चीन को सीमा से ही नहीं, सीने से भी बाहर करना होगा भारत को

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चीन को सीमा से ही नहीं, सीने से भी बाहर करना होगा। अभी समय है। यह नहीं हुआ तो ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह चीन की कंपनियां भी धीरे-धीरे भारत को कब्जे में ले लेंगी।
चीन को सीमा से ही नहीं, सीने से भी बाहर करना होगा। अभी समय है। यह नहीं हुआ तो ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह चीन की कंपनियां भी धीरे-धीरे भारत को कब्जे में ले लेंगी।

चीन को सीमा से ही नहीं, सीने से भी बाहर करना होगा। अभी समय है। यह नहीं हुआ तो ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह चीन की कंपनियां भी धीरे-धीरे भारत को कब्जे में ले लेंगी। भारत को हिन्दू केंद्रित राजनीति की ओर धकेलना चीन की पहली कोशिश थी। इसमें वह सफल हुआ है। चीन की चाल समझने के लिए पढ़ें यह आलेख

प्रेम कुमार मणि
प्रेम कुमार मणि
  • प्रेमकुमार मणि 

कोरोना महामारी के बीच चीन का सीमा विवाद, और उसमें बड़ी संख्या में हमारे सैनिकों का बलिदान चिंता का विषय  है। शून्य से भी बहुत नीचे के तापमान में हमारे बहादुर सैनिक भारत की रक्षा के लिए खून बहा रहे हैं। हताहतों की  संख्या काफी है। हम उन सैनिकों को सलाम करते हैं, जिन्होंने अपना बलिदान किया। हम उनके साथ होना चाहते हैं, जो वहां संघर्ष कर रहे हैं।

जब मैं नौ साल का था, तब चीन ने हमारी सीमा पर आक्रमण किया था। 1962 के बीस अक्टूबर की तारीख  थी। पूरब के अरुणाचल प्रदेश, जिसे तब नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एरिया (नेफा) कहा जाता था, और पश्चिम के लद्दाख में चीन ने घुस कर हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया था। लड़ाई एक महीने तक चली। लगभग इकतरफा, क्योंकि भारतीय सैनिकों ने उस वक्त जवाबी हमला लगभग नहीं किया। वे बचाव करते हुए पीछे हटते गए। बाहरी देशों के दबाव, जिसमें बट्रेंड रसल  जैसे दार्शनिकों ने भी महती भूमिका  अदा की, के बाद  21 नवंबर  को युद्ध विराम हुआ था। चीनी सैनिक नेफा से तो पीछे हट गए, लेकिन लद्दाख के अक्साई चीन का लगभग 4300 वर्ग किलोमीटर जमीन चीन ने नहीं छोड़ा। महीने दिन के सीमा संघर्ष में हमारे 3250 सैनिक शहीद हुए थे।

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नेहरू सरकार को चीन से ऐसी उम्मीद नहीं थी। 1955 में चीनी नेता और प्रधानमंत्री जहाउ एन लाइ ने नेहरू के साथ पंचशील का समझौता किया था। नेहरू समझ रहे थे  कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार दूसरे विश्वयुद्ध से पैदा हुई अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों और शान्ति की जरूरतों से वाकिफ है। 1947 में भारत में और 1949 में चीन में नए तर्ज की हुकूमतें आयी थीं। भारत को विकास की चिंता थी और उसने पंचवर्षीय योजनाओं पर सारा ध्यान केंद्रित किया हुआ था। किसानों और ग्रामीण गरीबों को ऊपर उठाना आवश्यक था। रोटी, स्वास्थ्य और शिक्षा की दयनीय स्थिति थी। स्वाभाविक था, फौजी खर्चों पर बहुत जोर नहीं दिया जाये।

