ओमप्रकाश अश्क की पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

आप अब तक पढ़ते रहे हैं ओमप्रकाश अश्क की पुस्तक के अंश। आज समग्र रूप से उसे हम दे रहे हैं 

जीवन में कई बार ऐसी चीजें घटित हो जाती हैं, जिनके बारे में आदमी कभी सोच भी नहीं पाता। मेरा पत्रकार बन जाना, कुछ इसी तरह की घटना है। स्कूली जीवन में साहित्य परिषद की कविता व निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का सिलसिला अखबार के दफ्तर के दरवाजे तक पहुंचने का जरिया बन गया। कविताएं और लेख छपाने के चक्कर में पत्रकार बन गया। तब उम्र 16 साल रही होगी।

टाइम्स आफ इंडिया घराने से सबंध रखने वाले आमोद कुमार जैन गोपालगंज जिले (तब सारण जिले का विभाजन नहीं हुआ था) के छोटे शहर मीरगंज में बस गये थे। साहू जैन घराने की चीनी मिल और शराब  फैक्टरी वहां थी। आमोद बाबू के बड़े भाई उन्हीं फैक्टरियों के मैनेजर थे। आमोद बाबू साहित्यिक मिजाज के व्यक्ति थे। उन्होंने सारण संदेश नाम का साप्ताहिक पत्र शुरू किया था।
कहने को तो वह छोटा साप्ताहिक था, आठ पन्ने का टैबलायड, लेकिन वह नये पत्रकारों के प्रशिक्षण का केंद्र बन गया था। कई पत्रकार उससे निकले और अभी कार्यरत हैं या कुछ अपने संस्थानों से रिटायर हो चुके हैं। सामाजवादी विचारधारा के पृथ्वीनाथ तिवारी उसके संस्थापक संपादक थे, जिन्होंने बाद में नवभारत टाइम्स में भी काम किया। उसके बाद संपादक बने शत्रुघ्न नाथ तिवारी। मेरे काम शुरू करने के वक्त वही संपादक थे। मूल रूप से शिक्षक, विचारों से समाजवादी। जिस स्कूल में पढ़ाते थे, वहां प्रबंधन से हुए विवाद में उनकी नौकरी चली गयी। फिर उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और रिटायरमेंट की उम्र से थोड़ा पहले वह कानूनी लड़ाई जीत गये। नयागांव (छपरा) में उनकी पोस्टिंग वर्षों बाद दोबारा हो गयी।

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उनके साथ सहायक संपादक के तौर पर जुड़े थे देवेंद्र मिश्र, जो बाद में रांची एक्सप्रेस, आज गये और अंत में हिन्दुस्तान से रिटायर हुए। इमरजेंसी के दौरान शत्रुघ्न नाथ तिवारी और देवेंद्र मिश्र को जेल भी जाना पड़ा। सहायक संपादक के रूप में बासुदेव तिवारी भी जुड़े थे। उन्हें भी इमरजेंसी में जेल जाना पड़ा। बाद में वह भी रांची एक्सप्रेस और फिर हिन्दुस्तान चले गये।

उसी दौरान मैं सबसे कम उम्र का प्रखंडस्तरीय रिपोर्टर बना। सुरेंद्र किशोर भी प्रखंडस्तरीय रिपोर्टर थे। बाद में वह जनसत्ता चले गये। फिर हिन्दुस्तान से रिटायर होकर फिलवक्त वह दैनिक भास्कर, पटना के सलाहकार संपादक हैं।

रिपोर्टरी करते मैं कालेज पहुंच गया। बीए की परीक्षा दी थी, तभी मेरे साथ पढ़ने वाले एक मित्र दिनेश पांडेय ने सारण का बागी नामक साप्ताहिक का रजिस्ट्रेशन करा लिया। आर्थिक मोरचे पर मैं काफी कमजोर था। उसकी विस्तृत व्याख्या आगे कहीं करूंगा। दिनेश पांडेय भी बाद में सारण संदेश का रिपोर्टर बन गये थे। तब संपादक थे लक्ष्मण पाठक प्रदीप। एक दिन उन्होंने अपने मजाकिया अंदाज में दिनेश से पूछा कि- सीता ह्रस्व ईकार या दीर्घ ईकार से लिखा जाता है तो दिनेश ने गलत जवाब दे दिया। इस पर तुनक कर प्रदीप जी ने कहा कि जीवन में तुम कभी पत्रकार नहीं बनोगे। यह बात दिनेश को इतनी तीखी लगी कि उन्होंने अखबार का रजिस्ट्रेशन ही करा डाला। फिर क्या था। दिनेश उस अखबार के प्रधान संपादक और मैं संपादक बन गये।

पहला अंक भाड़े की मशीन पर छपा और दूसरे अंक के आते-आते माली हालत खस्ता। इस बीच मेरी और दिनेश की शादियां हो चुकी थीं। मैंने ससुराल से मिली अंगुठी 120 रुपये में बेची। कोठारी ब्रांड की बनियान का शौकीन होने के कारण खरीदने के लिए 18 रुपये मैंने बचा रखे थे। इन पैसों से एक अंक और छप गया।

अब आगे अखबार के छपने की कोई संभावना नहीं थी। दिनेश ने अपनी पत्नी के गहने बेच डाले। मेरी शादी में तो धनाभाव के कारण पत्नी के गहने बने ही नहीं थे। एक पुरानी ट्रेडिल मशीन खरीदी गयी। बरौली (गोपालगंज) में एक खपड़ैल का मकान भाड़े पर लिया गया। बिजली या जेनरेटर की व्यवस्था थी नहीं। लालटेन की रेशनी में दोनों मित्र रात में बाहर का दरवाजा बंद कर खुद खबरें कंपोज करते और दिन में संपादक का रुतबा झाड़ते। छपाई के दिन शरीर से पुष्ट होने के कारण दिनेश मशीन को धक्का देते और मैं उसमें कागज डालता।
अगले दिन दोनों मित्र खुद 50-60 अखबार बेच लेते। फिर भी धन का संकट कम नहीं हो पाया। मशीन आ जाने के कारण अब महज कागज का इंतजाम करना होता, पर उसके पैसे का बंदोबस्त भी आसानी से नहीं होता।

इस बीच मैंने तय किया कि सारण संदेश में नौकरी करूंऔर साथ में एक स्कूल भी खोल लिया, ताकि कुछ पैसे का बंदोबस्त हो सके। स्कूल के कारण मैं मुन्ना मास्टर बन गया। मुन्ना मेरे घर का नाम था। संयोग से सारण संदेश में मुझे 220 रुपये मासिक पर नौकरी मिल गयी। तब मैं 23 साल का हो गया था और बात 1983 की है। 1989 तक मैं उस अखबार में सहायक संपादक रहा और जब नौकरी छोड़ी तो मेरी अंतिम तनख्वाह बढ़ कर 340 रुपये हो गयी थी। यानी मैंने 30 साल तक गांव की परिधि में ही अपने को रखा और अब सरकारी नौकरी की आस भी खत्म हो गयी थी।

एक बार लगा कि बचपन से ही संघर्ष के जरिये जीवन को सुगम बनाने के सारे रास्ते अब बंद हो गये। इस बीच देवेंद्र मिश्र जी से बातचीत होती रहती थी। चूंकि मैं भोजपुरी में कविताएं लिखता था, इसलिए दो-तीन महीने के अंतराल पर पटना आकाशवाणी केंद्र जाना पड़ता। तब देवेंद्र जी से मिल कर नौकरी की बात करता। वह भी मेरे लिए प्रयत्नशील थे। पर, कोई उपाय नहीं हो पा रहा था।

एक दिन सारण संदेश के मालिक आमोद बाबू ने कहा कि अखबार के साथ मैं प्रेस का काम भी देखूं। शायद वह तारीख 4 फरवरी 1989 थी। मैं अवाक था कि एक संपादक अब प्रेस का जाब वर्क देखेगा। अब तक किसी संपादक से उन्होंने ऐसा नहीं कहा था। मैं परेशान। उनसे कहा कि कल सोच कर बताऊंगा। मेरे पास एक मोपेड थी। उससे घर चला।

मेरे गांव का बाजार सड़क किनारे बसा है। इससे बाजार लंबा दिखता है। जब बाजार के करीब पहुंचा तो मेरा छोटा भाई खड़ा मिला। उसने मेरे हाथ में एक टेलीग्राम दिया, जिसे देवेंद्र जी ने भेजा था। संदेश था- कम आन फोर्थ पाजिटिवली (4 को हर हाल में पहुंचो)। तार मुझे 4 को ही मिला था। मैंने कहा कि चार तो आज बीत गया। अब जाने का क्या फायदा। मेरे छोटे भाई ने जिद की कि फिर भी मैं जाऊं। मैंने कहा कि अभी तो किराये के पैसे भी नहीं हैं तो उसने कहा कि इसकी व्यवस्था उसने कर दी है। मेरी ससुराल से उसने पैसे उधार ले लिये थे। बहरहाल उसकी जिद पर मैं उसी रात पटना के लिए निकल गया।
अगली सुबह देवेंद्र जी के डेरे पर पहुंचा। उन्होंने कहा कि उनके मित्र चंद्रेश्वर जी गुवाहाटी से अखबार निकालने जा रहे हैं। कल इंटरव्यू था। फिर भी चलिए देखते हैं। नाश्ते के बाद स्कूटर से देवेंद्र जी मुझे चंद्रेश्वर जी के घर ले गये। उस वक्त वह दाढ़ी बनाने बैठे थे। देवेंद्र जी ने मेरा परिचय उनसे कराया और कहा कि इस लड़के को अपने साथ ले जायें। उन्होंने कहा कि संयोग है कि मालिक की फ्लाइट कल कैंसल हो गयी। वह अभी पटना में ही हैं। मैं दोपहर में आशियाना टावर पहुंचूं। कितने पैसे मांगने हैं, यह उन्होंने समझा दिया।

मैं आशियाना टावर पहुंचा। चंद्रेश्वर जी पहले से वहां मालिक के पास बैठे हुए थे। मालिक ने मुझे बुलाया और कहा कि हिन्दी और अंगरेजी में कुछ भी लिख कर ले आओ। जाहिर बात थी, गांव का होने के कारण अंगरेजी में विचार लिखना सीखा नहीं था। हिन्दी में जरूर सौ-दो शौ शद लिखे और देने चला गया।
अब अंगरेजी में लिखने के लिए मैं लौटने लगा। मेरी हैंडराइटिंग देखते ही उसने पीछे से आवाज दी। मैं मुड़ा तो पूछा कि पहले तुमने कहीं अप्लाई किया था। मैंने बताया कि हिन्दुस्तान में एक वर्गीकृत विज्ञापन छपा था, उसके बाक्स नंबर में आवेदन डाला था। फिर उन्होंने पूछा कि कोई बुलावा आया था?
मैंने बताया कि गेरुआ रंग के अक्षरों में कोई अनजान भाषा का लेटर पैड था और जिस तारीख को बुलाया गया था, वह बीत चुकी थी। इसलिए उस पर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने कहा- बैठो। फिर उन्होंने बताया कि वह लेटरहेड असमिया में था और मैंने ही तुम्हारे आवेदन की हैंडराइटिंग देख कर तुम्हें बुलाया था। अभी तुम्हारी राइटिंग देखी तो सब कुछ याद आ गया। बातें होने लगीं।
अंगरेजी में कुछ लिखने का पिंड छूट गया। उन्होंने कहा कि कितने पैसे लोगे। जैसा मुझे सिखाया गया था, मैंने तीन हजार कह दिया। उन्होंने कहा कि अभी तुम्हें 1400 मिलेंगे और छह महीने बाद 3000 मिलने लगेंगे। तुम कब तक ज्वाइन करोगे। सामने होली थी तो मैंने कहा कि होली के बाद। इस पर उन्होंने कहा कि किसी भी हाल में तुम्हें 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचना है। होली का इंतजार न करो। तुरंत मेरा लेटर टाइप हुआ और उसमें 1400 रुपये की तनख्वाह लिख दी गयी।

मेरी खुशी का पारावार नहीं था। कहां 340 रुपये और कहां 1400। मैं लेटर लेकर अपने गुरु देवेंद्र जी के पास पहुंचा। होली तक मोहलत की उनसे पैरवी करायी। उन्होंने मालिक से आग्रह किया कि 10-15 दिनों में मैं इसे हिन्दुस्तान में ट्रेनिंग दे दूंगा। इस पर मालिक ने कहा कि वह वहीं मुझे काम सिखा देंगे। बहरहाल घर लौटा तो परिवार में इस कदर खुशी का माहौल बना कि उसे याद कर सिर्फ महसूस किया जा सकता है। पत्नी के चेहरे पर इस बात की खुशी थी कि अब उनका पति बेरोजगार नहीं। विधवा मां के चेहरे पर रौनक इसलिए कि बेटा अब इतना पैसा कमायेगा। चाचा, चाची (बड़का बाबूजी और बड़की माई) और छोटे भाइयों में गजब की खुशी। गांव-जवार में भी यह आश्चर्य भरी खुशी की खबर फैल गयी कि मुन्ना मास्टर अब अच्छी तनख्वाह पर कमाने जा रहा है। यानी दैनिक अखबार में कैरियर की शुरुआत करने के लिए काली के देश कामाख्या जाने की बुनियाद मेरी तैयार हो गयी।

अब तक इस बात से अनजान था कि पत्रकारिता के सफर में मंजिल कभी नहीं मिलती। अलबत्ता पड़ाव दर पड़ाव भटकाव खूब होता है। यह जानता भी कैसे? अभी पत्रकारिता में प्रवेश की अधिकतम उम्र 25 साल बतायी जा रही है। मैं तो तकरीबन 30 साल की उम्र पूरी कर किसी पड़ाव के लिए रवाना हुआ था। दो पड़ाव जो स्कूल-कालेज के दिनों में मिले थे, वे गांव के इर्द-गिर्द ही थे। औकात में भी उन पड़ावों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता। इसलिए कि वे प्रकृति से साप्ताहिक और जिलों के अखबार थे। दैनिक अखबार में मेरे प्रवेश
का गुवाहाटी, जिसे मैं अक्सर काली के देश कामाख्या कहता हूं, पहला पड़ाव था।

अगर इंसान की औसत उम्र 100 साल मान ली जाये तो यह कहा जा सकता है कि मैं
अपने जीवन का करीब एक तिहाई गांव की माटी के मोहक गंध में बिताने के बाद
शहर की नयी गंध सूंघने निकला था।

गांव में था तो जाहिर है कि संगी-साथी भी गंवई ही होंगे। औरों को फिलवक्त छोड़ भी दें तो दो लोगों को कभी नहीं भूल पाऊंगा, जो खैनी खिलाने वाले और मेरे हर काम में राय-मशविरा देने वाले होते थे। इनमें एक थे वकील राउत और दूसरे शिवशंकर साह। बिहार का हूं, इसलिए किसी की पहचान कराने के लिए उसकी जाति का जिक्र आवश्यक है। हालांकि कभी मैंने जातिगत भावना से कोई काम नहीं किया, सिर्फ अपनी शादी को छोड़ कर। जातिगत भावना से मुझे इतना परहेज था कि अब तक अपने नाम के साथ जाति सूचक उपनाम से मैंने परहेज किया है। बच्चों के नाम के साथ भी अपना ही उपनाम जोड़ रखा है।

अपने दो मित्रों की जाति बताने के पीछे भी मेरा मकसद छिपा है। एक मित्र शिवशंकर साह गोंड जाति से थे, जो पारंपरिक तरीके से भूंजा भुनने का काम करती रही है। हालांकि अब इस जाति के लोग भी  दूसरे पेशे से जुड़ गये हैं। नौकरी करने लगे हैं। दूसरे मित्र वकील रावत, गद्दी जाति के थे। गद्दी जाति के लोग उस जमात से आते हैं, जिनके नाम हिन्दू होते थे, इबादत अल्लाह की करते थे और पेशा दूध-दही बेचने वाले ग्वालों जैसा था। इनके इतिहास के बारे में तो ज्यादा नहीं पता, लेकिन अनुमान लगाया कि पूर्व में ये हिन्दू रहे होंगे
और कभी दबाव या मजबूरी में इसलाम धर्म कबूल कर लिये होंगे। शायद यही वजह रही कि पुरानी पीढ़ी के लोग अपना नाम हिन्दुओं की तरह ही रखते थे। हालांकि अब इनके वंशजों के नाम भी मुसलिम नामों की तरह रखे जाने लगे हैं।

इन दो मित्रों की जाति-बिरादरी बताने के पीछे मेरी मंशा यही थी कि शुरू से ही मैं जाति प्रथा का विरोधी और सर्वधर्म समभाव का समर्थक रहा। बदलते काल और परिस्थितियों में भी मेरे अंदर यह भाव अभी तक अक्षुण्ण है, यह कम से कम मेरे लिए गर्व की बात है।

गुवाहाटी की ट्रेन मेरे निकटवर्ती स्टेशन सीवान से रात में 11 बजे के आसपास खुलती थी। तब एक ही ट्रेन थी। स्टेशन गांव से 14 किलोमीटर दूर। तब इतने वाहन भी नहीं थे। गांव में बमुश्किल एक-दो साइकिलें तब होती थीं। सड़कों पर सवारी वाले वाहन तो इक्का-दुक्का ही होते थे, जो सिर्फ दिन में चलते और शाम ढले सड़कें सुनसान। ऐसे में किसी को स्टेशन जाना हो तो वह पैदल ही जाता। चोर-उचक्कों की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए लोग अपने आने-जाने का समय तय कर लेते।

मुझे स्टेशन तक छोड़ने के लिए मेरे ये दोनों मित्र तैयार हुए। सवारी गाड़ी को ध्यान में रख कर हम लोग शाम ढलने से पहले ही घर से निकल गये थे। रात करीब 8 बजे तक हम लोग सीवान स्टेशन पर थे। तय हुआ कि मुझे ट्रेन पर बिठा कर ही वे लोग सवेरे लौटेंगे। स्टेशन पर चादर बिछा कर तीनों बैठ गये। बिछुड़ने की दुख भरी बातें बतियातें, भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करते और मन-बेमन से बार-बार खैनी की खिल्ली खाते हम लोग गाड़ी के आने का इंतजार करने लगे।

जहां तक मुझे याद है कि वह तारीख थी 17 फरवरी 1989। इसलिए कि मुझे हर हाल में 19 फरवरी को गुवाहाटी पहुंचने के लिए मालिक गोवर्धन अटल ने कह दिया था। मेरे पास गांव के जुलाहों की बुनी एक दमदार दरी थी और ओढ़ना के लिए ससुराल से मांग कर लायी गयी एक शाल। आप अनुमान लगा सकते हैं कि फरवरी की ठंड को रोकने के लिए ये ओढ़ने-बिछाने के सामान पर्याप्त नहीं रहे होंगे। फिर भी नौकरी पा जाने का एक उत्साह सारी कमियों-परेशानियों पर भारी था। उत्साह ने परिजनों से बिछुड़ने की मर्मांतक पीड़ा का भी हरण कर लिया था।

बहरहाल, ट्रेन आयी और मैं मित्रों से विदा लेकर उस पर सवार हुआ। याद नहीं कि तब ट्रेन में रिजर्वेशन की परंपरा थी या नहीं। या फिर मुझे ही इसका ज्ञान नहीं था। यह याद नहीं कि मैं रिजर्वेशन वाली सीट पर बैठा या जनरल बोगी में। खैर, चल पड़ी ट्रेन काली के देश कामाख्या की ओर।

अनजान शहर की यात्रा और वह भी पहली बार। ट्रेन में मेरा एक साथी बना गोरखपुर का एक अनजान युवक। वह भी गुवाहाटी जा रहा था।  मुझमें और उसमें फर्क इतना भर था कि वह पहले से वहां आता-जाता था और मैं पहली बार जा रहा था। मुझे बड़ा संबल मिला। रास्ते में बोलते-बतियाते कब आंख लग गयी, पता नहीं चला। भोर हुई और आंख खुली तो हम लोग एक अनजान स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी में थे। लोगों की जुबान पर एनजेपी की गूंज थी। पता चला कि ट्रेन अब आगे नहीं जायेगी। इसके कारणों का पता करने साथ वाला युवक नीचे उतरा। वहां चारों तरफ एक अनजान भाषा में लोग बातें कर रहे थे। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। यह भी मालूम नहीं था कि वह अनजान लगने वाली भाषा कौन-सी थी। बाद में जब बंगाल गया तो जाना कि वह बांग्ला भाषा थी, जिसमें एनजेपी स्टेशन पर लोग बात कर रहे थे।

लड़का जब लौटा तो उसने बताया कि बोडो आंदोलनकारियों ने एक हजार घंटे का बंद बुलाया है। इसलिए अब ट्रेन आगे नहीं जायेगी। जिन यात्रियों को वापस लौट जाना है, उनके टिकट वापस लेकर पैसे लौटाये जा रहे हैं या वापसी के नये टिकट जारी किये जा रहे हैं।

एक बार मन में खुशी इस बात की हुई कि इसी बहाने अब घर लौट जाने को मिलेगा। लेकिन क्षण भर में यह विचार झटका खा गया। अरे, कितनी उम्मीदों के साथ बच्चों, पत्नी, मां, भाइयों और मित्रों ने मुझे विदा किया था। 30 साल की उम्र में किसी को नौकरी मिलने की बात पत्थर पर दूब जमने जैसी थी। अगर मैं घर लौट गया तो लोगों की उम्मीदों का क्या होगा। बड़े पसोपेश में पड़ा था। तभी साथी युवक ने आकर बताया कि यहां से एक बस जा रही है। अगर बस से चलना चाहें तो चलिए। टिकट वापस करने का भी समय नहीं मिला। लंबी लाइन थी और देर करने पर बस के छूट जाने का खतरा था।

हड़बड़ी में सामान लेकर उस युवक के साथ हो लिये। वह बस स्टैंड पहुंचा और मुझसे सौ रुपये का नोट लेकर मेरे लिए टिकट खरीद लाया। वहीं मैंने रुपये का नाम टाका सुना। सौ में कितने वापस हुए या कुल लग गये, न उस लड़के ने मुझे बताया और न मैंने उससे पूछा ही। इसलिए कि एक अनजान लोक में वही मेरा तारणहार बना था। न भूगोल-इतिहास का ज्ञान था मुझे और न भाषा-बोली की जानकारी ही। उसके साथ मैं बस में सवार हो गया। मुझे इतना याद है कि रास्ते में धुबड़ी मिला था, जहां से मैंने खैनी का पत्ता खरीदा था। उसके
बाद ऊंचे पहाड़-जंगल के रास्ते बस दौड़ती रही और मैं इस अज्ञात भय से परेशान होकर प्राकृतिक नजारे का अवलोकन करता रहा कि जब यह लड़का उतर जायेगा तो मेरा क्या होगा।

शाम चार बजे तक बस गुवाहाटी पहुंच गयी थी। मुझे फांसी बाजार (फैंसी मार्केट) जाना था। लड़के ने उसके निकट ही मुझे उतर जाने को कहा और बताया कि बगल में ही है फांसी बाजार। किसी से पूछ लीजिएगा। बिहारी लोग शहरों-नगरों के नाम अपनी उच्चारण क्षमता व सुविधानुसार बना लेते हैं। यह फामसी बाजार से जाना। फैंसी कहने में तकलीफ होती थी, इसलिए फांसी नाम रख लिया। बाद में बंगाल गया तो इसे और शिद्दत से महसूस किया। लोगों ने टीटागढ़ का नाम ईंटागढ़, डायमंड हार्बर का नाम दामिल बाबड़ा, अंगरेजों के जमाने से सेना छावनी रहा दमदम कैंटोनमेंट को गोराबाजार और बैरकपुर को बारिकपुर बना लिया।

बहरहाल, फांसी बाजार में मेरे गांव के गद्दी लोगों के कुछ रिश्तेदार रहते थे। मैं उन्हीं लोगों का पता-ठिकाना लेकर गया था। वे सब्जी के आढ़तिया कारोबारी थे। यह मुझे पहले से नहीं पता था। सिर्फ यही बताया गया था कि वे सब्जी बेचने का काम करते हैं।

पूछपाछ कर मैं उनमें से एक तक पहुंच गया। तब वह अपनी आढ़त पर बैठे थे। शाम
के साढ़े चार बज रहे होंगे। उन्हें अपनी पहचान बतायी तो बड़े प्रेम से मिले। मुझे बिठाया और चाय मंगा दी। फिर वह अपने काम में मशगूल हो गये। इसके बाद गांव-जवार का जो वहां आया, उसने मुझे देख कर उनसे मेरे बारे में पूछा और फिर एक चाय का आर्डर देकर सभी वहां से जाते रहे। अपने काम करते रहे।

शाम छह बजे के आसपास मुझे 12-13 साल के गांव से आये एक बच्चे के साथ मेरे
परिचित ने डेरा भिजवा दिया। डेरा क्या, एक खोली थी। चार बिस्तर लगे हुए थे। सभी पर टाट के बोरे बिछे थे। एक चौकी थी, जिस पर एक नयी चादर लड़के ने डाल दी और मुझे उस पर आराम करने के लिए कहा। तकरीबन 24 घंटे बाद अपनी बोली-भाषा में बोलने-बतियाने वाला कोई उस अनजान शहर में मिला था। खाना कहीं बाहर उस लड़के ने खिला दिया। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इतना छोटा बच्चा गांव से आकर यहां की बोली-भाषा सीख गया है। अपनी बोली भी नहीं भूला है। इसका मनोविज्ञान मुझे बाद में समझ में आया। असम और बंगाल में लंबे समय तक रहने के बावजूद मैं वहां की भाषा बोलने में असहज महसूस करता रहा। भय होता कि कहीं गलत न बोल जाऊं। बच्चों में यह भय नहीं होता। यही कारण
था कि गुवाहाटी गया गांव का वह बच्चा असमिया धड़ल्ले से बोल लेता था।

खाने के बाद मैं आराम करने घर में आ गया। मेरे गांव के आढ़त वाले रात 8-9 बजे आये और गांव-जवार का विस्तार से हाल-चाल पूछा। उन लोगों ने कहा कि भोर में तीन-चार बजे सभी निकल जायेंगे। मैं अकेले ही घर में रहूंगा। घर का किवाड़ अंदर से बंद रखूं, जब तक उनमें से कोई न आये। अनजान कोई भी आये तो दरवाजा न खोलूं। इतनी हिदायतें सुन कर मैं घबरा गया। मन में हंस भी रहा था कि इस खोली में कौन आयेगा और आया भी तो किसी को क्या मिलेगा। अपने इसी भाव के कारण मैंने पूछ लिया कि ऐसा क्यों? तब उनमें से एक ने टेढ़े-मेढ़े फोल्डिंग काट पर बिछे बोरे को हटाया। पूरे बिस्तर पर छोटे-बड़े इतने नोट बिखरे थे कि एक बार मुझे लगा कि मैं सपना देख रहा हूं। वास्तविक जीवन में मैंने पहली बार उतने नोट देखे थे।

गुवाहाटी की पहली रात मैंने उसी खोली में गुजारी। दूसरे दिन उस छोटे बच्चे के साथ रिक्शे पर बैठ कर अपने अप्वाइंटमेंट लेटर में लिखे पते पर पहुंचा। शायद वह जगह आठगांव थी। पूछा तो पता सही निकला। एक असमिया सज्जन, जो मालिक के सीमेंट डिवीजन का काम संभालते थे, ने बताया कि मालिक अभी बाहर हैं और उनके आने में दो-तीन दिन लगेंगे। मुझे बिठा कर उन्होंने मालिक से फोन पर बात की। मालिक ने उन्हें बताया कि मुझे दफ्तर की जगह दिखा दी जाये और वहीं ठहराया जाये, जो मकान पहले से ही उन्होंने अखबारी
कर्मचारियों के लिए ले रखा है। मुझे किसी तरह की परेशानी न हो, ऐसा निदेश उन्होंने अपने कर्मचारी को दिया।

उसी दफ्तर के एक हिस्से में अखबार के लिए कार्यालय बना था। अभी कोई वहां आया नहीं था, इसलिए पूरी तरह चमक-दमक बनी हुई थी। मैं एक कुर्सी पर बैठा। एसी की ठंडक, शांत वातावरण। एकबारगी लगा कि एक नयी दुनिया में आ गया हूं। मन बड़ा खुश हुआ। फिर वह सज्जन मुझे उस फ्लैट पर ले आये, जहां मुझे अपने और साथियों के साथ रहना था। वे अभी आये नहीं थे। लकड़ी के घर वाले प्रांत में आरसीसी छत वाला पक्का सुंदर फ्लैट। उन्होंने मुझसे पूछा कि ओढ़ने-बिछाने की क्या सामग्री मेरे पास है। मैंने बताया तो उनका जवाब था कि इससे तो काम नहीं चलेगा। यहां ठंड काफी है। फिर उन्होंने मालिक को बताया। मालिक ने उन्हें कहा कि अपना बिस्तर, जो समेट कर वहां रखे हो, दे दो। मेरे आने से पहले शायद वह वहां रह रहे थे। उन्होंने होल्डाल खोला और गद्दे-रजाई निकाल कर दे दिये। मेरा बिस्तर तैयार।

वह चले गये तो अपने नये दफ्तर और जीवन की शुरुआत के बारे में मैंने रात में कई लोगों को लिखे पत्र में जिक्र किया। ये पत्र कुछ घर के लिए थे और कुछ मित्रों को। इसमें एक पत्र मैंने सारण संदेश के मालिक आमोद कुमार जैन को भी लिखा था। उसमें एक तरह से मैंने उनको ताने दिये थे कि 350 रुपये पर आप मुझसे अखबार और प्रेस का सारा काम कराना चाहते थे। अब मैं 1400 रुपये मासिक पर सिर्फ पत्रकार हूं। आपने मेरी मजबूरी का फायदा उठाना चाहा, पर भगवान ने आपकी मंशा पर पानी फेर दिया। बाद में, मेरे एक मित्र ने बताया कि मेरे पत्र के मजमून ने आमोद बाबू को काफी व्यथित किया था।

दो-तीन दिनों बाद बाकी मित्रों का गुवाहाटी आना शुरू हो गया। उनमें एक को छोड़ बाकी मित्रों के नाम अभी तक याद हैं। उनमें एक हैं अजित अंजुम, जिन्हें मैनेजिंग एडिटर के रूप में आप न्यूज 24 चैनल में देखते रहे हैं। अब शायद उन्होंने ठिकाना बदल लिया है। दूसरे थे हिमांशु शेखर। हिमांशु जी हम सब में बड़े थे। सबसे छोटी उम्र के तब थे अजित अंजुम। हिमांशु जी के एक बड़े भाई हिन्दुस्तान, पटना के विज्ञापन प्रबंधक थे। तीसरे मित्र थे, रत्नेश कुमार। वह आज भी गुवाहाटी में जमे हुए हैं। शायद पूर्वांचल प्रहरी में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी निभा रहे हैं। चौथे मित्र सुनील सिन्हा थे, जो खेल पत्रकार हैं और शायद अब भी मध्यप्रदेश में कहीं किसी अखबार में नौकरी कर रहे हैं। एक और लड़का पीटीएस के काम के लिए आया था। मैथिल युवक था। तीन कमरों में चार लोग रहते थे। शुरू के कुछ दिनों तक होटल में सभी खाते थे, पर बाद में खाना बनाने की व्यवस्था हम लोगों ने कर ली। तय हुआ कि खुद से बनायेंगे। बनने भी लगा। चार लोगों के लिए कम से कम 20-22 रोटियां रात में बनतीं। दिन में मौका नहीं मिलता तो बाहर ही खा लेते।

रोटियां बनाने के बारे में भी एक दिलचस्प किस्सा है। मैं गांव का आदमी था सो, रोटियां थोड़ी मोटी मुझ से बन जातीं। अजित अंजुम शहरी और संपन्न-संभ्रांत घर के थे, इसलिए वह पतली रोटियां बनाते। हम दोनों में इसी मोटी-पतली रोटी बनाने को लेकर अक्सर तकरार होती रहती। वह कहते कि जान-बूझ कर मैं मोटी रोटियां बनाता हूं।

हमारे मालिक गोवर्धन अटल आरएसएस से जुड़े थे। शायद यही वजह थी कि उन्होंने संघ से ताल्लुक रखने वाले चंद्रेश्वर जी को संपादक के रूप में चुना था। अटल जी सबसे सीधा संवाद करते। उन्होंने सबको एक-एक हजार रुपये एडवांस दिलाये और असम के सभी जिलों को सबके बीच बांट कर कहा कि वहां जायें और भौगोलिक-सामाजिक स्थिति को समझें। मुझे नजदीक के दो जिले मिले थे नौगांव व गुवाहाटी। गुवाहाटी में तो रहता ही था, नौगांव एक दिन में जाकर लौट आया। सात दिन तक आने-जाने का बिल बना कर मैंने आधे से ज्यादा पैसे बचा लिये और 500 रुपये मां को मनीआर्डर कर दिये।

प्रवास के दिनों में पर्व-त्योहार किस तरह पहाड़ से लगते हैं, इसका आभास पहली बार काली के देश कामाख्या (गुवाहाटी) में कमाने गये हम पत्रकार मित्रों को हुआ। चंद्रेश्वर जी के नेतृत्व और गोवर्धन अटल के स्वामित्व में उत्तरकाल निकालने के लिए 19-20 फरवरी (1989) तक सभी साथी पहुंच गये थे। साथियों का जिक्र पूर्व में हम कर चुके हैं। मार्च के पहले सप्ताह में होली का त्योहार था। प्राय: सभी साथी पहली बार घर से बाहर उतनी दूर परिजनों के बिना होली मनानेवाले थे।

होली की पूर्व संध्या पर डायनिंग रूम में सभी जुटे। हिमांशु शेखर, सुनील सिन्हा, अजित अंजुम, मैं और डीटीपी का एक साथी, जो साथ ही रहता था। हम लोगों के एक और मित्र थे रत्नेश कुमार, जो गुवाहाटी जाने के बाद पीलिया से पस्त होकर डायनिंग में ही बिस्तर पर लेटे थे। उन सब में शादीशुदा मैं ही था।

अपने-अपने घर की होली की यादें सभी सुनाने-बताने लगे। किसी को भाभी बिना होली की बदरंगी सूरत सता रही थी तो किसी को परिवारजनों से विलग होली बेमानी लग रही थी। मेरी मनोदशा कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि शादी के सात साल बाद पहली बार पत्नी और परिजनों से विलग मेरी यह होली थी। अपनी पीड़ा को मैं शब्द दे पाने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूं कि अंतस की उपज पीड़ा का अंदाज उन्हीं को हो सकता है, जिनकी ऐसे हालात से मुठभेड़ हुई हो। तकरीबन आधे घंटे तक सभी यादों में खोये रहे और भीतर से सभी इतने कमजोर पड़ गये कि फफक कर सामूहिक रुदन-क्रंदन किसी को नागवार नहीं लगा, सिवा रत्नेश के। इसलिए कि रत्नेश की पटरी उनकी भाभी से नहीं बैठती थी। मां-बाप थे नहीं। उन्हें एक तरह से होली में घर पर रह कर पीड़ित होने से गुवाहाटी में
पीलिया के प्रकोप में आकर बिस्तर से सटे रहना ही सहज लग रहा था। अलबत्ता एक बात उन्हें असहज जरूर लगी, जिसका आगे मैं जिक्र करने वाला हूं।

