गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं, मायं माटी छोड़ब नहीं..

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गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं, मायं माटी छोड़ब नहीं...कोरोना डायरी की आठवीं कड़ी में हम उस संकल्प की बात करेंगे, जिसका मूल स्वर यही होता है।
गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं, मायं माटी छोड़ब नहीं...कोरोना डायरी की आठवीं कड़ी में हम उस संकल्प की बात करेंगे, जिसका मूल स्वर यही होता है।

गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं, मायं माटी छोड़ब नहीं…कोरोना डायरी की आठवीं कड़ी में हम उस संकल्प की बात करेंगे, जिसका मूल स्वर यही होता है। प्रवासी मजदूरों को लेकर देशभर में हंगामे के बीच यह संकल्प हठात याद आ गया, जो झारखंडी लोक गीतों में अब भी रस्मी तौर पर गूंजता है। पढ़िए, कोरोना काल की डायरी की 8वीं कड़ीः

डा. संतोष मानव

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डा. संतोष मानव
डा. संतोष मानव

सूखी-फटी धरती पर बारिश की बूंदें, भूख से ऐंठती अतड़ियों में जैसे जाए दो-चार निवाला, वैसी ही थी यह खबर। नींद से जागते ही मंगल खबर मिली। किसी का भी मंगल हो, है तो अच्छी खबर न। सुकून देने वाली। यह खबर थी, हैदराबाद के लिंगमपल्ली से हटिया के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन खुलने की। बारह सौ मजदूर पहुंच जाएंगे, अपने घर। बाल-बच्चों के पास। वे मजबूर मजदूर,  जो इस कोरोना काल में थे घर से बहुत दूर। खबर से याद आई मधु मंसूरी की। मधु मंसूरी झारखंड के लोक गायक हैं। बीते साल पद्मश्री मिलते ही वे खास हो गए। जमाने की रीत है- एक पुरस्कार, एक सम्मान आम को खास बना देता है। सम्मान के साथ ही मंसूरी लोकख्यात हो गए। गूगल, यू ट्यूब पर खूब सर्च हुए मधु मंसूरी।

अपने-अपने गांव-घर से रोटी के लिए शहरों में बिला जाने वाले श्रमिकों के लिए इन्हीं मंसूरी जी ने लिखा और गाया है- गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं, मायं माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं। बांध बनाए, गांव डुबोए, कारखाना बनाए। जंगल काटे, खदान कोड़े, सेंचुरी बनाए। जल-जंगल-जमीन छोड़ी, हमनी कहाँ-कहाँ जाएं। विकास के भगवान बता, हम कैसे जान बचाएं——। गांव छोड़ब नहीं–।  अपना गांव, अपनी जमीन कोई शौक से नहीं छोड़ता, वह तो पेट की आग है, जो गांव-बस्ती छुड़ा देती है।

झारखंड की दो करुण कहानी है। एक पेट के लिए पलायन और दूसरी मानव तस्करी। ये दोनों झारखंड के चेहरे के बड़े दाग हैं। बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल भी पलायन और मानव तस्करी के लिए अभिशप्त हैं। ऐसे ही करोड़ों कामगार इस कोरोना काल में 37-38 दिनों की भूख-बेरोजगारी, बीमारी, बेचैनी, बेबसी, पीड़ा के बाद अपने घर जाएंगे। रेलवे जगह-जगह से श्रमिक स्पेशल रवाना कर रहा है, करेगा। सोचिए, अनुभव कीजिए, उनकी खुशी। इसलिए कहा था- मंगल खबर। इसी मंगल की चाह में हजारों-हजार ने पैदल-साइकिल से हजार-हजार किलोमीटर की यात्रा की। अधिकतर किसी तरह जलते-भुनते-भटकते घर पहुंच गए। कुछ राह में रह गए- हमेशा के लिए। कुछ को मध्यप्रदेश-उत्तर प्रदेश की सरकारों ने बुला भी लिया था। क्या और किससे, कैसे कहां जाए? इतना ही कहिए- कुछ देर कर दी जनाब निर्णय करते-करते। चलो, अब मधु मंसूरी, हेमंत सोरेन, योगी आदित्यनाथ, नीतीश कुमार, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत, शिवराज सिंह, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, सब ऐसा लिखें, करें कि कम से कम का गांव छूटे। ताकि फिर कोई वायरस, इन्हें नोच-नोच न खाए। शाम होते-होते दूसरी खबर भी आ गई- कोटा से रांची तक विद्यार्थियों के लिए ट्रेन। और रात जाने से पहले ट्रेन खुल गई। तीसरा मंगल गान- और भी स्टुडेंट स्पेशल ट्रेन खुलेंगी। वे खुशनसीब विद्यार्थी,  जिन्हें आदित्यनाथ और शिवराज तमाम अवरोधों के बावजूद पहले ही कोटा से बुला चुके, वे तो मंगलगान कर ही रहे होंगे।

