाति का कैसे बोलबाला था और कैसे सभी को साथ लेकर राजद नहीं चला।

यहीं पर एक सवाल और बनता है। क्‍या जिस राज्‍य की राजनीति जातिवाद पर ही आधारित हो, वहां बिना जाति का सहारा लिये बिना क्या कोई सत्ता तक पहुंच सकता है। खैर, इसका जवाब आपको मेरे इससे पहले वाले पोस्‍ट में मिल जायेगा। वैसे बिहार की राजनीति में ऐसे कई लोग आपको यह कहते मिल जायेंगे कि नीतीश कुमार जाति की राजनीति नहीं करते। न प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप से कोई फायदा ही पहुंचाते हैं। पर, क्‍या यह सच है। आज का यह पोस्‍ट इसी सच की तलाश करता है कि नीतीश कुमार जातिवाद से कितने दूर हैं।

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नीतीश कुमार का जातिवादी न होने का दावा सवालों के घेरे उस वकत ही आ जाता है, जब हम नीतीश की राजनीतिक शुरुआत की तरफ रुख करते हैं। मैं यह सोचने को बाध्‍य हो जाता हूं कि क्‍या जिस व्‍यक्ति की राजनीति में एंट्री ही जाति आधारित रैली से हुई हो, वह भला जातिवाद से अछूता कैसे हो सकता है। जी हां, जरा याद करिये 12 फरवरी, 1994 को। पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित कुर्मी चेतना महारैली। रैली में भारी भीड़। गर्व से कहो- हम कुर्मी हैं- का नारा लगाता जन सैलाब। रैली में जब नीतीश के बोलने की बारी आई और उन्‍होंने जब भाषण शुरू किया तो लालू का बचाव करने की कोशिश की। इससे गांधी मैदान में जमा भीड़ भड़क गई। भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया। उसके बाद सीपीआई के एक प्रमुख नेता सतीश कुमार ने मोर्चा संभाला और भीड़ को शांत कराया। फिर भी नीतीश जाति पर एक शब्द नहीं बोले। वैसे एक बात यह भी सच है कि उस समय नीतीश जनता दल में लालू यादव के खेमे का हिस्सा थे। नीतीश उन कुछ राजनेताओं में थे, जो अपनी जाति के बारे में बोलने से हिचकते थे।

लेकिन यही वह क्षण था, जब वह कुर्मियों के नेता के रूप में नीतीश पहचाने जाने लगे। कुर्मी जाति ओबीसी श्रेणी में आती है। कुर्मी बिहार की आबादी का सिर्फ छह फीसदी हिस्सा है और ज्यादातर आबादी नालंदा जिले में और उसके आसपास रहती है।

रैली के ठीक आठ महीने बाद जॉर्ज फर्नांडीस, बशिष्ठ नारायण सिंह, शकुनि चौधरी और नीतीश ने लालू को छोड़ समता पार्टी का गठन किया। “समता पार्टी लगातार आगे बढ़ी। ओबीसी और उच्च जाति की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, जो लालू यादव के साथ बेचैनी महसूस करने लगा था, नीतीश के साथ आ गया। बाद में नीतीश एनडीए में शामिल हो गए और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री बने।

गांधी मैदान की रैली के छब्बीस साल बाद नीतीश पर अब लालू के बेटे और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव द्वारा राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों नियुक्तियों में कुर्मियों का पक्ष लेने का आरोप लगाया जा रहा है।

नीतीश और जातिवाद की राजनीति को जानना है तो एक बार फिर से 1994 की कुर्मी चेतना महारैली के तरफ रूख करना होगा। 1994 की महारैली में नेताओं ने बिहार में “लव-कुश” एकता की पुरजोर वकालत की। राम और सीता के जुड़वाँ बेटों का रामायण में चर्चा का जिक्र करते हुए नेताओं ने कहा- लव कुर्मी के लिए खड़ा था और कुश दूसरी ओबीसी जाति कुशवाहा के लिए खड़ा था।

नेताओं से अपील की गई थी कि कुर्मी और कुशवाहा के बीच एक ‘रोटी-बेटी’ (जिसका अर्थ है भोजन और अंतर-विवाह करना) का संबंध है। 26 साल बाद भी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के संस्थापक उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं के उभार के बावजूद नीतीश को ‘लव-कुश’ जमात का नेता माना जाता है।

लालू-राबड़ी शासन के दौरान गैर-यादव ओबीसी, अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के साथ-साथ उच्च जातियों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से यादवों के प्रभुत्व का सामना करना पड़ा। लालू की पार्टी में 60 से अधिक विधायक अपनी जाति के थे।

