रोटियां जुगाड़ने-सहेजने का वक्त है यह, जानिए क्यों और कैसे

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  • श्याम किशोर चौबे
श्याम किशोर चौबे, वरिष्ठ पत्रकार
श्याम किशोर चौबे, वरिष्ठ पत्रकार

रोटियां जुगाड़ने और सहेजने का यह वक्त है, न कि अपनी-अपनी रोटी सेंकने का। लेकिन हर तरफ केवल अपनी-अपनी रोटियां सेंकने की ही गंध आ रही है।आंध्रप्रदेश से 1,200 मजदूरों को लेकर प्वाइंट टू प्वाइंट चली कोरोना स्पेशल ट्रेन के ऐन मजदूर दिवस की रात हटिया पहुंचने के पहले ही अपनी-अपनी रोटियां सेंकने का काम लोगों ने शुरू कर दिया। प्रतिपक्षी भाजपा कहने लगी कि यह सब मोदी की कृपा से हो सका। सत्ताधारी यूपीए वाले गाने लगे कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के प्रयास से हुआ। भारत की संघीय भावना की किसी ने बड़ाई नहीं की कि ठीक समय पर केंद्र-राज्य के बेहतर समन्वय का यह उदाहरण साबित हुआ। यह जानते हुए भी कि जो सरकार सवा तीन करोड़ नागरिकों के पैसे खर्च कर उन्हें घर तक ला रही है, वह भूखे-प्यासे चौखटे में नहीं ठेल देगी। संबंधित मजदूरों की घर में रोटियां सेंकी जाने लगीं कि दूर देस में फंसे सैंया बड़े दिनों बाद आ रहे हैं। एक तरफ राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही थीं तो दूसरी तरफ स्वागती रोटियां। ऐसे ही अगले चैबीसवें घंटे में कोटा से उन होनहार छात्र-छात्राओं का दल भी ठीक वैसे ही विशेष रेलगाड़ी से आन पहुंचा, जो अपना कैरियर बनाने के लिए लाखों खर्च कर वहां के कोचिंगनुमा स्कूलों में पढ़ने भेजे गए थे। कहने की बात नहीं कि यह सिलसिला जारी रहेगा, क्योंकि अकेले आंध्र में ही नहीं, अन्यान्य राज्यों में भी तकरीबन नौ लाख झारखंडी कामगार लाक डाउन के 40 दिनों से पत्नी, बच्चे, मां-बाप और भाई-बहन को देखने के लिए जार-जार हो रहे हैं। दो लाख तो पहले ही बिना सरकारी सहयोग के धमक चुके हैं।

केवल अपनों के बीच रहने से तमाम समस्याएं हल हो जातीं तो सच मानिए, यह नौबत आती ही नहीं। जो पैसे उनको लाने और खिलाने-पिलाने पर खर्च हो रहे हैं, वे राज्य के सवा तीन करोड़ लोगों की तरक्की पर खर्च होते। सच यह भी है कि परदेस से आने वाले ऐसे हर कामगार ‘चार दिनों की पारिवारिक चांदनी’ का लुत्फ लेने के बाद चिचियाने लगेंगे, खाने को कुछ नहीं है। अब काम दो, पैसे दो। सरकार ने हालांकि कहा जरूर है कि ऐसे हर आंतरिक प्रवासी कामगार के रोजी-रोजगार की व्यवस्था की जाएगी, लेकिन इस बात के लिए दिमाग पर जोर डालने की कतई जरूरत नहीं कि यदि वह स्थिति झारखंड सहित मजदूर उत्पादक राज्यों बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि में रहती ही तो वे माय-माटी छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाने की सोचते भी नहीं। सच यह भी है कि वे अपने साथ कोई हुंडी लेकर नहीं आए हैं कि अरसे तक उसके भरोसे मौज-मस्ती करेंगे।

