बकरीद पर विशेष- इस्लाम के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है

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  • डॉ. अमरनाथ

पेशावर के एक विद्यालय में घुसकर एक सौ बत्तीस स्कूली बच्चों की हत्या का समाचार देखकर दिल दहल गया। मानवता के इतिहास में ऐसा जघन्य कृत्य मैने अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा। इस घटना के बाद मेरे एक प्रिय की टिप्पणी थी- “अब धर्म के लिए मेरे दिल में बचीखुची आस्था भी खत्म हो गई। यह सब घर्म के नाम पर हुआ। कत्ल हुए बच्चों को वे शहीद कह रहे थे और उनकी दृष्टि में उन बच्चों को भी जन्नत नसीब होगी।”

आज से करीब तीस साल पहले जब मैं मार्क्सवाद का अध्ययन कर रहा था, तब मेरे मन में भी धर्म के विषय में ऐसी ही धारणा बनी थी। मगर विगत तीस साल का अनुभव मुझे अपनी सोच पर पुनर्विचार के लिए बाध्य कर रहा है। यह सही है कि धर्म के नाम पर जो रक्तपात हुए हैं, उनका लेखाजोखा कठिन है। किन्तु, इसी का एक दूसरा पहलू यह है कि मानवता का अब तक का विकास धर्म की ही देन है। इसी धर्म प्राण समाज ने हमें गौतम बुद्ध दिए, ईसा मसीह दिए, गांधी और मदर टेरेसा दिए। आज भी धर्म के मजबूत खम्भे पर मानवता टिकी हुई है और हम सभ्य समाज की ओर ही अग्रसर हैं। धर्मविहीन समाज का अनुभव हमारे पास या तो है ही नहीं या बहुत ही कम है।

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थोड़े दिनों तक सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था, जहां धर्म के लिए बहुत कम जगह थी। उस कम्युनिज्म की स्थापना में लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया- एक सुन्दर, समानता पर आधारित, शोषणरहित समाज बनाने के लिए। किन्तु स्तालिन के शासन काल में विरोधियों के नाम पर मानवता के ऊपर जो जुर्म हुए, जितनी जानें ली गयीं, वह अब इतिहास का विषय है और उसके आंकड़े कम्युनिस्टों को भी चौंका देते हैं। यदि धर्मविहीन समाज स्तालिन के कालखंड जैसा होगा तो वह किस दृष्टि से बेहतर होगा?

दुनिया में जो कुछ भी है, सब परिवर्तनशील है। सब कुछ में सुधार संभव है। फिर धर्म में सुधार क्यों नही? धर्म की कमजोरियों पर किसी तरह की टिप्पणी को लोगों की धार्मिक भावनाओं पर चोट क्यों मान लिया जाता है? जो टिप्पणी करता है, उसकी भावनाओं को महत्व क्यों नहीं मिलता? धर्म जहां एक निजी मामला होना चाहिए, उसका सार्वजनिक प्रदर्शन क्यों होता है? यहां तक कि धार्मिक राष्ट्र तक क्यों घोषित कर दिए जाते हैं? उन्हें दुनिया स्वीकृति क्यों देती है?

आतंकवादी इतने क्रूर क्यों होते हैं? इन्सान क्या जन्म से ही इतना क्रूर होता है? जिस व्यक्ति ने कभी किसी प्राणी की हत्या न की हो, उससे एक मुर्गी काटने को कहें तो भी वह नहीं काट पाएगा। किन्तु एक बार यदि मुर्गी काट ली तो दुबारा वह बकरा भी काट लेगा और फिर दो-चार बकरे काटने के बाद उसे मनुष्य काटने में भी हिचक नहीं होगी। पेशेवर हत्यारे इसी तरह थोड़े- थोड़े पैसों के लिए लोगों की हत्याएं करते फिरते हैं.।