मुल्क की सामंती ताकतें  चाहती थीं कि भारत फौज-फाटे पर जोर दे, ताकि समाज की कमजोर ताकतें यथावत रहें और समाज पर उनका पारम्परिक वर्चस्व बना रहे। नेहरू ने शांति नीति पर जोर देकर फौजी खर्चों को नहीं बढ़ने और औद्योगिक व कृषि विकास को तेज करने पर  जोर दिया। नेहरू का मानना था कि चीन के लिए भी यही लाजिम है, क्योंकि उस के पास भी आर्थिक विकास मुख्य एजेंडा होना था। इसी नजरिये से पंचशील नीति पर नेहरू का जोर था। चीनी नेताओं ने जब इसे स्वीकार किया, तब नेहरू ने विश्वास कर  लिया। लेकिन चीन ने भारत को धोखे में रखा। उसने नेहरू के साथ विश्वासघात किया।

चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनते ही विस्तारवाद पर जोर दिया गया। दो विश्वयुद्धों  के बाद दुनिया को शान्ति की बहुत जरूरत थी और विस्तारवादी साम्राज्यवादी  नीतियों को गुजरे जमाने की चीज माना गया। लेकिन चीन ने यहीं से आरम्भ किया। 1950 में उसने अपने दक्षिण के पहाड़ी इलाके तिब्बत पर अपने अधिकार की घोषणा कर दी। तिब्बत में कोई जनतंत्र नहीं, बौद्ध पुरोहितों की हुकूमत थी, जिस में आधुनिकता के तत्व कम थे। कम्युनिस्ट चीन ने इसे ही अपना वैचारिक आधार बनाया। हालांकि 1954 में उन्नीस साल के दलाई लामा (ल्हामो थोनडप) को बीजिंग बुला कर बात भी की और उनकी हिफाजत का भरोसा दिया। लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें खत्म कर देने की योजना बना ली। बड़े लामा को जब यह मालूम हुआ,  तब वह भाग कर  भारत आ गए।

नेहरू तिब्बत का महत्व जानते थे। सांस्कृतिक स्तर पर वह  भारत का हिस्सा था। वहां के चप्पे-चप्पे पर बुद्ध थे। मानसरोवर निराकार शिव का स्थान है। वहां न कोई मंदिर है, न मूरत। प्रकृति को ही शिव-स्वरूप माना गया है। वह भारत का सांस्कृतिक केंद्र है। नेहरू ने भविष्य की राजनीति को ध्यान में रख कर दलाई लामा को न केवल संरक्षण दिया, बल्कि  उनकी बाह्य तिब्बत-सरकार को पोसा-पाला। तब भारत की आर्थिक और सामरिक हालत ऐसी नहीं थी कि वह इस तरह का अतिथि रखे। लेकिन नेहरू ने यह किया। भारत की दकियानूसी ताकतों ने चीनी हमले और इसमें भारत की हार को  नेहरू विरोध का आधार बना लिया। इसी स्थिति में नेहरू मई 1964 में मर गए।

1962  में चीन के विवाद का आधार मक्महोन रेखा है। 1914 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव सर हेनरी मक्महोन और तिब्बत के अधिकारियों ने इस सीमा रेखा को शिमला के एक समझौता वार्ता में  स्वीकार किया था। यह लद्दाख से लेकर पूरब के ब्रह्मपुत्र नदी तक है। भारत को इस पर कायम रहना बिकुल जायज है। चीन द्वारा अधिकृत अक्साई चीन के 4300 वर्गकिलोमीटर जमीन पर भारत का अधिकार होना ही चाहिए। यह मामला कश्मीर से तनिक भिन्न है। (यूँ पाक अधिकृत कश्मीर भी निस्संदेह भारत का हिस्सा है)। चीन का यह कहना कि ब्रिटिश हुकूमत के समझौते को वह मानने के लिए बाध्य नहीं है, शातिरपने के सिवा कुछ नहीं है। इसमें पाकिस्तान की हामी इसलिए हास्यास्पद है कि ब्रिटिश सरकार के समझौते के तहत ही पाकिस्तान भी है, अन्यथा वह भारत भूमि है। भारत का असली उद्भव क्षेत्र, जहाँ भारत का जन्म हुआ, वह  तो सिंध  है।

