बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने का विरोध करने वाले यह भी जान लें

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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार उठी है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की खस्ताहाली उजागर होने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी पुरानी मांग रिपीट कर दी है।
बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार उठी है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की खस्ताहाली उजागर होने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी पुरानी मांग रिपीट कर दी है।
बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार उठी है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की खस्ताहाली उजागर होने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी पुरानी मांग रिपीट कर दी है। नीतीश सरकार में शामिल भाजपा के नेता इसे गैरजरूरी मान रहे हैं। जानकार मानते हैं कि बिहार के साथ शुरू से ही अन्याय हुआ है, इसलिए विशेष राज्य का दर्जा मांगना अनुचित नहीं।
  • सुरेंद्र किशोर
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार के लिए विशेष दर्जे की मांग इसलिए की जाती रही है, क्योंकि इस राज्य के साथ केंद्र सरकार ने आजादी के बाद विशेष अन्याय किया। ऐसा अन्याय किसी अन्य राज्य के साथ केंद्र ने नहीं किया। रेल भाड़ा समानीकरण के जरिए सन् 1948 से सन् 1990 तक राज्य को करीब 10 लाख करोड़ रुपए (तब के मूल्य के आधार पर) से वंचित कर दिया गया था। उस दस लाख करोड़ रुपए की कीमत आज कितनी होगी ? कल्पना कर लीजिए। उतने पैसों से तब राज्य का विकास हुआ होता तो बिहार आज तक पिछड़ा नहीं बना रहता। हालांकि अन्य कई तरह से भी बिहार को केंद्र का आर्थिक उपनिवेश बनाकर रखा गया।

अब आप फिलहाल रेल भाड़ा समानीकरण पर आइए। आजादी के पहले टाटा कंपनी ने जमशेदपुर में बहुत बड़ा इस्पात  कारखाना लगाया। दक्षिण बिहार में, जो अब झारखंड है, खनिज पदार्थों की भारी उपलब्धता के कारण ही टाटा ने यह काम किया। तब रेल भाड़ा समानीकरण नीति नहीं थी। खनिज पदार्थों की उपलब्धता का लाभ बिहार को  मिला। देश का करीब 40 प्रतिशत खनिज अविभाजित बिहार में उपलब्ध था। आजादी के तत्काल बाद की केंद्र सरकार ने इस लाभ से अविभाजित बिहार को वंचित कर दिया।

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सन् 1948 में रेल भाड़ा समानीकरण नीति तय की गई। इस नीति के अनुसार खनिज पदार्थों की रेलगाड़ी से ढुलाई का जितना भाड़ा धनबाद से रांची ले जाने पर लगता, उतना ही भाड़ा धनबाद से मुबंई या मद्रास का लगने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद समुद्र  तटीय इलाकों में कारखाने अधिक लगने लगे। क्योंकि वहां से समुद्री मार्ग से उत्पादित सामान का निर्यात करना उद्योगपतियों के लिए आसान था।

रेल भाड़ा समानीकरण नीति के पीछे केंद्र सरकार का घोषित उदेश्य यह था कि पूरे देश में उदयोग-धंधों का समरूप विकास हो। पर, इसका भारी नुकसान बिहार जैसे खनिज बहुल प्रदेशों को हो गया। खनिज पदार्थों की रायल्टी केंद्र ने कीमत के बदले वजन के हिसाब से तय कर दी। यानी बढ़ती कीमत का लाभ भी बिहार को नहीं मिला।

दूसरी ओर कृषि तथा दूसरे क्षेत्रों में समरूप आर्थिक मदद देकर केंद्र सरकार बिहार के साथ हो रहे अन्याय के कुप्रभाव को कम कर सकती थी। पर, पंच वर्षीय योजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में अन्य अनेक राज्यों की अपेक्षा केंद्र की ओर से काफी कम योजनागत व्यय हुआ। यहां तक कि केंद्र सरकार ने भाखड़ा नांगल योजना में तो पूर्ण मदद की, पर जब कोसी सिंचाई योजना के क्रियान्वयन के लिए मदद की मांग राज्य से हुई तो केंद्र सरकार ने टका-सा जवाब दे दिया। कह दिया  कि राज्य सरकार श्रम दान के जरिए कोसी बांध का निर्माण कराए, क्योंकि हमारे पास धन की कमी है। नतीजतन सन् 1970 में भी रत्नगर्भा बिहार से अधिक पिछड़ा प्रदेश सिर्फ ओड़िशा था।

आज बिहार के जो नेतागण यह कह रहे हैं कि विशेष राज्य के दर्जा की जरूरत नहीं है, विशेष पैकेज से ही काम चल जाएगा, वे या तो राजनीतिक कारणों से ऐसा बोल रहे हैं या फिर वे आजादी के बाद केंद्र द्वारा बिहार के आर्थिक शोषण की कहानी व आंकड़ों से अनभिज्ञ हैं। वैसे भी आज हमारे कितने नेता अध्ययनशील हैं ?

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