बांग्ला कविता की हजार साल लंबी समृद्ध परंपरा रही है

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बांग्ला कविता की एक हजार साल की लंबी, अनेक आयामी और समृद्ध परंपरा रही है। बांग्ला कविता की यात्रा दसवीं शताब्दी से शुरू होती है।
बांग्ला कविता की एक हजार साल की लंबी, अनेक आयामी और समृद्ध परंपरा रही है। बांग्ला कविता की यात्रा दसवीं शताब्दी से शुरू होती है।
  • कृपाशंकर चौबे

बांग्ला कविता की एक हजार साल की लंबी, अनेक आयामी और समृद्ध परंपरा रही है। बांग्ला कविता की यात्रा दसवीं शताब्दी से शुरू होती है। मध्य और आधुनिक काल होते हुए आज जहां पहुंची है, उसकी परिणति सहज स्वाभाविक है। इतिहास गवाह है कि आदि काल से ही समाज में विषमता थी। सामाजिक विषमता से गौतम बुद्ध, महावीर जैन, नाथों और सिद्धों को भी जूझना पड़ा था। कालिदास के पूर्व जन्मे अश्व घोष ने ब्राह्मणवाद की विरूपताओं का प्रतिरोध किया था। मनु के परवर्ती टीकाकारों के मुताबिक बंगाल में सेन युग के समय से ही मुख्यतः दो ही जातियां प्रचलित थीं। एक ब्राह्मण और दूसरा अब्राह्मण यानी शूद्र। ‘यम संहिता’ में कहा गया है-‘युगे जघन्ये द्वे जाति ब्राह्मणः शूद्र एवच।’ बांग्ला कविता के आदि काल में ही दलित साहित्य की नींव पड़ गई थी। बांग्ला में पहला दलित साहित्य प्रायः एक हजार वर्ष पहले बौद्ध सहजिया कवियों द्वारा रचित ‘चर्यापद’ को माना जाता है। इस तथ्य का संधान हर प्रसाद शास्त्री ने 1907 में नेपाल दरबार ग्रंथागार में पाया था। उन्होंने 1916 में प्रकाशित अपनी किताब ‘हजार बछरेर बांग्ला भाषाय बौद्ध गान उ दोहा’ में इसका विवरण दिया है। ‘चर्यापद’ में कुल 51 पद थे किंतु उसकी प्रति तैयार करने के लिए नकल करते समय कुछ पृष्ठ नष्ट हो गए। एक पद की कतिपय पंक्तियां पढ़ने में नहीं आईं। यानी वह अधूरा है। बाकी 46 पद मिलाकर कुछ साढ़े 46 गीति हैं। इनके रचनाकारों की संख्या 23 है। इनकी रचना आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच मानी जाती है। इनकी भाषा दसवीं शताब्दी की है। इनकी मूल रचना अपभ्रंश-अवहट्ठ में हुई थी किंतु लोक कंठ के मार्फत बांग्ला गान में ये परिवर्तित हो गईं। मुनि दत्त ने 12 वीं शताब्दी में इनकी टीका तैयार की थी। राहुल सांकृत्यायन ने नेपाल और तिब्बत जाकर विनयश्री, सरुथ और अवधू के चर्यागान का आविष्कार किया था। पुराने पद रचनेवालों में लुई और कान्हे का नाम भी आता है। उनके संग्रह में 18 पद हैं। तीसरा संग्रह शशिभूषण दासगुप्त ने 1989 में ‘नव चर्यापद’ शीर्षक से तैयार किया जिसमें 98 गीत संकलित हैं। ‘नव चर्यापद’ दो भागों में विभक्त है। पहले में प्राचीनतम 24 गीतिकाएं हैं जिनका रचनाकाल दसवीं से 12वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। दूसरे अर्वाचीन पद के पहले स्तर में दस और दूसरे स्तर में 64 पद हैं जिनकी रचना चौदहवीं शताब्दी अथवा उसके बाद मानी जाती है। इस तरह तीनों संग्रहों में कुल एक सौ साढ़े बासठ पद हैं। इन पदों में विपन्नता के बावजूद निचली जातियों की उद्दाम जिजीविषा का वर्णन मिलता है। बंगाल में निचली जाति की मानी जानेवाली शबर के बारे में एक पद में कहा गया है-‘बश ए शबरी बाला। ग्रीबाय गुंजार माला।’