इसलिए नीतीश लालू के खिलाफ एक स्वीकार्य वैकल्पिक चेहरा बन गए, क्योंकि वह एक ऐसी जाति से ताल्लुक रखते थे, जो बिहार की 14.4 प्रतिशत आबादी वाले यादवों के विपरीत समाज के वर्चस्व के लिए बहुत छोटे और एक क्षेत्र तक सीमित थी। गौरतलब हो कि बिहार की आबादी में कुर्मी और कुशवाहा 10 प्रतिशत का शेयर रखते हैं।

शासनप्रशासन में दिखता रहा है नीतीश का जाति प्रेम

लालू-राबड़ी युग में बिहार में IAS और IPS कैडरों को भी पिछड़ी और अगड़ी जातियों में विभाजित किया गया था। मुकुंद प्रसाद शासन में सबसे शक्तिशाली आईएएस अधिकारी थे, और अधिकतर उच्च जाति के अधिकारियों को दरकिनार कर दिया गया था।

जब नीतीश सत्ता में आए तो उन्होंने के.डी. सिन्हा (अब दिवंगत), एक ईमानदार वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कुर्मी जाति से आते थे और वे मुख्‍य सचिव पद के सबसे प्रबल दावेदार थे, उन्‍हें नीतीश ने किनारे कर दिया। इसका बड़ा कारण यह था कि उस वक्‍त पुलिस महानिदेशक के पद पर आशीष रंजन सिन्हा थे और वे भी कुर्मी जाति से थे। दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों नालंदा से ही थे। नीतीश कुमार ये बखूबी समझ रहे थे कि किसी भी हाल में जातिगत संतुलन बनाए रखना है। क्‍योंकि उस वक्‍त तक सरकार पर सीधे तौर पर यह आरोप लगाया जाने लगा था कि नालंदा के कुर्मियों को राज्य के सभी महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया जा रहा है।

हालांकि बाद में बिहार के बाहर के कुर्मी IAS अधिकारियों, जैसे- जितेंद्र कुमार सिन्हा (मणिपुर-त्रिपुरा कैडर) और संजय सिंह और मनीष वर्मा (ओडिशा कैडर) को पटना जिला मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन किया गया। वर्तमान पटना डीएम कुमार रवि भी कुर्मी जाति से हैं।

एक वक्‍त ऐसा भी आया, जब राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने विधानसभा के अंदर टिप्पणी की कि नीतीश केवल राज्य के बाहर के “शाही खून” पर भरोसा करते हैं। इस आरोप को नीतीश ने खारिज कर दिया था।

हालांकि नीतीश ने भले ही यह आरोप खारिज कर दिया था, पर सरकार के फैसले कुछ और ही बयां कर रहे थे। मुख्यमंत्री कार्यालय स्तर पर आर.सी.पी. सिंह, एक यूपी कैडर के आईएएस अधिकारी को लाया गया और उन्हें नीतीश का प्रमुख सचिव बनाया गया। नालंदा के रहने वाले आर.सी.पी ने 2010 में पद छोड़ दिया और उन्हें राज्यसभा सांसद बनाया गया।

वर्तमान में भी सीएमओ में दो कुर्मी IAS अधिकारी मनीष वर्मा और अनुपम कुमार, गैर-कुर्मी प्रमुख सचिव चंचल कुमार के साथ, सामंजस्‍य स्‍थापित कर रहे हैं। इसके साथ ही तृतीय और चतुर्थ वर्ग की बहाली में कुर्मी और नालंदा जिला के अभ्यर्थियों की भर्ती का आरोप नीतीश सरकार पर खूब लगा। दावा यह भी किया जाता है कि सचिवालय में इस जाति और क्षेत्र के लोगों की भरमार है।

अगर राजनीतिक पक्ष की बात करें तो नीतीश ने कभी भी अपनी जाति के व्यक्ति को राज्य जद (यू) का अध्यक्ष नहीं बनाया। लेकिन, पार्टी में आर.सी.पी. सिंह के प्रभुत्‍व की अनदेखी नहीं की जा सकती है। हाल के दिनों में हुई ई-रैली में भी वे नीतीश से पहले मंच पर आते थे। जबकि, जद (यू) के तमाम दूसरे बड़े नेताओं की बारी पहले ही आ जाती थी। जद (यू) चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की एंट्री हुई तो लगा कि कुछ बदलाव होगा, पर अब वह बात भी बीते दिनों की बात हो गयी। राज्‍य में आर.सी.पी. सिंह की कितनी चलती है, इससे कोई अनजान नहीं है।