अखबार तो निकल नहीं रहा था, इसलिए काम का दबाव-तनाव था नहीं। ऊपर से होली की दो दिनी छुट्टी। दो दिनों की छुट्टी की एक तार्किक वजह थी। जिस दिन असमी लोग होली खेलते, उसके अगले दिन बिहारी या यों कहें हिन्दीभाषी समाज की होली होती। असमी लोग पहले दिन की होली को रंग डे और दूसरे दिन को कीचड़ डे कहते थे। दरअसल हिन्दीभाषी प्रदेशों में जिस तरह हुड़दंगी होली खेली जाती है, वैसा और कहीं नहीं होता। हिन्दीभाषियों का मन सिर्फ रंग से तो भरता नहीं, इसलिए वे नाली के कीचड़ उछाल-लगा कर जी भर होली खेलते।

घंटे-डेढ़ घंटे के रुदन-क्रंदन के बाद होली मनाने की तैयारी पर विमर्श शुरू हुआ। सुनील सिन्हा पाकशास्त्री निकले। उन्होंने कहा कि वह मालपुआ और मटन बना देंगे। केला, दूध, मैदा, चीनी, मसाला वगैरह की फेहरिश्त बन गयी। खर्च का बंटवारा सब में कर दिया गया। लेकिन आम राय बनी कि ऐसी होली का क्या मतलब, जब मन ही न बहक जाये। मन बहकाने का सामान यानी दारू को भी सूची में स्थान मिल गया। सारा सामान शाम को खरीद कर आ गया। हमारी होली तो अगले दिन मननी थी। उस शाम सामान्य खाना बनने लगा।

शाम ढली, रात ने दस्तक दी तो सबके मन में दारू गटकने की बेचैनी भी बढ़ने लगी। आश्चर्य यह कि तब कोई नशे का आदी नहीं था। अगर किसी ने पहले कभी पी भी थी तो वह गिनती में एक-दो बार ही। लेकिन बेचैनी शायद इस वजह से भी थी कि सब अपनों से विलग होकर होली मनाने का गम भुलाना चाहते थे। रात चढ़ती गयी और नौसिखुए पियक्कड़ों की टोली दो घूंट अंदर जाने के बाद लड़खड़ाती रही। नाचती-गाती रही। ढोल-मजीरे की जगह थाली ने ली। थाली की थाप और होली-जोगीरा के बेसुरे अलाप ने इस कदर बेसुध किया कि आगे की कहानी का सिर्फ एक विंदु ही याद रह गया है। कालबेल लगातार बज रही थी। आधी रात का वक्त। सभी अपने में मस्त। अचानक मेरे कान में बेल की आवाज पड़ी तो सबको थम जाने को कहा। कपड़े संभाल कर गेट खोला तो अड़ोस-पड़ोस के कई असमिया परिवार के लोग खड़े दिखे। कई आवाजें एक साथ गूंजी- यह क्या तमाशा है। रात में इतना शोरगुल। मैंने सारी  कहा और बताया कि हमारे यहां ऐसी ही होली की परंपरा है। अब नहीं होगा। लोग चले गये और उसके बाद कौन कहां बेसुध पड़ गया, स्मरण नहीं।

जिसके मकान में हम रहते थे, वह भी असमिया ही थे। खुद लकड़ी के काटेज में रहते थे और आरसीसी घर किराये पर दे रखा था। दिन में होशोहवास में सुनील जी ने मालपुआ और मटन बनाया। हम लोगों ने मकान मालिक को भी खिलाया। वह सुस्वादु भोजन से इतने आह्लादित थे कि रात की घटना पर उन्होंने कोई नाराजगी नहीं जतायी। उल्टे यह कहा कि दरवाजा खोलना ही नहीं चाहिए था।

अगले दो-तीन दिनों तक दफ्तर जाना हुआ। चंद्रेश्वर जी आ चुके थे। तब हम यही जानते थे कि अखबारनवीसों के लिए संपादक ही सब कुछ होता है। मालिक का कोई मतलब नहीं। लेकिन मालिक रोज शाम को अलग-अलग सबसे काम-धाम पूछते। काम भी एसाइन करने लगे थे। इससे खफा होकर अजित अंजुम ने कह दिया कि हम काम करेंगे तो संपादक के नेतृत्व में, आपके नहीं। मालिक को यह बात नागवार लगी तो उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी। बाहर निकले, सबको बताया और आमराय बनी कि सामूहिक इस्तीफा दे दिया जाये। हम लोगों ने दिन में ऐसा ही किया।

इस्तीफा देकर अक्सर लोगों को परेशान और चिंतित होते देखा है। खुद को भी इसी जमात में तब अपने को पाया था। इसलिए कि घर की उम्मीदें मेरी नौकरी न रहने पर टूट जातीं। घर-परिवार और गांव-जवार के लोगों के सपने चकनाचूर हो जाते। पर भीड़ या समूह का एक समाजशास्त्र होता है। इसके नियम-कानून मानें तो एक का फैसला सामूहिक स्वीकृति-सहमति का हकदार-दावेदार बनता है। मैंने भी समूह के समाजशास्त्र का किरदार निभाना पसंद किया। बाकी साथियों के चेहरों पर खुशी का कारण यह था कि अब वे अपने देस लौट रहे थे। परदेस की पीड़ा से मुक्ति मिल रही थी। इस आनंदातिरेक में सबने सिनेमा देखने का फैसला किया। शायद उसी साल राम तेरी गंगा मैली हो गयी फिल्म रिलीज हुई थी। वही फिल्म सबने देखी। सुबह सबको ट्रेन पकड़नी थी।

मैंने गुवाहाटी से उन्हीं दिनों शुरू हो रहे पूर्वांचल प्रहरी में किस्मत आजमाने का फैसला
किया। सबसे कहा कि मैं एक-दो दिन रुक कर निकलूंगा। गांव के लोग यहां है, उनसे मिलजुल कर ही जाऊंगा। हालांकि इसके पीछे मेरी कुटिलता दूसरी नौकरी तलाशने की थी। रातभर नींद भी नहीं आयी।

यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि अगर संपादक की अस्मिता की लड़ाई में सहयोगी कुर्बान हो गये तो संपादक ने भी इसकी भरपाई अपनी नौकरी की कुर्बानी देकर की। चंद्रेश्वर जी ने भी इस्तीफा दे दिया। उन्होंने उसी साल गुवाहाटी से शुरू हो रहे सेंटिनल में विशेष संवाददाता के रूप में हफ्तेभर के भीतर ज्वाइन कर लिया। सेंटिनल के संपादक मुकेश कुमार बने थे। चंद्रेश्वर जी को दिल्ली रहना था।

मेरे साथी घर लौट चुके थे। मैं अकेला नौकरी की तलाश में जमा था। चंद्रेश्वर जी उत्तरकाल के दूसरे साथियों को सेंटिनल ज्वाइन करा चुके थे। यद्यपि गुवाहाटी के लिए मेरा चयन चंद्रेश्वर जी ने ही किया था, लेकिन होली के दिन दारू पीने की बात उन्हें पता चल गयी थी और इस बात को लेकर वह मुझसे नाराज थे। यह उनके साथ सेंटिनल गये मेरे एक साथी ने बताया था। जब कहीं बात नहीं बनी तो आखिरकार मैंने घर लौटने का भारी मन से निर्णय लिया। टिकट कट गया। जिस दिन निकलना था, उसी दिन चंद्रेश्वर जी ने घर पर बुलवाया। जाते ही उन्होंने कहा- दारू पीते हो। ऐसी संगत कैसे बन गयी। मैं चुप। जब उनका बोलना बंद हुआ तो मैंने हिम्मत जुटा कर सिर्फ इतना ही कहा- मुझे इसी बात की खुशी है कि घर से हजार किलोमीटर दूर भी नजर रखने वाला कोई गार्जियन है। इतना सुनते ही उनका गुस्सा खत्म। कहा- जाओ, मुकेश से मिल कर आज ज्वाइन कर लो। टिकट वापस कर दो। खुशी से इतरा कर मैं सेंटिनल के दफ्तर पहुंचा और मुकेश जी से मिला। उन्होंने कहा कि आज से आपकी ज्वाइनिंग हो गयी। 2300 रुपये मिलेंगे। आप टिकट वापस मत कीजिए। पटना जाकर और लोगों को ले आइए।

किस पल क्या होगा, कोई नहीं जानता। मासिक 1400 की तनख्वाह पर गुवाहाटी गया था और दो महीने के अंदर ही यह रकम 2300। एक नौकरी छोड़ दूसरी खोजने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, पर कुछ घंटे में ही दूसरी नौकरी मिल गयी। वह भी पहले से अच्छी तनख्वाह पर।

अहं, अहंकार और अभिमान में एक नकारात्मक भाव छिपा होता है, पर कई दफा अहं आत्मविश्वास का पर्याय बन जाता है और अभिमान में स्व समाहित रहता है। हड़बड़ी में इस बारीकी को न समझ पाने की भूल अक्सर लोगों से हो जाती है।

अटल के अखबार (प्रस्तावित) उत्तरकाल को अलविदा कहते जिस तेवर का अजित अंजुम ने परिचय दिया था और सबने उनके फैसले पर सहमति जतायी, उसे तब मैंने उनके अहं के नकारात्मक भाव से आंका था। संपादक से ज्यादा मालिक को तरजीह देने का कौशल अपनाये बगैर अजित ने संपादक को सर्वोपरि स्वीकार करने की मालिक को ही चुनौती दे डाली। सामूहिक इस्तीफे का निर्णय हुआ और सभी ने इस्तीफा दे दिया। नौकरी करने की मजबूरी के कारण इस्तीफे से असहमति के बावजूद मानस ने अजित का ही साथ देने की सलाह दी। आगे चल कर अजित अंजुम की कामयाबी ने मेरी यह धारणा और पुख्ता कर दी कि उनमें अभिमान नहीं, स्वाभिमान का भाव था, जिसने नौकरी छोड़ने की स्थिति पैदा की।

बहरहाल, मैं गुवाहाटी में जम गया। लेकिन एक बात सबसे ज्यादा अखरती कि घर से आने के बाद, फिर कब जाना होगा। सेंटिनल के मालिक राजखोवा की बीवी एमडी थीं। एक-दो बार पट्टी पढ़ा कर उनसे छुट्टी तो ले ली, पर यह बराबर संभव नहीं था। इसलिए गुवाहाटी छोड़ने के लिए मेरे जैसा हर बाहरी व्यक्ति लालायित रहता।

बहरहाल, सेंटिनल ज्वाइन करने के बाद मुकेश जी के आदेश पर मैं और आदमी की तलाश में पटना रवाना हुआ। पटना पहुंचा तो पता चला कि सुनील सिन्हा की शादी का रिसेप्शन है। उन्हें मिल कर गुवाहाटी में सेंटिनल में काम करने का आमंत्रण दिया तो बेकार चल रहे सुनील जी को शादी का यह गिफ्ट जैसा लगा। वहीं जुटे सुधीर सुधाकर और दूसरे साथियों को भी गुवाहाटी में काम के अवसर की बात बतायी और अपने गांव सीवान के लिए निकल गया।

हफ्ते भर में कई लोग गुवाहाटी पहुंचे। जो नाम स्मरण में हैं, उनमें सुधीर सुधाकर, अपूर्व गांधी, ओंकारेश्वर पांडेय, फजल इमाम मल्लिक और कुमार भवेश शामिल थे। जो पहले पहुंचे, वे सेंटिनल आ गये, बाद के मित्रों को पूर्वांचल प्रहरी में जगह मिल गयी।

सेंटिनल गुवाहाटी में मेरा दूसरा ठिकाना था। वहां जो साथी मिले, उनमें बलराम सिंह (फिलवक्त विश्वमित्र, कोलकाता), विजय मिश्र, अरुण अस्थाना, वाजपेयी (पूरा नाम याद नहीं आ रहा), दिनकर कुमार (संप्रति सेंटिनल के संपादक), भवान घिमिरे, संगीता, पांडेय (पूरा नाम भूल रहा, अभी वह पूर्वांचल प्रहरी में हैं) की स्मृति अब भी बनी हुई है।

बलराम जी को अपना दूसरा गुरु मानता हूं। उन्होंने मुझे अनुवाद की कला सिखायी। वह पहले पेज की खबरें तैयार करते थे। तब हिन्दी न्यूज एजेंसी वहां नहीं थी। पीटीआई की खबरें आती थीं। बलरामजी को मैं खबरें अनुवाद कर देता और वह उसमें अपेक्षित सुधार कर कंपोजिंग के लिए भेजते। बाद में मैं बिजनेस पेज का प्रभारी बन गया। हिन्दी का विद्यार्थी होते हुए बिजनेस पेज पर काम करना चुनौती थी, पर अंत तक मैंने इसे बखूबी निभाया।

अक्तूबर 1989 में उषा मार्टिन प्रबंधन ने प्रभात खबर का अधिग्रहण किया था। तब रांची ही एकमात्र संस्करण था। हरिवंश जी प्रधान संपादक बनाये गये थे। मेरे कई मित्र थे, जिनमें फजल इमाम मल्लिक (फिलवक्त जनसत्ता, दिल्ली), शैलेंद्र, जयनारायण प्रसाद (फिलवक्त जनसत्ता, कोलकाता) का नाम मुझे अब भी याद है, जो कहा करते थे कि हरिवंश से उनकी जान-पहचान है। वे जब चाहें, प्रभात खबर जा सकते हैं। तब मैं सोच में पड़ जाता कि मेरा कोई परिचित नहीं है मीडिया में सिवा देवेंद्र मिश्र के।

जनवरी 1990 की शायद बात है। मैंने एक अंतरदेशीय खरीदा। उसमें हरिवंश जी को पत्र लिखा। किन-किन पेजों पर काम कर चुका हूं। मैं आपसे अपरिचित हूं, पर आपका नाम काफी सुना है। मेरा बायोडाटा इस प्रकार है। बायोडाटा में एक मानवीय भूल मुझसे हो गयी थी, जिसका खामियाजा मुझे बाद में किस रूप में भोगना पड़ा, यह आगे आप जान जायेंगे।

जून में गांव गया था। गांव से जून के आखिर में वापसी हुई थी। पता नहीं क्यों, उस बार घर से लौटते वक्त मैं खूब रोया। बड़की माई (चाची) और मां की याद सबसे ज्यादा आ रही थी। पत्नी और बच्चों को छोड़ कर आना तो स्वाभाविक तौर पर कष्टदायक था ही। हफ्ता-दस दिन बीते होंगे। रांची से प्रभात खबर का एक टेलीग्राम मिला। वह तारीख 3 जुलाई 1990 थी। 4 तारीख को हरिवंश जी ने रांची बुलाया था। मैं बड़ा परेशान था। तब रांची के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। एक साथी की मदद से मैं टेलीफोन बूथ गया और वहां से पहली बार एसटीडी काल हरिवंश जी को किया। उन्हें अपनी परेशानी बतायी और पहुंचने के लिए वक्त मांगा। यह भी उन्हें बताया कि हाल ही में छुट्टी से लौटा हूं। अब और छुट्टी नहीं मिलेगी। आप आश्वस्त करें तो मैं नौकरी छोड़ कर आ सकता हूं। उन्होंने तनख्वाह पूछी तो बता दिया कि 2375 रुपये मिलते हैं और मुझे 2500 रुपये चाहिए। उन्होंने हामी भर दी और कहा कि हफ्ते भर में आ जाइए। खुशी का कोई ठिकाना नहीं। अपने सूबे में ही लौट रहा था वेतन से बिना कोई समझौता किये।

सैलरी का चेक मिल गया था। मैंने बुद्धि भिड़ायी और एकाउंटेंट से कहा कि गांव में पैसे की सख्त जरूरत है और चेक कैश होने में तीन-चार दिन लग जायेंगे। इसलिए चेक वापस लेकर मुझे कैश पेमेंट कर दें। वह भला आदमी निकला। कैश मिल गया। फिर पंखे, चौकी, बिछावन मैंने साथियों को सौंपे और रांची के बजाय सीवान के लिए रवाना हो गया। योजना थी कि घर पर यह खुशखबरी देकर रांची निकल जाऊंगा। विदाई भोजन शैलेंद्र जी (अभी जनसत्ता, कोलकाता के संपादक) के यहां हुआ।

किस्मत और कुदरत कब कौन करामात या करिश्मा कर दे, कोई नहीं जानता। अतीत के अनुभव और वर्तमान के हालात इसी जुमले की तसदीक करते नजर आते हैं। घर से भाग कर चाय की दुकान तक पहुंचे नरेंद्र मोदी देश की सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान होंगे, कभी न उन्होंने सोचा होगा या न उनके परिजनों ने। ठेठ गांव में भैंस चराने वाले लालू प्रसाद या गोबर के उपले पाथने वाली उनकी पत्नी राबड़ी के स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया होगा कि वे घर-परिवार या समाज तक ही सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि बिहार जैसे सूबे की
सूबेदारी भी उनके नसीब में लिखी है। तलाश करें तो अर्श से फर्श और फर्श से अर्श पर आने-दिखने वाले लोगों की एक बड़ी जमात मिल जायेगी। भाग्य पर भरोसा न करने वाले इससे भले सहमत न हों, पर हमारी इस तार्किक तहरीर का जवाब भी शायद ही उनके पास न हो। और को छोड़ भी दें तो कम से कम मैं अपने को इन्हीं भाग्यवादियों की कतार में पाता हूं।

गांव के एक अति सामान्य परिवार में जन्म लेने के बाद होश संभालते अभाव की अट्टालिका को सामने खड़ा पाया था। त्रासद स्थितियां बिन बुलाये सामने आ जातीं। पिता उत्तर प्रदेश की एक चीनी मिल में साधारण मुलाजिम थे। आठवीं की परीक्षा पास की तो पूरे स्कूल में मेरा नंबर सबसे ज्यादा था। यह एक सुखद अनुभूति थी मेरे लिए और मेरे घरवालों के लिए भी। संयोगवश पिताजी अस्वस्थ होने के कारण घर आये हुए थे। 12 दिसंबर की रात खाना खाने के बाद एक ही कमरे में हम सभी सोने की तैयारी कर रहे थे। पिताजी ने कहा- तुम कोई रोजगार करो। मैंने सीधे मना कर दिया और अपनी पढ़ाई जारी रखने की इच्छा जतायी। उन्होंने कहा- पढ़ाई के लिए मैं पैसे नहीं दूंगा। मैंने भी तल्खी में जवाब दे दिया- पैसे नहीं देंगे, तब भी पढ़ूंगा। तब अपने आत्मविश्वास का कारण मुझे खुद भी मालूम न था।

किस्मत ने मेरे साथ पहला दगा किया। अलसुबह पिताजी ने बेचैनी महसूस की और हमारी आंखों के सामने ही अंतिम सांस ली। बाप-बेटे की मीठी बकझक कुछ घंटों में ही वास्तविकता में बदल गयी। परिवार में मां के अलावा भैया अभिभावक बन गये। वह उम्र में मुझसे तीन साल बड़े थे। पढ़ाई-लिखाई में उनका मन नहीं लगता था। मैट्रिक फेल हो गये थे। पिता जी ने अपनी फैक्टरी में उन्हें अप्रेंटिस के तौर पर रखवा दिया था। तनख्वाह थी 150 रुपये मासिक। मुझसे छोटे दो भाई और एक बहन।

पिता की मौत के बाद फैक्टरी से जो पैसे मिले, वे भैया की शादी में खर्च हो गये। उनकी तनख्वाह भी इतनी कम कि अपना ही खर्च चलाना मुश्किल। ऐसी हालत में छोटे भाइयों, बहन और खुद की पढ़ाई के खर्च का तो मुझे बंदोबस्त करना ही था, घर के जरूरी खर्च की जिम्मेवारी भी मेरे सिर आ पड़ी। मैंने रास्ते तलाशे। स्कूल ने मेरे लिए बुक बैंक से किताबों की व्यवस्था करा दी। मेरिट कम पोवर्टी स्कीम के तहत 15 रुपये का वजीफा मिलने लगा। मैंने अपने से नीचे के क्लास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। संयुक्त परिवार था, पर परिवार की हालत ऐसी नहीं थी कि मुझे मदद मिल पाती।

चाचा के साथ खेती में भी हाथ बंटाने लगा। इस तरह परिवार चलाने का ककहरा बचपन में ही सीखने को मिल गया। कई दफा 58 की उम्र में जब अपने बच्चों के संग बैठ कर बाल सुलभ आचरण करता हूं तो पत्नी टोकती हैं। आप भी बच्चा बन गये हैं। तब सोचता हूं कि ऐसा क्यों होता है। जवाब भी मिलता है- बचपन में तो बुढ़ापे की जिम्मेवारी कंधों पर आ गयी। ऐसे में मुझे अपने बचपन की कोई शरारत याद ही नहीं आती। लगता है कि होश संभालने के बाद जिस तरह मैंने 1967 का अकाल करीब से देखा और 13 साल की उम्र में पिता की मौत का साक्षात दर्शन किया, उसमें बचपन की शरारत या जवानी के अल्हड़पन की तो कोई गुंजाइश ही नहीं बची।

दसवीं कक्षा में आते-आते समाज में सम्मान और कुछ पैसों के लोभ में मैं रिपोर्टर बन गया। वह समय इमरजेंसी का था। खबरों के लिए टैबलायड साइज के साप्ताहिक से ढाई रुपये प्रति कालम की दर से भुगतान होता। कविता के लिए चार और लेख के लिए तब 10 रुपये मिलते। महीने में मेरी औसत आय 15 रुपये के आसपास होती। पत्रकार बन कर इस कदर इतराया कि स्कूल का टापर होने के बावजूद मैट्रिक की परीक्षा में छह नंबर से फर्स्ट डिवीजन छूट गया।

स्कूल में मेरे सबसे पसंदीदा शिक्षक थे केदार नाथ पांडेय। वह हिन्दी पढ़ाते थे। अभी बिहार से एमएलसी हैं। दूसरी या तीसरी बार चुनाव जीते हैं। पत्रकारिता में किसी मुकाम तक मैं पहुंचा तो इसमें पांडेय जी का ही हाथ मैं मानता हूं। इसलिए कि कविता-लेख लिखने का सिलसिला उनकी ही निगरानी में शुरू हुआ। भाषा की समझ उन्हीं के द्वारा लाइब्रेरी से जबरन दी गयी किताबों को पढ़ कर आयी। जब वे लाइब्रेरी से किताबें मुझे देते, तब यह
नहीं समझ पाता कि इनका मेरी पढ़ाई से क्या मतलब है। मन-बेमन से किताबें पढ़ कर लौटा देता। मुझे अब भी याद है कि उन्होंने मुझे पहली किताब राहुल सांकृत्यायन की- तुम्हारा क्षय हो- दी थी। तार्किक ढंग से समाज पर कुठाराघात करने वाली सांकृत्यायन जी की उस किताब का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा था। उसके बाद किताबों का सिलसिला शुरू हो गया। कई किताबें उस वक्त मैं पढ़ गया था, जिसका फायदा मुझे बीए (आनर्स) करते समय मिला।

बहरहाल, पांडेय जी मेरे खराब रिजल्ट के लिए पत्रकारिता को जिम्मेवार ठहरा रहे थे। उन्होंने सलाह दी कि बिहार के कालेजों में अच्छी पढ़ाई नहीं होती है, इसलिए मैं उत्तर प्रदेश के किसी कालेज में दाखिला लूं। मैंने उनकी सलाह पर रामकोला (तब देवरिया जिले में था) में जनता इंटर कालेज में दाखिला लिया।

यहां मुझे सर्वाधिक कष्ट इस बात से था कि मेरी पत्रकारिता छूट गयी थी। संयोगवश 1977 में यूपी के इंटर कालेजों में लंबी हड़ताल चली और मुझे वहां से खिसकने का बहाना मिल गया। मैं वापस आ गया। इंटर में नामांकन के लिए मैंने एक आवेदन प्राचार्य के नाम लिखा और सीधे गोपेश्वर महाविद्यालय, हथुआ के तबके प्राचार्य भोलानाथ सिंह से मिला। मेरे आवेदन में भाषा और व्याकरण की कोई गलती न पाकर वह खुश हुए और मेरे सीधे नामांकन का आदेश दे दिया। मैंने उनसे अपनी दो परेशानी बतायी। पहला यह कि मेरे सारे प्रमाणपत्र रामकोला के कालेज में जमा हैं और दूसरा यह कि मेरे पास महज 20 रुपये हैं। उनकी सलाह थी कि मैट्रिक का ओरिजिनल सर्टिफिकेट जब आयेगा तो उसकी सत्यापित प्रति जमा करा देना। तब ओरिजिनल सर्टिफिकेट सालभर के बाद ही आते थे। नामांकन शुल्क माफ करते हुए उन्होंने महज 20 रुपये में ही एडमिशन करा दिया। आश्चर्य की बात है कि उसके बाद मैंने उसी कालेज से बीए तक की पढ़ाई की, पर किसी ने कभी सटिफिकेट नहीं मांगा।

हथुआ में नामांकन हो जाने के बाद मुझे पत्रकारिता करने का मैका भी मिल गया। मैंने मीरगंज (जहां से सारण संदेश निकलता था) में 19 रुपये मासिक पर एक कमरा किराये पर लिया। एक और लड़के को पार्टनर बनाया। खाने का सामान घर से आता था। लकड़ी के बुरादे का चूल्हा था। अखबार मालिक का लड़का टिंबर मिल चलाता था, इसलिए बुरादे कभी मुफ्त तो कभी सस्ते में मिल जाते। कालेज से
लौटते ही मैं अखबार के दफ्तर पहुंच जाता। खाली दिनों में भी दफ्तर जाता। अब अपने को मैं सक्रिय पत्रकार मानने लगा था। एक संवाददाता से मैं निज संवाददाता हो गया था। मुझे अखबार का पहचानपत्र भी मिल गया था।
उन दिनों अक्षर गिन कर हेडिंग लगाने की कला देवेंद्र मिश्र जी ने मुझे सिखायी। दोपहर में वह एक दुकान पर खाने जाते थे। अक्सर साथ लेकर जाते और पावरोटी के साथ एक गिलास दूध मिल जाता। मेरे ट्यूशन पढ़ाने का क्रम मीरगंज में भी जारी रहा। अपने एक शिष्य को मैं अब भी नहीं भूल पाता हूं। वह था प्रदीप तिवारी। बड़ा होनहार। मेरे साथ रह कर उसने खबरें लिखने की कला भी
सीखी। बाद में बीएचयू पढ़ने गया। कुछ दिनों तक अखबार में नौकरी भी की, पर असमय मौत ने उसे बुला लिया।

इंटर में मैंने साइंस विषय ले रखे थे, पर सच्चाई यह थी कि मुझे इन विषयों से लगाव नहीं था। मैंने इंटर की परीक्षा कैसे पास कर ली, मुझे न तब याद था और न अब याद है। शायद मेरी आकर्षक लिखावट और अच्छी भाषा का कमाल था, जिसने इंटर की परीक्षा पास करने में मेरी मदद की। इस बार भी मैं सेकेंड ही आया था। लेकिन इस बार सेकेंड आने की मुझे खुशी थी, इसलिए कि मैं अपनी
औकात समझता था। मैंट्र्कि में सेकेंड आना जरूर खला था। खैर, अब मैंने तय कर लिया था कि साइंस नहीं पढ़ना है। इसीलिए बीए में मैंने हिन्दी आनर्स लेना ही बेहतर समझा। अब बीए में मेरा उसी कालेज में एडमिशन हो गया।
मेरे जीवन के संघर्ष का अगला अध्याय बीए में दाखिले के साथ शुरू हुआ। आनर्स के लिए 22 लोगों ने विभागाध्यक्ष को आवेदन दिया था। उनमें मैं ही साइंस का छात्र था। आवेदन की शुद्धता को देखते हुए तब के विभागाध्यक्ष ने मेरे बारे में कहा था कि यही लड़का आगे निकलेगा। सबके आवेदन में
अशुद्धियां है, पर साइंस का छात्र होने के बावजूद इसके आवेदन में कोई त्रुटि नहीं। नामांकन हो गया।

इस बीच आर्थिक तंगी गहराने के कारण मैंने मीरगंज का डेरा छोड़ दिया था और गांव रहने लगा था। घर से कालेज की दूरी 10 किलोमीटर थी। साइकिल के अलावा कोई सीधा साधन नहीं था। मेरे पास साइकिल भी नहीं थी। कुछ दिनों तक साथियों की साइकिल पर दोहरी सवारी कर मैं कालेज जाता रहा। लेकिन बाद में मैं साथियों के लिए बोझ बन गया। जिसे कालेज जाना होता, वह भी यह कह कर कन्नी काट लेता कि आज उसे नहीं जाना है। मैं घर में बैठे-बैठे बोर होता। बाहर निकलो तो लोग पूछते कि कालेज नहीं गये? एक-दो दिन तो बहाना चल जाता, पर रोज-रोज यह संभव नहीं था।

इस दौरान खुद को व्यस्त रखने के लिए मैंने एक कोचिंग क्लास शुरू की। बेकार चल रहे अपने से सीनियर कुछ लोगों की एक टीम बनायी और आमदनी को बराबर-बराबर बांट लेने का फैसला हुआ। कोचिंग चलने लगा। पर, इससे भी मेरी समस्या का समाधान नहीं निकल पाया। कोचिंग क्लास स्कूल की छुट्टी के बाद ही चलते। यानी चार-साढ़े चार बजे तक मुझे घर में ही दुबके रहना पड़ता।
मेरा गांव कैलगढ़ एस्टेट के तहत आता है। एक दिन मैं एस्टेट की एक पुरानी बिल्डिंग के पास खड़ा था। उसमें ऊपरवाले तल्ले पर हाईस्कूल के शिक्षक रहते थे। नीचे वाला बरामदा खाली था। दो कमरे भी थे, पर उसमें कुछ सामान रखे हुए थे। मैंने वर्षों से जमी धूल को वहां पड़े एक पुराने झाड़ू से साफ करना शुरू किया तो फर्श ठीक दिखी। मैंने वहीं तय किया कि इस बरामदे में बच्चों
का एक स्कूल शुरू करता हूं। यह शायद दिसंबर 81 का समय था। जनवरी 82 से स्कूल की तैयारी शुरू कर दी। गांव के मुखिया से आग्रह किया कि सड़क किनारे किसी पेड़ की लकड़ी मिल जाये तो मैं फर्नीचर बनवा लूं। पेड़ तो नहीं मिला, पर पेड़ की एक मोटी डाल का बंदोबस्त हो गया। फर्नीचर बन गये और मुखिया जी के घर के सात-आठ लड़कों को लेकर स्कूल शुरू कर दिया। फिर छात्रों की
संख्या बढ़ने लगी और यह करीब डेढ़-दो सौ के पास पहुंच गयी। ठेठ गंवई इलाके में यह तब अद्भुत प्रयोग माना गया। यूनीफार्म पहने बच्चे जब पीटी-परेड करते या गिनती-पहाड़े, अंगरेजी कविताएं दोहराते दिखते तो लोग आकर्षित होते। लोगों को लगता कि बिगड़ैल बच्चे भी यहां सुधर जायेंगे। मेरी गिनती काफी अनुशासित और सख्त शिक्षक के रूप में होने लगी। यही वह स्कूल था, जिसने मुन्ना को मुन्ना मास्टर बना दिया।

1982 आते-आते स्कूल का काफी नाम होने लगा। पत्रकार के रूप में मेरी जो विशिष्ट पहचान बनी थी वह मुन्ना मास्टर के रूप में और आदरणीय बन गयी। स्कूल से सबकी तनख्वाह देने के बाद मेरे पास ढाई-तीन सौ बच जाते। स्कूल का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि कुछ न कुछ रुपये रोज ही हाथ में होते। इसी साल मेरी शादी का प्रस्ताव आया। परिवार का बंटवारा हो चुका था। फिर
भी मेरे चाचाजी ही मालिक थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि शादी के इस प्रस्ताव पर क्या किया जाये। मैंने संकेतों में यह कह कर हामी भर दी कि आप देख लीजिएगा।

शादी तय हो गयी। मेरी शर्तों के मुताबिक तय हुआ कि दहेज नहीं लेंगे। आपको जो देना हो, भले दें, पर मांग नहीं है। दूसरी शर्त थी कि शादी में गहने लेकर हम नहीं जायेंगे। आप चाहें तो अपनी ओर से भले दे दें। इन्हीं शर्तों पर 1983 में 20 मई की तिथि तय हुई। शादी के खर्च स्कूल की कमाई से निकल आये। स्कूल के छात्र भी बाराती बने। संयोग रहा कि शादी के बाद मुझे सारण संदेश
में सह संपादक के रूप में 220 रुपये मासिक की नौकरी मिल गयी। यानी आमदनी में एक और इजाफा। लेकिन माली हालत हमेशा जोड़-तोड़ से काम चलाने वाली ही रही। इस हालत में परिवर्तन 1989 से आया। लेकिन किस्मत ने फिर दगा किया। जुलाई 1990 तक तो सबकुछ खुशगवार हो गया, पर अगस्त 1990 के बाद फिर संकटों के भंवर में फंस गया।

हरिवंश जी के बुलावे और उनसे यह भरोसा मिल जाने के बाद कि मुझे 2500 रुपये माहवारी मिलेंगे, मैं रांची पहुंचा था। बस से उतरने के बाद करीब 10 बजे प्रभात खबर के दफ्तर पहुंचा। वहां मेरी पहली मुलाकात गोपी कृष्ण उपाध्याय से हुई। वह संपादकीय विभाग में थे। उनकी ड्यूटी 10 बजे दिन से लगती थी। शायद डाक संस्करण के लिए काम करते थे। उन्होंने हरिवंश जी कमरा दिखा दिया। मैं अंदर गया। उस कमरे में दो टेबल सामानंतर लगे थे। एक पर बुजुर्ग सज्जन और दूसरे पर हरिवंश जी विराजमान थे। मैंने अपना परिचय दिया और हरिवंश जी से मिलने की बात कही। तब तक मैं न हरिवंश जी को पहचानता था और न वह मुझे। संयोग से मैंने हरिवंशजी की ओर ही मुखातिब होकर अपना परिचय दिया था। उनका हुलिया मुझे संपादक जैसा लगा। इसलिए कि चेहरे पर दाढ़ी थी। संयोग से मैं भी दाढ़ी रखता था। हरिवंश जी ने बैठने को कहा। थोड़ी पूछताछ
के बाद उन्होंने कहा कि आपको टेस्ट देना पड़ेगा। यह सुनते ही मुझे अपने एक साथी का कहा जुमला याद आ गया, जो अपने साथ फिट बैठता देख मैंने दोहरा दिया। मैंने कहा – मैं जमीन पर हूं, आसमान में नहीं। टेस्ट देकर नौकरी मांगने की मेरी उम्र बीत चुकी है। रखना है तो रखिए, वर्ना मेरे पास नौकरी है।

हालांकि यह जुमला दोहराते वक्त मुझे अच्छी तरह मालूम था कि गुवाहाटी की नौकरी छोड़ कर आया हूं। वह पल भर चुप रहे। फिर कहा कि आप संपादकीय विभाग में बैठिए, शाम को बात करते हैं। मैं बाहर आ गया और गोपी कृष्ण उपाध्याय के पास जाकर बैठ गया।