‘चर्यापद’ के अलावा बांग्ला में पुकारवचन व खननवचन संबंधी काफी पद मिलते हैं। ये पद मुख्यतः बौद्ध धर्म के प्रभाव में रचे गए हैं। इनमें जी तोड़ मेहनत करनेवाले निचली जाति के मनुष्यों के श्रम को महत्व दिया गया है-‘धर्म करिते यबे जानि। पोखारी दिया राखिबो पानी।’ ‘चर्यापद’ तथा पुकार व खननवचन के बाद तीसरा चरण है-‘प्रवाद’ व ‘छड़ा’। बांग्ला में एक खास तरह के छंद को छड़ा कहते हैं। इसमें भी हाशिए के समाज का मार्मिक चित्रण मिलता है-‘एक कन्या ना खेये बापेर बाड़ी जान।’ चौदहवीं शताब्दी में बांग्ला मनीषी चंडीदास ने कहा था- ‘सुनो ह मानुष भाई। सबार ऊपोरे मानुष सत्य। ताहार ऊपोरे नाई।’ ‘चैतन्यचरितामृत’ में बताया गया है कि चैतन्य महाप्रभु चंडीदास एवं  विद्यापति की रचनाएँ सुनकर आलोड़ित होते थे। जीव गोस्वामी ने भागवत की अपनी टीका ‘वैष्णव तोषिनी’ में जयदेव  के साथ चंडीदास का भी उल्लेख किया है। नरहरिदास  और वैष्णवदास के पदों में भी इनका नामोल्लेख है। मनुष्य के ऊपर कोई सत्य नहीं होने का विचार प्रकट कर चंडीदास स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य मात्र को मर्यादा मिलनी चाहिए न कि जाति के आधार मर्यादा मिलनी चाहिए।

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इसी भाव की अगली कड़ी बाउल गान है। दुधू शाह ने एक पद में कहा है- ‘जे खोजे मानुषे खुदा सेई तो बाउल’। यानी जो मनुष्य में खुदा को खोजे, वही बाउल है। बंगाल के बाउल संगीत का उद्भव पंद्रहवीं शताब्दी में माना जाता है।  पहले बाउल गायक के रूप में गंगाराम का नाम लिया जाता है। वे अस्पृश्य शूद्र जाति से आते थे। उनके एक ब्राह्मण शिष्य थे-छकु ठाकुर। वे विक्रमपुर के वाशिंदा थे। चूंकि वे एक निचली जाति के गायक के शिष्य थे, इसलिए उन्हें उनके समाज ने उनका साथ छोड़ने की चेतावनी थी। उन्हें हेय किया गया किंतु छकु ठाकुर ने किसी की परवाह नहीं की और गाया-आमेर बीजे आम गाछेर ई जन्म देबे। आमार बीजे जन्म देबे आमार प्रकृत आमिके। आमार गुरुर गौरव होक (आम के बीज से आम का वृक्ष ही जन्मेगा। मेरे बीज से मेरा प्रकृत जन्मेगा। मेरे गुरु का गौरव बढ़े)। लालन फकीर ने जाति प्रथा के खिलाफ गान गाया-ब्राह्मण को तो जनेऊ से पहचान लेंगे, ब्राह्मणी को कैसे पहचानेंगे?जाति के खिलाफ लालन फकीर ने आक्रोशभरे गीत रचे और जन-जन तक गाकर निचली जातियों के प्रति समाज को संवेदनशील बनाने का प्रयास किया। अठारहवीं शताब्दी आते-आते बाउल एक बड़े संप्रदाय के रूप में पहचान बना चुके थे। मध्ययुग के बांग्ला साहित्य में ‘बाउल’ शब्द का बहुत व्यवहार हुआ है। कृष्णदास कविराज के ‘चैतन्य चरितामृत’ ग्रंथ में तो आठ बार बाउल शब्द का इस्तेमाल हुआ है। मालाधार बसु के ‘श्रीकृष्ण विजय’ और रागात्मिक पद में भी ‘बाउल’ शब्द का व्यवहार हुआ है। चैतन्य देव ने तो स्वयं को साफ-साफ बाउल कहा है। बाउल शब्द की उत्पत्ति बातुल या व्याकुल शब्द से मानी जाती है। अर्थात् जो खुदा के प्रेम में पालग है, वह बाउल है। असीत कुमार बंद्योपाध्याय ने ‘बांग्ला साहित्येर संपूर्न इतिवृत्त’ में लिखा है, बाउलों ने अठारहवीं शताब्दी में उत्कृष्ट अध्यात्म संगीत की रचना की। असीत कुमार बंद्योपाध्याय ने दो पुराने बाउल गायकों का उल्लेख किया है: एक लालनशाह फकीर (जन्म 1775) और दूसरे पांजशाह। लालन फकीर के बाद पांजशाह बहुत लोकप्रिय हुए थे। लालन फकीर के बाउल गान से स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने लालन के बाउल गानों का संग्रह प्रकाशित किया था। रवींद्रनाथ की काव्य रचना भी बाउल से काफी प्रभावित हुई। आधुनिक काल में बाउल गान को विश्वभर में प्रतिष्ठित करने का श्रेय पूर्णचंद्र दास को जाता है। अस्सी साल की उम्र में भी पूर्णचंद्र अपने दल के साथ अपना पारंपरिक वस्त्र पहनकर सिर में पगड़ी बांधकर हाथ में इकतारा, दोतारा, डुग्गी, ढोल, खड़ताल और मंजीरा लेकर जब गाने लगते हैं तो श्रोताओं से रूहानी रिश्ता कायम कर लेते हैं। बाउल गान में पूरे मनुष्य जीवन की छवि और चेतना का प्रकाश देखा जा सकता है। बाउल गायकों का चिंतन, भाषा के साथ उसकी विषयवस्तु एक लय में बँधी होती है। बाउल गान हृदय को स्पर्श मात्र नहीं करते, भीतर उथल-पुथल भी मचा देते हैं। मन को मुक्त कर देते हैं। कुछ ऊपर उठा देते हैं। मनुष्य को मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। बाउल गान हमेशा हर तरह के मनुष्य की पीड़ा, उसके दुख का खात्मा चाहते हैं।

