चंद्रकांत देवताले बड़े आत्मीय स्वभाव के विशिष्ट कवि थे

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कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे

बड़े आत्मीय थे चंद्रकांत देवताले। हिंदी के विशिष्ट कवि होने के बावजूद अत्यंत सरल मानुष थे। चंद्रकांत देवताले जी। 7 नवंबर को उनकी जयंती थी। उन्हें विनम्रतापूर्वक याद किया है पत्रकार, साहित्यार और प्रोफेसर डा. कृपाशंकर चौबे ने

चंद्रकांत देवताले
चंद्रकांत देवताले

(07 नवंबर 1936-14 अगस्त 2017) हिंदी के विशिष्ट कवि होने के बावजूद अत्यंत सरल मानुष थे। भोपाल में जब महाश्वेता देवी परसाई स्मृति व्याख्यान देने गई थीं तो प्रतिदिन सुबह वे दीदी को एक फूल भेंट करते थे। कोलकाता लौटकर महाश्वेता दी ने उन्हें पत्र लिखाः मिस्टर देवताले, दिस मार्निंग नो फ्लावर।

देवताले जी जब कोलकाता आते तो जरूर भेंट होती। वे बहुत आत्मीय व्यक्ति थे। अक्सर वे एक किस्सा सुनाते- एक कार्यक्रम में मुझे देवकांत चंद्रताले कहकर बुलाया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से लेकर मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान, अखिल भारतीय मैथिली शरण गुप्त सम्मान, कुसुमाग्रज अवार्ड, उड़ीसा की वर्णमाला साहित्य संस्था के सृजन भारती सम्मान, मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, पहल सम्मान और भवभूति अलंकरण से सम्मानित हो चुकने और 15 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकने के बावजूद वे कभी नहीं दर्शाते थे कि बड़े कवि हैं। बल्कि हमेशा शिशु जैसे सरल बने रहते।

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‘हड्डियों में छिपा ज्वर’ (1973), दीवारों पर खून से’ (1975),‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ (1980), ‘रोशनी के मैदान की तरफ’ ( 1982), ‘भूखंड तप रहा है’ (1982), ‘आग हर चीज में बताई गई थी’ (1987), ‘बदला बेहद महंगा सौदा’ (1995), ‘पत्थर की बेंच’(1996), ‘उसके सपने’ (1997), ‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘आकाश की जात बता भइया’ (2010), ‘पत्थर फेंक रहा हूं’ (2010) और ‘कवि ने कहा’ (2012) जैसी काव्यकृतियों के एकांत स्रष्टा देवताले जी की कविता समय और सन्दर्भ के साथ संबंध रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रवृत्तियों का समुच्चय है।

भूमंडलीकरण के इस दौर में जब भोगा हुआ यथार्थ की जगह बदला हुआ यथार्थ है और वह यथार्थ भयावह फैंटेसी में तब्दील हो रहा है, वैश्वीकरण जब बहुत कुछ को तहस-नहस कर रहा है, तब क्या कुछ और कैसे बचाया जाए, यही देवताले जी की चिंता है। ऐसे वक्त वे चुप नहीं रह पाते। वे कहते हैं-

मेरी यही कोशिश रही/ पत्थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्द/ और बीमार की डूबती नब्ज को थामकर ताजा पत्तियों की सांस बन जाएं।

कवि द्वारा पत्थरों की तरह हवा में शब्दों के टकराने की बात करना बेहद तात्पर्यपूर्ण है। देवताले जी में विलक्षण नागरिक बोध था। इस बोध की बदौलत ही वे सर्वहारा और लोक की शक्ति के प्रति आस्थावान थे। देवताले जी की काव्य भाषा, शिल्प और अर्जित मुहावरे को आज की कविता में शीर्ष दर्जा इसलिए हासिल है क्योंकि उनके यहां जीवन, प्रकृति और जगत के पुनर्सृजन की मौलिक चेष्टा दिखती है। देवताले जी के यहां सृष्टि को लेकर गहरी विकलता है। जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

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