इस बीच तब समाचार संपादक का दायित्व निभा रहे हरिनारायण सिंह दफ्तर पहुंच चुके थे। हरिवंश जी ने उन्हें बुलाया और पता नहीं क्या बात की। वह बाहर निकले तो मुझे अपने पास बुलाया और मेरे बारे में बड़े प्रेम भाव से जानकारी ली। बात ही बात में उन्होंने कहा कि हरिवंश जी से आपकी बात तो शाम में होने वाली है ना। मेरे हां कहने पर उन्होंने इलुस्ट्रेड वीकली की एक प्रति थमायी और कहा कि तब तक इसका अनुवाद कर दीजिए। वह इंटरव्यू संभवत: वीपी सिंह या देवीलाल का था पूरे पांच पेज का। इलुस्ट्रेड वीकली की साइज भी बड़ी थी। मैंने ले लिया और अनुवाद करने बैठ गया। चार बजे तक अनुवाद कर डाला। कापी हरिनारायण जी को दे दी। वह बोले, बैठिए आते हैं और
अनूदित कापी लेकर हरिवंश जी के कमरे में चले गये। मेरे सुंदर अक्षर और करीब ठीकठाक अनुवाद ने हरिवंश जी को आकर्षित किया। लेकिन उन्होंने मेरे बारे में जो धारणा बना ली थी कि घमंडी लगता हूं, उसका इजहार भी हरिनारायण जी से कर दिया। हरिनारायण जी ने सफाई दी कि वैसा तो नहीं लग रहा। इसलिए कि चार-पांच घंटे उनके साथ मैंने बिताये थे और बातचीत भी कुछ देर
की थी। बहरहाल, हरिवंशजी ने मुझे बुलवाया और कहा कि आपका टेस्ट हो गया। पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि कब हुआ, पर बाद में समझा कि शायद अनुवाद का काम मेरा टेस्ट ही था। तनख्वाह पर बात आयी तो उन्होंने कह दिया कि आपको 2500 रुपये ही मिलेंगे। साथ ही यह भी बताया कि आज कोई साइन करने वाला अधिकारी नहीं है, इसलिए मेरा नियुक्ति पत्र वह डाक से भिजवा देंगे।
उन्होंने मेरा घर का पता ले लिया और गुवाहाटी आने-जाने का किराया दिलवा दिया। नौकरी पक्की होने पर मैं काफी खुश हुआ। इस बीच आठ बज गये थे। हरिनारायण जी से मैंने कहा कि मुझे धुर्वा जाना है। कैसे जाऊंगा। उन्होंने मुझे गाड़ी से छुड़वा दिया। पर, इलाके से अनजान होने के कारण मुझे
गंतव्य तक पहुंचने में काफी वक्त लगा। धुर्वा में मेरी पट्टीदारी के दो चाचा रहते थे। उन्हीं में एक के घर मुझे जाना था। खैर, पहुंच गया चाचा के घर रात 10 बजे तक। सुबह अखबार देखा तो मेरे द्वारा अनूदित इंटरव्यू छप गया था। साथ में एक पीस बाईलाइन भी छपा था। वीपी सिंह के इस्तीफे की
अटकलों को केंद्र कर कई लोगों ने लिखा, उनमें एक पीस मेरा भी था। यह देख और खुशी हुई।

अगले दिन मैं बस से गांव लौट गया था। लौटने के बाद एक-एक दिन नियुक्ति पत्र के इंतजार में कट रहे थे। सप्ताह बीत गया। मुझे एक अगस्त तक ज्वाइन करना था। पत्र नहीं पहुंचा तो मन खटका और मैं एक अगस्त को रांची चला। रांची पहुंच कर दफ्तर गया तो संयोग से पहली मुलाकात फिर गोपीकृष्ण उपाध्याय से हुई। वह भोजपुरी में बात करते थे और खैनी खाते थे। मेरे में भी ये दोनों गुण थे। समानधर्मा होना आदमी को करीब लाता है। उन्होंने बताया कि आपका सेलेक्शन तो हो गया है, पर कोई अड़चन है, वह हरिवंश जी ही बता पायेंगे।

हरिवंश जी आये तो उनसे मिला। उन्होंने बताया कि मैंने अपने बायोडाटा में अपेक्षित वेतन 1500 रुपये मांगा है, जबकि तय 2500 रुपये हुआ है। पर्सनल ने आब्जेक्शन कर दिया है। मैंने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि मैं 2375 रुपये पा रहा था और 1500 रुपये मांगूगा। उन्होंने कहा कि ऐसा ही है और मैं जानता हूं कि आप झूठ नहीं बोल रहे, पर मजबूर हूं। पर्सनल का काम देख रहे अधिकारी आरके दत्ता को उन्होंने बुलवाया। वह बायोडाटा की फाइल लेकर आये। उन्होंने मेरा वह अंतरदेशीय पत्र दिखाया, जिसमें मेरा बायोडाटा भी अंकित था। मेरे ही अक्षरों में। वास्तव में मैंने इतनी बड़ी मानवीय भूल की थी कि कुछ कहते नहीं बना। आखिरकार वेतन 1500 रुपये ही तय हुआ। अलबत्ता
हरिवंश जी ने यह वादा किया कि मैं आर्टिकल-फीचर लिखूं और वह कोशिश करेंगे कि मेरे हजार रुपये नुकसान की भरपाई हो जाये। मरता क्या न करता। मुझे तो गुवाहाटी की नौकरी छोड़ कर रांची आने की असलियत मालूम थी। मैंने उन्हीं शर्तों पर काम करना स्वीकार किया। मैंने नियुक्ति पत्र पहले लेने की जिद भी नहीं की।

आप अनुमान लगा सकते हैं कि 10 हजार माहवारी खर्च के बजट वाले को 5 हजार देकर काम चलाने को कह दिया जाये तो उसे कितने तरह के समझौते करने पड़ सकते हैं। खासकर, तब, जब उसके सामने और कोई विकल्प न बचा हो। मेरी माली हालत खराब हो गयी। कितने मजे में रह कर गुवाहाटी से मैं मां को हजार रुपये का मनीआर्डर हर माह भेज दिया करता था। अब यह बंद हो गया। पैसे घर न पहुंचने पर पत्नी को परेशानी होने लगी तो उसे अपने पास बुला लिया। तब तक चार
बच्चे हो चुके थे। बेटा और उससे छोटी बेटी साथ आये। दो बेटियां अपनी नानी के पास रह गयीं। घर से आते वक्त पत्नी साथ में चूड़ा-सत्तू (मक्के का) लेकर आयी थीं। हालांकि मैं इनमें किसी का कभी शौकीन नहीं रहा। प्रभात खबर आकर मेरी त्रासदी यहीं खत्म नहीं हो गयी कि कम तनख्वाह मिलने लगी। तनख्वाह की कोई निश्चित तिथि भी तब मुकर्रर नहीं थी। कभी 20 को तो कभी 23 को तनख्वाह मिलती। सबकुछ इतना गड्डमड्ड हो गया कि दिमाग काम नहीं कर रहा था। पैसे की तंगी ने तो एक-दो दिन ऐसा कर दिया कि बच्चों को दूध की जगह मांड़ पिला कर पत्नी ने काम चलाया। चावल के पैसे भी नहीं थे तो पत्नी ने घर से लाये सत्तू की रोटी बना कर खिलाया। घर के किराये के 120 रुपये भी समय पर नहीं देने के कारण मकान मालिक से किचकिच होती रहती थी। एक दिन तो स्टोव जलाने के लिए केरोसिन नहीं था तो आधे लीटर में दो साथियों ने काम चलाया। किस्मत अबतक कई रंग दिखा चुकी थी।

जीवन में जटिलताएं न आयें तो आनंद की अनुभूति अलभ्य है। मुंह जले को ही तो मट्ठे की ठंडाई का एहसास हो सकता है। जो ठंड में ही रहने का आदी हो, उसके लिए ठंड का का क्या मायने? और अगर ठंड के बाद जलन की पीड़ा झेलनी पड़े तो उसकी हालत का आप अनुमान लगा सकते हैं। हरिवंशजी ने प्रथमदृषटया भले ही मुझे घमंडी समझ लिया था, लेकिन बाद के दिनों में उनकी यह धारणा बदली और वह मेरी शालीनता के कायल हो गये। मैं दफ्तर में शायद ही किसी से घुल-मिल कर बातें करता था। तब अपने काम में मगन रहना ही मुझे ज्यादा श्रेयस्कर लगा। बीच-बीच में हरिवंशजी मुझे अंगरेजी-हिन्दी अखबारों की कतरनें देते और उनसे एक नयी स्टोरी डेवलप करने को कहते। मैं वैसा करने लगा। हरिनारायण जी की कृपा से वैसे पीस बाईलाइन छप जाते। ऐसी बाईलाइन स्टोरी की संख्या जितनी होती, उतने 40 रुपये की कमाई हो जाती। इसका भुगतान वेतन वितरण के पखवाड़े-बीस दिन बाद होता।

मेरे प्रति तबके तीन सीनियर हरिवंशजी, संजीव क्षितिज और हरिनारायणजी का नजरिया काफी बदल गया था। भरोसा इतना कि मुझे संपादकीय लिखनेवालों की टीम में शामिल कर लिया गया। उस टीम में थे- तबके हमारे चीफ सब एडिटर अविनाश ठाकुर, यशोनाथ झा और अनुज कुमार सिन्हा। अनुज जी सिटी डेस्क के इनचार्ज थे। काफी गरम और तुनकमिजाज। मेरी नियुक्ति भले सब एडिटर के रूप में हुई थी, लेकिन वेतन ट्रेनी सब एडिटर वाला ही मिल रहा था। ट्रेनिंग के लिए जिन लोगों का चयन हुआ था, उनमें संदीप कमल (फिलहाल दैनिक जागरण में हैं), विजय पाठक (संप्रति प्रभात खबर, रांची संस्करण के संपादक),जयनंदन शर्मा (अभी प्रभात खबर, जमशेदपुर), दो लड़कियां- एक का नाम शादां नियाजी और एक का नाम याद नहीं आ रहा और ललित मुर्मू शामिल थे। मैं उन्हीं लोगों के स्केल में था।

रोज सुबह संपादकीय लिखनेवाला व्यक्ति विषय के साथ संजीव क्षितिज से मिलता। विश्लेषण के प्वाइंट्स बताता। कुछ संजीव जी खुद सुझाते और संपादकीय का पीस तैयार होने पर खुद चेक कर ओके करते। शाम को चीफ सब खबरों की प्लानिंग लेकर जाते और संजीव जी के साथ ही पहले पेज की लीड, बाटम और दूसरी खबरें तय होतीं। संजीव जी अक्सर लीड की हेडिंग पूछते। फिर तर्क-वितर्क के बाद शीर्षक तय होता। चीफ सब की गैरहाजिरी में पहले पेज की खबरों के चयन के लिए एक-दो बार मेरा भी उनके पास जाना हुआ। वह पुराने अंक के प्वांइंट साइज के आधार पर हेडिंग सुझाते। चूंकि अक्षर गिन कर हेडिंग लगाने की कला में मैं पारंगत था, इसलिए एकाध बार मैंने टोक दिया कि हेडिंग लटक जायेगी या तीन लाइन की हो जायेगी। इसका वह बुरा नहीं मानते।

कहते- जाइए, सोच कर बताता हूं। फिर एक पर्ची लेकर पिउन आता। उसमें लिखा होता- ऐसा करना ठीक रहेगा क्या? जाहिर है कि अब उनकी बात काटने की गुंजाइश भी नहीं होती या सच कहें तो साहस नहीं जुटता। अलबत्ता उनसे एक चीज सीखने को जरूर मिली कि कभी अपना निर्णय किसी साथी पर मत थोपो। सीनियर भी अपनी बात सलाह के तौर पर रखे।

उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा है। हरिनारायण जी छुट्टी पर थे। ईरान-इराक युद्ध की खबर देर रात आयी तो सबकी सहमति से शाम में संजीव जी द्वारा तय लीड हम लोगों ने बदल ली। अति उत्साह में एडिट लिखने वाली टीम के सदस्य अनुज ने अविनाश ठाकुर पर दबाव डाला कि एडिट भी बदल देना चाहिए। तब दो संस्करण छपते थे। डाक में पहला एडिट छप चुका था। अविनाश जी अनिर्णय की स्थिति में थे। उन्होंने मुझे देखा तो मैने कहा कि अखबार में एक ही एडिट होना चाहिए। जो डाक में छप गया है, उसे ही जाने दें। अनुज नाक-भौं सिकोड़ने लगे। अविनाश जी ने उनकी बात मान ली। आनन-फानन में उन्होंने एडिट लिखा और सिटी संस्करण में परिवर्तित एडिट छप गया।

दूसरे दिन संजीव जी आये तो लीड बदल लेने के लिए बधाई दी। तब तक उनका ध्यान बदले एडिट पर नहीं गया था। चूंकि कैंटीन में ही चाय-नाश्ता होता था, इसलिए सुबह में 11 बजे तक मैं भी पहुंच चुका था। बधाई मुझे ही पहले मिली। इसी बीच एडिट पेज देखने वाली शादां नियाजी ने सिटी में बदला एडिट देख लिया। वह संजीव जी के पास पहुंची। उन्हें बताया। इस पर वह भड़क गये। मुझे बुला कर पूछा तो मैंने बड़ी ही बेचारगी के साथ सफाई दे डाली। यह कहते हुए कि आप लोगों की नजर में मैं भले ही औरों से ऊपर या अलग हूं, पर मेरा पद इतना छोटा है कि किसी को रोक पाना मेरे वश की बात नहीं। मैंने सलाह दी थी अविनाश जी को, लेकिन अनुज जी की जिद को वह रोक नहीं पाये। मैं तो बच गया, पर अविनाशजी को क्या-क्या सुनना पड़ा होगा, यह उन्हें मिले शोकाज से मालूम हो गया। अनुज को सजा के तौर पर एडिट लिखने वाली टीम से हटा दिया गया।

मैं अपनी बदहाली को लेकर हमेशा उदास रहता था। चुपचाप खबरें एडिट करता और खामोशी से पेज बनवाता। संजीव जी के कमरे में जब कभी जाता, वह मेरे और परिवार के बारे में जानकारी हासिल करते। मेरी तनख्वाह वाली गड़बड़ी को लेकर दुखी भी होते। मेरी मनोदशा को शायद सबसे ज्यादा उन्होंने पढ़ा था। मेरे बारे में उनकी चिंता का एक ही उदाहरण काफी है। कलकत्ता से जनसत्ता का संस्करण शुरू हो रहा था। कई अखबारों में विज्ञापन निकला था। मित्रों ने दफ्तर में आने वाले अखबारों से विज्ञापन कुतर लिये थे। उन दिनों जनसत्ता के मुंबई संस्करण में काम करने वाले पंकज जी (उनकी उपाधि मुझे नहीं मालूम,पर इतना जानता हूं कि वह भी प्रभात खबर के शुरुआती दिनों में साथ थे) से देर रात बात हो रही थी। मैंने वैसे ही पूछ लिया कि पंकज जी, क्या जनसत्ता में हम लोगों की नौकरी नहीं लग सकती। उन दिनों जनसत्ता पत्रकारिता की बाइबिल के समान था। उन्होंने कहा, क्यों नहीं? विज्ञापन निकला है, अप्लाई कीजिए। अखबार टटोले तो पता चला कि जिन अखबारों के बीच से कुछ काटा गया है, वह जनसत्ता का ही विज्ञापन था।

बड़ी पसोपेश में पड़ा। किसी से मैं खुला तो था नहीं, इसलिए इस बारे में पूछूं किससे। दूसरे दिन एडिट के सिलसिले में संजीव जी के कमरे में गया। विषय पर बात खत्म हुई तो आम दिनों की तरह संजीव जी ने मेरे बारे में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी पीड़ा उनसे साझी की तो उन्होंने कहा कि कहीं और क्यों नहीं कोशिश करते हैं। मैंने कहा कि जनसत्ता में वेकेंसी निकली है, पर उसकी कटिंग नहीं मिल रही। दफ्तर के अखबारों से लोगों ने काट लिया है। इस पर उन्होंने तपाक से कहा कि मेरे घर आता है, मैं ला दूंगा। दूसरे दिन उन्होंने कटिंग ला दी। मैंने आवेदन कर दिया। टेस्ट होना था, पर मुझे समय की सही जानकारी नहीं थी। मैं गांव चला गया था। इसी बीच टेस्ट का टेलीग्राम धुर्वा वाले मेरे चाचा के घर के पते- डीटी 2472-पर पहुंच गया।

संजीव जी को टेस्ट की तिथि मालूम हुई तो वह काफी परेशान हुए। तब मोबाइल का जमाना था नहीं,इसलिए वह मुझे सूचित भी नहीं कर सकते थे। गांव में टेलीफोन तब सोचा भी नहीं जा सकता था। उन्होंने जनसत्ता में तब काम कर रहे और प्रभाष जोशी के करीबी आलोक तोमर से बात की। आलोक जी ने उनको बताया कि पहले टेस्ट में अच्छे लोग नहीं मिले हैं, इसलिए फिर टेस्ट हो सकता है। उनको कहिए कि फिर से आवेदन भेजें और बतायें कि पारिवारिक कारणों से पहले टेस्ट में शामिल नहीं हो पाये थे। मैंने वैसा ही किया। तब प्रभाष जी के पीए रामबाबू होते थे। हफ्ते भर में रामबाबू का टेलीग्राम मिला, जिसमें कलकत्ता में टेस्ट के लिए बुलाया गया था। टेस्ट के लिए छुट्टी कैसे लूं, यह बड़ी समस्या थी। इसलिए कि मैं झूठ बोल कर जाना नहीं चाहता था।

काफी सोच-विचार के बाद मैंने तय किया कि हरिवंश जी को बताऊं। मैं सीधे उनके पास गया और आवेदन करने से लेकर टेस्ट के लिए काल लेटर आने तक की बात बता दी। उस हरिवंश जी को टेस्ट की बात मैंने बतायी, जिनसे एक बार मैं कह चुका था कि टेस्ट देकर नौकरी की मेरी अब उम्र नहीं रही। बहरहाल, उन्होंने खुशी से कहा- जाओ, भगवान करे तुम कामयाब हो जाओ। यह भी पूछा कि कैसे जाओगे। मैंने कहा कि बस से। तब उन्होंने कहा कि बस से थकान होगी, तुम ट्रेन से जाओ। कहो तो मैं टिकट कनफर्म कराने के लिए किसी से कह दूं। मैंने कहा कि नहीं, मैं कर लूंगा। वैसे मैं कलकत्ता बस से ही गया। बस ने सुबह 8 बजे तक कलकत्ता ग्रेट ईस्टर्न होटल के सामने उतार दिया। उसी होटल में टेस्ट होना था।

जिस वक्त मेरी बस कलकत्ता पहुंची थी, उस समय आसापस एक-दो फुटपाथी चाय-नाश्ते की दुकानों के अलवा सब बंद था। होटल के बाहर इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी के अलावा कोई काम न था। इसी दौरान मैंने एक आदमी को अपनी ही तरह उतने ही दायरे में टहलते देखा। उस आदमी की उम्र मुझसे थोड़ी ज्यादा थी, पर दाढ़ी मेरी ही तरह थी। मन ही मन मैंने उसमें और अपने में काफी समानता देखी। बाद में जब हम लोगों का इंटरव्यू के बाद सेलेक्शन हुआ तो पता चला कि टेस्ट के दिन मिला आदमी कोई और नहीं, प्रभातरंजन दीन थे। वह पटना से आये थे। तब आज अखबार में काम करते थे। जब साथ काम करने लगे तो अपनी उस अपरिचय की स्थिति में भी आंतरिक परिचय की चर्चा अक्सर हम करते। उनसे नजदीकी दो ही मुलाकातों में इतनी बढ़ गयी कि सेलेक्शन के बाद उसी शाम वह पटना लौट रहे थे तो मैंने अपने सेलेक्शन की सूचना का एक पत्र देवेंद्र मिश्र जी के नाम उनके ही हाथों पठाया था।

टेस्ट देकर उसी शाम मैं रांची के लिए निकल गया था। अगले दिन हरिवंश जी ने पूछा कि टेस्ट कैसा गया। मैंने ठीक कहा और साथ में संशय भी जोड़ा कि पता नहीं, होगा भी या नहीं। तब उन्होंने कहा था कि विश्वास रखो, हो जायेगा। महीने भर बाद ही इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया। इस बीच दिल्ली में प्रभात खबर के विशेष संवाददाता के रूप में नियुक्त कृपाशंकर चौबे जी से फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। इंटरव्यू लेटर आने के पहले उन्होंने ही बताया था कि आपका सेलेक्शन हो गया है। तब मुझे यह मालूम नहीं था कि इतनी आंतरिक जानकारी कृपाजी मेरे लिए क्यों जुटा रहे हैं। दरअसल एक टेस्ट दिल्ली में हुआ था, जिसमें वह भी शामिल हुए थे।

जनसत्ता का इंटरव्यू 30 सितंबर 1991 को था। मैंने फिर बस का टिकट कटाया। तब तक मुझे मालूम नहीं था कि प्रभात खबर से इंटरव्यू के लिए किन-किन लोगों को बुलाया गया है। मुझे दो दिनों की छुट्टी लेनी थी। 2 अक्तूबर को अवकाश था। मैं इंटरव्यू का टेलीग्राम लेकर हरिवंश जी के पास पहुंचा। उन्हें इंटरव्यू के बारे में बताया। वह खुश थे। मुझे शुभकामनाएं दीं और कहा कि जाओ, देखो- क्या होता है। वैसे तुम्हारा हो जाना चाहिए। मैंने तो छुट्टी ले ली। इंटरव्यू कलकत्ता के होटल ताज बंगाल में होना था। दूसरे दिन पूछ-पता कर वहां पहुंच गया। वहां जाने पर देखा कि रांची प्रभात खबर से विनय विहारी सिंह, जो उस वक्त चीफ सब एडिटर थे और संडे सप्लीमेंट- रविवार का काम देखते थे, वह भी पहुंचे थे।  रविवार के लिए फ्रीलांस के तौर पर विनय जी के सथ काम करने वाले युवक रंजीव भी थे। परिचितों में फजल इमाम मल्लिक भी थे। मेरा उनसे परिचय गुवाहाटी से था।

सुबह नौ बजे से इंटरव्यू शुरू हुआ। होटल ताज बंगाल के फर्स्ट फ्लोर पर इंटरव्यू चल रहा था। एक-एक कर लोगों को बुलाया जा रहा था। लोग जाते और खुश होकर लौटते। पता ही नहीं चलता कि कोई छंट भी गया या सबका हो गया। देखते-देखते दोपहर हो आई। बिना खाये-पीये इंटरव्यू का इंतजार और उससे भी खतरनाक स्थिति- क्या होगा की मनोदशा। भूख से सिर दुखने लगा। बाहर निकले और अफरातफरी में फुटपाथ से पूड़ी लेकर हड़बड़ी में अंदर धकेला। फिर भाग कर आये, यह पूछते हुए कि कहीं मेरा नंबर तो नहीं आया था। जब पता चला कि अभी नहीं तो थोड़ी राहत जरूर हुई, लेकिन उससे भी ज्यादा घबराहट इस बात को लेकर थी कि ज्यादातर लोग इंटरव्यू दे चुके थे या देकर जा चुके थे। चार बजने को थे। मन घबराया कि सब सीटें भर जायेंगी तो मेरा क्या होगा। एक तरह से
निराश हो गया था। मुंह लटकाये बैठा था कि पौने पांच बजे के करीब मेरा बुलावा आया। भूख-प्यास से तो बिलबिला ही रहा था, इंटरव्यू की घबराहट ऊपर से। अंदर गया।

दो लोग बैठे थे। एक तो प्रभाष जोशी खुद थे और दूसरे कवि त्रिलोचन जी के पुत्र अमित प्रकाश सिंह थे। बाद में जाना कि अमित जी न्यूज एडिटर की हैसियत से आये थे। प्रभाष जी ने अपने अंदाज में पूछा- अश्क जी, आपका उपेंद्र नाथ अश्क से क्या रिश्ता है?

मैंने जवाब दिया- कोई नहीं

फिर अश्क नाम क्यों रखा? कहीं कविता तो नहीं लिखते?- यह प्रभाष जी का सवाल था।

मैंने स्वीकारा- कविता लिखने की वजह से ही मैं अखबार तक पहुंचा। बचपन में कविताएं लिखता था।

प्रभाष जी का प्रतिप्रश्न- अब भी लिखते हैं?

मेरा जवाब- जी नहीं, अखबार में आकर संवेदनाएं बची ही कहां?

प्रभाषजी- कैसे?

मेरा जवाब- जब रिपोर्टर किसी बस दुर्घटना के बारे में सूचना देता है तो हमारा पहला सवाल होता है कि कितने मरे? अगर उसने कहा कि मरा कोई नहीं, पर 79 घायल हैं तो हमारा जवाब होता है कि छोटी खबर भेज दो। अगर उसने कहा कि 25 मरे हैं तो हम उछल पड़ते हैं कि आज की लीड मिल गयी। ऐसे संवेदनशून्य हो जाने पर कविता की गुंजाइश ही कहां बचती।

शायद मेरा जवाब उन्हें जंच गया। उनका अगला सवाल कि आप सिंह की जगह अश्क क्यों लिखते हैं।

मैंने बताया कि जिस चीज में प्रत्यक्ष दुर्गुण नजर आये, उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर है। सिंह लिखने पर किसी भी दफ्तर में जायें तो लोग यही समझते हैं कि राजपूत हैं। अगर दूसरी जाति का कोई अफसर हुआ तो बहाना बना कर काम लटका देता है। अश्क नाम से प्रथमदृष्टया यह पता नहीं चलता कि मैं किस जाति का हूं। संदेह का लाभ मिल जाता है।

यहां बताना प्रासंगिक होगा कि मैं यह जवाब बिहार की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रख कर दे रहा था। इसलिए कि बिहार में पल-बढ़-पढ़ कर जो अनुभूतियां हुई थीं, मैंने उसी को बयां किया। इसके बाद अमित प्रकाश जी ने पूछा कि आप लाइट इकोनामी पर लिखते हैं? मैंने कहा- नहीं।

अमित जी ने कहा- आपने जनसत्ता को तो एक लेख भेजा था इकोनामी पर? मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। मैंने दो बार में दो लेख भेजे थे। एक असम में रहते हुए, जो छप गया था और  दूसरा प्रभात खबर में रहते हुए,जो छपा नहीं था। उसका विषय मुझे याद है- आर्थिक उदारीकरण पर वह लेख था। प्रभात खबर में बिजनेस इनचार्ज की अनुपस्थिति में मैं बिजनेस पेज भी देखता था, इसलिए थोड़ा ज्ञान था। अमित जी ने अगला सवाल किया- आर्थिक उदारीकरण के बारे में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार का क्या नजरिया है?

मेरा जवाब था- सिद्धांत रूप से यह सरकार विरोधी है, पर व्यावहारिक रूप से नहीं।

अमित जी ने पूछा- कैसे?

मैंने कहा- ज्योति बसु हर साल विदेश दौरे पर जाते हैं। हर बार उनकी विदेश यात्रा की आफिसियल मुलाकातों में उद्योगपति स्वराजपाल जैसे लोगों का नाम होता है। जाहिर है कि वे विदेशी निजी पूंजी आमंत्रित करने का आग्रह करते होंगे।

मैंने देखा कि मेरे जवाब को प्रभाष जी बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अगला सवाल अब प्रभाष जी का था। वैसे भी प्रभाष जी का किसी को परखने का तरीका मुझे भाने लगा था। उनका अगला और सपाट सवाल था- अभी आपको कितने रुपये मिलते हैं?

मेरा भी सत्य, सरल और सीधा जवाब था – 1800 के करीब।

आप कितना चाहते हैं वेतन?

मेरा जवाब- मुझे कलकत्ता के बाजार का भाव मालूम नहीं कि कितना महंगा या सस्ता है शहर। आप जो उचित समझें, तय कर दें।

इसके बाद उन्होंने कहा कि कल 83, बीके पाल एवेन्यू आ जाइए।

मैं लौटने लगा तो दरवाजा खोलते वक्त प्रभाष जी की आवाज कानों में पड़ी कि यह लड़का अपने यहां बिजनेस का असिस्टेंट एडिटर बन सकता है। चलिए बिजनेस का तो हो गया, अब खेल का देखते हैं। मेरे बाद फजल इमाम मल्लिक की बारी थी। वह ऊपर आ रहे थे। मैंने उनको हिंट किया- आप सिर्फ स्पोर्ट्स की बात करेंगे। उसी में अब जगह खाली है। बहरहाल, वह भी खेल के लिए सेलेक्ट हो गये। फजल से मेरी नजदीकी गुवाहाटी से थी। जब हम गुवाहाटी में थे तो फजल मेरे ही साथ रहते थे। बाद में उनकी पत्नी मनु आईं, तब भी कुछ दिन हम एक ही मकान में रहे। जब फजल की चर्चा चल ही रही है तो उनके बारे में एक प्रसंग का जिक्र जरूरी लगता है।

फजल ने हिन्दू लड़की से विवाह किया था। उनकी पत्नी मनु ने विस्तार से बताया था कि कैसे नाटकों के मंचन के दौरान वह फजल के करीब आईं और परिजनों द्वारा तय की गई स्वजातीय शादी छोड़ कर भाग गईं। फजल से शादी की। दोनों को पुलिस ने परेशान भी किया। जब लफड़े से मुक्त हुए तो दोनों साथ रहने लगे। फजल ने मनु पर कभी यह दबाव नहीं डाला कि वह इसलाम धर्म कबूल कर लें, बल्कि यह छूट दे दी कि वह हिन्दू रीति रिवाज से अपने पर्व-त्योहार मनायें। मनु ने ही बताया था कि वह फजल के साथ एक बार उनके घर गईं तो वहां का इसलामी आचरण उन्हें रास नहीं आया और वह फजल के साथ लौट गईं। काफी दिनों से इस बात को लेकर फजल की अपने घर वालों से बात भी नहीं होती थी।

जनसत्ता में जब हम सेलेक्ट हो गए तो प्रभाष जी ने अगले दिन 83, बी.के. पाल एवेन्यू स्थित जनसत्ता के दफ्तर आने को कहा। रात में कहां ठहरें, इस बात को लेकर मैं परेशान था। फजल ने बताया कि उनका एक मित्र यहीं रहता है। वह बिहार का ही था और शायद जान बाजार की एक मसजिद में रहता  था। फजल के साथ मैं चल पड़ा और उस मित्र के ठिकाने पर हम पहुंचे। मुझे तब तक या यों कहें कहें कि अभी तक किसी मसजिद में ठहरने का वह पहला मौका था। सामान रख कर कुछ देर तक हम लोग मसजिद कैंपस में ही बने एक कमरे के बाहर बरामदे में फर्श पर बैठे। रात में खाने के लिए वह लड़का हम लोगों को लेकर चांदनी चौक के एक होटल में गया। वह शबीर होटल था। होटल का मुसलिम नाम देख कर मेरे मन में भारी संशय हुआ। तब मुझे पता नहीं था के नानवेज खाने के लिए कलकत्ता के कुछ नामी-गिरामी होटलों में वह शुमार था। वहां बड़ी संख्या में आज भी हिन्दू खाना खाते हैं। नो बीफ का बोर्ड देख कर थोड़ी राहत हुई, पर पूरी तरह नहीं।

उस लड़के ने मुझसे पहले ही पूछ लिया था कि नानवेज खाते हैं ना। मेरे हामी भरने पर ही शायद वह हमें वहां लेकर गया था। उसने आर्डर दिया। मेरे लिए रोटी और मटन आ गया। मटन के बड़े पीस देख कर मैं घबड़ाया। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। कुछ देर ठहरा रहा, लेकिन जब उन्होंने कहा कि खाते क्यों नहीं तो बड़े रुंआसे मन से मैंने शोरबे से बमुश्किल एक रोटी खाई, मटन छुआ तक नहीं। यह कह कर कि मन ठीक नहीं लग रहा है। वोमेटिंग जैसा लग रहा है। जो लड़का हमें लेकर गया था, शायद उसने मेरी मनोदशा भांप ली।

होटल से निकलने के बाद उसने एपल खरीद लिया। घर लौटने पर उसने कहा कि आपने खाना जानबूझ कर नहीं खाया। मैं समझ गया था, इसीलिए आपके लिए एपल खरीद लिया। मैंने ईमानदारी से उसे अपने मन का संशय बता दिया। फिर उसी ने बताया कि उस होटल में हिन्दू लोग भी खाते हैं और वहां गलत चीजें परोसी नहीं जाती हैं। अगले दिन हमलोग बीके पाल एवेन्यू पहुंचे। वहां प्रभात खबर के साथी विनय विहारी सिंह मिले। वह पहले टेस्ट में शामिल हुए थे, इसलिए उनका इंटरव्यू पहले ही हो गया था। उन्हें हम लोगों के साथ सिर्फ यह सूचना देने के लिए बुलाया गया था कि उनका सेलेक्शन हो गया है। रंजीव भी मिले, जो प्रभात खबर के लिए तब फ्रीलांसिंग करते थे।

प्रभाष जी ने इंडियन एक्सप्रेस के लेटर पैड पर अपने हाथ से आफर लेटर लिखा और सबको दिया। जितने लोगों को आफर लेटर मिले, उनमें दो ही श्रेणी बनी थी- उप संपादक और रिपोर्टर। अलबत्ता सीनियरिटी के हिसाब से इंक्रीमेंट का जिक्र उसमें जरूर था। मुझे जो आफर लेटर मिला, उसमें बच्छावत के ग्रेड वन के वेतनमान और एक इंक्रीमेंट का जिक्र था। कुछ को दो इंक्रीमेंट भी मिले थे। आफर लेटर के हिसाब से पता किया तो वेतन करीब 3500 रुपये बनता था। जाहिर है कि मेरी खुशी परवान चढ़ी होगी। इसलिए कि 2375की नौकरी छोड़ कर मैं प्रभात खबर में अपनी ही गलती से 1500 रुपये पर फंस गया था। एक और रोचक प्रसंग।

प्रभात खबर में रहते सजने-संवरने की कल्पना ही बेमानी थी। इसलिए कि जरूरत भर के तो पैसे मिलते नहीं थे, साज-शृंगार पर खर्च तो दूर की कौड़ी थी। हालत यह थी कि जो सैंडल पहन कर मैं इंटव्यू देने कलकत्ता के ताज बंगाल होटल पहुंचा था, वह एड़ी की तरफ से आधा घिस चुका था। चूंकि एड़ी का हिस्सा ज्यादा सख्त होता है, इसलिए चलते समय यह महसूस ही नहीं हो पाता था कि चप्पल तो आधी ही बची है। शायद यह भी वजह थी कि घर से आफिस ही आना-जाना होता था। फुल पैंट की मोहरी चौड़ी थी,इसलिए चप्पल की घिसावट किसी को दिखती भी नहीं थी। मुझे चप्पल घिसने का एहसास तब हुआ, जब होटल के फर्श पर बिछे कालीन की नरमी एड़ी को मिली। अचानक इस अनुभव ने चप्पल निकाल कर देखने को विवश किया था। जब असलियत का पता चला तो समझ में आया कि मेरी स्थिति कैसी है।

खैर, सेलेक्शन का लेटर लेकर मुझे बस से रांची लौटना था। बस बाबूघाट से खुलने वाली थी। मुझे वह लोकेशन पता नहीं था। विनय जी और रंजीव शायद ट्रेन से लौटने वाले थे। मैंने विनय जी से आग्रह किया कि मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दें। शाम में तीनों एक साथ बस अड्डे के लिए निकले। बाबूघाट जाने के लिए रोड क्रास करना था। दोनों तरफ से वाहनों की भाग-दौड़ मेरे लिए नई बात थी। इसलिए कि महानगर में मैं पहली बार गया था। मुझे लगा कि सड़क पार नहीं कर पाउंगा। फिर सोचा कि सड़क पार करने में इतनी झल्लाहट मुझे इस शहर में हो रही है तो नौकरी कैसे यहां कर पाऊंगा। विनय जी आगे, बीच में मैं और पीछे रंजीव हुए। किसी तरह सड़क पार की। रास्ते में विनयजी और रंजीव की झल्लाहट की बातें भी सुनीं। विनय जी की झल्लाहट इस बात को लेकर थी कि वह प्रभात खबर में चीफ सब एडिटर थे और जनसत्ता में उपसंपादक का पद मिला। पैसे का भी उन्हें ज्यादा लाभ नहीं हुआ था। रंजीव को इस बात की तकलीफ थी  कि उनका सेलेक्शन ट्रेनी के रूप में हुआ था और वह भी खेल रिपोर्टर के तौर पर। उनकी रुचि पालिटिकल बीट में थी। दोनों ने कहा कि वे ज्वाइन नहीं करेंगे। इससे मुझे भी थोड़ी तसल्ली हुई कि इस भीड़भाड़ वाले शहर से तो अपनी रांची भली। भले ही कम पैसे मिल रहे हैं।