उपनिवेशकाल के सरकारी गजेटियर, गोपाल भट्ट लिखित ‘बल्लोलचरित’, एच. रिजेल लिखित ‘ट्राइब्स एंड कास्ट्स आफ बेंगाल’, विलियम हंटर लिखित ‘स्टेटिस्टिकल एकाउंट आफ बंगाल’ में दलित जातियों के बारे में अनेक विवरण मिलते हैं। इस संदर्भ में दलित चिंतक श्रीमंत नस्कर (1863-1907) की किताब ‘जातिचंद्रिका’ विशेष रूप में उल्लेखनीय है। यह किताब 1887 में प्रकाशित हुई। सनत नस्कार द्वारा संपादित पौंड्र मनीषा में ‘जातिचंद्रिका’ संकलित है। पौंड्र मनीषा के आठ खंड छप चुके हैं। पांच खंडों का संपादन सनत नस्कर ने किया है। ‘जातिचंद्रिका’ तीन कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है-1. आधुनिक बंगाल में किसी दलित कवि द्वारा रची गई यह पहली दलित काव्य कृति है। 2. अविभक्त बंगाल के दलित आंदोलन की भी यह पहली किताब है। 3. जाति विषय पर बांग्ला भाषा में लिखी यह पहली पुस्तक है। इस कविता पुस्तक में श्रीमंत नस्कर ने हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था की वर्ण व तमाम जातियों की उत्पत्ति की काव्यात्मक व्याख्या अलग-अलग जातिसूचनक शीर्षक देकर की है। इसी क्रम में वे बताते हैं कि उनका पौंड्र समुदाय कभी सम्मानित जाति में आता था जो आज अछूत है। इस समूची किताब से पता चलता है कि कवि ने मनुसंहिता से लेकर तमाम हिंदू धर्म ग्रंथों को खंगाल डाला है। वे बताते हैं कि पौंड्र कौन हैं? पुंड्र शब्द का सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। मनु के अनुसार पौंड्र एक प्राचीन जाति है। यह पहले क्षत्रिय थी पर बाद में ब्राह्मणों के अदर्शन से संस्कारभ्रष्ट होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो गई। ‘महाभारत’, ‘मनुस्मृति’ और ‘बृहत्संहिता’ में भी इस जाति का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए-‘पौंड्र- काश्चौंखूद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः। पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः (मनु. 10.44)।’ इतिहास बताता है कि पुंड्रवर्द्धन की राजधानी पुंड्रनगर थी और वहां के निवासियों को पौंड्र कहा जाता था। प्राचीन भारत के मगध के अंतर्गत पुंड्रनगर स्थित था। कहीं-कहीं पौंड्र जाति के लोगों को विश्वामित्र का वंशज और दस्युजीवी भी कहा गया है।

