कुलदीप नैयर को श्रद्धांजलिः आप जानते हैं, वह मुल्जिम कौन था?

0
169
    • मिथिलेश कुमार सिंह

    फर्ज करिये, देश में इमरजेंसी लगी है। आपके सोचने- समझने, लिखने- पढ़ने की आजादी पर पहरे बिठा दिये गये हैं। आप के सारे बुनियादी हक छीन लिए गए हैं क्योंकि इमरजेंसी लगती है, तो ऐसा ही होता है। तब आप आदमी नहीं रह जाते। आप ढोर-डांगर हो जाते हैं। उस इमरजेंसी में हर कोई निशाने पर होता है- खास तौर पर वह हर कोई जो सोच सकता है या चूं-चपड़ कर सकता है। वह हर कोई जो बोलना जानता है और जिसके बोलने से सत्ता प्रतिष्ठान की पेशानी पर बल पड़ता हो, चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो, किसी भी हलके का हो। इमरजेंसी विभेद नहीं करती आदमी और पशु में और यही उसकी ताकत होती है। वह नकली ताकत जिसकी कलई जब खुलती है, तो किले जमींदोज हो जाते हैं। चूलें हिल जाती हैं। उस भयानक इमरजेंसी में कोई अखबारनवीस चुप न रहने के इल्जाम में पकड़ लिया जाता है। दिक्कत तब और बढ़ जाती है जब अदालत में पेशी के लिए ले जाते समय पुलिस की चार पहिया गाड़ी स्टार्ट नहीं होती। वह आगे बढ़ने से इनकार कर देती है। पता चलता है- उसे धक्का देना पड़ेगा। कोई और रास्ता नहीं है। मुल्जिम को गाड़ी से उतारा जाता है, उससे कहा जाता है- गाड़ी को धक्का लगाओ। पुलिस के बाकी जवान गाड़ी में सवार हैं और अकेला मुल्जिम गाड़ी को धक्का दे- देकर हलाकान हुआ जा रहा है। बड़ी मुश्किल से मुल्जिम की मेहनत रंग लाती है और गाड़ी चल निकलती है। आप जानते हैं- वह मुल्जिम कौन था? नहीं न ? वह कुलदीप नैयर थे। वही कुलदीप नैयर जो बाद में ब्रिटिश उच्चायोग में भारत के उच्चायुक्त बनाये गये। पेशे से पत्रकार लेकिन वक्त की बारीक से बारीक नब्ज पर हर पल उंगलियां टिकाये रखने वाले कुलदीप नैयर।

    पंजाब के सियालकोट (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में जन्मे कुलदीप नैयर पर अब, उनकी जुदाई के बाद बेशक बहुत कुछ लिखा- पढ़ा जाएगा। दुनिया भर के अखबारों और मीडिया के खुर्राटों की पलटन उन्हें देवदूत साबित किये बगैर मानेगी नहीं। कुलदीप नैयर की व्याख्या अलग- अलग दिलफेंक और दिलफरेब रूपों में होगी- यह भी तय है। लेकिन यह कहने का साहस शायद ही कोई कर पाये कि उन बूढ़ी आंखों में भी सियालकोट नाचता रहा, गोकि वह पूरी तरह भारत के हो चुके थे। देश विभाजन की पीड़ा वह आंखें उम्र भर नहीं भूल पाईं। वह पनियायी आंखें हमेशा ढूंढती रहीं अपने उन दोस्तों को जिनके साथ वह कंचे खेला करते, पतंगे उड़ाया करते, जिनके यहां वह खाना खाया करते और देर हो जाए तो वहीं सो भी जाया करते थे। ‘बियांंड द लाइन्स’ में उनकी यह पीड़ा साफ- साफ देखी और महसूस की जा सकती है। यह वह किताब है जिसे पढ़े बगैर आप न तो कुलदीप नैयर का होना समझ पाएंगे और न किसी अदना से नौजवान का कुलदीप नैयर जैसे बड़े अखबारनवीस, एक्टिविस्ट, स्तंभ लेखक और मंझे राजनयिक के रूप में तब्दील होना। कुलदीप नैयर को समझना हो तो उस नौजवान को समझना होगा जो देश विभाजन के हौलनाक और खूंरेजी दौर में लाशों से पटी किसी ट्रेन में, उस ट्रेन की किसी बोगी में, चीखते- चिल्लाते लोगों के बीच बर्थ के नीचे दुबक कर लेटा है और उसका परिवार उससे छूट गया है। उस पाकिस्तान में जिसे वह अपना मादरे- वतन कहता था और जहां की सरजमीं ने उसे सोचने- समझने और लड़ने की तमीज दी। वह नौजवान ट्रेन से बमुश्किल भारतीय सीमा में हांफते- कांपते प्रवेश करता है। यहां वह किसी दुकान पर काम करता है। अखबार बांटता है। दिल्ली के किसी मामूली से उर्दू अखबार में नौकरी पाता है, छोड़ता है और ऊपर वाले को धन्यवाद देता है कि पाकिस्तान में होना अंतत: काम तो आया, कि उसे उर्दू लिखने- पढ़ने और समझने की तमीज तो आ गई।