दो अक्तूबर को हम रांची लौटे। उस दिन छुट्टी थी। अखबार बंद था या मेरा साप्ताहिक अवकाश था, याद नहीं। यहां यह बताना आवश्यक है कि प्रभाष जी ने जो आफर लेटर दिया था, उसमें सात अक्तूबर तक ज्वाइन कर लेने को कहा गया था। ज्यादा सोच-विचार का वक्त भी नहीं बचा था। तीन अक्तूबर को आफर लेटर लेकर मैं हरिवंश जी से मिला। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ तो मैंने आफर लेटर उनको दे दिया। आश्चर्यजनक ढंग से वह दुखी होने के बजाय खुश थे। उन्होंने पूछा कि अब क्या सोचा है? मैंने जवाब दिया- आप से ही पूछ कर टेस्ट और इंटरव्यू में गया था। अब आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए।

उन्होंने कहा- पत्रकारिता की मुख्य धारा में शामिल होने का यह मौका है। तुम्हें जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक टिप्पणीं मेरे बारे में की, जिसे मैं अब तक गांठ बांध कर लिये फिरता हूं। उन्होंने कहा- तुम्हारे आचरण, तुम्हारी वाणी और तुम्हारे लेखन में जो संयम है, वह तुम्हें काफी आगे ले जायेगा। फिर उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआती परेशानियों का जिक्र किया कि मुंबई में मेरी ही तरह उन्हें भी कई परेशानियां झेलनी पड़ी थीं। उन्होंने कहा- तुम्हारे पास समय नहीं है। तुम्हारा प्लान क्या है? जब मैंने बताया कि दो-तीन दिन के लिए गांव जाऊंगा, फिर रांची लौटूंगा और यहीं से कोलकाता के लिए निकलूंगा। इस पर उनका जवाब था- तब तो आज ही तुम इस्तीफा दे दो। मैं हिसाब करवा देता हूं।

इस्तीफा लिखने के लिए मैं बाहर निकला तो पता चला कि विनय जी और रंजीव भी चलने को तैयार हो गये हैं। बहुत खुश हुआ कि अपनों की कंपनी मिल गई। संपादकीय विभाग में हरिनारायण जी बैठे थे। उन्होंने कहा कि आप मत जाइए। हरिवंश जी से कह कर आपकी तनख्वाह तीन हजार करवा देता हूं। वहां भी करीब इतने ही पैसे मिलेंगे। मैंने कहा कि अगर हरिवंश जी चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। वह हरिवंश जी के पास चले गए और मैं इस्तीफा लिखने बैठ गया। जब निकल कर आये तो मेरा इस्तीफा तैयार था। उन्होंने कहा कि आपको नहीं जाना है। मैंने सोचा कि शायद हरिवंश जी के कहने पर हरिनारायण जी ऐसा कह रहे हैं। मैं इस्तीफा लिये हरिवंश जी के पास चला गया। उन्हें देते हुए यह भी कहा कि आप चाहते हैं तो मैं नहीं जाऊंगा। लेकिन हरिवंश जी का जवाब हरि जी की बातों से से मेल नहीं खाया।

उन्होंने कहा- अभी तुम जाओ, मैं नहीं रोकूंगा, पर इतना वादा करो कि जिस दिन मैं तुम्हें पैसे देने लायक हो जाऊं, उस दिन आने से तुम मना नहीं करोगे। मैंने कहा, आप कहें तो अभी रुक जाता हूं। उन्होंने मना कर दिया। शाम तक मुझे पैसे मिल गये और रात की बस पकड़ कर मैं गांव के लिए निकल गया। हिसाब लेने के वक्त तक मैं हरिनारायण जी से कन्नी काटता रहा। मुझे बस तक छोड़ने संजय सिंह आये थे। ये वही संजय सिंह हैं, जो अभी भास्कर के जमशेदपुर संस्करण के संपादक हैं।

संजय सिंह से दोस्ती की भी एक कहानी है। वह प्रभात खबर के अंग्रेजी संस्करण में प्रूफ रीडर हुआ करते थे। घनश्याम श्रीवास्तव भी उनके साथ थे। 1989 में नए प्रबंधन के हाथ जब प्रभात खबर आया तो उसके अंग्रेजी संस्करण को बंद करने का फैसला हुआ। तकरीबन कुछ दिनों तक संस्करण सस्पेंड रहा। फिर सबको बुला कर प्रबंधन ने हिसाब थमाने की योजना बनाई। जो लोग हिन्दी प्रभात खबर में जाने के इच्छुक थे,उनके लिए दरवाजा खोल दिया गया। इसी दरवाजे से यशोनाथ झा, अनिल झा, घनश्याम श्रीवास्तव का प्रवेश तब प्रभात खबर में हो गया। कुछ लोग इस बात पर अड़े रहे कि अंग्रेजी संस्करण खुलवा कर ही रहेंगे। यूनियन बनी। संजय सिंह उसके सेक्रेटरी बनाये गये। कुछ दिन तो अकड़ में रहे, पर अपने कुछ साथियों को चुपचाप प्रभात खबर में काम करते देखा तो हताश हो गये। इसी हताशा के दौरान वह मेरे संपर्क में आये। कभी विज्ञापन तो कभी अंग्रेजी की कुछ सामग्री का अनुवाद कर दिया करते थे।

एक दिन पता चला कि अंग्रेजी वालों को थोक के भाव बुलाया गया है और उनको हिसाब देकर टरकाया जा रहा है। मैंने हरिनारायण जी के माध्यम से हरिवंश जी को कहलवाया कि संजय को हिन्दी में ले लिया जाये। हरिवंश जी उस दिन दफ्तर नहीं आये थे। शायद विवाद का भय रहा होगा। उन्होंने सूचना भिजवायी कि संजय को दफ्तर आने से आज मना कर दें। बाद में देखा जायेगा। मैंने संजय सिंह को मना कर दिया। शाम में उन्होंने बताया कि जिन्हें हिसाब थमा दिया गया था, वे उनके घर पहुंच कर हंगामा कर रहे थे। खैर, जब मेरे जनसत्ता जाने की बात पक्की हो गयी तो मैंने हरिवंश जी से मुलाकात के दौरान संजय को प्रभात खबर में ले लेने के लिए आग्रह किया था। उन्होंने तब यही कहा था कि देखेंगे। जब मैं जनसत्ता चला गया तो हरिवंश जी ने कलकत्ता आने पर मुझे बताया कि तुम्हारे लड़के का काम कर दिया है। मुझे याद नहीं आ रहा था कि किस लड़के का काम। पूछा तो उन्होंने बताया कि संजय के बारे में तुमने कहा था न, उसे ज्वाइन करा लिया है। संजय सिंह ने बाद में मुझे यह जानकारी दी थी। मेरे अंदर एक ऐसा गुण है,जिसकी हरिवंश जी मेरे संपादक बन जाने पर अक्सर तारीफ करते थे और अपने अंदर उसका अभाव महसूस करते थे। वह कहते कि मेरे अंदर धैर्य का भंडार है और वह अतिशय अधैर्यवान हैं।

मेरे अंदर धैर्य की एक सबसे बड़ी वजह शायद यह रही कि परिस्थितियों ने इतनी उठा-पटक मेरी जिंदगी में की, जिसमें धैर्य ने ही मुझे जिंदा रहने की तसल्ली दी। वर्ना बहन के विवाह में दहेज के लिए ससुरालियों का हड़बोंग मचाना, स्कूली जीवन में असमय अभिभावक की भूमिका का निर्वाह, परिवार की परविरिश की चिंता ने मुझे कब का लील लिया होता। आज जब मामूली परेशानी से घबड़ा कर किसी की आत्महत्या की खबर सुनता-पढ़ता हूं तो असमय अपनी परिस्थियों के खेल को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने प्रतिकूलताओं में भी जीने की कला सिखायी।

जीवन में मैंने दो बातों का शिद्दत से एहसास किया है। जिद और जद्दोजहद में बड़ा फर्क होता है। कई लोग जीत के लिए जिद्द करते हैं, जद्दोजहद से परहेज करते हैं। मैं जीत के लिए जद्दोजहद करता रहा रहा हूं, जिद्द कभी नहीं की। कभी ट्यूटर, तो कभी मास्टर या कस्बाई पत्रकार बन कर जीत के लिए मैंने जद्दोजहद की। महज जिद्द ठान कर बैठ नहीं गया। प्रभात खबर से मेरा पहला इस्तीफा अक्तूबर 1991 में हुआ था। अगस्त1990 में मेरी ज्वाइनिंग हुई थी। यानी सवा साल के भीतर प्रभात खबर छोड़ दिया। इस्तीफे के बाद घर गया। खुशखबरी परिवार वालों को दी और दो दिन बिता कर पांच अक्तूबर को नई यात्रा के लिए निकला। पहले रांची आया और विदाई के बाद 6 अक्तूबर 1991 को कलकत्ता के लिए ट्रेन से रवाना हुआ।

विदाई के दिन का एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है। सुबह हरिवंश जी से मिला और बताया कि आज रात निकल जायेंगे। उस दिन उन्होंने टेलीग्राफ का एक पेज दिया, जिसमें बढ़ती महंगाई पर सामग्री थी। उन्होंने कहा कि इसे बनवा दो। यह तबके संपादकों के साथ अपने मातहतों के रिश्ते होते थे। जो जा रहा है, उसे साधिकार कोई संपादक काम सौंप रहा है। मैंने अनुवाद कर सामग्री कंपोज कराई, प्रूफ पढ़ कर पेज बनवा दिया। तब पेज की पेस्टिंग होती थी। उसका लेआउट भी ठीक टेलीग्राफ की तर्ज पर बनवाया। पेज हरिवंश जी को दिखाया तो उसकी सुंदरता देख कर वह बहुत खुश हुए। इस तरह मैं सप्रेम प्रभात खबर से विदा हुआ।

अगले दिन रंजीव, विनय जी और मैं कलकत्ता पहुंचे। एक दिन तो होटल में गुजारा। पहली रात सेंट्रल एवेन्यू के किसी छोटे होटल में ठहरे। तीनों मित्र टैक्सी से बीके पाल एवेन्यू के लिए निकले। भाषा समस्या तो थी, पर रंजीव को थोड़ी आती थी। इसलिए कि उनकी ननिहाल बांकुड़ा में थी। वहीं आते-जाते उन्हें बांग्ला का ज्ञान हुआ था। हम लोग हिन्दी में बात कर रहे थे। उसी टैक्सी में सेंट्रल एवेन्यू से एक और सज्जन चढ़े, जो हमारी हिंदी में बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने हिन्दी में ही पूछा- आपलोग कहां आये हैं?कलकत्ता में किसी अनजान के मुंह से हिन्दी सुन कर मन खुश हुआ। उन्हें शायद श्याम बाजार जाना था। उनसे हमलोगों ने जनसत्ता वाली बात बतायी तो उन्होंने हमें बता दिया कि यहां उतर कर बायीं तरफ सीधे चले जायें। दाहिनी ओर एक दुर्गा मंदिर मिलेगा, उसके पास ही बीके पाल एवेन्यू है। उन्होंने अपना नाम अक्षय उपाध्याय बताया। उनकी शुद्ध और स्पष्ट हिन्दी सुन कर तब मन को बड़ा सुकून मिला था। जब कलकत्ता रहने लगे, तब मालूम हुआ कि वह सेंट्रल एवेन्यू में खादी के कपड़ों की दुकान चलाते थे और कवि-लेखक के रूप में वहां उनकी पहचान थी। यह भी सुना कि उन्होंने किसी हिन्दी फिल्म के लिए गाने भी लिखे थे।

दिन भर हम लोग दफ्तर में रहे। कई जगहों से लोग आये थे, इसलिए पहला दिन मिलने-जुलने और जान-पहचान में ही चला गया। पहले ही दिन जो साथी मिले, उनमें पलाश विश्वास, सुमंत भट्टाचार्य, दिलीप मंडल,अनिल त्रिवेदी, गंगा प्रसाद, प्रकाश चंडालिया, साधना शाह, दिनेश ठक्कर, राजेश्वर सिंह, प्रमोद मल्लिक, प्रभात रंजन दीन, अरविंद चतुर्वेद, कृपाशंकर चौबे, मान्धाता सिंह, दीपक रस्तोगी, कृष्णा शाह (जो नाम याद आ रहे हैं) थे। उनमें सबसे एक्टिव सुमंत भट्टाचार्य दिखे। तब लगा कि वह शायद किसी बड़े ओहदे पर हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो मुझसे एक इंक्रीमेंट नीचे उपसंपादक बनाये गये थे। अमित प्रकाश सिंह समाचार संपादक और श्याम आचार्य संपादक बन कर आये थे।

वर्ष 1995। तारीख ठीक-ठीक याद नहीं। रांची स्थित उषा मार्टिन के रोप वायर प्लांट का माजर्नाइजेशन हुआ तो कंपनी ने अपनी पीआर एजेंसी के माध्यम से कोलकाता (तब कलकत्ता) के पत्रकारों की एक टीम को प्लेन से प्लांट दिखाने का न्योता भेजा। उस वक्त में जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में बिजनेस रिपोर्टर का काम देख रहा था। टिकट मेरे नाम से भी बना। मैंने अपने तत्कालीन न्यूज एडिटर अमित प्रकाश सिंह (त्रिलोचन शास्त्री जी के पुत्र) को बताया कि उषा मार्टिन का प्लांट देखने रांची जा रहा हूं। उन्होंने कहा कि बिना अनुमति लिए आपने टिकट क्यों लिया। मेरा जवाब था कि टिकट पीआर एजेंसी ने बनवाया है। जब टिकट आया तो आपको बता रहा हूं। बहरहाल, उनकी नाराजगी के बावजूद मैं रांची की यात्रा पर निकल गया।

रांची पहुंच कर शाम को मैंने हरिवंश जी (संप्रति राज्यसभा के उपसभापति) को फोन किया। उन्होंने कहा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं आज मैं आफिस नहीं गया। तुम कल जरूर मुझसे मिलना। अगले दिन हम लोग प्लांट देखने गये। हरिवंश जी ने यशोनाथ झा को हरिवंश जी ने प्लांट भेजा इस आदेश के साथ कि अश्क को साथ लेकर आइएगा। झा जी तब प्रभात खबर में थे। वह हाल ही में हिन्दुस्तान रांची से सेवानिवृत हुए हैं।

मैंने कोलकाता वापसी का प्लान कैंसल कर सीवान अपने घर जाने का कार्यक्रम बना लिया था। झा जी को शायद इतना सख्त आदेश था कि उन्होंने उषा मार्टिन की कार छोड़ अपने स्कूटर से ही चलने का आग्रह किया। बिछड़े दोस्तों से जब मुलाकात होती है तो आदमी इतना मुग्ध हो जाता है कि उसे प्रोटोकाल जैसी बात का ख्याल भी नहीं रहता। मैं उषा मार्टिन का मेहमान बन कर गया था। मुझे स्कूटर से जाने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन दोस्त के मिलने की खुशी में मैं झा जी के स्कूटर पर पीछे बैठ कर प्रभात खबर पहुंचा।

हरिवंश जी से मिला। काफी देर तक बातचीत हुई। प्रसंगवश यह बताना चाहता हूं कि जनसत्ता में जाने के बाद भी मैं हरिवंश जी से नियमित संपर्क में था। उनसे कई बार आग्रह भी कर चुका था कि मुझे यहां काम नहीं करना। आप बुला लीजिए। एक बार तो मैंने प्रभात खबर रांची में काम करने वाले एक पिउन प्रमोद से चिट्ठी हरिवंश जी को भेजी कि अगर आप रख सकते हैं तो बुला लीजिए, वर्ना मैं जनसत्ता की नौकरी छोड़ घर लौट जाऊंगा। जब उन्हें चिट्ठी मिली तो उन्होंने दिन में फोन किया। तब मोबाइल नहीं था और जो फोन नंबर उनको कभी मैंने दिया था, वह हमारे संपादक श्यामसुंदर आचार्य का था। उसी नंबर पर हरिवंश जी ने फोन किया और कहा कि अश्क से बात करनी है, मैं हरिवंश बोल रहा हूं। श्यामजी हरिवंश जी को जानते थे। उन्होंने बताया कि अश्क जी शाम को आएंगे, तब मैं उनसे बात करूंगा। चूंकि मेरी नियुक्ति रिपोर्टर कम सब एडिटर के रूप में हुई थी, इसलिए दिन में मैं रिपोर्टिंग करता और शाम को खबरें लिख-संपादित कर पेज बनवा कर देर रात 11.40 बजे की लोकल ट्रेन से तकरीबन 35 किलोमीटर दूर श्यामनगर स्टेशन के पास गारुलिया पहुंचता।

खैर, शाम को दफ्तर आया तो पता चला कि श्यामजी बड़ी बेताबी से मेरा इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिला तो उन्होंने बताया कि हरिवंश जी का आपके लिए फोन आया था। फिर उन्होंने ही अपने फोन से हरिवंश जी का नंबर मिला कर मुझे दे दिया। उधर से हरिवंश जी ने सीधे कहा कि अभी इस्तीफा मत देना। मैं जल्दी ही कुछ करता हूं। चूंकि मेरे सामने श्यामजी थे, इसलिए हूं, हां, जी बोल कर ही मैंने काम  चला लिया।

उषा मार्टिन का प्लांट देखने रांची जाना मेरे लिए एक नये अवसर की दहलीज साबित होने वाला है, यह मुझे पता नहीं था। मैं जब हरिवंश जी से मिला तो उन्होंने मेरे लिए एक काम सोच रखा था। बताया कि हर हफ्ते चार पेज का बिजनेस पुलआउट बनाना है, जो सोमवार को अखबार के साथ सप्लीमेंट के तौर पर बंटेगा। इसकी कंटेंट प्लानिंग से लेकर एक्जीक्यूशन तक मुझे करना है। मैंने उनको सलाह दी कि इससे बढ़िया यह होगा कि बारह पेज का एक साप्ताहिक अखबार क्यों न बिजनेस का बनाया जाये, जो एक दिन प्रभात खबर के साथ फ्री बंटेगा और बाकी छह दिन इसकी ओपन मारेकिटंग होगी। इसके फायदे भी मैंने बताये कि स्वतंत्र अखबार होने पर विज्ञापन भी आएंगे। हां, एक सलाह और दे डाली कि इसका प्रकाशन केंद्र कोलकाता होगा। प्रभात खबर के साथ फ्री बांटने पर उसके प्रसार संख्या के बराबर इसकी भी प्रसार संख्या पक्की हो जाएगी, जिसके आधार पर विज्ञापन की मार्केटिंग करनी आसान होगी।

हरिवंश जी को मेरा प्रस्ताव पसंद आ गया। उन्होंने कहा कि एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट बना कर भेजो। जितनी जल्दी हो सके, यह काम करो। तुम्हारी नियुक्ति सीनियर न्यूज एडिटर के पद पर होगी और अभी तुम्हें 8000 रुपये मिलेंगे। तुम्हारा अप्वाइंटमेंट लेकर हम कलकत्ता आ रहे हैं। तब मुझे जनसत्ता में 6200 के आसपास मिलते थे और पद सब एडिटर कम रिपोर्टर का था।

आप कल्पना कर सकते हैं कि मुझे कितनी खुशी हुई होगी। अपने न्यूज एडिटर की इच्छा के विरुद्ध मैं टूर पर गया था, उसकी अब मुझे कोई परवाह नहीं थी। रांची से मैं पहले सीवान गया। प्लांट विजिट की एक खबर बनायी और फ्री में फैक्स करने के लिए मिले कार्ड से सीवान पोस्ट आफिस से कोलकाता खबर भेज दी। वहां से एक-दो दिन बाद कोलकाता लौटा।

कोलकाता में मेरे एक मित्र हैं नवीन राय। वह तब जनसत्ता में स्ट्रिंगर थे। उनको भरोसे में लेकर दूसरे दिन मैंने प्रोजेक्ट रिपोर्ट रांची भेजवायी। रिपोर्ट सबने ओके कर दी। नवीन की हरिवंश जी ने तारीफ भी की थी कि बड़ा प्यारा और भरोसे का लड़का है। नवीन को आने-जाने का किराया भी दिलवा दिया।

29 अप्रैल को हरिवंश जी कोलकाता पहुंचे। तब एक जेनरल मैनेजर पी.के. सेन (जिन्हें हम टोका दा कहते थे) थे। हरिवंश जी ने मुझे उषा मार्टिन आफिस बुलाया और बधाई देते हुए टोका दा के साथ मेरा अप्वाइंटमेंट लेटर मुझे थमा दिया। एक मई तक ज्वाइन करना था।

मैंने अपनी यह खुशी जनसत्ता में क्राइम बीट पर काम कर रहे प्रभात रंजन दीन को बतायी थी। इस्तीफा कैसे दिया जाये, यह मेरे लिए बड़ी मुसीबत थी। इसलिए मेरे संपादक श्यामजी मुझे भ्रातृवत प्यार करते थे। बड़ी हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन मैं इस्तीफा लेकर गया। उसी दौरान फोटोग्राफर फोटो लेकर आ गया। श्याम जी ने कहा- देखो तो अश्क जी, यह फोटो ठीक रहेगी क्या। मेरी बोलती बंद। मैंने हां तो कह दी, पर अपनी बात कैसे कहूं। जैसे ही फोटोग्राफर निकला, मैंने इस्तीफा उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा- भैया, मुझे एक अच्छा आफर मिला है। वह पत्र पढ़ने लगे। रिवाल्विंग चेयर को दायें-बायें करते वह पूछते भी रहे कि क्या आफर है, कहां का है। मैंने बताया। तब तक अमितजी प्रवेश कर गये। उन्होंने पत्र उनकी ओर बढ़ा दिया, यह कहते हुए कि अश्क जा रहे हैं। वह पत्र पढ़ने में मशगूल हो गये और मैं बाहर निकल गया।

कई बार चीजें इस रूप में बदल जाती हैं कि आपकी कल्पनाओं में दूर-दूर तक उसका कोई स्थान नहीं होता। मेडिकल की पढ़ाई किया व्यक्ति संत बन जाता है तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाला बुद्ध का अनुनायी बन अलख जगाने के लिए सारी हुनर को किनारे कर देता है। अपने जीवन में ऐसे दो लोगों के बारे में जानता हूं। एक हैं बिहारवासी संभ्रांत परिवार के भाईश्री और दूसरे मिले भंते तिस्सावरे। एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर चुके भाईश्री कोलकाता के किसी सुदूर इलाके में संत जीवन जीते हुए अध्यात्म के अध्येता अब भी बने हुए हैं तो तिस्सावरे आटोमोबाइल इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ बुद्ध के संदेशों के प्रचार में लगे हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिन्दी से ग्रेजुएट को शेयर बाजार और आर्थिक मामलों की समझ विकसित करने का अवसर हरिवंश जी ने दिया।

जिस प्रस्तावित बिजनेस साप्ताहिक की परिकल्पना मैंने की थी, उसका नाम- कारोबार खबर था। 12 पेज का ब्राडशीट पर वह छपता था। मेरी दूरदृष्टि यह थी कि अभी इसका प्रकाशन साप्ताहिक होगा। इसी बहाने आर्थिक पत्रकारों की टीम तैयार होगी और आगे चल कर इसे दैनिक में बदल दिया जाएगा। तब हिन्दी में बिजनेस के अखबार नहीं थे। अंग्रेजी में दो उल्लेखनीय अखबार थे- इकोनामिक टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड। उसी तर्ज पर आठ पेज पिंक पेपर में और चार पेज ह्वाइट पेपर में छापने की योजना बनायी।

अखबार की पहली डमी तैयार की और उसे एक्सपर्ट के पास हरिवंश जी ने भेजवाया। जो फीडबैक मिले, उससे हरिवंश जी इतने उत्साहित थे कि इसे उन्होंने ड्रीम प्रोजेक्ट कहना शुरू किया। इस आलेख के साथ आप उनकी हाथ से लिखी चिट्ठी देखें, जिसकी पहली लाइन ही मेरे उत्साह की सीमा तोड़ देती है। उन्होंने लिखा कि डमी देख कर हम सभी का उत्साह बढ़ा है। पहले ही प्रयास में तुम स सफल दिख रहे हो। फिर और ज्ञान की बातें हैं। चिट्ठी की बातें लिखना दोहराव होगा, क्योंकि उसकी फोटो आप इस लेख के साथ देख पायेंगे।

बहरहाल, प्रोजेक्ट रिपोर्ट के मुताबिक हर महीने सारे खर्च एक लाख रुपये आंके गये थे और दो लाख रुपये महीने कमाई का लक्ष्य तय किया गया। टीम भी पांच-छह लोगों की ही बनी। इनमें कौशल किशोर द्विवेदी (संप्रति प्रभात खबर के गया संस्करण के संपादक), सुशील कुमार सिंह (अभी बिजनेस हेड, प्रभात खबर, बंगाल), इंद्रजीत सिंह (संप्रति संपादकीय विभाग, दैनिक जागरण, कोलकाता), विजय मिश्र (गुवाहाटी में सेंटिनल में काम करते वक्त मेरे वरिष्ठ साथी), नवीन राय (अभी प्रभात खबर, कोलकाता), नवीन श्रीवास्तव (अभी संपादकीय विभाग, प्रभात खबर, कोलकाता) एकाउंट्स के लिए उषा मार्टिन के चेयरमैन के पीए का साला दक्षिण भारतीय दुबला-पतला युवक वेंकटेश और एक पिउन जेम्स थे। फिलवक्त इतने ही नाम याद रहे हैं। दो लड़किया भी थीं। इनमें एक का नाम शायद मधुमिता था। मधुमिता मेरे एक बंगाली रिपोर्टर मित्र की परिचित थी। विज्ञापन के लिए कोई अलग से आदमी नहीं था। कमीशन के आधार पर एसके पांडेय थे और एक और उनके साथ एक क्रिश्चियन लड़का था। मधुमिता का तत्कालीन उद्योग राज्यमंत्री विद्युत गांगुली से अच्छा संबंध था। वह उसे बेटी की तरह मानते थे। उसकी वजह से ही मैं गांगुली दा के संपर्क में आया। वह भी श्यामनगर की तरफ ही रहते थे।

हरिवंश जी के बारे में हमेशा कहता रहा हूं कि वह मीडिया मैनेजमेंट के मेरे गुरु रहे हैं। उन्होंने सलाह दी कि प्रवेशांक में इतनी रकम का विज्ञापन कर लो, जो तुम्हारा कार्पस फंड बन जाये। हर महीने का नियमित खर्च अपनी योजना के तहत जुटाओ। हम लोगों ने वैसा ही किया। यह हिन्दी पत्रकारिता का लैंडमार्क कहा जायेगा कि अपने रिपोर्टरों के सहयोग से डनलप, आईटीसी, हिंडाल्को, बर्जर पेंट और राज्य सरकार जैसे संस्थानों से तकरीबन 12 लाख रुपये के विज्ञापन हम लोगों ने प्रवेशांक में ही जुटा लिए। यह रकम मेरे एक साल के खर्च के लिए पर्याप्त थी।

राज्य सरकार का विज्ञापन लेने की भी एक कहानी है। कारोबार खबर साप्ताहिक था। उसे अभी आरएनआई नंबर भी नहीं मिला था। लांचिंग की तारीख और स्थान तय हो गये। होटल ग्रैंड ओबेराय में लांचिंग समारोह था। इसे यादगार बनाने के लिए मैंने लांचिंग समारोह के लिए जिन नामों का चयन किया था, उसमें तत्कालीन केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री देवी पाल, मुख्यमंत्री ज्योति बसु, उद्योग राज्य मंत्री विद्युत गांगुली और कई उद्योपतियों को न्योता भेज उपस्थिति का आग्रह किया।

इसी क्रम में मैं विद्युत गांगुली से मिलने तब के सचिवालय राइटर्स बिल्डंग गया। उनसे बांग्ला में बात करनी चाही। बांग्ला मुझे पूरी तरह आती नहीं थी। उनसे इतना भर कहा- दादा, आमी चाइछिलम…। उसके बाद क्या बोलना है, बोल नहीं पाया। इस पर तपाक से उन्होंने कहा- हम बोला था कि तुम हमसे हिन्दी में बात करना। हिन्दी में बोलो क्या कहना चाहते हो। मैंने बताया कि कार्यक्रम में ज्योति बाबू को बुलाना चाहते हैं। उन्होंने पूछा- चिट्छी किया है। मैंने उनकी ओर बढ़ा दी। वह बोले, अभी इनसे बात करो और एक साल के खर्च के लिए विज्ञापन की बात कर लो। बातचीत में पता चला, वह तो खादिम (फूटवीयर) के मालिक थे।

गांगुली दा चिट्ठी लेकर ज्योति बाबू के पास चले गये। लौट कर बताया कि वह उस दिन नहीं रहेंगे, दिल्ली जा रहे हैं, कोई मीटिंग है। उन्होंने मुझे जाने को कहा है। फिर पूछा कि खादिम के मालिक से बात कर ली। मैंने हां कहा। इसके साथ ही मैंने एक और समस्या रख दी। मैंने कहा कि ग्रैंड होटल में कार्यक्रम है, 60 हजार रुपये खर्च का बंदोबस्त नहीं हो पा रहा है। उन्होंने किसी से बांग्ला में फोल पर बात की। फोन रख कर कहा- सेंड समवन टू डब्लूबीआईडीसी एंड कलेक्ट ए बिग साइज ऐड (किसी को वेस्ट बंगाल इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कार्पोरेशन भेज कर एक बड़े साइज का ऐड मंगा लो)।

अमूमन ऐसा होता है कि आदमी अपनी औकात से अधिक की न तो मांग करता है और न उम्मीद करता है। लौट कर मैंने मधुमिता को ही वहां भेजा। मेरा अनुमान था कि क्वार्टर पेज का ऐड होगा। क्योंकि इससे अधिक की उम्मीद ही मैं नहीं कर सकता था। जब वहां से रिलीज आर्डर के साथ आर्टवर्क लेकर मधुमिता लौटी तो वह पूरे पेज यानी हमारी विज्ञापन दर के हिसाब से 60000 रुपये का ऐड था। किसी को अवांछित या असमय कामयाबी मिलने पर जो खुशी होती है, वैसी ही खुशी मुझे हुई। हमारे जेनरल मैनेजर पीके सेन साहब का कहना था कि अभी तो आरएनआई नंबर तक नहीं है, इसका पेमेंट फंस जायेगा। इसे न छापना ही बेहतर होगा। मैंने कहा कि दादा, जिसने विज्ञापन दिलाया है, उस पर मुझे पूरा भरोसा है। आखिरकार वि5पन छपा और 15 दिनों के अंदर उसका भुगतान भी हो गया।

सपना सभी देखते हैं, पर साकार सभी सपने नहीं होते। असफलता के ज्ञात-अज्ञात कारण और सहज-असहज स्थितियां अनायास उत्पन्न हो जाती हैं। कारोबार खबर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इसकी उम्र दो साल की ही रही।

बहरहाल, कारोबार खबर का कार्यालय जिस 14, प्रिंसेप स्ट्रीट, कोलकाता के पते वाली बिल्डिंग में था, उसके सारे दफ्तर शाम पांच-छह बजे तक बंद हो जाते थे। दरवान सबके निकलने के बाद गेट पर ताला लगाता और फिऱ दारू पीकर टुन्न हो जाता। प्रवेशांक के लिए सभी साथी तकरीबन रात 10 बजे दफ्तर में जमे रहे। पेस्टिंग हो जाने के बाद छपाई के लिए सारे पन्ने लेकर एक आदमी अगली सुबह जमशेदपुर जाने वाला था। प्रभात खबर के जमशेदपुर वाली मशीन पर उसकी छपाई का शिड्यूल बना था।

काम खत्म कर हम सभी नीचे उतरे  तो गेट के ग्रिल में ताला जड़ा था। हम लोगों ने दरवान को आवाज लगायी। उसका कहीं पता नहीं चल रहा था। काफी देर तक ताला खटखटाया। दो परेशानी एक साथ थी। एक तो किसी ने खाना नहीं खाया था और दूसरे साथ में वह लड़की भी थी, जिसने सरकारी विज्ञापन का इंतजाम कराने में मदद की थी। दिनभर की खटना ने सबको दुखी कर दिया। सभी दरवान जी-दरवान जी कह कर एक साथ पुकारने लगे। अंत में कहीं से दरवान जी प्रकट तो हुए, पर इस संदेह की नजरों के साथ कि इतनी रात को किसी लड़की को लेकर ये छोकरे क्या कर रहे हैं। उसने कुछ अनापशनाप कहा, तब तक मेरे साथियों में किसी ने उस पर हाथ चला दिया। मैं बीचबचाव करने गया तो दरवान का जवाबी घूंसा मेरे थोबड़े पर लगा। क्षण भर के लिए आंखों के सामने अंधेरा छा गया। यह देख मेरे साथियों ने उसकी इतनी धुनाई कर दी कि मामला पुलिस थाने तक पहुंचने की नौबत आ गयी। खैर, किसी तरह हम वहां से अपने-अपने घरों को निकल गये।

अगले दिन डर यह था कि कहीं उसने पुलिस में रपट तो नहीं लिखा दी। दूसरा डर यह पैदा हुआ कि कल का बदला वह कुछ और साथियों को लेकर न साध ले। इस डर के मारे आफिस न जाना भी कायरता कहलाती और यह कामकाज की दृष्टि से भी उचित नहीं लगता। इसलिए भीतर से सहमे, पर बाहर से दृढ़ता दिखाते हुए सबसे पहले मैं आफिस पहुंचा। इस बीच दरवान ने इसकी शिकायत उस बिल्डिंग में चलने वाले उषा मार्टिन के दूसरे दफ्तरों के लोगों से कर दी थी।

उषा मार्टिन के एक कर्मचारी थे सरकार बाबू। वे मेरे पास आये और कहा कि आप लोगों ने दरवान को मारा है। घूंसे की चोट से मेरी ठुड्डी पर सूजन आ गयी थी। खैरियत थी कि मैं तब भी चेहरे को दाढ़ी से ढंके रहता था, जो आज तक बरकरार है। मैंने सरकार बाबू से कहा कि उसे बुलाइए। वह आया और बड़ी साफगोई से बताया कि इन लोगों की मार से इतना दर्द हुआ कि दारू पीकर उसे राहत लेने की नौबत आ गयी। मैंने कहा कि तुमने मेरा चेहरा देखा और दाड़ी को इधर-उधर हटा कर दिखाया भी कि देखों तुम्हारे घूंसे की वजह से मुझे कितनी चोट पहुंची है। मौंने इसके साथ ही धौंस दिखाई कि यही दिखा कर मैं तुम्हें अभी हवालात भेजवा सकता हूं। यह सुनते ही उसके चेहरे से हवाई उड़ने लगी। सरकार बाबू को मैंने यह कह कर जाने के लिए कहा कि मैं इनसे खुद बात कर लेता हूं। वह चले गये तो मैंने कहा, मुझे पता है कि आपको चोट काफी आई है। जाकर इलाज कराइए। उसे बीस रुपये भी दिये।