श्रीमंत नस्कर बताते हैं कि बांग्लाभाषी समाज जातियों में बंटा हुआ है। कुछ ऊंची जातियां हैं, कुछ निम्न। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ऊंची जातियां हैं। वे आर्य हैं। बाकी नीची जातियां हैं-अश्पृश्य हैं, शूद्र हैं। वे अनार्य हैं। वे अधिकारहीन हैं। उनकी छाया पड़ने पर भी ब्राह्मणों को गंगास्नान कर पवित्र होना पड़ता है। यही नहीं, जातिधर्म की रक्षा नहीं करने पर समाज से छांटकर कुजात करार दे दिया जाता है। श्रीमंत नस्कर विस्तार से बताते हैं कि स्थान, देशनाम, कर्म अथवा पेशा के आधार पर जातियां चिह्नित की जाती हैं। तरह-तरह का पेशा, तरह-तरह की जाति। श्रीमंत नस्कर ने समाज का यह नग्न चित्र अपनी कविताओं में उतारा है। वे मनुसंहिता में दिए गए जातियों के विवरण से प्रभावित हैं। पौंड्र के बारे में उन्होंने लिखा है-‘पौंड्र नामांतर सब जानिह निश्चय।’ पौंड्र जाति के लोग बंगाल में कहां मिलते हैं, इसका विवरण भी उन्होंने दिया है-‘वर्तमान पौंड्रदेश गौड़ उ पांडुआ। भागलपुर राजशाही प्रभृत लइया।’ श्रीमंत नस्कर की किताब ने अछूत माने जानेवाली पौंड्र जाति को ऊपर उठाने का भरसक यत्न किय़ा। श्रीमंत नस्कर से बांग्ला के लेखक बेनीमाधव हाल्दार बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने 1893 में ‘जातिविवेक’ नामक किताब लिखी। जाति प्रथा पर बांग्ला में लिखी यह किताब मील का पत्थर मानी जाती है। बेनी माधव हल्दर ने सिर्फ यह किताब ही नहीं लिखी, अपितु पिछड़े हुए अपने समाज के लिए संघर्ष भी किया। उन्होंने श्रीमंत नस्कर के सहयोग से 1891 में पौंड्र सम्मेलन आयोजित किया और इस जाति की मांगों को लेकर तत्कालीन सरकार को ज्ञापन सौंपा। उन्होंने राईचरण सरदार के साथ मिलकर 1911 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को फिर ज्ञापन सौंपा। उन्होंने 1917 में पौंड्रक्षत्रित समिति बनाई गई। समिति ने इस जाति के हितों की रक्षा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। उस लड़ाई का अधिकांश श्रेय उस श्रीमंत नस्कर को जाता है जिनका का जन्म 1863 में दक्षिण 24 परगना के कुलपी थानांतर्गत दरीरत्नेश्वरपुर गांव में अस्पृश्य पौंड्र परिवार में हुआ था। श्रीमंत ने बचपन से ही अछूत होने का दंश समाज में भोगा था। उस दंश से निकलने के लिए उन्होंने स्वयं को शिक्षित किया। पौंड्र समुदाय में मैट्रिक पास करनेवाले श्रीमंत नस्कर पहले व्यक्ति थे। उन्होंने अपने गांव के निकट स्थित गुमुकबेड़िया में पाठशाला खोली ताकि गरीब बच्चे पढ़ सकें। संस्कृत काव्य शास्त्र और न्यायशास्त्र में श्रीमंत नस्कर की विलक्षण गति थी। उन्होंने संस्कृत भाषा में रचित विभिन्न पुराणों, स्मृतिशास्त्रों तथा संहिताओं का गंभीर अध्ययन किया और उससे प्रेरित होकर ही ‘जातिचंद्रिका’ लिखी। यह काव्यग्रंथ 1887 में जब प्रकाशित हुआ, तब श्रीमंत नस्कर की उम्र सिर्फ 24 वर्ष थी। उन्हें विद्याभूषण काव्यतीर्थ सिद्धांतवागीश की उपाधि से नवाजा गया।

