भारतीय जनता पार्टी के नये राष्ट्रवाद का जादू……………..

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नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी
नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी
  • सुनील जयसवाल

भारतीय जनता पार्टी के नये राष्ट्रवाद का जादू सर चढ़कर बोल रहा है। मगर वास्तव में यह करिश्मा है अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी का। जादू भी ऐसा कि जैसे कोई जादूगर आंख से काजल चुरा ले और विक्टिम को खुली आंख के बावजूद भनक तक नहीं लगे।

ऐसा ही कुछ देश की क्षेत्रीय पार्टियों के साथ हुआ दिख रहा है। कहां ये पार्टियां राष्ट्रीय बनने का दम भर रहीं थीं और अब आलम यह है कि क्रमश: जन्मदात्री प्रदेश में ही पांव के नीचे जमीन सिकुड़ने लगी है। हुआ यह है कि पिछले दिनों सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव 2019 में दो महीने तक चले लंबे चुनाव प्रचार के दौरान मोदी की सुनामी में देश की बड़ी राजनीतिक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त अधिकांशत: क्षेत्रीय पार्टियों की हवा निकल गई। मैं भी मोदी सुनामी इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि देश-विदेश के मीडिया में यहीं जुमला बड़ी तेजी से वायरल है। जबकि मेरा मानना है कि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों की हुई इस दुर्गति व आम भाषा में छीछालेदर होने के पीछे मोदी-शाह फैक्टर के प्रति जबरदस्त जनादेश से कहीं ज्यादा इन क्षेत्रीय पार्टियों के प्रति जन आक्रोश था।

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राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और कांशीराम के जन आंदोलन से निकले नेताओं और उनके सिद्धांतों को बेच कर खड़ी की गई क्षेत्रीय पार्टियों ने सत्ता पर काबिज होने बाद आम मतदाताओं के साथ सिर्फ छल किया और गुदड़ी उतार कर अपने परिवार के लिए राजशाही स्थापित की।

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देश के विभिन्न राज्यों में करीब 45 साल तक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का साथ निभाते रहे जाति-धर्म विशेष के मतदाताओं ने ऐसी पलटी मारी की, इन पार्टियों के आकाओं को भनक तक नहीं लगी और न ही अनुमान कर पाए कि ऐसा भी हो सकता है। मतदान के चरण दर चरण इनके रूझानों का ऐसा भाजपाकरण हुआ कि जैसे जादूगर ने इंद्रजाल से पूरी की पूरी ट्रेन ही आंखों के सामने से गायब कर दी हो।

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आज की तारीख में चुनाव आयोग के विधान के अनुसार मायावती की बसपा, वामदल सीपीआई, शरद पवार की राकांपा से राष्ट्रीय पार्टी का तमगा छीन लिए जाने की तैयारी चल रही है। आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव तक अखिलेश यादव की अध्यक्षता वाली सपा और संभवत: ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की भी यही स्थिति होने का आभाष भी मिलने लगा है।

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पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी की पार्टी में बिहार, यूपी की तरह परिवारवाद और कुनबा परस्ती तो नहीं है, परंतु  दीदी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी की एकमात्र मुस्लिम परस्ती ने उन्हें बंगाल के बहुसंख्यक मतदाताओं के कोप का भाजन बना दिया है। इसके आलावा उनकी सरकार के दोनों कार्यकाल के दौरान विरोधी दल के समर्थकों, वाम दलों के कॉडरों के उपर हिंसा व दमन की राजनीति ने खासकर शहरी और ग्रामीण बंगाल के साधनविहीन गरीब मतदाताओं को ममता विरोधी बना दिया है। सच पूछिए तो पश्चिम बंगाल की जनता किसान से लेकर मजदूर वर्ग, मध्यम वर्ग यहां तक कि व्यापारिक और औद्योगिक घराने तक ममता बनर्जी की ठसक वाली राजनीति और केंद्र सरकार के साथ उनके लड़ाका व्यवहार से आजिज आ चुके हैं। अब वे 45 साल की राजनीतिक हिंसा वाले यूग के रक्तचरित्र से बाहर आना चाह रहे हैं। विकास चाह रहे हैं। रोजी-रोटी, रोजगार के लिए नई नौकरी और उद्योग चाह रहे हैं।

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तृणमूल कांग्रेस से पूर्व पश्चिम बंगाल में 1977 से 2000 तक ज्योति बसु का निर्विरोध 20 साल और 2000 से 2011 तक 15 साल तक बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार का विश्व रिकार्ड बनाने वाली सीपीएम आज अपना राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खोने के साथ ही एक क्षेत्रीय पार्टी की हैसियत भी गंवाने के कगार पर है। इस लोस चुनाव में दिल्ली और पंजाब में बुरी तरह पिटने के बाद दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी अपने जन्मकाल से विवाद में रहते हुए अब उल्टी सांसें लेनी शुरू कर चुकी है।