धूमिल की कविता की वह पंक्ति मुझे बरबस याद आती है- दायें हाथ की नैतिकता से बायां हाथ इस कदर दबा होता है कि जीवन भर….धोने का काम वही करता है। वह मेरी बीस रुपये की नैतिकता से इस कदर दबा कि दो साल तक वहां से कारोबार खबर का प्रकाशन होता रहा और उसने हम लोगों के निकलने से पहले कभी गेट बंद नहीं किया। उल्टे वह सलामी दागता रहा। कभीकभार वह त्योहारों के मौके पर बख्शीश के लिए आता भी तो बड़े अदब से पेश आता।

कारोबार खबर का प्रकाशन दो साल तक जारी रहा। इसकी शुरुआत 1995 में तब हुई थी, जब शेयर मार्केट कुलाचें मार रहा था। हर्षद मेहता के शेयर घोटाले के ठीक पहले का वह वक्त था। जिस तेजी से शेयर बाजार का सेंसेक्स बढ़ रहा था, उससे यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि इतनी तेजी क्यों है और कभी यह थमेगी भी कि नहीं। अखबार की शुरुआत के कुछ ही महीनों बाद इस तेजी के रहस्य से पर्दा हट गया, जब हर्षद मेहता प्रकरण उजागर हुआ। उसके बाद बाजार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो थमने का नाम नहीं ले रहा था। 1996 के अंत तक मुझे अहसास होने लगा था कि गिरावट का यह दौर लंबा चलेगा। इस अनुमान के पीछे शेयर मार्केट विशेषज्ञों के साथ मेरा उठना-बैठना था। अब लगने लगा कि मैंने साप्ताहिक से दैनिक करने का जो सपना देखा था, वह शायद अधूरा रह जाएगा और इसके चक्कर में मेरा करियर चौपट हो जाएगा।

एक दिन मैंने हरिवंश जी को कहा कि इसे बंद कर देना बेहतर होगा। इसलिए कि प्राइमरी मार्केट में नये इश्यू आने बंद हो गये थे। विज्ञापन की मूल योजना प्राइमरी मार्केट को ध्यान में ही रख कर बनायी थी। शेयर मार्केट में हजारों लोगों के पैसे डूब गये। बड़े-बड़े शेयर ब्रोकर बर्बाद हो गये। उन्हीं में से कोलकाता की एक कंपनी थी प्रुडेंशियल। वह कारोबार की विज्ञापनदाता कंपनी भी थी। कंपनी दीवालिया हो गयी। मेरी बात से हरिवंश जी शायद सहमत नहीं थे। उनका यह ड्रीम प्रोजक्ट था तो मेरा ब्रेन चाइल्ड। उन्होंने इस मुद्दे पर उषा मार्टिन और अन्य लोगों से विचार-विमर्श किया। उन लोगों ने भी मेरी सलाह को सही ठहराया। आखिरकार मई 1997 में इसे बंद करने का औपचारिक निर्णय हुआ।

बेटे की मौत का सदमा जिसने सहा हो, वही मेरी पीड़ा समझ सकता है। जिस दिन इसे बंद करने का निर्णय हुआ, उसके बाद अपने ब्रेन चाइल्ड को मौत से बचाने के लिए अनगिनत बार मैंने हनुमान चालीसा का पाठ किया होगा। दमदम कैंटोनमेंट स्थित अपने घर से आफिस पहुंचने के तकरीबन घंटे भर की यात्रा में मैं हनमान चालीसा ही पढ़ता कि शायद कोई करामात हो जाये। पर, विधि के विधान को कोई टाल सका है अब तक। अंततः अखबार को बंद करने की सूचना मुझे साथियों को दुखी मन से देनी पड़ी।

पत्रकारिता के धुरंधर कहते हैं कि कंटेंट इज किंग। इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस दक्षिण के लोगों के बारे में माना जाता है कि वे हिन्दी के प्रबल विरोधी हैं, लेकिन वर्षों पहले देवकीनंदन खत्री के लिखे उपन्यास- चंद्रकांता संतति का कंटेंट इतना समृद्ध साबित हुआ कि उन दक्षिण भारतीय लोगों को इसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखनी पड़ी थी।

अखबार को आज के बाजार की भाषा में प्रोडक्ट कहने पर मतभिन्नता हो सकती है। प्रोडक्ट की क्वालिटी ही उसे ब्रांड बनाती है। और, अखबार जैसे प्रोडक्ट की क्वालिटी का कोई पैरामीटर तय किया जाये तो कंटेंट का स्थान सबसे ऊपर होगा। कारोबार खबर के संदर्भ में यह बात बिलकुल फिट बैठती है। कंटेंट में प्रयोगों ने एक अहिन्दी भाषी प्रदेश से निकलने वाले बिजनेस हिन्दी साप्ताहिक की स्वीकार्यता इसके कंटेंट की वजह से ही बनी थी।

प्रोफाइल बनाने में पिता तुल्य और आजीवन अपने अभिभावक पद्मश्री कृष्णबिहारी मिश्र जी की सलाह को मैं कभी भूल नहीं सकता। उन्होंने व्यवसायी वर्ग को आकर्षित करने के लिए दो स्तंभ सुझाये थे। पहला था- एक व्यवसायी का सामाजिक सरोकार और दूसरा स्तंभ था- शून्य से शिखर की ओर। दोनों की उपयोगिता और आवश्यकता को उन्होंने मेरे मानस पटल पर रेखांकित किया था। उन्होंने कहा था कि जिन व्यवसायियों को हम मुनाफाखोर, मिलावट करने वाले या डंडी मार के रूप में चिह्नित कर उनके एक पक्ष पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करते हैं, उनके सिर्फ स्याह पक्ष ही नहीं होते। उनके श्वेत पक्ष पर किसी का ध्यान नहीं जाता। उनका दिया उदाहरण भी अब तक याद है। उन्होंने कहा था कि विश्वभारती (शांतिनिकेतन) में हिन्दी भवन इन्हीं व्यवसायियों ने बनाया। कोलकाता में साहित्यिक गतिविधियों का प्रामाणिक केंद्र भारतीय भाषा परिषद इन्हीं व्यवसायियों की देन है। लाइब्रेरी, अस्पताल, गरीबों के बीच वस्त्र वितरण जैसे कई मानवीय और समाज सेवा के कार्य तो इन्हीं व्यवसायियों ने किये हैं। इसलिए समाजसेवा में लगे उन व्यवसायी के सिर्फ श्वेत पक्ष को उजागर करने का काम करना चाहिए। इससे न सिर्फ अखबार की जगह भरेगी, बल्कि समाज को एक सकारात्मक संदेश मिलेगा। इसके व्यावसायिक लाभ स्वतः सुलभ हो जाएंगे। दूसरा स्तंभ था- शून्य से शिखर की ओर। इसके बारे में उन्होंने कहा कि उन युवा या गतिशील व्यवसायियों को केंद्र कर उनकी उपलब्धियों का बखान होना चाहिए कि किन हालात और मुश्किलात के दौर से वे शून्य से शिखर की ओर अग्रसर हो रहे हैं।

मिश्र जी के दोनों सुझाये स्तंभ कारोबार खबर में काफी हिट हुए। इमामी समूह के मालिक राधेश्याम अग्रवाल, सिंप्लेक्स समूह के विट्ठल दास मूंधड़ा, मीनू साड़ीज के मामराज अग्रवाल (अब स्वर्गीय), गौरीशंकर कायां, शारदा फतेहपुरिया, आनंद लोक अस्पताल समूह के संस्थापक देव कुमार सर्राफ, रीगा चीनी मिल के मालिक ओमप्रकाश धानुका जैसे कुछ नाम याद आ रहे हैं, जिनके सामाजिक सरोकार को रेखांकित करते हुए कारोबार खबर ने लिखा। यह अखबार के प्रसार का सबसे बड़ा टूल था और विज्ञापन का जरिया भी। इस काम में दो लोग लगे थे। कृष्ण बिहारी मिश्र जी के बड़े बेटे कमलेश मिश्र और पुरुषोत्तम तिवारी। कमलेश जी तब सरकारी नौकरी में थे और पुरुषोत्तम तिवारी फ्रीलामसर। बाद में पुरुषोत्तम को शिक्षक की नौकरी मिल गयी। अपरोक्ष तौर पर उनकी नौकरी में कारोबार खबर के बहाने बने संपर्क की बड़ी भूमिका रही थी।

इस प्रयोग का सार्थक परिणाम प्रथमदृष्टया प्रसार बढ़ाने में दिखता। जिस पर्सनाल्टी के बारे में हम लिखते, वे हजार-पांच सौ कापी स्पांसर कर देते और उसका निःशुल्क वितरण मार्निंग वाक के लिए रोज विक्टोरिया मैदान जाने वाले बड़े व्यवसायियों-उद्योगपतियों के बीच होता। कारोबार खबर को आज भी कोलकाता में अगर याद किया जाता है, उसका एक बड़ा व वाजिब कारण यही है।

कारोबार खबर मेरे पत्रकारिता जीवन की प्रयोगशाला साबित हुआ। प्रसार, विज्ञापन, संपादकीय जैसे महत्वपूर्ण कामों के साथ इसका समग्र प्रबंधन हरिवंश जी ने मुझे सौंप दी थी। यानी जेब में जितने पैसे हों, उतने ही खर्च करो या दूसरे शब्दों में कहें तो कमाओ और खाओ। निजी तौर पर मैं मानता हूं कि कारोबार खबर किसी पनसारी की दुकान की तरह मेरे लिए था, जिसके लिए सामान खरीदने के पैसे कंपनी से उधार तो मिल जाते, लेकिन उसे चुकाने और दुकान को आगे बढ़ाने की जवाबदेही-जिम्मेवारी भी मेरी ही होती। यही वजह रही कि तब पांच-सात सौ रुपये की तनख्वाह पर ही लोगों से काम कराने की मजबूरी थी। साथियों में इतने कम पैसे पाने के बावजूद अगर काम का जुनून था तो इसकी एक ही ब ड़ी वजह थी- पारदर्शिता। हमने कितनी कमाई की और कितना खर्च किया, यह सबको पता होता था।

कारोबार खबर के साथियों में कुछ के नाम का जिक्र नहीं कर पाया था। नवीन श्रीवास्तव डेस्क पर थे सब एडिटर की भूमिका में। वह इनदिनों प्रभात खबर के कोलकाता संस्करण से जुड़े हैं। कंपोजिंग के लिए पार्ट टाइम दो साथी विश्वमित्र अखबार से राजेश मिश्र और सुबोध कुमार आते थे। पेस्टिंग के लिए आर्टिस्ट आनंद गुइन पार्ट टाइम जनसत्ता से आते थे। अंतम वक्त में अजय विद्यार्थी भी आये, जो अभी प्रभात खबर के कोलकाता संस्करण में सीनियर न्यूज कोआर्डिनेटर हैं। केंद्र सरकार की नौकरी में थे अशोक सिंह जी, जो अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद के लिए आते थे। अशोक जी पूरी टीम में आर्थिक रूप से अधिक समृद्ध थे। इसलिए रोज सिंघाड़े-और चाय का जिम्मा उनका होता। जाहिर है कि उन्हें कारोबार खबर से जितना मिलता, उससे अधिक खर्च तो वह हम साथियों पर नहीं करते, लेकिन उन्हें कुछ बचता भी नहीं होगा।

कारोबार खबर के दिनों को याद करने के क्रम में लांचिंग की तारीख मेरे लिए काफी महत्व रखती है। कार्यक्रम में उषा मार्टिन समूह के मौजूदा सीएमडी राजीव झवर (तब वह कंपनी के ज्वाइंट एमडी थे शायद), सौ से ज्यादा उद्योगपति और शेयर मार्केट की कोलकाता में रहने वाली बड़ी हस्तियां, तत्कालीन केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री देवी पाल, बंगाल के उद्योग राज्यमंत्री विद्युत गांगुली और उन्ही दिनों नंबर 10 सिगरेट बनाने वाली कंपनी का अधिग्रहण करने वाले उद्योगपति सुंदरलाल दुगड़ आये थे। गांगुली दा तो उद्घाटन के नियत समय से घंटा भर पहले ही श्यामनगर से बाईरोड आ गये थे, लेकिन देवी पाल देर से आये। गांगुली दा ने पूछा कि कार्यक्रम शुरू क्यों नहीं कर रहे हो तो मैंने कहा कि देवी बाबू का इंतजार कर रहे हैं। इस पर उन्होंने बनावटी गुस्सा दिखाया- तब हमको इतना पहले क्यों बुला लिया। फिर प्रेम से कहा, जाओ अपना काम देखो, मैं वेट कर लूंगा।

काली के देस कामाख्या (गुवाहाटी) से शुरू हुई पत्रकारिता का रांची के बाद के बाद कोलकाता दूसरा पड़ाव था। यायावरों की तरह फिर एक बार डेरा-डंडा उखाड़ कर अल्पविराम के लिए गांव का रुख किया। तब मुझे भी नहीं पता था कि अगला पड़ाव कहां होगा। हां, हरिवंश जी ने एक बात यह पूछने पर कि अब कहां, जरूर बतायी थी कि तुम्हें प्रेस्टिजियस सेंटर सौंपेंगे। तब रांची ही प्रभात खबर का प्रेस्टिजियस एडिशन माना जाता था। पटना और जमशेदपुर प्रभात खबर के संघर्षपूर्ण दिन थे। जमशेदपुर में अनुज जी (झारखंड संस्कर के मौजूदा संपादक अनुज सिन्हा) उदित वाणी से आगे निकलने के लिए खुद को झोंक चुके थे और इसके सुखद परिणाम भी दिखने लगे थे। धनबाद और देवघर में तब संस्करण खुले नहीं थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि किस प्रेस्टिजियस सेंटर की बात हरिवंश जी ने कही थी।

बहरहाल, हफ्ते-दस दिन की छुट्टी पर कोलकाता (तब कलकत्ता ही था) को अलविदा कह हम सपरिवार अपने गांव सीवान जिले के कैलगढ़ पंचायत के नबीहाता लौट आये। कोलकाता छोड़ने और परिवार की तरह सदस्य बना चुके साथियों को छोड़ कर आने का कितना दुख रहा होगा, यह मेरी तरह परिस्थितियों का कोई दास ही बेहतर बता सकता है या समझ सकता है।

दस-पंद्रह दिनों की छुट्टी बिना किसी सूचना के महीने भर बढ़ा ली। मन इतना उचाट हो चुका था कि सच कहें तो कोलकाता के सदमे से उबरने में देखते—देखते महीना भर का समय गुजर गया। आखिरकार मैं रांची की यात्रा पर एक अनिश्चित ठौर की कल्पना लिये घर से चला। मेरी जेब में बस का किराया चुकाने के बाद पर्स में पांच सौ रुपये का एक नोट था और किराये से बचे फुटकर 20-25 रुपये जेब में थे। बस में चढ़ते-उतरते किसी ने पर्स उड़ा लिया। खैरियत थी कि बस डायरेक्ट नहीं मिली थी और दो किस्तों में यात्रा प्लान की थी। यात्रा का पहला विराम पटना था और फिर वहां से रांची निकलना था।

पटना में बस से उतर कर अगली बस पर बैठने से कुछ खाने के लिए फुटकर तलाशे तो मिल गये, लेकिन पर्स नदारद था। खैरियत थी कि बस पर सवार होने से पहले ही यह पता चल गया, वर्ना बस में सवार होने के बाद कंडक्टर की कैसी प्रतिक्रिया होती, यह सोच कर आज भी मन सहम जाता है। कुछ देर सोचने के बाद एक बुद्धि सूझी, क्यों ने पटना आफिस चलें और वहां से आफिसियल एडवांस लेकर रांची जायें। फुटकर पैसे तो बचे ही थे, इसलिए रिक्शा लिया और पटना में तब के प्रभात खबर के आफिस के पते एसपी वर्मा रोड के लिए चल पड़ा।

एसपी वर्मा रोड का आफिस आखिरी मंजिल पर था। उम्र भी तब 35037 की रही होगी। लिफ्ट थी नहीं, इसलिए सीढ़ियां चढ़ने लगा। सींढ़ियों का कोई अंत नहीं हो रहा था। जब दफ्तर के भीतर पहुंचा तो सबने खैरियत जाननी चाही और बताने में मुझे पांच मिनट का विलंब करना पड़ा। इसलिए कि सांस फूल रही थी, मुंह से आवाज नहीं आ रही थी। प्रभात खबर में आज भी उन दिनों के जो साथी हैं, उनसे जब चर्चा होती है तो वे उस बिल्डिंग की सीढ़ियों को दुःस्वप्न की तरह देखते हैं। एक बार जो ऊपर आ जाता था, फिर उतरता नहीं था। शायद 84 या 89 स्टेप थे, जो बिल्कपल उर्ध्वगामी बने थे।

खैर, उन दिनों पटना के यूनिट मैनेजर थे अभय सिन्हा और एकाउंट्स-फाइनेंस का काम देखते थे निर्भय सिन्हा। अभय जी अभी दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में हैं तो निर्भय सिन्हा प्रभात खबर की मुजफ्फरपुर यूनिट देख रहे हैं। मैंने अपनी परेशानी और जरूरत अभय जी को बतायी तो उन्होंने निर्भय सिन्हा को मेरे नाम 200 रुपये एडवांस देने का आदेश दिया। इस बीच शाम हो गयी थी। रात में प्रभात खबर के गेस्टहाउस में ही रुक गया। कोलकाता से आये पिउन प्रमोद वहां रहता था।     वह मेरा कोलकाता के दिनों से ही परिचित था। उसने मछली-भात अपने ही हिस्से से काट कर मुझे खिलाया।

अगले दिन निर्भय सिन्हा ने मुझे 200 रुपये दिये और दिन की किसी बस से हजारीबाग के लिए चला। वह बस भी रास्ते में खराब हो गयी। फिर किसी दूसरी बस से चला, जिसे रामगढ़ तक ही जाना था।

दूध का मुंहजला मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीता है। मैंने किराये के बाद बचे पैसे को एक तरह से ट्ठी में दबा कर रखा। इसलिए एक दिन पहले हादसा हो चुका था। रामगढ़ में बस शाम को पहुंचीष प्यास के मारे दम निकल रहा था तो छह रुपये में मैंने थम्सअप खरीदी और गटक गया। फिर वहां से रांची की यात्रा ट्रेकर से शुरू हुई। मुझे याद है, ट्रेकर वाले ने 15 रुपये किराये लिये और मुझे रात 9 बजे अलबर्ट एक्का चौक (फिरायालाल चौक) पर उतार दिया। इतनी रात कहां जाऊं। आफिस कोकर में था, उतनी दूर पैदल जा नहीं सकता था रात में और 9 बजे के बाद उधर जाने के लिए कोई टेंपो भी नहीं मिला।

बुद्धि भिड़ायी। कुछ दूर पैदल चल कर लालपुर चौक आ गया। वहां होटल न्यू राजस्थान में पहले प्रभात खबर के नाम पर कई बार ठहर चुका था। वहां लगभग सारे लोग परिचित थे। बंदाबादी हो रही थी और उसी में भींगते मैं वहां पहुंचा। एक कमरा देने को कहा तो उसने तुरंत दे दिया। कमरे में कपड़े बदले और अपने रांची पहुंचने की सूचना हरिवंश जी को होटल के फोन से ही दी। उन्होंने इतने विलंब के बारे में पूछा, फिर अगले दिन आफिस में मिलने को कहा।

अगले दिन मैं रांची आफिस गया। गोयनका जी और दत्ता जी को भी हरिवंश जी ने बुला लिया। आपस में पटना प्रस्थान का प्लान बनाया और मुझे पटना कूच करने के लिए कह दिया। तब मुझे लगा मेरा अगला पड़ाव पटना ही बनने वाला है, जिसके बारे में हरिवंश जी ने संकेत दिया था कि तुम्हें प्रेस्टिजयस सेंटर सौंपेंगे।

शौर्य, संस्कार और ज्ञान की धरती पर मेरा नया अवतार था। बिहार का होने के बावजूद पटना शहर को जानने-समझने का अवसर बहुत इसलिए नहीं मिल पाया था कि करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर मेरा लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा के संस्कार संपन्न हुए थे। तब मेरे जैसे लोगों के लिए पटना पहुंचना किसी सुनियोजित तीर्थयात्रा से कम न था। कालेज के दिनों और उसके बाद गिनती की कुछ ही यात्राएं मैंने पटना की की थीं।

पत्रकारिता में परिचय के नाम पर देवेंद्र मिश्र जी (तब हिन्दुस्तान में समाचार संपादक) थे, जिन्होंने मुझे पत्रकारिता का न सिर्फ पहला पाठ पढ़ाया था, बल्कि इसे पेशे के तौर पर अपनाने का अवसर भी चंद्रेश्वर जी के माध्यम मुहैया कराया था। प्रभात खबर समूह से कमोबेश पांच-छह साल (व्यतिक्रम को छोड़ कर) रिश्ते के कारण पटना में मेरे दफ्तर के परिचितों में अविनाश चंद्र ठाकुर, अजय कुमार, अरुण श्रीवास्तव, सियाराम प्रजापति, विश्वकर्मा और प्रमोद जैसे लोग थे। तब यूनिट संभाल रहे अभय सिन्हा भी परिचितों में से एक थे, जिनसे एक-दो मौकों पर ही बातचीत हुई थी या मिलना-जुलना हुआ था।

हरिवंश जी, आरके दत्ता और केके गोयनका जी भी पटना पहुंच चुके थे। मुझे बताया कि आज तुम्हें  आफिस नहीं जाना है। गेस्टहाउस में ही रुको। फिर 10 बजे के करीब वे लोग आफिस के लिए निकल गये। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ। बहरहाल, शाम को वे लोग आफिस से लौटे। इस बीच मैंने प्रमोद (पिउन, जो गेस्टहाउस में ही रहता था) से पता कर लिया था कि अभी संपादकीय प्रभारी कौन है और दूसरे नंबर पर कौन काम देखता है। उसने बताया कि दूसरे नंबर पर अविनाश चंद्र ठाकुर हैं और संपादकीय प्रभारी (प्रमोद की भाषा में संपादक) अविनाश चंद्र मिश्रा है।

रात में तीनों लोग आफिस से लौटे। कुछ न कहा और बताया। सामान्य हालचाल। खाना खाया कि नहीं और फिर प्रमोद को हरिवंश जी का आदेश कि अश्क को भी आम खिलाओ। आम का सीजन तब समाप्ति की ओर था। हमें याद है कि आम का अंतिम सीजन था। हरिवंश जी ही आम लेकर आये थे। हमें भी प्रमोद ने काट कर दिया। कोई बातचीत नहीं हुई। अगले दिन मुझे आफिस आने को कह तीनों वरिष्ठ दफ्तर निकल गये। वहां जाने पर हरिवंश जी ने कहा कि तुम अभी किसी को नहीं बताओगे कि किस रूप में आये हो। दूसरा टास्क सौंपा कि सारी चीजें समझो। घाटे में यह संस्करण चल रहा है, इसे कैसे पाटा जाये, इसकी योजना बनाओ। मेरे बैठने की जगह ओपन एडिटोरियल में ही किसी सीट पर कर दी गयी। शायद अविनाश ठाकुर को कुछ संकेत था। संपादकीय का सारा काम वही देखते, लेकिन राय भी ले लिया करते। उसी दिन एक खाली केबिन को देख मैंने ठाकुर जी से पूछा कि इसमें कौन बैठता है। उन्होंने बताया कि अविनाश चंद्र मिश्रा जी बैठते थे। फिर हिस्ता-आहिस्ता सब जान गया कि मुझे पटना संस्करण सौंपने के पीछे की हकीकत क्या था। पता चला कि अविनाशचंद्र मिश्र और दीपक कोचगवे को हटा दिया गया एक ही दिन। किसी को यह न लगे कि उन्हें हटाया गया है, इसलिए बात को गोपनीय रखा गया था, यह कह कर कि वे लोग छुट्टी पर हैं।

मैं अपने हिसाब से संस्करण की आर्थिक हालत सुधारने की योजना में जुट गया। सबसे बड़ी कठिनाई दफ्तर को लेकर थी। एक बार जो सीढ़ियां चढ़ कर आ जाता, वह दोबारा घर जाने के वक्त ही उतरना चाहता था। किराया भी अधिक और कष्ट भी। सर्वाधिक कष्ट रिपोर्टिंग टीम के साथियों को होता था, जिन्हें मीटिंग में आने और फिर रिपोर्टिंग के लिकलने, फिर खबर फाइल करने दफ्तर आने और अंत में घर वापसी के लिए उतरने यानी उन्हें चढ़ते-उतरते चार बार हो जाते।

तय यह हुआ कि कोई नया दफ्तर देखा जाये। श्रीकृष्ण नगर में स्टेट बैंक के सामने वाली गली में एक मकान का चुनाव नये दफ्तर के रूप में किया गया। सबसे बाहरी हिस्से में दो केबिन थे। एक में मैं बैठता और दूसरे में विज्ञापन के लोग। भीतर में दायें-बायें दो कमरे थे। एक में एकाउंट्स का काम देखने वाले निर्भय सिन्हा बैठते थे। दूसरे कमरे में हरिवंश जी के लिए एक टेबल और दूसरा टेबल इंडियन नेशन से नये ज्वाइन किये एक पंचोली जी थे। उन्हें जेनरल मैनेजर बनाया गया था। उनके बारे में गोयनका जी ने मुझे रांची में ही बताया था कि एक अच्छे जीएम आपको मिल रहे हैं। उनका आठ-दस पेज का बायोडाटा भी उन्होंने दिखाया। उस पर मेरा इंस्टैंट रिएक्शन था कि जिसका बायोडाटा जितना भारी होता है, वह नौकरी में टिकाऊ नहीं होता।

आमतौर पर जैसा होता है, कोई बड़ा अधिकारी जहां जाता है, वहां अपने चेले-चपाटियों को स्ट्रैटजिक प्वाइंट पर बैठा देता है। पता चला कि तब तक बिना डीटीपी इनचार्ज के हो रहे काम के लिए उन्होंने 8 हजार रुपये महीने पर बंदप्राय इंडियन नेशन से एक आदमी को रख लिया। ब्लैक एंड व्हाइट के तब छप रहे अखबार के लिए कलर मशीन की जानकारी रखने का दावा करते हुए 3000 रुपये के आदमी को हटा कर 6000 रुपये का आदमी रख लिया। एडिटोरियल में भी वे आर्यावर्त से कुछ लोगों को लाना चाहते थे। कहने का तात्पर्य यह कि एक तरफ खर्च कम कर आमदनी बढ़ाने की जिम्मेवारी उन पर सौंपी गयी और तब तक उनके काम से लग रहा था कि वे लगातार खर्च बढ़ा रहे थे।

मुझे अच्छी तरह पता है दंभ और दावे का फर्क। तभी तो मैं सिर्फ दावा करता हूं कि जब जो काम मिला, मैंने बड़ी ईमानदारी से किया। ट्यूशन, कोचिंग, स्कूल, अखबार यानी अब तक मिले हर काम को मैं बड़ी जिम्मावारी-जवाबदेही से करता रहा हूं। हां, चूक स्वाभाविक है, इसलिए कि आदमी हूं। अगर भूल-चूक किसी से न हो तो वह आदमी नहीं, ईश्वर का अवतार कहलायेगा। मुझे हरिवंश जी ने जिम्मेवारी सौंपी थी कि आकलन कर बतायें कि पटना संस्करण को कैसे चलाया जा सकता है। और, मैं इस काम में आने के साथ ही जुट गया था। अखबार के संपादकीय कामों के अलावा मैं इन्हीं कामों में अपना वक्त बिताता।

मेरा आकलन था कि कई गैरजरूरी पदों पर आरके पंचोली जी ने नियुक्तियां की हैं। कुछ कम पैसे वालों को हटा कर उन्होंने नियुक्तियां की थीं, जिससे नाहक खर्च बढ़ गये थे। तब तकरीबन छह-साढ़े छह लाख रुपये का खर्च प्रभात खबर के पटना संस्करण पर होता था। विज्ञापन से आमद तीन लाख के आसपास थी। राज्य सरकार के विज्ञापन सूची में प्रभात खबर शामिल नहीं हो पाया था। इसके पीछे भी एक कहानी है। बाद में इस प्रसंग पर विस्तार से जिक्र करूंगा। वैसे इतना संकेत काफी है कि प्रभात खबर से तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के संबंध अच्छे नहीं थे। सबका मानना था कि जब तक लालू प्रसाद मुख्यमंत्री रहेंगे, तब तक विज्ञापन शुरू नहीं हो पायेगा।

मैंने खर्च घटाने के बिंदु तलाशने शुरू किये। डाक के कुछ संस्करण उन इलाकों में भेजे जाते थे, जहां अखबार का बंडल कभी खुलता ही नहीं था। जैसे दरभंगा। वहां के तत्कालीन संवाददाता की यह अक्सर शिकायत रहती कि अखबार या तो यहां आता नहीं और आता भी है तो बंटता नहीं। इसलिए कि एजेंट बंडल ही नहीं खोलता। सीधे रद्दी वाले के यहां महीने में बिकता है। ऐसे कम प्रसार संख्या वाले या समय पर न पहुंचने वाले संस्करणों की मैंने पहचान की। मैंने अपनी पूरी रिपोर्ट तैयार कर ली थी। समय-समय पर हरिवंश जी को बताता भी रहता था।

इसी दौरान का एक वाकया याद आता है। हमारे एक संवाददाता होते थे भुवनेश्वर वात्स्यायन (अभी दैनिक जागरण के पटना संस्करण से जुड़े हैं)। वह क्राइम बीट के साथ बिजनेस की रिपोर्टिंग भी करते थे। तब अखबार की प्रसार संख्या इतनी कम थी कि शायद ही कोई कमर्सियल विज्ञापन प्रभात खबर को मिलता। चूंकि कोलकाता में कारोबार खबर के दौरान मैंने एक नुस्खा अपनाया था कि पहले किसी कंपनी की खबर को बढ़िया से छापो और कुछ दिन बाद उससे विज्ञापन की बात करो। किसी कंपनी का कोई प्रेस कांफ्रेंस होने वाला था। उसका इनविटेशन आया था। मैंने भुनेश्वर से कहा कि इसे बढ़िया से छापो। उन्होंने चार कालम की खबर बनायी और वह छप गयी। तब तक दबी जुबान दफ्तर में यह बात सब लोग समझ गये थे कि मैं ही संपादकीय प्रभारी बन कर आया हूं।

अगले दिन सुबह 10.30 बजे मैं दफ्तर रिपोर्टर्स मीटिंग के लिए आया तो पहले भुवनेश्वर ने बताया कि पंचोली जी हम से पूछ रहे थे कि इतनी बड़ी खबर क्यों छापी। इतने स्पेश का पैसा विज्ञापन की दर पर तुम्हारी तनख्वाह से काटेंगे। उन्होंने सपाट जवाब दिया कि खबर बनाना मेरा काम है और छापना डेस्क का। संपादक जी से पूछिए। वैसे भी मेरी तनख्वाह से काटते रह जाएंगे, इसलिए कि मेरी तनख्वाह ही कितनी है। तब उन्हें 1200 या 1500 रुपये ही मिलते थे। पंचोली जी को इस तरह के जवाब की अपेक्षा नहीं थी। शायद उनकी मंशा रही हो कि वह उनके सामने गिड़गिड़ा कर माफी मांग लें। बहरहाल, जब मैं दफ्तर आया तो अशोक (आज भी पिउन के ही स्टेटस में प्रभात खबर, पटना में हैं) ने हाथ से लिखा एक शो काज नोटिस मुझ से रिसीव कराया। उसमें लिखा था- इतनी बड़ी खबर कैसे छप गयी, 24 घंटे के अंदर कारण बताएं। मैंने नोटिस रिसीव तो कर लिया, लेकिन चुप ही रहना बेहतर समझा।

शाम को घर निकलते वक्त पंचोली जी को मैं एडिटोरियल में दिख गया तो उन्होंने मुझसे कहा- आपने नोटिस का जवाब नहीं दिया अब तक। मैंने कहा- दे दूंगा समय पर। तब तक उन्होंने तेज आवाज में मुझे हड़काने की कोशिश की। मैं बचपन से ही परिस्थिवश शांत रहा। इसलिए अब भी मैं मानता हूं कि बचपन, जवानी और बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंचने के बावजूद मुझे इन तीनों अवस्थाओं का अलग-अलग अहसास कभी समझ नहीं आया। बचपन में ही पिता की मौत और घर-परिवार की जिम्मेवारियों ने सीधे बुढ़ापे की बेचारगी बख्श दी थी।

इतने सहनशील स्वभाव के बावजूद मैंने भी करारा जवाब दे दिया। दो तथ्य अपने जवाब के याद आते हैं। पहला यह कहा कि तेज आवाज में चिल्लाना मुझे भी आता है। दूसरा कहा कि आप मैनेजर हैं और मैनेजमेंट की पढ़ाई कर मैनेजर बने हैं तो नोटिस को दोबारा पढ़ लीजिए। 24 घंटे में अभी 12 घंटे भी नहीं बीते हैं। उसके बाद वह इस कदर तुनके कि लगा उनकी इज्जत भरी महफिल किसी ने उतार दी। वह घर जाने के बजाय उल्टे पांव अपने चैंबर में लौटे, यह कहते हुए कि मैं अभी हरिवंश जी से बात करता हूं। फिर दो मिनट बाद ही लौटे और अभय सिन्हा जी के कमरे में घुसे। फिर उधर से निकल मुझे प्रेम से बुला कर अपने कमरे में ले गये। कहा कि हरिवंश जी से मैंने बात की। वह बहुत चिंतित हैं। आप एक बार बात कर कह दीजिए कि सब ठीक है। हमलोगों ने बात कर ली है। उन्होंने लैंडलाइन से हरिवंश जी को फोन भी मिला दिया। वक्त 6-6.30 बजे शाम का रहा होगा। फोन मिला कर पंचोली जी ने कहा- सर, अश्क जी आप से बात करेंगे। मैंने फोन कान से लगाया तो उधर से उन्होंने कहा कि अश्क तुम इंतजार करो, मैं परसों पहुंच रहा हूं। सिर्फ हूं, हां, जी में जवाब सुन कर ही पंचोली जी को लग गया कि बेकार का पंगा उन्होंने मुझसे ले लिया है। उनके पास एक मारुति 800 कार थी। मुझे साथ लिया और अपने घर चाय पिलाने ले गये। बीच-बीच में यह पूछते रहे कि क्या बात हुई। मैंने भी सामान्य ढंग से बता दिया कि कुछ नहीं, बोले हैं कि आते हैं तो बात करते हैं। पंचोली जी मेरे प्रति इतना पसीज गये थे कि आफिस भी छोड़ने आये।

यहां बताना उचित समझता हूं कि पंचोली जी की कारगुजारियां लिखित तौर पर मैंने हरिवंश जी को भेजी अपनी रिपोर्ट में बता दी थीं। उनमें तीन महत्वपूर्ण मुद्दे थे। खर्च घटाने के बजाय ऊंची तनख्वाह पर आपने आदमी क्यों बहाल किये। दूसरा, कम पैसे का आदमी हटा कर आपने ज्यादा पैसा देकर किसी को क्यों रखा। तीसरा, आपको आमदनी बढ़ाने की शर्त पर लाया गया था तो निजी तौर पर आपने इस दिशा में क्या प्रयास किये।