जो हर बाधा को करता है दूर, उसका नाम है मजदूर, पर है बड़ा मजबूर। अगर मजबूर न होता, तो इस कोरोना काल-कोरोना बंदी में एक निर्णय लेने में 38 दिन नहीं लगते। सांसद दिल्ली में थे, आ गए। अफसर थे, आ गए। मजबूर मजदूर कैसे आते?  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता है- मैं मजदूर, मुझे देवों की बस्ती से क्या?  अगनित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए। मैं मजदूर। अंबर पर जितने तारे, उतने वर्षों से मेरे पुरखों ने घरती का रूप संवारा—-।   और स्वर्ग बनाने वाला मजबूर?

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कोरोना काल की कोरोना बंदी पार्ट थर्ड। 38 दिन गए, कम से कम सोलह दिन और। इससे कम नहीं। शाम ढलते-ढलते पार्ट थर्ड की घोषणा हो गई। हे मजबूर मजदूर, खुश होइए, जरूर होइए- आपके लिए है श्रमिक स्पेशल। सरकार ने 38 दिन बाद माना स्पेशल आप भी हैं।  आप घर आ गए,  तो कुछ नया सोचिए। अच्छा सोचिए। भोपाल के पास है विदिशा। यहाँ के राजू बड़े शहर की बड़ी फैक्टरी में थे। अब कह रहे हैं- गांव में ही खेती करेंगे। फैजान बोले, गांव में ही कुछ करेंगे, शहर नहीं जाएंगे। एक अखबार ने शहर से भागे अनेक मजदूरों से बात की है। सबने कहा है- अब गांव छोड़ब नहीं–। यह हो, तो कितना अच्छा। ऐसी  सोच में है कल्याण! खेती पर ध्यान से पैदावार बढ़े और शहरों का बोझ घटे। गांव मजबूत केंद्र हो, स्वावलंबी हो। विचार तो उम्दा है, पर सबके पास कहाँ खेत है?

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संध्या एक फोन था- वाह भाई! पाजिटिव-पाजिटिव चल रहा है। हां भाई, बी पाजिटिव। ठीक है, जो नेगेटिव-नेगेटिव चल रहा है, उसका। भाई बोले जा रहे थे- ई कोरोना से दुष्कर्मी सब डर रहा है? आपके भोपाल में क्या हुआ, पता है न? घर में अकेली बैंककर्मी से दुष्कर्म। आज झारखंड में दुष्कर्म के बाद हत्या। चोर-डकैत सब डेराया कोरोना से? चल रहा है न कालाबाजारी, मुनाफाखोरी? मुनाफाखोर को शर्म है?  सब एक का माल दो में बेच रहे हैं। इनको कोरोना धरवाइए न। ये सब नहीं डरते कोरोना से? इनका क्या कीजिएगा? अब मेरी बारी थी। कह दिया, इनको अजीज नाजा की कव्वाली सुनाएंगे, तब सुधरेंगे- खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा……जिंदगी हकीकत में क्या है, कौन समझा है….याद रख सिकंदर के हौसले तो आली थे, जब गया था दुनिया से उसके हाथ खाली थे। मुट्ठी बांधकर आने वाले, हाथ पसारे जाएगा….।

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सारा दिन और शाम मजदूर चिंतन में गया। रात खुद के चिंतन में। इस कोरोना बंदी में पूर्व सहकर्मी का फोन- सर कहाँ हैं? सब ठीक है न? कोई काम, जरूरत हो तो बताइएगा। मन हरिया गया। सब ठीक है यार। मंगल-मंगल है। तुम्हारा ठीक?  मजे करो। फोन रखने के बाद खुद से पूछा- सब ठीक है न? कोई जरूरत?  भूत, वर्तमान, भविष्य घूम आने के बाद मन बोला- सीताराम-सीताराम-सीताराम कहिए, जाहि विधि राखे  राम, ताहि विधि रहिए। मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में। तू अकेला नहीं प्यारे, रामजी तेरे साथ में। विधि का विधान जान, हानि-लाभ सहिए। किया अभिमान तो मान नहीं पाएगा, होगा वही प्यारे,  जो  श्री रामजी को भाएगा——।  एक साथी थे, वे हमेशा कहते थे- हारे को हरिनाम। मैं कहता था- बकौल कुंवर नारायण- हारा वही, जो लड़ा नहीं। लड़ाई जारी है। अनवरत, सतत, अविराम। अभी तो कोरोना से। कोरोना बंदी से। बाद की, बाद में। अभी सुबह के साढ़े तीन। चलिए, बिस्तर पकड़िए।

(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)

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