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कम से कम झारखंड के लिए इतना तो सोचना ही होगा कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनके कारण साढ़े उन्नीस वर्षों में मजदूरों के लायक भी व्यवस्था नहीं बनायी जा सकी। चूंकि इसी अल्प काल में इस राज्य में हर राजनीतिक कुल-गोत्र की सरकारें बन चुकी हैं, इसलिए दोष किसी एक को नहीं दिया जा सकता। दूसरा अहम सवाल यह कि कोटा जैसे कतिपय अन्य शहरों की अर्थव्यवस्था मजबूत कर रहे छात्र परिवारों के लिए रांची, मेदिनीनगर, हजारीबाग, जमशेदपुर, धनबाद या दुमका, देवघर में व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी। हर तरह के कामगारों और छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए हर सरकार ने अनेकानेक एमओयू किये। एमओयू कांडों पर ही करोड़ों रुपये फूंक-ताप डाले गए।  राजनेताओं, उनके लग्गू-भग्गू और अधिकारियों के खूब विदेश दौरे हुए। धरातल पर क्या नजर आ रहा है? एक सरकार शिक्षा के प्रसार के लिए गांव-गांव स्कूल खोलवाती है तो दूसरी छात्र-छात्राओं की कमी के नाम पर कई में ताले लगवा कर उन्हें क्लब कर देती है।

19 वर्षों में चार हजार करोड़ से 86 हजार करोड़ तक का बजटीय सफर तय करने के दौरान बेशक अपेक्षाकृत बेहतर सड़कें, कई चमचमाते भवन, गिनती की बहालियां आदि-आदि इस राज्य को जरूर मिले, लेकिन बेशुमार कर्ज का भी बोझ मिला। यह हमेशा याद रखें कि कर्ज लेकर घी पीने से हमेशा बेहतर होता है, कर्ज लेकर घी बनाने और उसे बेचकर कर्ज अदा करने के साथ-साथ अपनी हर किस्म की सेहतमंदी हासिल करना। ज्ञान-विज्ञान की 21वीं सदी के इस अल्पकाल में विश्वव्यापी महामारी कोविड ने निश्चय ही हर किसी को परेशानी में डाल दिया है, लेकिन इसने यह सोचने का अवसर भी दिया है कि हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी।

याद करिए, जब बिहार से अलग कर झारखंड गठन का राजनीतिक दौर चरम पर था, तब एक बड़े नेता का यह कहकर बिसूरना कितना आनंददायी लगा था कि झारखंड तो देखते-देखते अन्य राज्यों को पीछे छोड़ते हुए बहुत आगे निकल जाएगा। कोरोना संकट ने यह हकीकत सामने लाया कि हमारे 11 लाख भाई-बंधु अन्य राज्यों में मजदूरी कर रहे हैं। यह कितना अधिक परेशान करने वाली बात है कि हम मजदूर पैदा कर रहे हैं, लेकिन उनके लिए काम नहीं। अन्य राज्यों और शेष दुनिया की तरह अभी झारखंड भी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और आने वाला समय अधिक संकटापन्न रहेगा। टैक्स वसूली बंद है, जो कोरोना लाक डाउन की समाप्ति के बाद भी गति नहीं पकड़ सकेगी। तब बड़े टैक्स देनेवाले अपना रोना लेकर सामने आ जाएंगे, कहां से दें? बाजार व्यवस्था भी व्यवस्थित होने में समय लगेगा। शायद कई प्रतिष्ठान खुल भी न सकें। इसे यूं समझिए कि पूरे अप्रैल में एक भी कार नहीं बिकी है। टैक्स किससे लीजिएगा? दुनिया ने और अपने अबतक के संक्षिप्त काल में झारखंड ने भी एक से एक परेशानियां और बुरे दिन देखे हैं। हर अमावस की रात की तरह कोरोना संकट आज न तो कल खत्म होगा ही। हमें तब की तैयारी अभी से कर लेनी चाहिए। किफायतशारी के साथ आगे बढ़ने की तैयारी। कहीं ऐसा न हो कि जिस हौसले और जिस उत्साह से आंतरिक प्रवासियों को घर लाया जा रहा है, कहीं वे बोझ न बन जाएं और कुछ कर न बैठें। कोरोना काल के बाद रोजगार, बाजार और उद्योग-व्यवसाय पर मंथन कर लेने का यह सही वक्त है। कहने की बात नहीं कि केंद्र ने राज्यों का महत्व पहली बार महसूस किया है। यही वह वक्त है, जब उससे दरख्वास्त करनी चाहिए, कुछ और स्वायत्तता दें प्रभु!

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