माइकेल मधुसूदन दत्त की काव्य रचना ‘मेघनाथ वध’ (1861) मुख्यतः दलित साहित्य ही है। ‘मेघनाथ वध’ को बांग्ला कविता का मुकुटमणि माना गया। माइकल मधुसूदन दत्त ने इस काव्य में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़ा था। उन्होंने रावणपुत्र मेघनाथ को नायक और राम को खलनायक के रूप में पेश किया था। कवि ने भाषा, भाव और शैली की दृष्टि से इस काव्यकृति को अधिक समृद्धि प्रदान की थी। माइकेल मधुसूदन दत्त ने बांग्ला कविता में शास्त्रीय छंद अनुशासन ही नहीं तोड़ा, बल्कि पुराने विश्वासों और रूढियों का भी प्रतिरोध किया। कदाचित इसीलिए 19वीं शती का उत्तरार्ध बांग्ला कविता साहित्य में मधुसूदन-बंकिम युग कहा जाता है।

माइकल मधुसूदन दत्त की तरह रवींद्रनाथ भी समाज में हर तरह के भेदभाव और अन्याय का प्रतिकार चाहते थे। रवींद्रनाथ ठाकुर ने मनुवाद का विरोध करते हुए अपने को ब्रात्य कहा था। 1910 में ‘अपमानित’ शीर्षक अपनी बांग्ला  कविता में उन्होंने कहा था-‘हे मोर दुर्भागा देश, जादेर करेछ अपमान, अपमानेर होते होबे ताहादेर सबार समान।’ रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘अपमानित’ शीर्षक कविता के एक अंश का हिंदी अनुवाद पढ़ेंः

“हे मेरे देश, तुमने जिनका अपमान किया है

अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।

जिन्हें तुमने मनुष्य के अधिकार से वंचित किया है

सामने खड़ा रखा और तो भी गोद में जगह न दी

अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।

मनुष्य के स्पर्श को प्रतिदिन दूर हटाते हुए

तुमने मनुष्य के प्राणों के देवता से घृणा की है।

विधाता के भयंकर रोष से अकाल के द्वार पर बैठ

उन सबके साथ बांटकर तुम्हें अन्न जल खाना होगा।

यह कविता रवींद्रनाथ ने 1910 में दलितों के प्रति ऊंची जातियों को संवेदनशील बनाने की कामना में लिखी थी। ‘छड़ाय छवि’, ‘जलयात्रा’, ‘पिस्नी’, ‘खाटुली’, ‘वधू’, ‘देशांतरी’, ‘सुधिया’ और ‘माधो’ शीर्षक कविताओं में भी रवींद्रनाथ दलित संदर्भ को शिद्दत से उठाते हैं। ‘ब्राह्मण’ शीर्षक उनकी कविता की ये आखिरी पंक्तियां देखें- “हे सौम्य! हे प्रियदर्शन! तुम्हारा गोत्र क्या है?  बालक ने सिर उठाकर कहा, भगवन! नहीं जानता कि मेरा गोत्र क्या है? मां से मैंने पूछा था, उन्होंने कहा, सत्यकाम! बहुत घरों में दासी का काम करके मैंने तुम्हें प्राप्त किया था। तुम पतिविहिना जाबाला की गोद में जन्मे थे। तुम्हारा गोत्र मैं नहीं जानती। यह बात सुनकर विद्यार्थीगण मंद स्वर में भुनभुनाने लगे, मानों, मधु के छत्ते में किसी ने ढेला मारा हो और मधुमक्खियां विक्षिप्त, चंचल हो उठी हों। सब विस्मय से व्यग्र हो उठे। निर्लज्ज अनार्य का अहंकार देख कोई तो हँसा, किसी ने धिक्कार किया। तो गौतम ऋषि आसन से उठे;  बांहें खोल उन्होंने बालक का आलिंगन किया और कहा, बेटा तुम अब्राह्मण नहीं हो। तुम सत्य के वंश में जन्मे हो;  तुम द्विजोत्तम हो।”