हरिवंश जी अपने शिड्यूल पर पटना आये। अपने कमरे में मुझे बुलाया। पंचोली जी भी उसी कमरे में बैठते थे। हरिवंश जी ने मेरी भेजी रिपोर्ट निकाली और एक-एक बिंदु पर उनसे मेरे सामने ही सवाल करना शुरू किया। उनके अपने तर्क थे, लेकिन सार्थक नहीं। सिर्फ पूछने पर कुछ बताने की मजबूरी जैसे उनके जवाब होते थे। हरिवंश जी ने साफ कहा कि आप डीटीपी इनचार्ज, मशीनमैन और इलेक्ट्रिशियन को तुरंत हटाइए। आज ही उनका हिसाब कर विदा कीजिए। फिर उनसे विज्ञापन के मुद्दे पर बात की। उनसे पूछा कि आपका आउटपुट क्या है। वह कुछ बोल रहे थे, तभी हरिवंश जी ने टोका- आपको आमदनी बढ़ाने के लिए बुलाया गया था। आपने अपने स्तर से कितना विज्ञापन किया। इसका उनके पास जवाब नहीं था। दीपावली आने वाली थी। उन्होंने कहा कि मैं मध्यप्रदेश जा रहा हूं, जहां से दीपावली के लिए अच्छा-खासा विज्ञापन जुटा लूंगा।

उन्होंने आफिस से टूर के नाम पर शायद 25 हजार रुपये एडवांस लिये और अगले दिन मध्यप्रदेश की यात्रा पर निकल गये। उसके बाद वह नहीं लौटे। हां, महीने भर बाद एक फोन काल इंदौर के किसी होटल से आया था कि पंचोली जी वहां ठहरे थे और बिल चुकाने के वक्त कह दिया था कि आफिस से डायरेक्ट पेमेंट आपके पास आ जायेगा। फोन मैंने ही रिसीव किया था। मैंने होटल वाले को साफ-साफ बता दिया कि वह कभी हमारे साथ थे, अब नहीं हैं। यह भी बता दिया कि हमारे यहां जो टूर पर जाता है, उसे खर्च के लिए पैसे एडवांस दे दिये जाते हैं। आपका पैसा फ्राडिज्म की वजह से डूब गया। उसके बाद से वह कहां हैं, अब तक मुझे पता नहीं चला।

उम्र के जिस पड़ाव पर बुढ़ापे का सरकारी सनद मिलता है, उससे कुछ ही फासले पर खड़ा हूं। अगले वर्ष वह शौक भी शायद पूरा हो जाये। शायद शब्द ने यकीनन  आपको सकते में डाल दिया होगा, पर सच यही है दोस्तों, जिसे मैंने सहज स्वीकार लिया है, शायद के सहारे। पास बैठे कब गुजर गये या साथ खड़ा कहां गया, कौन कब चला जाये, इस जिज्ञासा-आशंका से इसी यथार्थ का तो बोध होता है। यानी मैं बीस बरस पहले मसलन चालीस से कुछ महीने कम उम्र का तब रहा होऊंगा। बात अगस्त 1997 से जून 1999 की कर रहा हूं। बढ़ती उम्र के साथ समृति दोष संभावित है। भरसक स्मृति इस दोष से बचने का प्रयास कर रहा हूं।

 

तब प्रभात खबर के पटना दफ्तर में अजय कुमार और रजनीश को छोड़ डेस्क या रिपोर्टिंग का कोई भी साथी कंप्यूटर पर काम करने को केवल आपरेटरों का एकाधिकार समझता था। मैंने यह कला मजबूरी में ही सही, पर छह साल पहले जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में काम करते हुए सीख ली थी। इसे मेरी दूरअंदेशी कहिए या चमड़े का सिक्का चला देने के अधिकार के साथ मिली सल्तनत का कमाल, मैंने संपादकीय के हर विभाग के साथियों को कंप्यूटर सीखने को अनिवार्य बनाने का नोटिस निकाल दिया। इसके लिए महीने भर की मोहलत दी। हर हफ्ते रिमाइंड भी करता रहा कि अब इतने दिन और बचे हैं, महीना शेष होने में। जो साथी कंप्यूटर पर काम नहीं करेंगे, उनकी जरूरत नहीं रहेगी।

मेरे इस नोटिस का असर हुआ। एक-दो को छोड़ तकरीबन सभी साथी कंप्यूटर पर काम करने लगे थे। मसलन खबर लेखन से संपादन तक का काम संपादकीय के साथी कंप्यूटर पर काम करने लगे। रिपोर्टिंग के एक साथी रघुवीर राय (अब दिवंगत) जी ने मेरी नोटिस को गंभीरता से नहीं लिया। रिमाइंडर को भी सिरे से खारिज करते रहे। महीना पूरा हो गया और वे कंप्यूटर पर नहीं बैठ पाये। इसी बीच हरिवंश जी आये तो तो मैंने इसकी जानकारी दी। उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं बात करता हूं। पता चला कि उन्हें बुला कर हरिवंश जी ने उनका हिसाब करा दिया। जितना मुझे याद है, रघुवीर जी काफी सुलझे व्यक्ति थे और तब शायद भाजपा की बीट देखते थे। कद-काठी में दबंगता थी। इससे एक संदेश साथियों में साफ-साफ गया कि जिनके नेतृत्व में आप कर रहे हैं, उनकी इच्छा के विरुद्ध आप नहीं चल सकते।

कंप्यूटर सीखने का प्रसंग आया तो मिथिलेश कुमार सिंह (जिन्हें आज भी मैं बड़े भाई से ज्यादा लंगोटिया यार की तरह पाता हूं) का जिक्र न करना बेईमानी होगी। वे भी कंप्यूटर से कतराते रहे। पर, सख्ती की वजह से आखिरी हफ्ते में वह कंप्यूटर पर बैठने लगे थे। अलबत्ता उनकी स्पीड किसी ककहरा सीखने वाले बच्चे की मानिंद थी। वह उम्र और अध्ययन में हमसे काफी आगे थे। उनके ज्ञान और लेखन शैली का आज भी मैं कायल हूं। राष्ट्रीय सहारा, पटना के संपादक पद पर दो साल रहे, फिर रिटायरमेंट के अंतिम साल भर के लिए वह दिल्ली लौट गये थे। इसलिए कि उनका परिवार वहीं रहता था।

तब कंप्यूटर सेक्शन अलग होता था। आज की तरह हर टेबल या डेस्क पर कंप्यूटर नहीं होते थे। कंप्यूटर रूम में ही बैठ कर मिथिलेश जी सीखने लगे। बल्कि यह कहें कि अपना काम करने लगे। संपादकीय के दूसरे कामों के अलावा उनके जिम्मे रोज एक संपादकीय लिखने का काम था। तब दो संपादकीय जाते थे। एक रांची में लिखा जाता और दूसरा मिथिलेश जी लिखते। रांची में खुद हरिवंश जी या संपादकीय पेज प्रभारी श्रीनिवास जी एक संपादकीय लिखते और दूसरा मिथिलेश जी का होता।

मिथिलेश जी ने संपादकीय से कंप्यूटर की शुरुआत की। एक अंगुली से खोज-खोज कर की दबाते। कोई अक्षर या मात्रा नहीं मिलने-दिखने पर उस वक्त के कंप्यूटर आपरेटर राजेश से पूछते- अरे राजेश, अनुस्वार कहां है रे। वह अपनी सीट पर ही बैठे-बैठे बताता- भैया, एक्स दबाइए। इसके साथ ही वह भुनभुनाते हुए मेरे सात पुस्त को अपने शब्दकोश की चुनिंदा गालियों से तारते रहते। एक बार मैंने सुन भी लिया था। हालांकि बाद के दिनों में उन्होंने बताया कि अपने जीवन में अश्क का अगर कोई बड़ा एहसान मानता हूं तो वह है कंप्यूटर सीखने की मजबूरी। अगर कंप्यूटर तब नहीं सीखा होता तो शायद बाद के दिनों में पत्रकारिता मेरे वश की बात नहीं होती। दवा कड़वी होती है, पर नीरोगी होने का सुख भी वही प्रदान करती है। साथियों के कंप्यूटर सीखने की मेरी सख्ती को भी मित्र किसी तुगलकी फरमान के बजाय अगर कड़वी दवा के रूप में देखें-आकलन करें तो यह ज्यादा मुनासिब होगा।

हां, तो पटना प्रभात खबर से पंचोली जी की अघोषित विदाई से मुझे दुख से ज्यादा सुकून मिला था। इसलिए अनुत्पादक व्यक्ति संस्थान का हित साधक नहीं होता है। अलबत्ता रघुवीर जी का जाना मुझे काफी दुखी कर गया। बाद में पता चला कि वह हरिवंश जी के काफी प्रिय थे। अपने अधीनस्थ की हुक्म उदूली की सजा अपने ही प्रिय पात्र को देकर हरिवंश जी की बड़ी सीख मुझे दी। उनका मानना था कि जिसको जिम्मेवारी सौंपी है, उसके आदेश को नकारना अनुशासनहीनता है। अपनत्व के कारण अगर वह उनको बनाये रखते तो इसका संदेश साथियों में कैसा जाता, आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। तब तो यही कहा जाता कि अश्क के चिचियाने से कुछ नहीं होने वाला। अनुशासन टूट जाता। कारोबार खबर के दिनों से ही मैं उनको समझ गया था कि जो जिम्मेवारी जिसे सौंपते हैं, उसमें वह टांग नहीं अड़ाते। उसे योजना बनाने और उस पर अमल करने का पूरा अधिकार देते रहे। यह गुण बाद के दिनों में भी उनमें बना रहा।

 

आप जहां रहते हैं, उसके इर्द-गिर्द हर दिन, हर पल कई ऐसी चीजें घटित होती हैं कि जब कभी किस्सागोई में उन्हें समेटना चाहें तो मन चंचल हो जाता है। एक साथ अनगिनत घटनाक्रम मानस पटल पर आ जाते हैं, जिनमें से किसे चुनें और किसे छोड़ें जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन घटनाओं में कुछ कड़वे प्रसंग होते हैं तो कुछ मीठी यादें भी होती हैं। कुछ हंसने-हंसाने वाले प्रसंग आते होते हैं। जीवन भी तो इसी को कहते हैं, जिसमें सुख-दुख और हास-परिहास जैसे आयाम समाहित हों। कुछ इसी तरह के प्रसंग पटना प्रभात खबर में रहते मुझे याद आ रहे हैं। इनका जिक्र आप में कौतूहल तो अवश्य पैदा कर देगा।

मेरे ही नहीं, अब कई लोगों के मित्र हैं अविनाश। आप कई अविनाश को जानते होंगे, इसलिए भ्रम में न रहें कि मैं किस अविनाश की बात कर रहा हूं। प्रभात खबर के दिनों के मेरे पुराने साथी। तब के पाठक तो यकीनन इनसे परिचित होंगे, सशरीर नहीं तो नाम से जरूर। प्रभात खबर में अक्सर लौट कर अविनाश की बाइलाइन छपती थी। बाद में चर्चित फिल्म अनार कली आफ आरा बना कर वह और मशहूर हो गये हैं। मैं उसी अविनाश की बात करता हूं। सांवला रंग और दुबली-पतली काया। गहरा सांवला रंग, चेहरे पर लेखन के वक्त गंभीरता, पर बातचीत में दांतों की सफेदी की सर्वदा चमक, उनके भौतिक सत्यापन के प्रमाण हैं। आज भी वह वैसे ही हैं, बदली है तो सिर्फ काठी। बालों में सफेदी झलकने लगी है और शरीर में थोड़ा भारीपन आ गया है।

शब्दों से खेलना उस आदमी को तब भी आता था। किसी साहित्यिक पुस्तक की कुछ पंक्तियों से खबरों के तथ्यों का तालमेल बिठा कर वह प्रवाहमयी पठनीय लेखन शैली में लिखने के धनी थे। हरिवंश जी के सबसे प्रिय भी। क्या मजाल की उनकी खबरों की एक-दो लाइन भी काट दे कोई डेस्क वाला या कोई उनकी खबर को खांटी उपसंपादक के अंदाज में कोई संपादन कर दे। किसी ने हिमाकत की भी तो तुरंत हरिवंश जी की हितायत कि उनकी खबर हूबहू जाएगी। मेरे मित्र मिथिलेश कुमार सिंह ने बताया था कि शहाबुद्दीन जब सीवान में गिरफ्तार हुए थे तो सीवान से लौट कर अविनाश ने खबर फाइल की। उन्होंने रूपक का प्रयोग करते हुए लिखा कि सीवान में शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी के बाद सन्नाटे का आलम यह था कि चिड़ियों ने चहचहाना बंद कर दिया। मिथिलेश जी का इस पर सवाल था कि भाई मानव के भाषा-भाव को चिड़ियाएं कब से समझने लगीं। मिथिलेश जी तो यह भी बताते हैं कि इसी सवाल पर उन्होंने हाथ से लिखी कापी फेंक दी थी। बाद में हरिवंश जी के निर्देश पर वह हूबहू छपी।

मेरे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ। अमूमन मैं ही उनकी कापी देखता था। आरंभ से ही डेस्क का आदमी रहा। इकोनामी आफ वर्ड्स का ज्ञान मुझे था। कुछ शब्द इधर-उधर किये होंगे और कुछ लाइनें भी कटी होंगी। इसकी शिकायत आलाकमान तक अविनाश ने पहुंचा दी। मुझे सीधे हरिवंश जी ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन तब रांची संस्करण के संपादक हरिनारायण सिंह जी का फोन आया कि अविनाश की कापी सीधे रांची भेज दें, यहीं से संपादित होकर जाएगी। अपरोक्ष तौर पर यही कहा गया कि उनकी कापी के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। मैंने आदेश का पालन किया। एक दिन अविनाश ने कोई खबर फाइल की, जिसमें जाबिर हुसैन के बारे में कुछ प्रतिकूल टिप्पणी थी। मैंने पढ़ने के बाद उसे हूबहू हरिनारायण जी को भेज दिया। फिर भी एडिशन इनचार्ज के नाते मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि वह टिप्पणी खबर में जाये। मैंने फोन कर हरिनारायण जी को बता दिया कि उसमें जाबिर हुसैन के बारे में प्रतिकूल टिप्पणी है, एक बार हरिवंश जी से बात कर लीजिएगा। तीर निशाने पर लगा। वह कापी लेकर हरिवंश जी के पास गये और तुरंत आदेश आया कि उसे रोक लिया जाये। इस प्रसंग के जिक्र के पीछे मेरा अभिप्राय यह है कि शायद ही कोई गंभीर उपसंपादक किसी रिपोर्टर की कापी से अनावश्यक छेड़छाड़ करता है।

खबरों के प्रसंग में मैं एक खबर का जिक्र करना आवश्यक मानता हूं, इसलिए कि उसी खबर के बाद प्रभात खबर के प्रिंट लाइन में मेरे नाम के छपने की शुरुआत हुई थी। मुजफ्फरपुर जिले में पारू प्रखंड में सेक्स से जुड़ा कोदरिया कांड हुआ था। उसमें राजद के एक बड़े नेता पर गंभीर आरोप लगे थे। जिला संवाददाता के जरिये वह खबर आयी तो मैंने उसकी छानबीन के लिए कई बार टेलीफोन पर बात कर जिला प्रभारी से यह आश्वस्ति चाही कि यह खबर किसी साजिश या स्थानीय राजनीति के तहत तो नहीं है। पुलिस में यह मामला दर्ज है कि नहीं। वह राजद की सत्ता का दौर था और नेता जी भी उसी दल से जुड़े थे। किसी भी संपादक के नाक-कान-आंख रिपोर्टर ही होते हैं। दोनों के संबंध भरोसे पर टिके होते हैं। मैंने अपने प्रखंडस्तरीय संवाददाता की सूचना पर यकीन किया और उस खबर को पहले पन्ने पर लीड छापी। तब तक मुझे यह पता नहीं था कि उनके एक भाई भी एक बड़े अखबार में रिपोर्टर हैं।

दूसरे दिन से खंडन छापने का दबाव नेता जी ने जितना डाला, उतना ही उनके रिपोर्टर भाई ने आग्रह किया। मैंने अपने संवाददाता को ज्यादा तरजीह दी और खंडन के बजाय उनसे अपना पक्ष देने को कहा, जिसे हूबहू छापने का भरोसा भी दिलाया। हालांकि उसके बाद उनका कोई खंडन नहीं आया। अलबत्ता अपनी ओर से मैंने उसका फालोअप जरूर करया। मामला ठंडे बस्ते में चला गया। अलबत्ता एक बात जरूर हुई। उस खबर के साक्ष्य के बारे में हरिवंश जी ने मुझसे जरूर पूछा और मेरे जवाब से वह संतुष्ट भी हो गये। तब प्रिंट लाइन में संपादक के रूप में हरिवंश ही छपता था। उन्होंने कहा कि आज से ही प्रिंटलाइन में अपना नाम लगाओ। खबरों के चयन के लिए जिम्मेवार का संकेतक (जो अब भी स्टार लगा कर छपता है) भी लगाओ। इस तरह प्रिंटलाइन में मेरा नाम जाने की शुरुआत हुई।

अखबार का आदमी आमतौर पर गलतियों से बचता है, लेकिन गलतियां होनी होती हैं तो हो ही जाती हैं। अपने पत्रकारीय जीवन में भी कई बार ऐसी घटनाओं से मेरी मुठभेड हुई है। जिन दिनों मैं उपसंपादक या संवाददाता बतौर अखबार का कर्मचारी था तो अक्सर सोचता कि संपादक का पद सबसे बढ़िया है। कोई काम नहीं करना पड़ता है। किसी भूल-चूक पर संपादक की डांट बड़ी नागवार लगती थी। यह भ्रम तब टूटा, जब संपादक के रूप में पहचान बनी। तब जाकर महसूस हुआ कि इससे तो बेहतर उपसंपादकी थी, जिसमें इतने झमेले नहीं थे। संपादक पर संपादकीय के झमेलों के अलावा विज्ञापन विभाग, प्रसार विभाग और दूसरे प्रबंधकीय महकमों का अतिरिक्त दबाव रहता है। उपसंपादक को तो महज अपने पन्ने तक की जिम्मवारी होती है या रिपोर्टर को रूटीन खबरों में मिसिंग से बचना होता है।

संपादक रहते दो-तीन मौके ऐसे आये, जब मुझे हरिवंश जी की डांट सुननी पड़ी। उनके डांटने का तरीका भी नायाब होता था। अमूमन वह मुझे तुम कह कर पुकारते थे। आज भी वह मेरे लिए तुम शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उनकी नाराजगी का एहसास तब होता था, जब संबोधन आप से शुरू होता। पटना प्रभात खबर में संपादक रहते दो ऐसे मौके आये, जब हरिवंश जी की डांट मुझे सुननी पड़ी। दोनों मौके अनायास नहीं आये थे, बल्कि पक्के तौर पर चूक मेरी ही थी। पहले पन्ने पर एक राजनीतिक विश्लेषण मेरी बाइलाइन छपी। शीर्षक थोड़ा स्मरण आ रहा है- जनता दल में विद्रोह के बगूले। पेज बनवाने वाले ने इसे पहले पेज पर टाप बाक्स बना दिया। जाहिर है कि इसमें मेरी भी संपादक के नाते सहमति रही होगी। उसी दिन बैक पेज पर हाजीपुर से आई एक खबर थी, जिसे मैंने संपादित किया था। संपादन में बड़ी भूल यह हुई कि बैंक से 25 लाख रुपये लूटे जाने की खबर रिपोर्टर ने भेजी थी और कंप्यूटर पर करेक्शन करते समय मैंने 25 हजार रुपये लिख दिये। वर्ष 1997 में 25 लाख की रकम बड़ी मानी जाती थी।

अगले ही दिन हरिवंश जी आने वाले थे। अपने हिसाब से मैंने अखबार को बेहतर बनाने की भरसक कोशिश की थी, लेकिन एक बड़ी चूक ने सब पर पानी फेर दिया। मैंने भी लूट की रकम 25 हजार होने की वजह से उसे बैक पेज पर जगह दी। सुबह जब दूसरे अखबार देखे तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। इसलिए कि सबने उस खबर को पहले पन्ने पर लिया था। कुछ ने तो उसे लीड ही बना दिया था। मेरे यहां बैक पेज पर और वह भी गलत तथ्य के साथ।

 

दफ्तर आदतन साढ़े 10 बजे पहुंच गया था। हरिवंश जी आये तो जिस गर्मजोशी से मिलते थे, वैसा नहीं किया। अपने कमरे में जाकर बैठ गये। पांच-दस मिनट बाद बुलावा आया। जाते ही उन्होंने कहा- ऐसा अखबार निकलता है। मैं चुप रहा। फिर कहा कि विश्लेषण लीड बनता है। एक तो वह खबर मेरी बाइलाइन थी, इसलिए मुझे झेंप ज्यादा हुई। दूसरे, जब उन्होंने 25 लाख की जगह 25 हजार वाली बात कही तो अंदर से थरथरा गया। इसलिए कि खबर का संपादन मैंने किया था। मैं चाहता तो झूठ बोल सकता था कि संवाददाता ने ही अपनी कापी में 25 हजार लिखा, लेकिन मन ने गवाही नहीं दी। मैं चुप ही रहा। फिर और कुछ भी उन्होंने कहा, जो स्मरण नहीं आ रहा।

दूसरी चूक कोलकाता में प्रभात खबर निकालते वक्त हुई था। अखबार शुरू हुए हफ्ताभर ही हुए थे। पहला पन्ना मैं खुद बनाता था। पहला रविवार आया तो सप्लीमेंट की वजह से उसका दाम सामान्य दिनों से 50 पैसा ज्यादा होना चाहिए था। ध्यान नहीं गया और डाक संस्करण में सामान्य दिनों वाला दाम ही छप गया। हालांकि सिटी संस्करण में चूक का एहसास हो गया था। सारे एजेंटों की सूचना भिजवा दी कि दाम गलत छप गया है। इसलिए हाकर को देते समय पूरा दाम ही लें। सबने सहयोग का वादा भी किया। किसी ने इस भूल के लिए हरिवंश जी को रांची में फोन कर दिया। अगले दिन शाम को उनका फोन आया। बातचीत की शुरुआत उन्होंने आप से ही की। मैं समझ गया कि कुछ सुनना पड़ेगा। उन्होंने सीधे सवाल किया कि आप ने दाम 50 पैसे कम छापा, इसका खामियाजा कंपनी को उठाना पड़ा है। मैंने सफाई दी कि मैनेज हो गया था। इस पर वह बरस पड़े। गलती की और कह रहे हैं कि मैनेज हो गया। उन्होंने फोन काट दिया। आधे घंटे बाद उनका फिर फोन आया। इस बार लहजा बदला था- अश्क तुमको कितनी बार कहा है कि एक सेकेंड मैन रख लो। तुम खुद पेज बनाओगे तो ऐसी गलतियां होंगी ही। इस बार भी मैंने चुप ही रहना बेहतर समझा। सिर्फ जी-जी करता रहा।

इसके तीसरे दिन एक और ब्लंडर हो गया। ममता बनर्जी ने सीपीएम के समर्थकों द्वारा ममता बनर्जी से संपर्क रखने वाले कई लोगों के हाथ काट लिये थे। उन्हें एक ट्रक पर लेकर ममता ने जुलूस निकाला था। उसी तस्वीर को लेकर एक बहस चलानी थी। इसका शीर्षक था- क्या आपको शर्म नहीं आती। इंट्रो के साथ हाथ कटे लोगों की फोटो लगनी थी। प्रूफ के लिए जो प्रिंट निकला, उसमें तो तसवीर ठीक लगी, लेकिन अखबार में जो तस्वीर छपी, वह सरस्वती जी की थी। अगले दिन इसके लिए भी क्लास लगी। काफी पड़ताल के बाद पता चला कि कंप्यूटर में एक ही नाम से दो फोटो सेव थे। जिस आदमी ने पीडीएफ बनाया, चूक उसकी ही थी। ऐसी स्थिति में कंप्यूटर जी पूछते हैं और आपरेटर अति विश्वास में इग्नोर आल कर देता है तो ऐसी गलती हो जाती है। अगर उसने पीडीएफ का व्यू देख लिया होता तो गड़बड़ी पकड़ में आ जाती।

प्रभात खबर के देवघर संस्करण संपादक की भूमिका निभा चुके मेरे एक मित्र ने 2006 में एक पत्रिका में हरिवंश जी पर लंबा लेख लिखा। लेख का लब्बोलुआब यह था कि हरिवंश जी घोर जातिवादी हैं। उन्होंने अपने सारे संपादक स्वजातीय रखे हैं। तब मैं बड़े प्रमोशन के साथ प्रभात खबर समूह का कार्यकारी संपादक बन कर कोलकाता से रांची मुख्यालय आया था। पत्रकारिता जगत में उस लेख की खासा चर्चा थी। हरिवंश जी ने उस सजज्न पर केस करने का मन बना लिया था। मैंने सलाह दी कि ऐसा आप कत्तई न करें। इससे उसी आदमी का भाव बढ़ेगा। अलबत्ता केस करना ही होगा तो मैं करूंगा, क्योंकि उसमें मेरे नाम का भी जिक्र था या दूसरे साथियों से यह काम कराऊंगा, जिनके नाम इसमें आये हैं। बात आई-गई और खत्म हो गयी। केस-मुकदमे की नौबत नहीं आयी।

इस प्रसंग का जिक्र करना इसलिए मुनासिब समझा कि जो आरोप उन पर लगे थे, उनमें रत्ती भर सच्चाई नहीं थी। सच जो था, उसका एक उदाहरण काफी है। हरिवंश जी प्रभात खबर निकालने के लिए पटना पहुंच चुके थे। वह संपादकीय की टीम बना रहे थे। में कोलकाता तब कारोबार खबर निकाल रहा था। उनदिनों मोबाइल फोन बाजार में आया नहीं था। लैंडलाइन फोन से उन्होंने मुझे सूचना दी कि दो-तीन अच्छे लड़के तुम्हारी नजर में हों तो भेजो। मैंने दो लोगों को- विद्यासागर सिंह (अभी जमशेदपुर हिन्दुस्तान में कार्यरत) और लालबहादुर ओझा को कोलकाता से पटना भेजा। दोनों के बारे में उनकी टिप्पणी थी कि लड़के तो अच्छे हैं, लेकिन विद्यासागर सिंह का नकारात्मक पक्ष एक है कि वह राजपूत हैं। लालबहादुर ओझा के बारे में उनकी धारणा थी कि इतना संस्कारवान लड़का है कि उसके भरोसे परिवार को भी छोड़ा जा सकता है। लालबहादुर ओझा की नियुक्ति हो गयी और विद्यासागर सिंह को उन्होंने वापस भेज दिया, यह कहते हुए कि तुम वहीं कहीं रख लेना। यहां रखने पर जातिवाद का आरोप लगेगा। लालबहादपर ओझा फिलहाल माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में असिस्टैंट प्रोफेसर हैं।

 

अब कोई यह कहे कि हरिवंश जी जातिवादी थे या हैं तो कम से कम मेरे गले यह बात नहीं उतरती। जिन दिनों उन पर जातिवादी आरोप वाला लेख लिखा गया और आरोप लगाया गया कि वह स्वजातीय लोगों को ही ज्यादातर जगहों पर संपादक बना कर रखते हैं, उन दिनों रविप्रकाश, अनुज सिन्हा, सुशील भारती, विजय पाठक, अजय कुमार जैसे लोग संपादक थे। संयोगवश पूरी टीम में मैं ही उनका स्वजातीय था, लेकिन यह बात कम लोगों को ही मालूम थी। इसलिए बचपन में ही मैंने अपनी जातिसूचक उपनाम हटा कर अश्क रख लिया था और अपने आचरण से भी मैंने कभी स्वजातीय संबंधों को पेशागत आधार कभी नहीं बनाया। मेरे लिए इसके तीन उदाहरण काफी हैं। राघवेंद्र धनबाद और पटना संस्करण का संपादक रहे। थोड़े व्यतिक्रम के बाद अजय कुमार पटना के संपादक अब भी हैं। अनुराग अन्वेषी कुछ दिनों तक धनबाद के संपादक रहे। इनकी जाति के बारे में आज तक मुझे जानकारी नहीं है। जानने की मुझे कभी जरूरत भी नहीं सूझी। पटना और देवघर में संपादक रहे रविप्रकाश के बारे में मैंने संयोगवश जाना कि वह किस जाति के हैं। वह जब कोलकाता में दैनिक जागरण के संस्करण प्रभारी थे और मैं उनके साथ कोलकाता से रांची आ रहा था तो उनके फेसबुक पोस्ट पर मैंने एक टिप्पणी की कि जागरण में रहते नरेंद्र मोदी पर टिप्पणी न करें। अहीर की तरह आपकी भाषा ठेठ है। यह गांवों की सामान्य लोकोक्ति है। इस पर उन्होंने जवाब दिया- भैया, हम सच में अहीर हैं तो बुद्धि भी ठेठ और लट्ठमार ही होगी न। तब जाना कि वह किस जाति के हैं।

 

हां, हरिवंश जी की टाम में तीन राजपूत संपादक समय-समय पर जरूर बने, लेकिन यह बात सबको पता है कि संपादक बनने की उनकी विशेषता सिर्फ स्वजातीय होना ही नहीं थी, बल्कि काम के आधार पर उन्होंने अपनी जमीन तैयार की थी। इनमें एक थे हरिनारायण सिंह। 1989 में कोलकाता से जिन लोगों को लेकर हरवंश जी आ. थे, उनमें चीफ सब एडिटर के रूप में हरिनारायण जी भी थे। साथ में न्यूज एडिटर बन कर आये थे कृपाशंकर चौबे, ओमप्रकाश मिश्रा और संजीव क्षितिज। ओमप्रकाश मिश्रा को रांची रास नहीं आयी, वह कोलकाता सन्मार्ग वापस लौट गये। हरिवंश जी जब चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने पर उनके प्रेस एडवाइजर बने तो उनकी अनुपस्थिति में संजीव जी कार्यकारी संपादक बने थे। कृपा शंकर चौबे जी (अभी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में डीन हैं) बाद में दिल्ली ब्यूरो संभालने चले गये। दूसरा संपादक मैं बना, लेकिन इसके लिए कारोबार खबर के कष्टप्रद और ज्ञानप्रद दिनों से गुजरने के बाद। तीसरे स्वजातीय स्वयंप्रकाश संपादक बने, जो अभी जी न्यूज के बिहार-झारखंड के संपादक हैं।

 

अब कोई कहे कि हरिवंश जी ने जातिवाद को बढ़ावा दिया तो यह चांद पर कीचड़ उठालने के सिवा कुछ नहीं।

 

वर्ष 1989 से 1999 के महज दस वर्षों में तीन सूबे और चार शहर मेरे अल्प-दीर्घ प्रवास के केंद्र रहे। इनमें सर्वाधिक छह साल कोलकाता में कटे थे तो दो साल रांची और पटना में बीते। तीन-चार महीने के लिए धनबाद भी ठिकाना रहा। पटना में सिर्फ दो साल का मेहमान रहा। अपनी आदत आरंभ से अखबार के लिए जान लड़ा कर जांगर ठेठाने की बनी, जो आज भी बरकरार है। नौकरी के लिए निर्धारित आठ घंटे को कभी मैंने पैमाना नहीं बनाया, बल्कि यह मानता रहा कि नींद छोड़ कर बाकी समय अखबार का है। दस-बारह घंटे तो सदेह दफ्तर में उपस्थिति और बाकी समय मानसिक तौर पर मौजूदगी। सुबह देर से उठना, उठते ही अखबार देखना। दूसरे अखबारों से अपने का मिलान करना, भूल-चूक तलाशना, इसके लिए दुखी होना, खबरें मिस होने पर संबंधित रिपोर्टर पर कोफ्त के अलावा खुद को दुखी कर लेना और फिर अगले दिन के अखबार के लिए स्टोरीज की प्लानिंग में जुट जाना। देर रात छपने के लिए अखबार तैयार कर घर लौटना और इस चौकसी के साथ नींद के आगोश में समा जाना कि कहीं से कोई खबर संबंधी जरूरी फोन न आ जाये। यह करते-करते जिंदगी की सबसे उत्पादक उम्र (40 साल) मैंने बिता दी। आज भी किसी अहंकार नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि 12 से 16 घंटे मैं अखबार के दफ्तर में बिताने का माद्दा रखता हूं।

प्रभात खबर पटना में रहते दो घटनाओं का जिक्र करना मुनासिब लग रहा है। गर्मी के दिन थे। दफ्तर से रात एक-सवा बजे घर लौटा था। तब तनख्वाह ऐसी थी कि न बढ़िया घर और न ऐशोआराम की कल्पना की जा सकती थी। घर में एक लैंडलाइन फोन जरूर था, जिसे कोलकाता से ट्रांसफर करा कर पटना लाया था। उन दिनों लैंडलाइन फोन के लिए भी बड़ी जद्दोजहद करनी होती थी। कोलकाता में मान्यता प्राप्त पत्रकार के नाम पर मुझे एक फोन कनेक्शन मिला था। पटना आते समय मैंने उसे सरेंडर कर दिया और पटना में कनेक्शन ट्रांसफर कराने के लिए आवेदन दे दिया।

साल बीत गये। 1998 के आरंभ में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पटना आये। हरिवंश जी के उनसे आत्मीय रिश्ते के मद्दनजर प्रेस कांफ्रेंस का जिम्मा मुझे मिला था। सब कुछ ठीक से हो गया। आखिरी दिन चंद्रशेखर जी की पार्टी के सचिव एचएन शर्मा ने मुझसे घर का नंबर मांगा। मैंने उन्हें फोन न होने की कहानी सुना दी। उन्होंने कहा कि 24 घंटे में आपका फोन लग जायेगा। पहले तो मैंने यही समझा कि नेता ऐसे ही हवाहवाई बात करते हैं। लेकिन अगली सुबह शर्मा जी का फोन आया- अश्क जी कल हम दिल्ली नहीं जा सके, आज निकल रहे हैं। कल तक आपके घर फोन लग जायेगा।

अगले दिन सुबह साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच कोलकाता से टेलीफोन विभाग के जीएम का फोन आया, यह कहते हुए कि ओमपकाश जी, आपका अप्लीकेशन मिल नहीं रहा है। हम फैक्स कर रहे हैं, उसे भर कर भेज दीजिए। कुछ ही देर में फिर फोन आया कि अप्लीकेशन मिल गया, फैक्स मत भेजिए। शाम तक पता चला कि पटना टेलीफोन विभाग के कर्मचारी घर में फोन टांग गये हैं। अभी चालू नहीं हुआ है। रात दस बजे के आसपास कोलकाता के मेरे एक मित्र का पद्म सरावगी का फोन आया और उन्होंने जब यह पूछा कि फोन तो घर में लग गया होगा तो मैं आश्चर्यचकित हुआ कि फोन की कहानी इनको कैसे मालूम। फिर उन्होंने बताया कि पटना में जो जीएम हैं, वे उनके मित्र हैं, कल आपके साथ चाय पीना चाहते हैं। आपको न्योता देंगे। इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी। मैंने हामी भर दी।

अगले दिन किसी साथी के साथ हम उनके दफ्तर पहुंचे। चाय-पानी के बाद उन्होंने सरावगी जी से जान-पहचान के बारे में पूछा। फिर मुद्दे पर आये। दरअसल पटना में फोन ट्रांसफर के लिए मैंने जो पता डाला था, वह समृद्धि कांप्लेक्स का था, जहां पहले आफिस होता था। अब तो आफिस भी बदल गया था और फोन मेरे घर पर लगा था। उन्होंने एक प्लेन पेपर दिया और कहा कि इस पर अपने घर का एड्रेस डाल दें। मैंने लिख दिया। फिर हम विदा हुए। साल भर बाद मेरे घर में चेलीफोन आ गया।