कहा तो यह भी जाता है कि नालंदा के कुर्मी एमएलसी संजय गांधी ने नीतीश से निकटता के कारण सभी मंत्रियों को प्रभावित किया। बिहार के संसदीय कार्य मंत्री श्रवण कुमार, जो कुर्मी भी हैं, उन्हें नीतीश के हैट्रिक-मैन के रूप में जाना जाता है।

नालंदा जिला पटना से सटा हुआ है और कुर्मियों का प्रभुत्व है। यह नीतीश का गढ़ है, लेकिन वह अपने वरिष्ठ सहयोगी जॉर्ज फर्नांडीस के लिए लोकसभा सीट छोड़ देते थे। वक्‍त बदलने के साथ ही जब  2005 में जद (यू) सत्‍ता में आया तो नालंदा का भाग्‍य ही बदल गया। नालंदा में जो बुनियादी ढांचा तैयार हुआ है या निर्माणाधीन है, उसमें एक मेडिकल कॉलेज, पुलिस प्रशिक्षण संस्थान, आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय, एक आईटी शहर शामिल है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम, एक विश्वस्तरीय सम्मेलन हॉल और एक राइफल-फायरिंग रेंज भी नालंदा में हैं। इन सभी चीजों ने नीतीश को वह टैग दिया है, जो वह शुरू से ही मन ही मन चाहते भी थे- बिहार में कुर्मियों के नेता।

नीतीश के विपक्षी यह दावा करते हैं कि नीतीश कुमार जाति से ऊपर थे। यह धारणा उनके द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए बनाई गई एक सार्वजनिक धारणा है। जबकि, स्थिति इसके ठीक उलट है। आरोप यह भी लगता रहा है कि नीतीश अपनी जाति से आने वाले वैसे ही अधिकारियों को चुनते थे, जो उनके इशारे पर काम करें।

दूसरी ओर नीतीश पर जातिवाद के आरोप को खारिज करने के लिए कई तर्क भी दिये जाते हैं। जैसे अपने कार्यकाल के दौरान नीतीश ने जिन दो वर्गों के लिए सबसे ज्यादा काम किया है, वे ईबीसी और दलित हैं।

नीतीश कुमार के सत्ता में आने से पहले भी बिहार में अन्य राज्यों से अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति होती रही है। आरसीपी सिंह नीतीश कुमार के साथ तब भी थे, जब वह रेल मंत्री थे।

इसके साथ ही भ्रष्टाचार में लिप्‍त पाये जाने पर सबसे पहले IAS अधिकारियों में से एक कुर्मी जाति के एस.एस. वर्मा (अब सेवानिवृत्त), को बाहर का रास्‍ता दिखाया गया था। नीतीश ने किसी भी जाति या समुदाय के किसी अपराधी को नहीं बचाया है। नीतीश की जाति ने कभी भी लालू के समुदाय वाले प्रभुत्‍व को नहीं अपनाया, क्‍योंकि नीतीश उसके पक्षधर नहीं थे।

हालांकि, नीतीश कुमार को जातिवाद से दूर होने के पक्ष में चाहे जितने भी तर्क क्‍यों न दिये जायें, पर यह धब्‍बा नीतीश पर लग चुका है और इस धब्‍बे से नीतीश भी कहीं न कहीं सहमत होंगे। क्‍योंकि, सरकारी आंकड़े को ही देखेंगे तो पायेंगे कि कैसे एक जाति विशेष के अधिकारियों और कर्मियों की संख्‍या में वृद्धि हुई है। रही बात लालू जैसा जातिवादी प्रभुत्‍व नीतीश क्यों कायम नहीं कर पाये, तो उसका बड़ा करण है आबादी। एक तरफ बिहार में कुर्मियों की आबादी छह प्रतिशत है, वहीं यादवों की संख्‍या 14 प्रतिशत से अधिक है। इसके साथ ही लालू की जाति से जुड़े लोग राज्‍य में हर जगह मिल जायेंगे, जबकि कुर्मी जाति के लोग एक क्षेत्र तक सीमित हैं। अगर जहां थोड़े-बहुत हैं भी तो वहां के लोगों से पता करें तो वे बता देंगे कि कुर्मी जाति का वर्चस्‍व नीतीश के शासन में किस कदर बढ़ा है।

तमाम बातों पर गौर करेंगे तो पायेंगे ‍कि नीतीश ने बहुत ही शातिर तरीके से अपनी राजनीति को साधा और जो तमगा वे पाना चाहते थे, वह मिला भी और आम जनता के बीच एक दूसरी छवि भी बनी रही।

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