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिन दलित कवियों ने अपनी रचनाओं में दलित जीवन की विकल कर देनेवाली अभिव्यक्ति की, उनमें बांग्ला कविता के रचनाकारों के कुछ प्रमुख नाम हैं-अनिल सरकार, उपेन विश्वास, गोपाल विश्वास, दुलाल उड़िया, मार्शल हेमब्रम, मनोहर मौलि विश्वास, अचिंत्य विश्वास और कपिल कृष्ण ठाकुर। इसके अलावा आधुनिक बांग्ला दलित कविता में ताड़कचंद्र सरकार, राईचरण विश्वास, साधु रामचंद्र मुर्मू, महानंद हाल्दार, बसंत कुमार मंडल, रणजित कुमार सिकदर, विनय मजुमदार, विमल विश्वास, अनिल कृष्ण मल्लिक, पशुपतिनाथ महतो, कल्पना शिव, शैलेंद्र दास, गौतम अली, अनिल मालाकार, निखिलेश राय, सुस्नात जाना, मनोरंजन दास, मंजु बाला, कल्याणी ठाकुर, वीणा राय सरकार, समर राय, रतन विश्वास, सुकांत मंडल, किशोर विश्वास, विभा विश्वास, कालिदास बाला, समरेंद्र वैद्य, अमर विश्वास, खुदीराम राउथ, हेमेंद्र विकास चौधरी, विनोद बेरा भी उल्लेखनीय हैं।

मनोहर मौलि विश्वास के चारों कविता संग्रह-‘उरा आमार कविता’, ‘तारेर कान्नाः तितिक्षा’, ‘विविक्त उठाने घर’ और ‘विक्षत कालेर बांशि’ दलित काव्य संग्रह ही हैं। इन संग्रहों की सभी कविताएं दलित संदर्भों पर लिखी गई हैं। कपिल कृष्ण ठाकुर के चार काव्य संग्रह- ‘विच्छिन्न बांग्लार विरुद्धे’ (1981), ‘चोलेछि चैत्रेर उत्सवे’ (1993), ‘सरो पाथर’ (1996), ‘कि सुंदर अंध’ (2001) छप चुके हैं और हर संग्रह में दलित संदर्भ हमें मिल जाएंगे। श्यामल कुमार प्रामाणिक के काव्य संग्रह ‘आगुनेर वर्णमाला’ की सभी कविताएं दलित कविताएं हैं। श्यामल कुमार प्रामाणिक के चार अन्य काव्य संग्रहों- ‘रौद्र झरछे’, ‘कखनो आकाश कखनो माटी’, ‘शोनो एइखाने रेखे गेलाम’ और ‘विपन्न दिनगुली हेंटे आसे’ में भी दलित संदर्भ बहुत हैं। मनोहर मौलि विश्वास, श्यामल कुमार प्रामाणिक तथा कपिल कृष्ण ठाकुर की तरह मार्शल हेमब्रम की कविताएं भी पाठक को विकल बना देती हैं। मार्शल हेमब्रम एक कविता में कहते हैं- ‘हे मर्दलोग/ हवा ने खबर दी है/राजा आ रहे हैं हमारे शरीर पर/ आओ उनकी हम अभ्यर्थना करें/ आओ मंच पर खड़ा करें अपने अनाहारी रुग्ण शिशुओं को।’ मनोहर विश्वास अपनी एक कविता में कहते हैं-‘आंख उठाकर साफ बोलो/ धर्षिता नहीं हुई?प्यार पाया है? आर्य के घर स्त्री का सम्मान पाया? उत्तर दो उत्तर दो हे/ अनार्य जननी।’ अचिंत्य विश्वास की घोषणा है- ‘बहुत सहा है, अब और नहीं।’ कल्पना शिव का कहना है-‘युद्ध आज फूल और ज्योत्सना को लेकर युद्ध आज प्यार के लिए स्वदेश के लिए।’ दुलाल उड़िया की काव्य पंक्तियां हैं-‘कृपा और अनुग्रह लेकर/ जीने से ज्यादा लज्जा/और क्या हो सकती है? युग युग से जो हमसे घृणा करते आ रहे हैं हमारे पसीने से जो अपनी इमारत खड़ी करते रहे हैं हमारे श्रम से जो अपनी पूंजी बढ़ाते रहे हैं चलो अब उन्हें समूल उच्छेद करें।’

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