प्रवासियों के प्रति अस्पृश्यता को याद रखेगा इतिहास…..

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  • सुशील मिश्रा

प्रवासियों के प्रति अस्पृश्यता को इतिहास भी याद रखेगा। सड़कों पर प्रवासियों के प्रति जो अस्पृश्यता दिख रही, उसकी कल्पना प्रवासियों ने सपने में नहीं की होगी। आजादी के 70 साल के इतिहास में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कोविड 19 जैसी महामारी में सड़कों पर प्रवासियों  के प्रति जो अस्पृश्यता का भाव दिख रहा है, उसकी अपेक्षा किसी को नहीं रही होगी। यह न केवल मानवता, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी अवांक्षित है। महानगरों से घरों को लौटते श्रमिकों के पैरों के छाले तथा थके-हारे कदमों  से चलते माता-पिता के कंधों पर बच्चों के आंसू विचलित करते हैं। लॉक डाउन से परेशान घरों की ओर चल पड़े हजारों श्रमिकों को ट्रक चालकों के सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते देखना, किसी भी सभ्य समाज पर धब्बा है। प्रवासियों के प्रति यह अस्पृश्यता, इतिहास याद रखेगा।

विशेष कर तब जब 7-13 मई के बीच केंद्र सरकार ने विदेशों से 14,500 से अधिक प्रवासियों को वापस लाने के लिए दर्जनों उड़ानें शुरू का फैसला किया है। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि कर्नाटक सरकार ने प्रवासियों के राज्य छोड़ने पर यह कहते हुए रोक लगा दी है कि वे अर्थव्यवस्था कि रीढ़ हैं ये। ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं। क्या यह परोक्ष रूप से श्रमिकों को बंदी बनाना नहीं है? क्या देश का कानून इसकी इजाजत देता है? क्या केंद्र सरकार इसे अनदेखा कर सकती है? क्या विदेशों से लोगों को लाने के लिए उड़नखटोला भेजा जा सकता है, लेकिन अपने ही देश में गरीबों और कमजोरों को घर वापस जाने की भी इजाजत नहीं होगी? वे खाली पेट और नंगे पैर चलते चलते मरते रहेंगे? क्या देश में तानाशाही चलेगी?

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पहले तो बीमारी फैलने से रोकने के नाम पर प्रवासियों (श्रमिकों) को जहां तहां रोक दिया गया और 39-40 दिन बाद भी जब बीमारी रोकने में नाकामी मिली तो दबाव में ट्रेनों से भेजा जाने लगा। क्या यह महामारी से लड़ने की योजना की विफलता नहीं? पिछले 4 दिनों में  पीड़ितों की संख्या 40,000 से बढ़कर 50,000 हो गई। क्या यह बेकाबू होती स्थिति का नमूना नहीं? भारत दुनिया में तेजी से बढ़ रहे कोरोना संक्रमित देशों में पांचवें स्थान पर आ गया है।

नोटबंदी की तरह 4 घंटे की नोटिस पर 130 करोड़ लोगों के घरों के बाहर लक्ष्मण रेखा खींचने वाले को क्या अब जनता के सामने जवाब नहीं देना चाहिए? महामारी से लड़ने के नाम पर लोगों से दान मांगा गया। जनता ने भी साथ दिया। उद्योगपतियों व सार्वजनिक संस्थानों ने मुक्त हस्त से पीएम केयर फंड में योगदान किया। लेकिन हैरानी की बात है कि जिस रेलवे ने 151 करोड़ का दान दिया, उसके पास प्रवासियों को घर पहुंचाने के लिए रुपए नहीं। राहत के नाम पर प्रवासियों को छला गया। बंगाल की सत्ताधारी पार्टी टीएमसी, कांग्रेस सह विपक्षी दलों ने सवाल उठाया है कि रेलवे द्वारा पीएम फंड में दी गई 151करोड़ रुपए की रकम कहां गई?

प्रवासियों की पीड़ा के बहाने सवालों की सूची काफी लंबी है, लेकिन जवाब कौन देगा? क्योंकि जनता जिससे जवाब की अपेक्षा करती है, उन्होंने 2,172 दिनों के दौरान किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया है। लेकिन, इतिहास के पन्ने में सब दर्ज हो रहा। इतिहास इस अस्पृश्यता तथा खामोशी को याद जरूर रखेगा। इतिहास निर्मम होता है, जो किसी को माफ नहीं करता।

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