हम बात कर रहे थे कि रात एक-सवा बजे अखबार छोड़ कर जब घर पहुंचा और फर्श पर चटाई डाल कर अभी लंबा ही हुआ था कि रात करीब पौने दो बजे लंबी टोन का रिंग बजा। तब एसटीडी काल के लिए ऐसे ही टोन बजते थे। हड़बड़ा कर फोन उठाया तो उधर से जहानाबाद के तत्कालीन संवाददाता रामनंदन सिन्हा जी की एक लाइन की सूटना थी कि सर, 10 गये। मैंने उन्हें कहा कि आप पता करें, मैं आफिस पहुंच रहा हूं। उन दिनों प्रभात खबर में किराये का महज एक टेंपो होता था। उसी से अखबार का डिस्पैच और नाइट शिफ्ट के साथियों को छोड़ने का काम होता था। चूंकि आफिस और मेरा घर आधे किलोमीटर की दूरी पर थे, इसलिए रात में दफ्तर के कुछ साथियों को तुरंत बुलाया। जब तक वे लोग आते, तब तक वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी जी का फोन आ गया। उन्होंने एक अति महत्वपूर्ण जानकारी दी। उन्होंने बताया कि नक्सलियों ने गला रेता है। यह काम एमससी के लोग ही उन दिनों करते थे।

मैं दफ्तर पहुंचा। पटना संस्करण में उस खबर को ले पाना संभव नहीं हुआ, इसलिए कि मशीन की हालत और समय साथ देने को तैयार नहीं थे। अलबत्ता रांची संस्करण के लिए वह खबर महत्वपूर्ण जरूर थी। इसलिए कि तब दक्षिण बिहार में प्रभात खबर की स्थिति नंबर वन की थी। पिछली नक्सली वारदात के रेफरेंस संबंधित बीट देखने वाले रजनीश उपाध्याय अपडेट कर रखते थे। एक लाइन की सूचना, बाकी काल्पनिक शब्दावली और भेलारी जी के संकेत के आधार पर मैंने जो खबर बनायी और शीर्षक डाला कि एमसीसी ने इतने लोगों का गला रेता। दूसरे अखबारों ने भी कुछ इसी तरह की तकनीक अपनायी, लेकिन कल्पना में ज्यादातर लोगों ने नक्सलियों द्वारा अंधाधंध फायरिंग कर मौत के घाट उतारने की बात लिखी। अगले दिन हमारी खबर सत्य के ज्यादा करीब थी और दूसरे नरसंहार बताने में कामयाब तो रहे, पर तथ्यात्मक रूप से हम सही थे।

इंसान के इल्म का रिश्ता उम्र से होता है। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है, आदमी के इल्म में भी उसी हिसाब से इजाफा होता है। 1976 में जिन दिनों हाईस्कूल में नौंवीं का छात्र था तो रिपोर्टर बन गया। घटना, तथ्य, पड़ताल और उसके बाद खबर बनाने का ककहरा सीखा। गलत खबर की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी। बड़ा होकर डेस्क का आदमी ज्यादा रहा, जहां शब्दों से खेलना सीखा, खबरों की सूचनाओं के पड़ताल के पैंतरे सीखे। शब्दों की इकोनामी जानी। इसमें कहीं भी फर्जीवाड़े की कला सीखने को मुझे नहीं मिली। अलबत्ता जनसत्ता के टेस्ट में एक काल्पनिक खबर जरूर लिखी थी, जो कोलकाता के बड़ाबाजार में आग लगने की घटना को लेकर थी। पटना प्रभात खबर में रहने के दौरान एक ऐसा मौका आया, जब सौ फीसद झूठी खबर फाइल हुई और जान-बूझ कर मैंने पास किया। यह अलग बात है कि वह खबर सिर्फ रांची संस्करण में ही शायद छपी। स्वीकारोक्ति को सुधार की पहली सीढ़ीं माना जाता है। इसलिए उम्र के इस पड़ाव पर फर्जीवाड़े के घटनाक्रम को उजागर कर अब मैं सुधार की कोई उम्मीद तो नहीं पाल सकता, अलबत्ता सत्य का सामना कर मानसिक तौर पर अपराधबोध के दबाव से मुक्त होना चाहता हूं।

इस घटना को इस तरह से भी आप समझ सकते हैं कि रिपोर्टर को खबर के लिए असाइनमेंट मिला। उसने कहा- ऐसा कहीं कुछ भी नहीं है। मैंने कहा कि किसी भी हाल में करना तो पड़ेगा ही, इसलिए काल्पनिक कापी बनाये। दो-ढाई सौ शब्दों की खबर रिपोर्टर ने फाइल कर दी, जो फिलवक्त उसी अखबार में वरिष्ठ पद पर हैं। मैंने शब्दों की बाजीगरी से उसे इस कदर तराशा कि पांच सौ शब्द की खबर बन गयी। रांची में वह छपी तो प्रधान संपादक की वाहवाही भी रिपोर्टर को मिली और अगले दिन फिर उसी तर्ज पर खबर खोजने का असाइनमेंट भी।

वाकया 1997 या 1998 के दुर्गापूजा के दौरान का है। रांची से तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी का सुबह-सुबह फोन आया कि किसी रिपोर्टर को गंगा के किनारे श्मशान घाट शाम को भेजो। नवरात्र में तांत्रिक श्मशान घाटों में तंत्र साधना करते हैं। उनकी एक लाइव स्टोरी बनवा कर रांची भेजो। हरिवंश जी के आदेश को हम लोग तब ब्रह्म वाक्य मानते थे। हमने यह काम अपने एक वरिष्ठ रिपोर्टर को सौंपा। वह ईमानदारी से श्मशान घाट देर शाम गये भी और घंटे भर की तलाशी के बाद बैरंग लौट आये, यह कहते हुए कि वहां तो कुछ नहीं है। कहीं कोई तांत्रिक नहीं दिखा, सिवा घोर सन्नाटे के।

मैंने कहा कि खबर तो करनी ही पड़ेगी। फिर कुछ देर कल्पनाओं में तांत्रिक, चिता, खोंपड़ी, मंत्रोच्चार, शराब जैसी चीजों की कल्पना की गयी। हंसते-हंसते हम लोग लोटपोट भी होते रहे। बेमन से सबसे आखिर में संवाददाता महोदय (फिलहाल प्रभात खबर में ही वह संपादकीय में बड़े पद पर हैं) कल्पना पर आधारित खबर की रचना में जुट गये। देर से इसे फाइल करने के पीछे दो धारणाएं काम कर रही थीं। पहली कि खबर इतनी विलंब से जाये कि छपे ही नहीं। विलंब से फाइल करने के तर्क भी तलाश लिये गये थे कि रात के सन्नाटे में ही तो तंत्र साधना होती है। इसलिए खबर भेजने में देर हुई। हमें यह क्या पता था कि देर से जाने वाली यह फर्जी कपोलकल्पित खबर पहले पेज का एंकर बनेगी।

आज की सुबह खबर करने का आदेश आया था तो अगली सुबह हरिवंश जी की वाहवाही भी मिली। उन्होंने अलग से भी उस संवाददाता को फोन किया और अच्छी खबर के लिए उनकी तारीफ की। फिर श्मशान जाने की सलाह भी उन्हें दे डाली। यह सरासर बौद्धिक बेईमानी और नैतिक क्षरण की बात थी। यह जानते हुए भी मैंने ऐसा किया, अपने संवाददाता से कराया। इसकी एक ही मूल वजह थी कि हरिवंश जी के किसी आदेश को काटने की हिम्मत हमारे अंदर नहीं थी। नैतिक साहस की यह कमी दूसरे तीन अवसरों पर भी मैंने महसूस की।

हरिनारायण सिंह जी ने वर्ष 2000 में चुपके से इस्तीफा दिया था। किसी को भनक तक नहीं लगी। मैंने भी एसएमएस भेज कर इस्तीफे की सूचना दी थी। अजय कुमार ने भी एक मौके पर चुपके से ही इस्तीफा भेज दिया था। हरिवंश जी के सामने उनकी मर्जी के खिलाफ बोलने का नैतिक साहस किसी में नहीं होता था। जब कभी ऐसे प्रसंग याद आते हैं तो हंसी के साथ आत्मग्लानि का बोध होता है। वैसे भी मेरा स्वभाव संकोची ज्यादा रहा है। संकोच इतना अधिक कि प्रभात खबर की नौकरी 2009 में छोड़ने के तकरीबन नौ महीने बाद हरिवंश जी के सामने गया था। वह भी जमशेदपुर में एक शादी समारोह में। उनसे ज्यादा देर तक बतिया पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया तो हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशिशेखर के हवाले कर खुद भाग खड़ा हुआ।

इसके बाद दो और मौके आये, जब नवरात्र में हरिवंश जी ने तंत्र साधना पर खबर कराने के लिए कहा। उन दिनों मैं कोलकाता में था। एक स्टोरी के लिए रिपोर्टर को तारापीठ भेजा और सीरीज में स्टोरी करायी। दूसरी स्टोरी के लिए कामाख्या (गुवाहाटी) में एक फ्रीलांसर से कहा, लेकिन उसने मना कर दिया कि नवरात्र में वहां तंत्र साधना नहीं होती। इसके लिए माघ महीने में कोई खास अवसर होता है।

उन दिनों रिपोर्टर्स मीटिंग में जाने के पहले मैं चार-पांच विशेष खबरों की प्लानिंग कर आता था। दफ्तर आने के बाद हरिवंश जी की सूची अलग से अक्सर मिलती रहती। यानी सात से दस खबरें रोज दो स्टार रिपोर्टरों- रजनीश और अजय को रूटीन के अलावा करनी होतीं। तब चूंकि यही दो स्टार रिपोर्टर थे, इसलिए सारा धान कूटना इनके ही जिम्मे होता था। सीधे कहें तो ये ही मेरे दाहिना-बायां हाथ थे। पटना में रहते रिपोर्टिंग से जुड़ी एक और घटना याद आ रही है।

रात में पटना के किसी मुहल्ले में मारपीट की घटना हुई। रजनीश उपाध्याय ने उसे कवर किया। वह घटनास्थल पर गये थे या नहीं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन जो खबर लिखी, उसमें किसी विधान पार्षद का नाम आया। उन्होंने विशेषाधिकार का नोटिस दे दिया। तब विधान परिषद के अध्यक्ष जाबिर हुसैन हुआ करते थे। नोटिस को मैंने गंभीरता से लिया और रजनीश से साक्ष्य जुटाने को कहा, ताकि जवाब दे सकूं। दरअसल घटना का ब्योरा जुटाने के दौरान किसी ने उक्त एमएलसी का नाम लिया था, इसलिए सुनी-सुनाई सूचनाओं के आधार पर खबर बना दी थी रजनीश ने।

अगले दिन से जाबिर साहब के बारे में जितने लोगों से जानकारी मिलती, भीतर से मैं उतना ही डर जाता। किसी ने कहा कि आल इंडिया रेडियो के फलां को तीन घंटे बाहर इंतजार कराया तो कोई कहता कि फलां संपादक को तो आधे घंटे तक खड़ा करा दिया था। जितना सुनता, रजनीश पर सबूत के लिए उतना ही दबाव डालता। अंततः रजनीश के पिता जी ने एक लेटर ड्राफ्ट कर उन्हें दिया। वह लेकर आये। मैंने पहले ही कह दिया था कि माफी नहीं मांगूंगा।

पत्र पढ़ा तो पहले सिर्फ घटनाक्रम का ब्योरा था। कैसे घटना की सूचना मिली, देर रात की खबर होने के कारण टेलीफोन पर मिली सूचना पर भरोसा किया, ताकि खबर छूट न जाये। जिस एमएलसी का नाम आया था, उनसे संपर्क करने की कोशिश का भी जिक्र था। अंत में लिखा गया था कि मेरी मंशा इस खबर के बहाने किसी की भावना या प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने की नहीं थी। फिर भी किसी को ठेस पहुंची है तो हमें खेद है। रजनीश के पिता जी ने उसे अपने स्तर से मैनेज करा दिया था। मुझे जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। विधान परिषद के रिकार्ड में जरूर वह पत्र कहीं दर्ज होगा।

वर्ष 1998। कभी न भूलने वाले साल की शुरुआत अजोबोगरीब तरीके से हुई। 31 दिसंबर 1997 की रात डाक संस्करण का काम खत्म हुआ और अपने सेकेंड मैन मिथिलेश कुमार सिंह को बता कर कि मैं एक दिन के लिए गांव निकला। मन में उमंग थी कि साल का पहला दिन बच्चों के साथ बिताऊंगा। जो गाड़ी अखबार लेकर सीवान तक जाती थी, उसी पर बैठ गया। जाड़े की रात और खुली जीप में पैर लटका कर बैठे रहने से ठंड का शिकार हो गया। साल के पहले दिन घर में बच्चों के साथ रहने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा दुखदायी ठंड लगने के कारण बीमार पड़ना हो गया। लगभग हफ्ते भर बीमार रहा। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि अगस्त 1997 में कोलकाता से डेरा-डंडा उखाड़ कर पटना आया था। बच्चे अभी गांव पर ही रह रहे थे। बाद में वे पटना आये। पटना यूनिट का प्रबंधकीय जिम्मा भी मेरे पास था। प्रबंधन में दूसरे नंबर पर एकाउंट्स का काम देखने वाले निर्भय सिन्हा थे। उन्हें यह बात पच नहीं रही थी कि एडिटोरियल का आदमी यूनिट मैनेजर का काम कैसे देखेगा। मुझ से पहले यह काम अभय सिन्हा जी देख रहे थे। साजिशन निर्भय सिन्हा ने उनसे यह काम छुड़ा लेने में कामयाबी पायी थी, इस उम्मीद में कि यूनिट मैनेजर की कुर्सी उन्हें ही मिलेगी। बाद में वह इस कुर्सी पर बैठे भी। हालांकि अभय जी की सलाह और दूसरे साथियों की हामी पर तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी ने निर्भय सिन्हा की चाहत पर पानी फेर दिया था। जिम्मेवारी मुझे मिल गयी।

जहां तक मेरा अनुमान है कि निर्भय सिन्हा हमेशा इस फिराक में रहे कि कैसे यह कुर्सी उन्हें मिल जाये। गांव जाकर बीमार पड़ जाने पर मैंने दफ्तर को लिखित सूचना फैक्स से भेजवायी कि तबीयत खराब है। हफ्ते भर बाद लौट पाऊंगा। तब गांव में न फोन होते थे और फैक्स। मोबाइल तो सपने की चीज थी। भतीजे को घर से 8 किलोमीटर दूर मीरगंज (गोपालगंज जिले का एक कस्बा) भेज कर मैंने फैक्स भेजवाया। बाद में मेरे एक साथी सियाराम प्रजापति ने बताया कि आपका फैक्स आया था तो मैंने मिथिलेश जी को दे दिया था। सियाराम को पैक्स इसलिए मिला था कि वह प्रांतीय डेस्क के इनचार्ज थे। फैक्स से खबरें आती थीं और उस पर उन्हीं की नजर रहती थी।

इधर मेरी गैरहाजिरी को मिथिलेश जी और निर्भय सिन्हा ने हरिवंश जी के सामने इस रूप में पेश किया कि बिना सूचना गायब हैं। मिथिलेश जी ने भी किसी तरह की सूचना से इनकार किया था। जाहिर है कि हरिवंश जी को यह बात नागवार लगी होगी। जब मैं लौटा तो वह भी आये। आने के साथ ही मुझे बुलाया और कहा कि पूरे यूनिट की जिम्मेवारी आप पर है। आप बिना सूचना गायब रहे। नये साल के विज्ञापन का समय था। आपका यह आचरण ठीक नहीं। मैंने सफाई दी कि प्रापर सूचना देकर गया था और बीमार होने की हालत में फैक्स से समय पर सूचना दी। अब यूनिट का काम निर्भय सिन्हा संभालेंगे। खैर, हरिवंश जी और मेरे बीच खटास का बीजोरोपण हो गया।

दूसरा मौका 1998 में होली के वक्त आया। गांव गया था होली की छुट्टी में। होली के दिन कोई साथी हीरो होंडा मोटरसाइकिल लेकर आया। यह बाइक उन्हीं दिनों लांच हुई थी। मैं राजदूत बाइक चला लेता था तो सोचा इसे भी चला कर देखूं। जहां तक जाना था गया, पर लौटते वक्त नाली देख अचानक ब्रेक लगाया तो बाइक पलट गयी और उसके साइलेंसर से पैर का ऊपरी हिस्सा सट गया। देखने में छोटा फफोला लगा। अगले दिन मुझे पटना निकलना था तो घाव सुखाने वाला पाउडर उपर से छिड़का और पट्टी बांध जूते पहन निकल गया।

शाम को पटना दफ्तर पहुंचा। पता चला कि जिस मकान में हम रहते हैं, उसके निचले हिस्से में रहने वाले अविनाशचंद्र ठाकुर जी सपरिवार घर गये हैं। देर से जाने पर वही दरवाजा खोलती थीं। अब तो रात में घर जाने की उम्मीद थी नहीं, इसलिए मैं प्रेस में ही उन्हीं कपड़ों में न्यूज प्रिंट पर सो गया। सुबह घर गया और जूते-मो  जे हटा कर पट्टी खोली तो होश उड़ गये। मामूनी फफोला एक इंच के डायमीटर में चमड़े के साथ उखड़ गया। देख कर मेरे होश उड़ गये। चलने में दर्द होता था। मैं कमरे में ही दिन भर पड़ा रहा। फोन नहीं था कि किसी को सूचना दूं। शाम चार बजे तक दफ्तर नहीं पहुंचा तो खोजबीन करते सियाराम और उनके साथ एक और कोई आये। मेरी हालत देख एक ने नल से पानी भर कर बोतलों में रखा तो सियाराम किसी से पूछ कर मरहम और कुछ दवाएं दे गये।

तब संपादक-मैनेजर के लिए दफ्तर आने-जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं होती थी। डेढ़-दो किलोमीटर पैदल चल कर दफ्तर आना-जाना करना पड़ता था। उस हालत में इतना पैदल चलना संभव नहीं था। चार-पांच दिन तो उसी हालत में रहा। खाने की व्यवस्था अविनाश जी के परिवार के आ जाने पर उन्हीं के घर से हुई। चार-पांच दिन बाद हवाई चप्पल पहन कर दफ्तर जाना शुरू किया। इसे भी किसी ने अपने ढंग से प्रचारित-प्रसारित किया ही होगा।

जून-जुलाई के बाद से हरिवंश जी का मेरे प्रति रुख बदल गया। आखिरकार उन्होंने मेरी जगह यशोनाथ झा (वाईएन झा) को पटना में रखने का फैसला किया। मुझे धनबाद संस्करण शुरू करने के लिए भेजने का फैसला हुआ। यहां यह बताना अपना नैतिक धर्म समझता हूं कि प्रभात खबर में कभी हमारे वरिष्छ रहे अविनाश चंद्र ठाकुर को लेकर हरिश जी के मन में क्या था कि उनका रांची से तबादला पटना किया और उन्हें भागलपुर भेजने की बात आयी थी। हालांकि भागलपुर जाने से मैंने रोक लिया था। हम से पहले उनका तबादला धनबाद कर दिया गया। वह इस उम्मीद में वहां जाकर शुरुआती चीजें करते रहे कि संपादक उन्हीं को बनना है। लेकिन ऐन मौके पर मुझे जून 1999 में वहां भेज दिया गया। ठाकुर जी का फिर तबादला देवघर कर दिया गया।

अगस्त में धनबाद से प्रभात खबर शुरू होना था। पहली बार पेज मेकर पर पन्ने बनने वहीं से शुरू हुए। मैंने छोटी टीम बनायी, जिसमें डेस्क पर पटना से स्वयमप्रकाश (फिलहाल जी टीवी में बिहार-झारखंड के संपादक) और राकेश (अभी प्रभात खबर पटना) को लेकर मैं गया। कम आदमी, नया सिस्टम और 16 पेज का अखबार। उन मुश्किल क्षणों को याद कर अब भी सिहर उठता हूं।

तीन राज्य, पांच शहर और नौ तबादले। पत्रकारिता के बारे में जो सुना था, उस सत्य का साक्षात दर्शन मैंने कर लिया। असम के गुवाहाटी, झारखंड के रांची, बंगाल के कोलकाता, बिहार के पटना और झारखंड के धनबाद के बीच मेरे पत्रकारीय जीवन का पड़ाव बदलता रहा है। सुना था कि पत्रकारिता में मंजिल नहीं होती, अलबत्ता पड़ाव दर पड़ाव भटकाव खूब होता है। प्रभात खबर की नौकरी मैंने तीन बार छोड़ी और दो बार वापसी भी की। तीसरी बार वापसी में खुद को नाकाम पाया। ऐसा तब हुआ, जब मेरे ऊपर यह ठप्पा लगा था कि मैं हरिवंश जी का प्रियपात्र हूं। 1997-99 के बीच पटना के बाद मेरा अगला पड़ाव धनबाद बना, जो मेरे कार्यकाल का सर्वाधिक छोटा दौर महज ढाई-तीन महीने का रहा।

पटना-धनबाद के बीच चलने वाली गंगा दामोदर ही एक ऐसी ट्रेन है, जिसका समय कभी नहीं बदला। चाहे पटना से धनबाद जाना हो या धनबाद से पटना आना, दोनों ओर से उस ट्रेन का समय इतना यात्री अनकूल है कि किसी को परेशानी नहीं होती। वाईएन झा (यशोनाथ झा) को पटना की कमान सौं कर धनबाद की यात्रा की तैयारी में जुट गया। मेरा तबादला पटना के दो साल के प्रवास के बाद हरिवंश जी ने धनबाद कर दिया था। तब बिहार-झाऱखंड बंटे नहीं थे। मैं एक बड़ी कसक मन में लेकर धनबाद की यात्रा पर निकल रहा था। कसक यह थी कि हर कोई नीचे से ऊपर जाता है और मैं ऊपर से नीचे खिसक रहा था। महानगर कोलकाता से पटना राजधानी और अब धनबाद जैसा जिला।

योजना के मुताबिक जिस दिन मुझे धनबाद निकलना था, उसके अगले दिन पटना से सीवान के अपने गांव के लिए बच्चों को निकलना था। एक अखबारी जीप एजेंट से मैंने आग्रह किया कि वे परिवार को घर तक छोड़ने के लिए जीप की व्यवस्था कर दें। यहां एक और पीड़ा का जिक्र करना मुनासिब समझता हूं। मेरे छोटे भाई की पत्नी की शादी तकरीबन दस साल होने को थे। उसे कोई संतान नहीं थी। उसके तीन-चार एबार्शन हो चुके थे। वह गर्भवती होती, पर तीन-चार महीने होते ही एबार्शन हो जाता। वह जब गर्भवती हुई तो उसे पटना बुला लिया था। इलाज मेरे एक व्यवसायी मित्र जगदीश मोहनका की डाक्टर बहन की देखरेख में चल रहा था। उन्होंने आठ महीने तक बेड रेस्ट की सलाह दी थी। तब उसके गर्भ का पांचवा महीना चल रहा था। काफी उम्मीद बंधी थी। उस हाल में उसे भी तब सीवान तक की खराब सड़क पर उसे जीप से जाना पड़ा। मेरे भीतर गुस्सा इतना भरा था कि सामने वाले का मुंह नोच लेने की मनःस्थिति बन गयी थी।

संभवतः जून 1999 की वह रात 18 या 19 जून की थी। मैंने एक बैग में किताबें, डायरी और कुछ कपड़े पैक कर निकल रहा था। निकलते समय मेरी तब सबसे छोटी एक दुलारी बेटी पुतुल (प्रिया अश्क) ने सोने का प्रहसन किया। निकलते वक्त सबसे मिल रहा था तो पूछा कि लगता है कि पुतुलवा सो गयी है तो उसने आंख बंद किये ही तपाक से कहा- हम सुतल नइखीं, जागले बानी। इसके आगे अपनी हालत को बयां करने के लिए मेरे शब्दकोश के शब्द देने से हाथ खड़े कर दिये हैं, इसलिए इस प्रसंग को विस्तार देने के बजाय यहीं विराम देते हैं। आप कल्पना कर लें कि मैं किस मनःस्थिति में रहा होऊंगा।

अगली सुबह मैं धनबाद पहुंच गया। गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था थी। उसी में तब यूनिट मैनेजर आरके ओझा परिवार के साथ अपना डेरा जमाये हुए थे। उन्हें यह भनक थी कि मेरे आने से उन पर अंकुश लग सकता है। शायद यह बात उन्होंने अपनी पत्नी से शेयर की थी। अभी प्रभात खबर के कार्यकारी निदेशक आरके दत्ता भी मेरे धनबाद पहुंचने के वक्त वहां गेस्ट हाउस में मौजूद थे। मैंने बैग रख दिये और फ्रेश होकर सभी दफ्तर के लिए निकल गये।

इसी दौरान एक दिलचस्प घटना हुई। दफ्तर का ही एक आदमी दौड़ते हुए आया और बताया कि आपके बैग से गोजर किस्म का कोई कीड़ा निकला है, ऐसा कहना है ओझा जी की पत्नी का। वह पूरे मोहल्ले में हल्ला मचा रही हैं कि उनके पति को हटाने के लिए मैंने कोई टोटका कराया है। जब मैं लौटा तो केयरटेकर के तौर पर वहां रह रहे दफ्तर के पिउन प्रमोद ने बताया कि भैया, गोजर था, जो बाथ रूम की तरफ से आया था। उसे मैंने झाड़ू से बाहर फेंक दिया। एक तो मैं टूटे मन से धनबाद गया था और ऊपर से श्रीमती ओझा की टिप्पणी ने मन को बहुत झकझोरा। अपनी किस्मत पर ही रोना आया। खैर, दत्ता जी ने पूरा माजरा समझ लिया और ओझा जी को गेस्ट हाउस से परिवार लेकर जाने को कह दिया। बहरहाल धनबाद का मेरा कार्यकाल महज तीन महीने ही रहा। 19 जून को पहुंचा था और अगस्त के आखिर में नौकरी ही छोड़ दी।

मैं बचपन से ही जिद्दी और जिम्मेवारी निभाने वाले स्वभाव का रहा हूं। इसके लिए कई बार इतना जुनूनी होता रहा कि घर-बार का भी कभी कोई फिक्र नहीं किया। मेरे बेटे ने एक दिन अपनी पीड़ा का इजहार कर दिया कि आप ने हम लोगों की चिं  ही कितनी की है। उसे 28 साल की उम्र तक पहंचने के बावजूद इस बात का मलाल है कि मैंने उन लोगों के लिए कभी समय ही नहीं निकाला। सुबह सोते रहे तो बच्चे पैर छूकर स्कूल चले गये। जब वे स्कूल से लौटे तो मैं दफ्तर में था। रात दफ्तर से लौटा तो बच्चे सोते मिले। शनिवार-रविवार जैसे सप्ताहांत की साप्ताहिक छुट्टियां तक लेने से कतराते रहे। यह सब सिर्फ दो पैसों के लिये भले किया, पर बच्चों को समय न देकर कितना बड़ा गुनाह किया, वह बेटे के दुखी कर देने वाले सवाल से जाहिर था कि आप ने हम लोगों के लिए कितना समय दिया। न एडमिशन कराने खुद स्कूल गये, न कभी पैरेंट्स मीटिंग में जा पाये और न अन्य स्कूली आयोजनों में कभी शिरकत की। जिद्द और जुनून की बात मैंने इसलिए कही थी कि काम के आगे मुझे कुछ भी नहीं सूझता था। धनबाद जाने का गुस्सा भी इस जिद के आगे परास्त हो गया। मेरे मनोमस्तिष्क में सिर्फ एक ही धुन सवार थी कि किसी तरह अखबार की शुरउआत हो जाये, फिर आगे की रणनीति बने।

इस बात का शिद्दत से अहसास तब हुआ, जब जून 1999 में मुझे धनबाद जाना पड़ा। धनबाद से 12+4 पेज का अखबार निकलना था। प्लेट बनाने की आधुनिक मशीन तब थी नहीं। छपाई की मशीन भी पुरानी और पटना से उखड़ कर लगी थी। यह वही बंधु मशीन थी, जो 1989 में प्रभात खबर के नये प्रबंधन को रांची में विरासत में मिली थी। प्रभात खबर के तब तीन ही प्रकाशन सेंटर चल रहे थे- रांची, जमशेदपुर और पटना। धनबाद उसमें नया जुड़ रहा था। तीनों सेंटर पर पन्ने तब पेस्टिंग प्रोसेस से बनते थे। धनबाद में इसे पेज मेकर पर बनाया जाना था। यानी पन्ना कटिंग-पेस्टिंग की बजाय कंप्यूटर स्क्रीन पर तैयार होना था।

संपादकीय की छोटी टीम बनायी। दो नये लड़के कंप्यूटर के लिए रखे गये और एक आदमी- गहमान रांची से रिजेक्ट होकर धनबाद आये। संपादकीय डेस्क पर स्वयंप्रकाश, राकेश और एक-दो लड़के थे। रिपोर्टिंग के इनचार्ज अनुराग कश्यप (अभी प्रभात खबर धनबाद के संपादक), अभय सिंह, दिलीप दीपक, रामजी यादव और कतरास से मुस्तकीम जुड़े थे। इतने नाम स्मृति पटल पर अब भी तैर रहे हैं, इसलिए इनसे किसी न किसी बहाने अक्सर संवाद होता रहता है। हां, रेलवे और एजुकेशन बीट पर पार्ट टाइम गौरीशंकर पांडेय भी जुड़े थे। छोटी टीम के साथ पेज मेकर पर काम का अभ्यास शुरू हो गया।

दिन-रात कंप्यूटर की नयी तकनीक सीखने में बीतने लगे। आखिर में गेस्ट हाउस में रहने वाला मैं ही बचा था। साथ में पिउन प्रमोद थे। सुबह 10 बजे दफ्तर जाकर सर्वर आन करने का जिम्मा स्वयंप्रकाश का था। पासवर्ड गोपनीय था, इसलिए इसकी जानकारी मुझे थी और अति विश्वास के कारण मैंने स्वयंप्रकाश को इसे बता रखा था। हफ्ते-दस दिन में राकेश पिताजी की तबीयत खराब होने के बहाने चला गया और स्वयंप्रकाश बुखार से इस कदर पीड़ित हुए कि उन्हें घर लौटना पड़ा। अनुमान लगाया जा सकता है कि तब किन स्थितियों में काम हो रहा होगा।

इसी बीच पत्नी तब तक पैदा हो चुके पांच बच्चों में से दो के साथ धनबाद आयीं। स्टेशन लेने मैं गया था। मेरे बढ़े-बेढंगे बाल और लगातार छंटने वाली दाढ़ी बढ़ कर बेतरतीब हो चुकी थी। तनाव और अनिद्रा चेहरे पर झलक रही थी। सभी साथी मेरी इस हालत को रोज देखते होंगे, लेकिन कभी किसी ने कुछ नहीं कहा। पत्नियां इस मामले में बड़ी समझदार होती हैं। पहली ही नजर में पत्नी ने भांप लिया कि मैं बड़ी परेशानी से गुजर रहा हूं।

सबको लेकर घर आया। कुछ ही देर में दफ्तर के निकलने की तैयारी करने लगा। मां-बाप के पास बच्चे रह कर अतिशय प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं, लेकिन मेरे पास आये बच्चे मेरी दिनचर्या से इतना ऊब गये कि पत्नी ने घर पहुंचा देने की बात कही। मैंने बीमार चल रहे स्वयंप्रकाश को कहा कि आप भी घर चले जाइए और इन लोगों को सीवान तक पहुंचा दीजिएगा। उन्हें सोनपुर तक ही जाना था और परिवार को सीवान तक। बाद में मेरी पत्नी ने बताया कि स्वयंप्रकाश की तबीयत इतनी खराब थी कि उन्हें सोनपुर में ही उतर जाने और अकेले सीवान पहुंच जाने की आश्वस्ति दी।

धनबाद के कार्यकाल के तीन महीने में एक चीज मैंने नोट की। अविनाश चंद्र ठाकुर के प्रति हरिवंश जी की सख्ती कुछ ज्यादा थी। इसकी वजह आज तक नहीं जान पाया। मेरे धनबाद जाते ही उनका तबादला देवघर ब्यूरो में कर दिया गया। वहां पहले से ही प्रभात खबर के प्रतिनिधि कोई वर्णवाल जी थे। ठाकुर जी का संकट यह कि उनका परिवार धनबाद में और वह देवघर में। हरिवंश जी को शिकायत मिली कि ठाकुर जी देवघर से हर हफ्ते दो-तीन दिन गायब रहते हैं। इसे आधार बना कर मुझे उन्होंने टास्क सौंपा कि तीन दिन के अंदर उन्हें हटा दें। मैं बड़ी पसोपेश में था। पुराने साथी थे।

आसनसोल में पत्रकारों का कोई आयोजन था। मैं भी उसमें शामिल होने गया था। इसी बीच मेरे गांव से कोई फोन आया और किसी ने बताया कि मेरी बड़की माई (बड़ी मां) की तबीयत खराब है। दिन के साढ़े तीन बजे मैं आसनसोल से धनबाद लौटा तो अनुराग ने यह सूचना दी। फिर उन लोगों ने ही सलाह दी कि थोड़ी देर में ही कोई ट्रेन आने वाली है, जो सीवान तक जाएगी। रिजर्वेशन तो है नहीं, यह कहने पर गौरीशंकर पांडेय मुझे लेकर स्टेशन आ गये। ट्रेन खुलने ही वाली थी। उन्होंने किसी टीटीई से बात की और उसने बिठा लिया। बिना टिकट वह टीटीई मुझे बरौनी तक लेकर आया और कहा कि यहां ट्रेन कुछ देर रुकेगी, आप काउंटर से सीवान का टिकट ले लीजिए। मैंने कहा कि गेट पर चेक हो रहा है तो उसने खुद टिकट लाकर दे दिया। इस तरह मैं सीवान पहुंच गया

सहमति और संवाद का साथ मिल जाये तो जीवन में किसी तरह की समस्या का जन्म ही न हो। मेरा अनुभव तो यही कहता है। आप कोई फैसला लेने जा रहे हों और उसमें सबकी सहमति हो तो विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचती। और, अगर समस्या हो तो संवाद से समाधान के छोर को पकड़ा जा सकता है। अगर ये दोनों संभव न हों तो समस्या जस की तस बनी रहने तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि विकराल रूप भी धारण कर लेती है। यह सिद्धांत हर व्यक्ति या संस्थान के साथ लागू होता है। धनबाद के लिए हरिवंश जी द्वारा मेरे तबादले में सहमति की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी, इसलिए कि यह उनका आदेश था। अपनी समस्याएं बता कर यानी संवाद स्थापित कर ताबदले से बचने या अन्य कोई उपयुक्त जगह तलाशने की संभावना बनती तो थी, पर हरिवंश जी से मेरे जैसे लोगों का संवाद आसान काम न था। धूमिल की ये पंक्तियां ऐसे प्रसंग के जिक्र में बरबस याद आती हैं- दाहिने हाथ की नैतिकता से बायां हाथ इस कदर दबा होता है कि जीवन भर…धोने का काम वहीं करता है। हरिवंश जी से आंख मिला कर बात करने का नैतिक साहस किसी में नहीं था। शायद यही वजह रही कि उनके कई संपादकों ने प्रभात खबर की नौकरी चोरी-चुपके छोड़ दी। उनमें मैं भी एक था।