1962 विवाद के 58 साल हो रहे हैं। इस बीच कई दफा छोटे विवाद चीन के साथ हुए।  लेकिन इस बार का विवाद अत्यंत गंभीर  है। मैं भारत की तमाम देशभक्त ताकतों से अर्ज करना चाहूंगा कि वे पूरी गंभीरता से इस संकट और मुद्दे पर विचार करें। भारत की राजनैतिक स्थिति भले ही बहुत लोगों को बुलंद और बेहतर दिख रही है, मुझे यह ऐसे दयनीय हाल में दिख रही है, जैसे यह हजार वर्ष पहले थी। उस वक्त जब तुर्क-ताकतों का यहाँ हमला हुआ था। हमारी केंद्रीय हुकूमत  आज चीन के इरादों के अनुकूल है। नेहरू और माओ मिलते थे, तब नेहरू का रुतबा ऊँचा होता था। माओ स्वयं उनकी काबिलियत की तारीफ करते थे। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार के रूप में दुनिया भर में उन्हें जाना जाता था।

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उस नेहरू को झांसे में रख कर चीन ने कायराना हरकत की थी। भारतीय पौराणिक देवताओं में शीर्षस्थ  महादेव हैं। हमारी पौराणिकता में उन्हें लोग ठग  लेते थे। महादेव को भोले कहा गया। ठगा जाना उनकी फितरत थी। लेकिन उन्होंने किसी को नहीं ठगा। नेहरू का ठगा जाना, उनकी कमजोरी नहीं कही जानी चाहिए। लेकिन मौजूदा सरकार, जो हर मामले में नेहरू की नीतियों की आलोचना करती है, खुद आज क्या कर रही है? मैं आरएसएस आलाकमान से भी अर्ज करूँगा कि वह राजनीतिक मामलों में दखल दे, यदि उसके पास देश के लिए सचमुच का कोई प्रेम है।

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मोदी हुकूमत हद से अधिक चीन के राजनीतिक जाल-फांस में आ चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए कि उनकी बार-बार की चीन यात्रा का मकसद क्या था? चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग को जिस आह्लाद से झूले पर डुला रहे थे, उसका रहस्य क्या था? इस प्रेम का रहस्य उन्हें बतलाना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति से कहीं अधिक जोरदार ढंग से मोदी की आवभगत जब बीजिंग में हुई थी, तभी मेरा माथा ठनका था कि जिनपिंग यूँ ही यह सब नहीं कर रहा है। पूरी मोदी सरकार की विश्वसनीयता आज कठघरे में है।

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किसी के साथ भी हम युद्ध के खिलाफ हैं। चीन के साथ भी। लेकिन हमलों का मुंहतोड़ जवाब देना ही होगा। चीन के साथ असली युद्ध सीमा पर नहीं, बाजार में होना चाहिए।  कभी राष्ट्रीय आंदोलन में विलायती चीजों के बहिष्कार का आंदोलन हुआ था। चीन की बनी चीजों का बहिष्कार कर इस लड़ाई को व्यापक बनाया जा सकता है। चीन को सीमा से ही नहीं, सीने से भी बाहर करना होगा। अभी समय है। यह नहीं हुआ तो ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह चीन की कंपनियां भी धीरे-धीरे भारत को कब्जे में ले लेंगी। भारत को हिन्दू केंद्रित राजनीति की ओर धकेलना चीन की पहली कोशिश थी। इसमें वह सफल हुआ है। इस केन्द्रीयता से पूरे हिमालय क्षेत्र (लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक) भारत की सांस्कृतिक दावेदारी कमजोर हो जाती है। इसे चीन समझता है। बुद्ध केंद्रित भारत को राम केंद्रित होते ही चीन को लाभ ही लाभ है। भारतीय संस्कृति को बुद्ध और शिव केंद्रित करना बहुत जरूरी है।

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