अधिकांश धर्मों में असहाय जानवरों की बलि देकर अपने देवताओं तो खुश करने अथवा पुण्य कमाने की प्रथा प्रचलित है। बंगाल में काली की पूजा में बकरे की बलि देना आम है। कुछ दिन पहले मैं तारापीठ देवी का दर्शन करने सपरिवार गया, वहाँ मन्दिर प्रांगण में ही सबके बीच पुजारियों द्वारा बकरों को काटते देखा। फिर वहाँ रुकने की मेरी हिम्मत नहीं हुई और देवी का दर्शन किए बगैर घर लौट आया। नरमुंड का माला धारण किए लम्बी जीभ निकाले काली का रूप मुझे डरावना लगता है और उनके प्रति श्रद्धा की जगह वितृष्णा पैदा होती है। गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में आज भी भैंसे तथा अन्य पशुओं की बलि देना आम है। सुनते हैं कि पहले नरबलि तक देने की प्रथा थी। शंकरदेव और माधवदेव के वैष्णव मत के प्रचार से वहां हिंसा पर कुछ नियंत्रण जरूर हुआ, किन्तु पशुओं की बलि आज भी आये दिन होती रहती है।

इस्लाम में यह कुछ ज्यादा ही है। लगता है कि इस्लाम में क्रूरता और हत्याएं करने की ट्रेनिंग दी जाती है। सुना है उनके यहां ‘हलाल’ का मांस ही खाया जाता है। हलाल का अर्थ ही है कि जिस पशु का जबह किया गया हो, गला रेतकर जिसकी हत्या की गई हो। मैंने बकरीद के अवसर पर सैकड़ों गायों को कुर्बानी के लिए बिकते देखा है। उनमें ऐसी गाएं भी होती हैं, जिनके साथ उनके छोटे-छोटे बछड़े बँधे होते हैं। मैने ऐसी गायों को भी देखा है, जिनका थन दूध से भरा होता है और इनमें से एक-एक गाएं एक-एक परिवार का पालन करने में सक्षम होती हैं, किन्तु धर्म के नाम पर इनको क्रूरता के साथ जबह कर दिया जाता है। इन्सान का जो बच्चा इन मुर्गियों, बकरियों, बछड़ों, भैंसों और गायों को बचपन से ही कटते हुए देखता है और उसमें खुद हिस्सा लेता है उसके भीतर करुणा जैसे उदात्त मूल्य कैसे बचे रहेंगे? कुर्बानी के नाम पर यह क्रूरता और हत्या की ट्रेनिंग नहीं है तो क्या है? अनेक फन्डामेंटलिस्ट इस इक्कीसवीं सदी में भी धर्म के नाम पर होने वाली कुरीतियों में किसी तरह का परिवर्तन नहीं चाहते। जन्नत के नाम पर इस भौतिक जीवन को दोजख बना देना और तबाह कर देना उन्हें मंजूर है और सरकारें इनका पूरी तरह पोषण कर रही हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, इकोनामिक्स, मेडिकल साईन्स और प्रौद्धोगिकी की जगह हमारे बच्चों को ये सरकारें धार्मिक पाखंडो और मजहबी कट्टरता की शिक्षा दे रही हैं।

दरअसल बलि के पीछे का मुख्य कारण इन्सान का मांस भक्षण है। जब तक इन्सान को दूसरे जानवरों के मांस में स्वाद मिलेगा, तब तक वह उनकी कुर्बानी भी करता रहेगा, जानवरों की बलि भी देता रहेगा। इन्सान अपने ईश्वर को वही चीजें भेंट करता है, जो वह खुद पसंद करता है। हर जाति, हर समुदाय अपने अनुकूल अपना ईश्वर निर्मित करता है और अपनी पसंद की चीजें उसे भेंट भी करता है। पाकिस्तान के मशहूर रचनाकार मुश्ताक अहमद युसूफी ने व्यंग्य में ही कितनी महत्वपूर्ण बात कही है कि, “इस्लाम के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है।”  आज का सुसंस्कृत मनुष्य यदि मांस भक्षण की आदिम कुप्रवृत्ति से मुक्त हो जाता तो धरती स्वर्ग बन जाती और दूसरे प्राणियों को धरती पर जीने का उनका अपना अधिकार भी मिल जाता। इस धरती पर डायनासोर जैसे विशालकाय जीव भी थे, जो शाकाहारी थे और आज भी धरती का सबसे बड़ा जानवर हाथी पत्तियां ही चबाता है।

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आज इस्लाम में धर्म साध्य है, मनुष्य धर्म के लिए जी रहा है। वह दिन कब आएगा, जब धर्म साधन होगा और मनुष्य साध्य।  बकरीद के अवसर पर दी जाने वाली कुर्बानी के पीछे का दर्शन आज के युग में कितना प्रासंगिक अथवा वैध है?

 

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