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जहां तक बिहार की सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की बात करें तो, लालू यादव व राबड़ी देवी के 15 साल के शासन और एक समय में केंद्रीय राजनीति में किंग मेकर की भूमिका में रहे लालू यादव का राजनीतिक कद अब अपना अस्तित्व खो चुका है। लालू-राबड़ी के राजद कुनबे में पार्टी के उत्तराधिकार को लेकर उनके बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी के बीच जंग जारी है। वहीं दूसरी बड़ी क्षेत्रीय पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) की स्थिति की कहें तो पार्टी अध्यक्ष नीतीश कुमार जब तक अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निबाह ले जाएं, चह तक सब ठीक। अकेले 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ कर वह अपनी थाह पा चुके हैं।

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लोजपा के रामविलास पासवान की पार्टी तो बस एक परिवार की घरेलू ब्रांड की क्षेत्रीय पार्टी भर है, जो दलित और पिछड़ों का वोट जुगाड़ होने तक और भाजपा के सहारे चल रही है। गौरतलब है कि चुनाव आयोग के नियम के तहत किसी भी क्षेत्रीय पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त करने या बने रहने के लिए कम से कम 4 राज्यों में रजिस्टर्ड मतदाताओं के 6 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त होने के साथ ही 4 लोकसभा सांसद होना अनिवार्य है।

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अब उत्तर प्रदेश की बात करें तो 2014 में ही केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार के गठन के बाद सबसे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की चूलें हिल गईं थीं।

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विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी और देश की तीसरी बड़ी क्षेत्रीय राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त समाजवादी पार्टी के कुनबे में ऐसी जंग छिड़ी कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह को बेटे अखिलेश यादव द्वारा ही पटखनी दे कर अध्यक्ष पद की ट्रॉफी छीन ली गई। चाचा दरकिनार कर दिए गए। मुलायम सिंह यादव का पारिवारिक कुनबा तीन धड़े में बिखर गया। इस चुनाव में बहुजन मतदाताओं ने बसपा की भी ऐसी दुर्गति की कि बहन जी की सोशल इंजीनियरिंग का फालूदा भाजपा चट कर गई। बसपा उसी बहन जी की पार्टी है, जिनके लिए कभी पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने लोकतंत्र का चमत्कार  के रूप में परिभाषित किया था। 2007 में अमेरिका के  टाइम मैगजीन ने उन्हें भारत की प्रभावशाली महिलाओं में शामिल किया था। वैसे तो 2014 के लोकसभा चुनाव में ही सपा और बसपा का राष्ट्रीय पार्टी होने का खुमार प्रदेश के मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी की भाजपा को कुल 80 लोस सीटों में से 72 सीटें दे कर उतार दिया था। बाकी का कोर-कसर मतदाताओं ने 2017 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के पक्ष में जबरदस्त मतदान कर चारों खाने चित कर पूरा कर किया।

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आप सोच सकते हैं कि जिस पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 3 बार और बेटे अखिलेश यादव के नेतृत्व में एक कार्यकाल यानी कुल 4 बार मुख्यमंत्री पद के साथ सरकार रही हो, उसकी गत ऐसी बन गई। इस अधोगति के लिए मोदी की सुनामी से कहीं ज्यादा जिम्मेदार खुद मुलायम कुनबा रहा है। देश में राष्ट्रीय कांग्रेस पर परिवारवाद और देश में लोकतंत्र को लेकर चुनाव दर चुनाव हव्वा खड़े करने वाली सपा के अंदर ही लोकतंत्र सिरे से खारिज रहा। सपा सरकार के दौर में राज्य सरकार के तमाम प्रशासनिक, गैर प्रशासनिक शासकीय पदों पर भाई-भतीजा और कुनबावाद हावी रहा।

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प्रदेश में मुख्यमंत्री पद से लेकर, महत्वपूर्ण मंत्री पदों, मंडल से लेकर तमाम आयोगों, बोर्ड, जिला, पंचायत, नगर निकायों के सभी महत्वपूर्ण पदों पर सपा अध्यक्ष के यादवकुल परिवार, चाचा-भतीजावाद, ससुरालकुल तक की कुनबा परस्ती से आजिज कार्यकर्ताओं और यादवकुल से इतर अन्य छोटी-बड़ी जातीय समूह के त्रस्त मतदाताओं ने इन्हें सबक सिखाया। ऐसा ही कुछ बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के साथ ही हुआ। बहन जी के भतीजे ने बसपा सरकार के दौरान हजारों करोड़ की सम्पत्ति बनाई। इसके उलट जिस दबे-कुचले दलित वर्ग की मसीहा होने का दम भर कर मायावती ने उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली दरबार तक अपनी धमक पहुंचाई थी, उन्हें ही हाशिये पर छोड़ बहन जी खुद महारानियों की ठाठ में रहीं।

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लोकतांत्रिक व्यवस्था व गणतांत्रिक संवैधानिक सरकार के विश्लेषक व इसके समर्थकों की मानें तो किसी भी देश की फेडरल शासन व्यवस्था में राज्यों के विकास के लिए बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के बनिस्बत क्षेत्रीय पार्टियां अधिक लोक कल्याणकारी होती हैं। भारत में पिछले 20 सालों के प्रयोग में ही इस विचार के असफल हो जाने का कारण है क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का संस्थापक अध्यक्ष परिवार लिमिटेड पार्टी हो जाना।

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