    - Advertisement -

    कुलदीप नैयर उन शीर्षस्थ अंग्रेजी पत्रकारों में रहे जिनके कॉलम (बिटवीन द लाइंस) को सबसे ज्यादा विश्वसनीयता मिली क्योंकि उनके यहां खुशवंत सिंह या अपने किसी अन्य समकालीन जैसा कोई मनोविनोद या मौज- मजे लेने की कोई ग्रंथि नहीं है। उनके यहां हालात हैं और हालात की चीरफाड़ में जुटा कोई बेचैन अखबारनवीस है। उनके यहां जो इतिहास है, वह सौ फीसद टंच इतिहास है। बिना किसी मिलावट का। बिना किसी जोड़- घटाव का। बिना किसी सहूलियतदेह बदलाव का। उन्होंने बहुत कुछ लिखा। इतना लिखा कि उसकी पड़ताल में ही किसी जहीन की उम्र का एक बड़ा हिस्सा सर्फ हो जाए। लेकिन जो भी लिखा, सहेतुक लिखा। यह सहेतुकता ही उनका प्राणतत्व है।

    इस देश में 25 जून, 1975 की रात जो इमरजेंसी लगी और सत्ता तंत्र का जो खूंखार चेहरा लोगों ने देखा, उसकी तेज लपटें मीडिया तक भी पहुंचीं। मीडिया के एक हिस्से ने तो अपनी सहूलियत के मद्देनजर ‘ जो हुकुम सरकारी, वही पके तरकारी’ पर काम शुरू कर दिया लेकिन उसका एक हिस्सा तब भी लड़ता रहा, अखबार बंद होते रहे, विज्ञापन रोके जाते रहे, गिरफ्तारियां होती रहीं, दमनचक्र घूमता रहा…तब भी। उस दौर के मीडिया, बागी मीडिया का जो ‘हेरावल दस्ता’ रहा, कुलदीप नैयर जैसों के हाथ में उस दस्ते की कमान थी। जब- जब इस देश में वैसे हालात पैदा होंंगे- कुलदीप नैयर हमेशा एफिल टावर की तरह भारतीय मन और मानस के आसपास खड़े मिलेंगे, इसे आप पक्का मानें क्योंकि वह उन पत्रकारों और चिंतकों में नहीं रहे जो यह मान कर चलते हैं कि कह देने से जुबान तो नहीं कटती लेकिन लिख देने से हाथ जरूर कट जाता है।

    उनकी एक और महत्वपूर्ण किताब है- ‘इमरजेंसी रीटोल्ड’। एक पत्रकार की हैसियत से इमरजेंसी पर उतनी प्रामाणिक किताब शायद ही किसी भारतीय अखबारनवीस के खाते में हो। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि वह उस दौर की बहुत सारी घटनाओं के चश्मदीद गवाह रहे, वह खुद भी उस दौर का हिस्सा रहे और बचना या छिपना- छिपाना उनकी फितरत में कभी रहा नहीं। आंधियां आगे भी आएंगी। आप उन्हें रोक नहीं सकते। उनका आना तय है लेकिन उन आंधियों में भी कुछ दरख्त बचे रह जाएंगे- यह भी तय है। कुलदीप नैयर ऐसे ही एक प्राणवान दरख्त का नाम है।

    यह भी पढ़ेंः विनम्र श्रद्धांजलिः जब कुलदीप नैयर साहब गेट फांद गए थे

- Advertisement -