धनबाद में प्रभात खबर का प्रकाशन शुरू हो गया था। काम का दबाव तो था ही, ऊपर से अविनाश चंद्र ठाकुर को हटाने का हरिवंश जी का प्रेसर अलग था। हरिवंश जी कहीं बाहर की यात्रा पर दो-तीन दिन के लिए जा रहे थे। उन्होंने शाम को मुझे फोन किया कि दो दिन बाद वह लौट कर आयेंगे। इस बीच अविनाश चंद्र ठाकुर का इस्तीफा आ जाना चाहिए। मैं भारी मानसिक दबाव में था। एक तो ठाकुर जी मेरे पुरानी साथी थे, दूसरे तात्कालिक कारणों से उनमें शिथिलता भले आ गयी हो, पर वह काम करने में कोताह नहीं थे। तीन साल में कोई आदमी तीन तबादले झेल चुका हो, चौथे से किसी तरह बचा हो, जाहिर है कि काम के प्रति उसका मानस बन ही नहीं सकता।

बहरहाल, आसानसोल से लौटा ही था कि बड़ी मां की बीमारी की सूचना मिली और अपने अंशकालिक रिपोर्टर गौरीशंकर पांडेय की मदद से मैं मौर्य एक्सप्रेस का यात्री बन सीवान के लिए निकल गया। ट्रेन से उतर कर गांव के लिए चला। अपने गांव के बाजार में पहुंचते ही श्यामदेव काका (दोनों पैरों से दिव्यांग होने के कारण हम उन्हें लंगड़ काका कहते थे) का स्कूल दिख गया। ऊमस भरे दिन थे। मेरे बच्चे उनके स्कूल में उस वक्त पेड़ के नीचे बैठ कर पढ़ रहे थे, जब मैं उधर से गुजर रहा था। बच्चे मुझे देखते ही कक्षा छोड़ दौड़ते हुए मेरे पास आये। कभी यूनिफार्म में स्कूल जाने वाले अपने बच्चों को सामान्य कपड़ों में देख कर सिर पर सोच का पहला हथौड़ा पड़ा। घर गया तो पाया कि सबके चेहरे पर चमक लौट आई है।

उसी वक्त से एक बात मन में बार-बार उठने लगी कि मैं इतनी परेशानियों को झेल कर किसके लिए काम करता हूं। इन्हीं बच्चों के लिए ही न। जब बच्चे गांव के स्कूल में पेड़ के नीचे ही पढ़ेंगे तो मेरी नौकरी का क्या मतलब रह जाता है। हफ्ते भर तक निश्चिंत भाव से घर पर पड़ा रहा। आखिरकार एक कठोर निर्णय लिया, जिसके परिणाम के बारे में तब तनिक भी ख्याल नहीं आया। मैंने नौकरी छोड़ देने का फैसला कर लिया। विकल्प मेरे पास एक ही था। मैंने सात-आठ साल तक अपना स्कूल चलाया था। सोचा, उसी स्कूल को रिवाइव करेंगे, जहां मेरे बच्चे भी पढ़ लेंगे और खटाल खोल लूंगा, जिससे कुछ और आमदनी हो जायेगी। आमदनी के पूरे गणित का एक ही हासिल था- दस हजार रुपये की पगार के बराबर कमाना।

दस-बारह दिन बाद मैं पटना पहुंचा। इस्तीफा लिखा, जिसमें आग्रह किया कि पारिवारिक कारणों से मैं संस्थान छोड़ना चाहता हूं। पटना में नौकरी का बंदोबस्त होने तक (कम से कम एक माह) प्रिंट लाइन में मेरा नाम जाता रहे, तो कृपा होगी। प्रभात खबर के पटना दफ्तर से जाने वाले इंटरनल कूरियर में पत्र डाल दिया और अगले दिन किसी माध्यम से हिन्दुस्तान, पटना के प्रबंधकीय महकमे के सर्वोच्च अधिकारी वाईसी अग्रवाल से मिला। अभय सिन्हा तब हिन्दुस्तान चले गये थे। उन्होंने ही अग्रवाल साहब के पीए से मिला दिया। पीए ने अग्रवाल साहब से मुलाकात करा दी। तकरीबन 45 मिनट तक हम लोगों ने बात की। एक तरह से बात पक्की हो गयी रांची के लिए। इंबार्गो उनकी ओर से यही था कि यह काम संपादकीय विभाग का है, इसलिए अंतिम निर्णय वहीं से होगा, लेकिन वे मेरा नाम रांची से अगले साल लांच होने जा रहे हिन्दुस्तान के संपादकीय प्रभारी के रूप में अवश्य प्रस्तावित करेंगे। बाहर निकलने पर अभय जी ने मुझ से कहा कि इतनी देर तक वह किसी से बात ही नहीं करते। आप से अगर लंबी बात कर ली तो आप अब मिठाई बांटिए, आपका काम हो गया।

मैं भी निश्चिंत और खुश होकर गांव लौट गया। इस्तीफे के बाद नैतिक बोझ भी सिर से उतर गया था। वैसे मैं खटाल और स्कूल की अपनी योजना पर भी काम कर रहा था। पैसे तो थे नहीं, सोचा कि फुल एंड फाइनल के बाद जो पैसे प्रभात खबर से मिलेंगे, उसी से काम आगे बढ़ाऊंगा।

इधर मेरे इस्तीफे का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि धनबाद के संपादकीय प्रभारी की जगह खाली हो गयी और अविनाश चंद्र ठाकुर जी को लीज आफ लाइफ मिल गया। उन्हें ही प्रभारी का दायित्व सौंपा गया। हालांकि जिस तनाव में धनबाद में काम हो रहा था, उसे झेलना सबके वश की बात नहीं थी। पता चला कि अगले दूसरे या तीसरे महीने में अविनाश चंद्र ठाकुर को पारालिटिक अटैक हो गया। दो-तीन महीने आराम के बाद ही वह सामान्य हो पाये। इस बीच वहां संपादक के रूप में अनुराग अन्वेशी या राघवेंद्र को भेजा जा चुका था।

आमतौर पर आदमी अमंगल से भयभीत होता है, पर यह भूल जाता है कि अमंगल में भी कल्याण के बीज भी छिपे होते हैं। प्रथमदृष्टया घर का टूटना पीड़ादायक लगता है, लेकिन नयी अट्टालिका की नींव डालने के लिए पुराने का टूटना भी तो जरूरी है। चार महीने तक की बेकारी में मैं गांव से बाहर नहीं गया। योजनाएं बनती रहीं। पैसे खत्म हो चुके थे। परेशानियां अपना जोर दिखाने लगी थीं। हिन्दुस्तान जाने की बात तो की थी, पर उसका कोई जवाब नहीं आ रहा था।

दिसंबर 1999 की कोई तारीख रही होगी। पैसों की तंगी से परेशान होकर मैंने प्रभात खबर से फुल एंड फाइनल कराने का उपाय सूझा। नौकरी छोड़ने के बाद भी सीधे प्रधान संपादक से बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। एक उपाय सूझा। उन दिनों हरिवंश जी और केके गोयनका जी के पास मोबाइल फो न आ गया था। उन पर कहीं से भी किसी फोन से लोकल काल हो जाता था। दो रुपये देकर मैंने अपने भतीजे को मीरगंज (मेरे इलाके का शहर, जो गोपालगंज जिले में है) भेजा और हरिवंश जी और गोयनका जी का मोबाइल नंबर दिया। उससे कहा कि पहले गोयनका जी के नंबर पर काल करना और लग जाये तो बताना कि तुम अश्क के भतीजे हो। अश्क जी ने पूछा है कि उनके गये बगैर उनका फुल एंड फाइनल हो सकता है क्या। अगर वह अथारिटी लेटर दे दें तो पैसा उस आदमी को मिल पायेगा। संयोग से गोयनका जी का मोबाइल एंगेज मिला तो उसने हरिवंश जी को फोन लगा दिया।

हरिवंश जी ने कहा कि अश्क को ही पैसे मिलेंगे। उन्हें 14 दिसंबर तक आने को कहो। वह लौट आया और मुझे सारी बातें बतायीं। मुझे एक बात खटकी कि 14 दिसंबर तक ही क्यों। फिर सोचा कि संभव है कि उसके बाद उन्हें कहीं बाहर निकलना हो। मैं मानसिक तौर पर अपने को रांची जाने के लिए तैयार करने लगा।

14 दिसंबर की सुबह जो बस मुझे बस रांची पहुंचा देती, वह रास्ते में दो-तीन जगह खराब होती रही और अंततः शाम पांच बजे के आसपास रांची के बूटी मोड़ तक ही गयी। शाम होने को थी। मैंने हरिवंश जी के नंबर पर हिम्मत जुटा कर फोन किया। उधर से आयी आवाज साफ नहीं थी। मुझे लगा, कोई और है। जैसे ही मैंने कहा कि मुझे हरिवंश जी से बात करनी है तो उधर से आवाज आयी- अरे पागल, कहां हो। इस तरह कोई नौकरी छोड़ता है। मैंने सुन लिया और बताया कि बस ने बूटी मोड़ तक ही छोड़ा है। यहां से आने में जितना वक्त लगे। उन्होंने कहा कि तुम सीधे मेरे पास आना।

आधे घंटे के अंदर मैं प्रभात खबर के गेट पर था। वाचमैन ने रजिस्टर में अपना नाम और किससे मिलना है, यह लिखने को कहा। जैसे ही मैंने ओमप्रकाश लिखा, उसने रोका- आप अश्क जी हैं। हां, कहने पर उसने कहा कि थछोड़ दीजिए, आप सीधे सर के कमरे में चले जाइए। मैं बीच में पड़ने वाले संपादकीय विभाग की ओर ताके बगैर उनके कमरे में प्रवेश किया। तब कोई सज्जन उनके पास बैठ थे। शायद कोई बिल्डर थे, किसी फ्लैट के बारे में उन्हें बता रहे थे।

मेरे जाते ही उन्होंने उनसे कहा कि कल बात करते हैं, अभी मुझे एक जगह निकलना है। फिर मुझे साथ लेकर नीचे आ गये और गाड़ी में बिठा कर निकल गये। रास्ते में पूछा कि कहां ठहरे हो, अगर कोई दिकक्कत हो तो रहने का इंतजाम कर देंगे। जब मैंने बताया कि मैं अपने भतीजे के घर ठहरूंगा। वह रांची यूनिवर्सिटी में वीसी के पीए हैं। फिर उन्होंने अशोकनगर के अपने आवास का पता दिया और कहा कि कल सुबह 10 बजे वहीं पहुंचो, बात करते हैं।

अगले दिन नियत समय पर हम घर पहुंच गये। कुछ देर के लिए वह बाहर गये थे। बेटे को उन्होंने कह रखा था कि अश्क आयें तो बिठाना। दस-पंद्रह मिनट ही बीते होंगे की वे आ गये। आते ही हालचाल पूछा। नौकरी छोड़ने का कारण पूछा, यह कहते हुए कि ऐसे नौकरी छोड़ी जाती है। मैंने अपनी पीड़ा बतायी कि राजधानी से जिला में आप ने भेजा, यह भी नहीं सोचा कि बच्चों का एडमिशन मैंने पटना में करा लिया है। इस पर उनका जवाब था कि धनबाद जैसी जगह के लिए मुझे कोई दिख नहीं रहा था और रही बात बच्चों की तो मैंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया था। खैर, वे बाजार से अमरूद लेकर आये थे। अमरूद उनका पसंदीदा फल है।   उनके अमरूद प्रेम पर कभी अलग से लिखूंगा।

उन्होंने सीधे पूछा कि तुम्हें कौन-सी जगह पसंद है। इस पर मैंने कहा कि पसंद तो कलकत्ता है, लेकिन अभी कलकत्ता में तो कुछ है नहीं। इस पर उन्होंने कहा कि जाओ कलकत्ता। मैंने पूछा, वहां क्या करूंगा। उन्होंने कहा कि अखबार निकालने का प्लान करो। कब जाओगे। मैंने जवाब दिया कि सोच कर बताऊंगा। इसलिए कि 15 दिसंबर से खरमास शुरू हो गया। उन्होंने कहा कि 30 तारीख तक मुझे बता देना। इसके बाद वह मुझे अपने कमरे में ले गये और बिछावन के नीचे से तीन लिफाफे निकाले। उन लिफाफों में पैसे थे। दरअसल सैलरी से अलग हर महीने एक निश्चित राशि वह मुझे देते थे। जून से अगस्त के बीच उनसे मिलना नहीं हुआ था तो वे लिफाफे उन्होंने अपने पास ही रखे थे। फाइनल के लिए उन्होंने अपने साथ ही दफ्तर चलने को कहा तो मैंने मना कर दिया, यह कह कर कि स्कूटर से अपने भतीजे के साथ आ जाऊंगा।

दफ्तर पहुंचे तो एचआर (तब इस विभाग को पर्सनल कहा जाता था) का काम देख रहे आरके दत्ता जी ने से कह कर उन्होंने मेरा हिसाब करा दिया और भुगतान भी हो गया। जाते समय उन्होंने मेरा कांटैक्ट नंबर रख लिया, जो पटना वाले किराये के मकान का था। वहां मेरे गांव का एक भतीजा रहता था।

30 दसंबर तक हरिवंश जी से मेरे भतीजे से दो बार पूछ चुके थे कि अश्क ने कोई सूचना भेजी है। गांव आने पर उसने मुझे बताया। मैंने कहा कि अब फोन आये तो बता देना कि मैं कलकत्ता जाने के लिए तैयार हूं और 14 जनवरी को रांची पहुंचूंगा।

कलकत्ता जाने के नाम पर बच्चे भी खुश थे और दोबारा नौकरी मिल जाने के कारण घर-परिवार में भी खुशी थी। 14 जनवरी को मैं पटना पहुंच गया। तब तक उनका दो बार फोन आ चुका था कि मैं आया कि नहीं।  शाम में मेरी बात हुई। उन्होंने पूछा कि आज तो तुमको रांची पहुंचना था तो मैंने कहा कि तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए कल निकलूंगा। उनको आश्वस्त कर हम अपने साथियों से गप मारने में जुट गये। साथी थे अजय कुमार और रजनीश।

अगले दिन रांची के लिए निकला और अंततः 16 जनवरी को पहुंच गया। वह कोई शनिवार था। उन्होंने कहा कि तुम कलकत्ता निकलो, कल केके गोयनका जी भी जाएंगे। आफिस देखना है और अखबार की प्लानिंग करनी है। दत्ता जी से अपना कांट्रैक्ट लेटर ले लेना। मैंने कहा कि आज शनिवार है, किसी और दिन ले लूंगा। दरअसल अब तक जहां-जहां नौकरी की या छोड़ी, संयोग से दोनों शनिवार के दिन ही हुए। यह भी दिलचस्प है कि दत्ता जी ने कूरियर से लेटर भेजा, वह भी शनिवार को ही मिला। इस तरह मैं एक बार फिर काली के देस कलकत्ता (अब कोलकाता) के लिए रवाना हो गया।

शायद वह भी 19 जनवरी थी सन 2000 की। सुबह मेरे पांव कोलकाता की सरजमीं पर तीन साल बाद पड़े थे। जाने के पहले अपने कुछ पुराने साथियों से बातचीत हो गयी थी, इसलिए मैं ट्रेन से उतर कर सीधे दमदम कैंटोनमेंट पहुंचा डा. मान्धाता सिंह के घर, जो जनसत्ता के दिनों के मेरे साथी थे। सामान वहीं रखा। खाना खाया और दस बजे निकल गया। मैं उसी दफ्तर पहुंचा, जिसे प्रभात खबर के अनुषंगी साप्ताहिक कारोबार खबर के लिए 1995 में बनवाया गया था और मई 1997 तक मेरा वहीं बैठना होता था।

दफ्तर में कारोबार खबर के पुराने साथियों का जमावड़ा लगा। उनमें सुशील कुमार सिंह, कौशल किशोर त्रिवेदी प्रमुख थे। कहां ठिकाना बनाया जाये, इस पर विमर्श हुआ और कौशल ने बताया कि उन्होंने अपने ही घर के पास मेरे ठहरने का इंतजाम किया है। शाम को मैं उनके साथ गया। कौशल का घर जहां था, उसी से सटे एक चाचा रहते थे, जिन्हें कौशल के जरिये ही हम जानते हैं। चाचा मुसलिम थे, लेकिन उनकी रसोई अपने ही घर में अलग थी। उनका खाना बनाने वाला एक नेपाली युवक था। चाचा के बारे में जानने वाली बात यह है कि वह पलासी एस्टेट के कभी मैनेजर रहे थे, इसलिए एस्टेट के विखंडित होने पर कोलकाता में काफी प्रापर्टी उनके पास थी। वे जिस घर में रहते थे, वह एक कोठी थी। उसी कोठी में एक क्यूबिकल में मेरा बिस्तर लग गया। खाना मैंने कौशल के यहां खाया और क्यूबिकल में सो गया। अल्लसुबह साफ-सफाई के लिए कोई महिला आई तो खटरपटर से नींद टूट गयी। चाचा ने भांप लिया कि मैं ठीक से सो नहीं पाया। उन्होंने कौशल से कहा कि कारपेंटर बुलवायें और इनके सोने के लिए क्यूबिकल की काठ की दीवारें ऊंची छत से सटा कर बनवा दें। उनकी चिंता यह थी कि अखबार वाले देर रात तक जगते हैं और सुबह देर से उठते हैं। क्यूबिकल की वजह से परेशानी होगी मुझे।

बहरहाल अगले ही दिन मुझे दमदम कैंटोनमेंट में मान्धाता जी ने एक घर दिला दिया। पहली बार जब कोलकाता छोड़ रहा था तो एक सिंगल बेड साइज का गद्दा मान्धाता जी को दे आया था। उन्होंने वह गद्दा मेरे घर भेजवा दिया। खाना बनाने के लिए एक महिला मिली, जिसकी खासियत यह थी कि एक ही घर में वह 30 साल से काम कर रही थी। यानी भरोसेमंद थी। सुबह ही वह आती और दो समय का खाना बना कर चली जाती। रात में मैं आता तो सिर्फ चावल बनाता। सब्जी और दाल दिन की ही बची रहती, इसलिए कि वह दोनों समय का बना देती थी और दो कटोरों में रख कर चली जाती।

19 जनवरी को मैं कोलकाता गया था और प्रभात खबर का प्रकाशन 31 अक्तूबर को हुआ। यानी नौ-दस महीने सिर्फ इसकी तैयारी में मैंने जाया किये। दफ्तर का रूटीन बिल्कुल स्कूल की तरह था। दस बजे सुबह निकलो और शाम पांच बजे घर आ जाओ। दफ्तर में दिन भर टीम की तैयारी और अकबार की योजना पर बात होती। पुराने  साथियों में गोपाल साव, कौशल किशोर, सुशील तो नियमित मिलते, बाकी भी कभी कभार आ जाते। मेरी योजना थी कि डेस्क और रिपोर्टिंग में 10-15 साथी ही रहें। इसलिए जहां नया दफ्तर मिला, वहां सिर्फ विजिटर्स मिला कर 25 लोगों के बैठने की ही व्यवस्था थी।

अब बारी आयी दफ्तर तलाशने की। केके गोयनका जी और मैं एक वास्तुविद श्याम लाल जालान (अब नहीं रहे) को लेकर दिनभर साल्टलेक में दफ्तर की तलाश करते रहे। वास्तुविद ने आधा दर्जन मकान किन्हीं न किन्हीं कमियों के कारण रिजेक्ट कर दिया। दिन भर की तलाश के बाद भी कोई कामयाबी नहीं मिली। अकिरकार हमने उस जगह को पसंद किया, जिसे गोयनका जी नापसंद कर चुके थे। इस बार उनकी भी सहमति मिल गयी और 3, डेकर्स लेन, कोलकाता में प्रभात खबर के दफ्तर की बात फाइनल हो गयी। इंटेरियर का ठेका उसी ठेकेदार को दिया गया, जिसने रांची में प्रभात खबर के सिटी आफिस का काम किया था। मई से इंटेरियर का काम शुरू हुआ और अखबार निकलने के दो-चार दिन पहले तक चलता रहा।

इस बीच टीम बन गयी थी। सर्कुलेशन में देवाशीष ठाकुर और विज्ञापन में सुशील कुमार सिंह शुरू से मेरे साथ रहे। संपादकीय में नियुक्तियां हो गयीं। अखबार की संभावनाओं पर मैंने एक रिपोर्ट तैयार की- स्कोप। इसमें तमाम तरह के आंकड़ों को लेकर यह संभावना तलाशी गयी थी कि प्रभात खबर के लिए स्कोप क्या है।

योजनाएं बनाना आसान है, पर अमल करना-कराना बड़ा मुश्किल। धनबाद में रहते एक बार अपने पर्सनल मैनेजर आरके दत्ता जी को गेस्ट हाउस में मैंने बताया था कि क्यों न कोलकाता का संस्करण भी शुरू किया जाये। इसकी रूपरेखा मैंने उनसे शेयर की थी। मेरा मानना था कि पुस्तकों के प्रकाशन करने वाले न खुद लेखक होते हैं, न उनके पास छपाई की मशी होती है, न वे खुद बाइंडर होते हैं, कवर भी वे खुद नहीं बनाते, लेकिन किताबें बेच कर मुनाफा कमाते हैं। क्यों न हम लोग भी वाउचर पेमेंट पर थोड़े लोग जुटा लें, किराये का दफ्तर लें और भाड़े की मशीन पर प्रिंट करा कर अखबार से विज्ञापन की कमाई करें। कोलकाता के विज्ञापन बाजार का मुझे अच्छा ज्ञान था। बात आयी-गयी औक खत्म हो गयी, इसलिए कि पहला लक्ष्य धनबाद से अखबार का प्रकाशन था।

बाद में कोलकाता जाने पर ठीक इसी तर्ज पर अखबार की मैंने योजना बनायी। स्टाफ के नाम पर सिर्फ देवाशीष ठाकुर, मैं और सुशील थे। बाकी साथी वाउचर पेमेंट वाले थे, जिनकी तनख्वाह हजार से साढ़े छह हजार के बीच थी। मसलन कम खर्च में अखबार निकालने की योजना। इस बीच सर्कुलेशन एजेंट बनाने, टीम तैयार करने और दफ्तर के इंटेरियर का काम चलता रहा।

मेरा परिवार भी इस बीच मई में आ गया था। गर्मी की छुट्टी के बाद बच्चों का एडमिशन कराना था। दमदम कैंटोनमेंट के दो लड़के पिउन के काम के लिए मैंने रखे। नियुक्तियों में किसी भी स्तर पर कोई दखलंदाजी नहीं। मई की वह तारीख याद नहीं, जिस दिन शाम चार बजे हरिवंश जी का फोन आया, यह कहते हुए कि अश्क तुम रांची आ सकते हो। मैंने सोचा अखबारे के बारे में कोई मशविरा करने के लिए बुला रहे हैं। मैंने कहा कि कल निकल जाऊंगा। इस पर उन्होंने कहा कि आज ही निकल सको तो अच्छा रहेगा। फिर उन्होंने बताया कि हरिनारायण जी ने इस्तीफा दे दिया है। वे हिन्दुस्तान जा रहे हैं। पहले ही प्रभात खबर से कई लोग हिन्दुस्तान जा चुके हैं। इस बार पूरे संपादकीय को हिन्दुस्तान ले जाने की उनकी योजना है। मैंने उसी दिन रांची निकलने की हामी भर दी।

रात में खाने के लिए रोटी-सब्जी ली और 9.30 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन निकल पड़ा बिना रिजर्वेशन के। ट्रेन में काफी भीड़ थी। टीटीई ने बाताय कि किसी बोगी में बर्थ खाली नहीं है। झख मार कर जनरल बोगी में समा गया। बैठने की कोई गुंजाइश थी नहीं, इसलिए खड़े-खड़े रांची की मेरी यात्रा प्रारंभ हुई, जो उसी मुद्रा में जमशेदपुर पहुंचने पर समाप्त हुई। वहां कुछ लोग उतरे तो मैं बैठ गया। पत्नी का दिया टिफिन अब तक खोल नहीं पाया था। फिर टिफिन खोला और रोटियां खायीं।

अगले दिन 10 बजे दफ्तर पहुंच गया। हरिवंश जी आये और उन्होंने पूरी कहानी बतायी कि कैसे वह प्रभाष जोशी को रिसीव करने शाम को एयरपोर्ट गये और लौटे तो टेबल पर हरिनारायण जी का इस्तीफा पाया। रात से लेकर कहानी सुनने के बाद मैंने थ्री टायर स्ट्रेटजी तैयार की। पहले तो हरिनारायण जी को टटोलना कि वे वापस आ सकते हैं क्या। दूसरा, जाने वाले साथियों को रोकना और तीसरा नयी फसल तैयार करने के लिए तकरीबन 20 लड़कों की नियुक्ति। हरिवंश जी ने यह भी बताया कि रांची एक्सप्रेस में तब न्यूज एडिटर की भूमिका निभा रहे बैजनाथ मिश्र जी को उन्होंने संपादक के रूप में ज्वाइन कराने के लिए बात कर ली है।

मैंने अपनी योजना हरिवंश जी को बता दी और उनसे हरी झंडी लेकर मुहिम में जुट गया। तब प्रभात खबर के लोग रांची एक्सप्रेस को दुश्मन की तरह समझते थे। वहां से बैजनाथ जी के आने की बात कोई पचा नहीं पा रहा था। मेरे लिए यह भी चुनौती थी कि उन्हें साथियों में स्वीकार्य बनाया जाये।

मैंने संपादकीय के की पर्सन की पहचान की। विजय पाठक तब न्यूज एडिटर थे।  उनके बड़े भाई शशिकांत पाठक जी (अब दिवंगत) खेल डेस्क के इनचार्ज थे। विजय भास्कर जी फीचर डेस्क पर थे, लेकिन मूल काम घन्श्याम श्रीवास्तव देखते थे। प्रोविंशियल डेस्क पर सेकेंड मैन जीवेश रंजन सिंह (अभी प्रभात खबर भागलपुर के संपादक), सिटी डेस्क के इनचार्ज संजय सिंह थे। संजय सिंह को बिरादरी के नाम पर पटा लिया और न्यूज एडिटर बनाने का आश्वासन दिया। विजय पाठक और शशिकांत पाठक को उनके पिता जी ने समझा दिया कि जो संपादक विजय की शादी में उनके गांव तक गया, उसका साथ छोड़ना ठीक नहीं होगा। शायद हरिवंश जी विजय की शादी में शामिल हुए थे। जीवेश रंजन को न्यूज एडिटर की हैसियत से प्रांतीय डेस्क का प्रभारी बनाने की बात हुई। घनश्याम श्रीवास्तव को प्रस्तावित भागलपुर संस्करण का संपादक बनाने का प्रलोभन दिया, लेकिन उन्होंने रुकने से मना कर दिया। आखिरकार इनमें से कोई नहीं गया।

ट्रेनी की जो टीम तैयार हुई, उसमें कोलकाता के लिए जिन लड़कों का चयन किया था, उनको बुला लिया। अनुराग अन्वेशी, रंजन श्रीवास्तव, जेब अख्तर जैसे रांची के लड़के थे। इनकी ट्रेनिंग भी शुरू हुई। इनको शुरू में किसी छोटे होटल में दो-तीन दिन ठहराया गया। बाद में मेरी सलाह पर चारा घोटाले के सजायाफ्ता और तब के आईएएस सजल चक्रवर्ती के खाली पड़े मकान को किराये पर महीने भर के लिए लिया गया। उसमें चार-पांच फोल्डिंग काट, दरी और एक-एक तौलिया सबको देकर रख दिया गया। खाने के नाम पर रोज के 40 रुपये का बजट था। इस मकान में रहने वाले सभी साथी कोलकाता के थे। उनको बुरा न लगे, इसलिए मैं भी उनके साथ रहने लगा।

सुबह 10 बजे से ट्रेनिंग शुरू होती थी। सेंट्रल डेस्क के लिए एक कंप्यूटर सेक्शन बना था। उसमें अभी काम शुरू नहीं हुआ था। उसी में कंप्यूटर की ट्रेनिंग शुरू हुई। 10 बजे सभी आ जाते और सुबह चार बजे घर लौटते। यानी युद्धस्तर पर ट्रेनिंग शुरू हो गयी। इस्तीफे के बाद हरिनारायण जी तीन-चार दिन आये। हरिवंश जी से मिले। रोना-दोना हुआ। लगा गिले-शिकवे समाप्त हो गये, लेकिन हरिनारायण जी आखिरकार हिन्दुस्तान का हिस्सा हो गये।

जब कोई बूढ़ा बरगद धराशायी होता है तो उसके इर्द-गिर्द की सारी झाड़ियां दब कर दम तोड़ने लगती हैं। हरिनारायण जी के हिन्दुस्तान जाने के बाद प्रभात खबर में यही हो रहा था। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि प्रधान संपादक हरिवंश जी का निचले स्तर के साथियों से निकट का संबंध-संपर्क नहीं था। दफ्तर में उनके दरवाजे पर प्रवेश निषेध का कागज चिपका रहता था। उनसे सीधे मिलने की छूट संपादकीय में सिर्फ हरिनारायण जी को ही थी। नतीजा यह हुआ कि जब वे गये तो हरिवंश जी किससे बात करें या कुछ कहें, इसका संकट पैदा हो गया। मैंने कोलकाता से रांची पहुंचने के पहले दिन तो हवा का रुख भांपा और दूसरे दिन उन्हें दो सलाह दी। अव्वल तो उनके दरवाजे से प्रवेश निषेध का कागज हटा दिया जाये और दूसरे यह कि जब भी वह अपने कक्ष से बाहर निकलें तो एक बार संपादकीय में जरूर जायें। किसी भी साथी से सिर्फ यह पूछ लें कि कैसे हो, क्या हो रहा है। हरिवंश जी ने इन दोनों बातों पर अमल किया। इसका परिणाम यह निकला कि जिन साथियों से वे हालचाल पूछ लेते, वे अपने को धन्य समझते। इस निकटता ने कई साथियों को हिन्दुस्तान जाने से रोका। प्रवेश निषेध का स्टिकर हट जाने के बाद किसी को भी उनके कक्ष में जाने की छूट थी, लेकिन साथियों में सहजता नहीं बन पा रही थी, इसलिए शुरू से ही वे उनसे कटे हुए थे।

वर्ष 2000 तक प्रभात खबर में दो तरह की वेतन व्यवस्था थी। ज्यादातर कर्मचारी नियमित पे रौल पर थे और कुछ वाउचर पेमेंट पर। वाउचर वालों को भी तनख्वाह मासिक ही मिलती थी। वाउचर वाले लोगों की तनख्वाह 2000 से 5000 के बीच थी। 1999 तक मैं भी प्रभात खबर का नियमित कर्मचारी था। धनबाद से जाने के बाद चार महीने तक नौकरी से अलग रहने के कारण पहली बार साल भर के कांट्रैक्ट पर मेरी पुनर्वापसी हुई थी, जिसका एग्रीमेंट पेपर भी मैं नहीं ले सका था। प्रभात खबर छोड़ कर लोगों के दूसरे अखबारों में जाने की सबसे बड़ी वजह यही थी कि उनके पास कोई ऐसा सबूत नहीं था, जिससे वे कहीं कह सकें कि प्रभात खबर में काम करते हैं। वेतन कम होना दोहरी मार थी।

डैमेज कंट्रोल के लिए मैं रांटी बुलाया गया था। सुबह 10.30 बजे हरिवंश जी से मेरी मुलाकात होती। दिन भर मैं किस मुहिम में रहूंगा, इसकी जानकारी उनको देता और फिर शाम में साढ़े सात बजे उनसे मिल कर बताता कि क्या-क्या किया। मैंने अखबार के हर महत्वपूर्ण सेक्शन में इनचार्ज को लगभग जाने से रोक लिया था। इसके लिए ऊंचे पद का प्रलोभन दिया। वाउचर वाले जो लड़के छोड़ कर जाने की फिराक में थे, उन्हें कांट्रैक्ट लेटर दिलाने और तनख्वाह न्यूनतम तीन हजार कराने का वादा किया। इस बीच नये लड़कों की ट्रेनिंग भी चलती रही। जो गये थे, इनको वापस लाने के लिए भी कोशिश की, पर संपादकीय से कोई नहीं लौटा। हां, सर्कुलेशन में जमशेदपुर से एक आदमी गया था, जिन्हें सभी लोग बाबू दा कहते थे, उसे दत्ता जी ने बुलवाया और उन्हीं शर्तों पर रखने का आश्वासन दिया, जिन पर वह हिन्दुस्तान गये थे। वह तैयार हो गये। प्रभात खबर छोड़ने के लिए बाबू दा ने फैक्स से अपना इस्तीफा भेजा था। उसी अंदाज में हिन्दुस्तान को फैक्स से इस्तीफा बेजवाया गया। दत्ता जी के कमरे में सारी योजना बनी और हरिवंश जी से फाइनल नोड लेकर पैक्स करा दिया गया। हम लोग अपनी रणनीति में कामयाब हो रहे थे। उथलपुथल थोड़ी शांत हुई तो मैंने कोलकाता वापस लौटने की बात हरिवंश जी से पूछी। उन्होंने कहा कि ठीक है, अब निकल सकते हो। साथ ही यह भी कहा कि जिन लोगों से जो वादा किया है, उनके पत्र भी दे दो। मैंने बड़ी ईमानदारी से सलाह दी कि यह काम आप करें। इससे लोगों की आप से निकटता और सहजता बढ़ेगी। वह मान गये और मुझे भी अपना नियमित कर्मचारी का लेटर लेने को कहा। उस दिन शनिवार था। मैंने कहा कि शनिवार ठीक दिन नहीं होता है, बाद में ले लूंगा। हंस कर उन्होंने कहा- ठीक है। जत्ता जी से भेजवा दूंगा। यह अलग बात है कि दत्ता जी ने मेरा जो अप्वाइंटमेंट लेटर भेजा, वह कुरियर भी मुझे शनिवार को ही कोलकाता में मिला। मेरे रहते ही दूसरे साथियों को भी प्रमोशन और नियुक्ति के कांट्रैक्ट लेटर उन्होंने दे दिये।

विश्वास सदा सफल ही देता है, दुर्गति नहीं। इसी सुफल की कामना में कोलकाता से प्रभात खबर के प्रकाशन के लिए मैं आया था। नये- नवेलों दर्जन भर लड़कों की टीम और दूसरे विभागों में चार-पांच लोगों के साथ प्रभात खबर निकालने की तैयारी शुरू हो गयी। अकाउंट्स में साथी बने उत्तम दीवान, जो अभी जमशेदपुर में किसी निजी कंपनी में हैं, विज्ञापन में सुशील कुमार सिंह, जो अभी वहीं बिजनेस हेड हैं और सर्कुलेशन में देवाशीष ठाकुर साथी बने सहायकों में श्रीप्रकाश, अरुण ठाकुर सबसे पहले आये।

इधर दफ्तर काम चल रहा था, उधर नवेलों साथियों की ट्रेनिंग। मैं अपनी संपादकीय जोना के साथ सारे काम देख रहा था। मैंने अपने साथियों को एक सर्वे में लगाया। यह कोई प्रोफेशनल सर्वे नहीं था, इंटरनल था। हिन्दीभाषियों के घरों में हमारी जाकर पूछते कि कौन-सा अखबार पढ़ते हैं और क्यों। सन्मार्ग पढ़ने वाले घरों से एक जानकारी मिली उनमें लाइट मूड के आर्टिकल ज्यादा पढ़े जाते हैं। मसलन भूत-प्रेस, जेवी-देवताओं की कहानियां, हंसने-हंसाने वाले चीजें वगैरह। जिन हिन्दीभाषी घरों में अंग्रेजी और बांग्ला के अखबार आते थे, उनका फीडबैक था कि हिन्दी अखबारों में ऐसा कुछ नहीं होती, जिससे उनके बच्चों की पढ़ाई या करियर में कोई लाभ मिले। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि तब कोलकाता से निकल रहे प्रमुख अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ को ऐसे घरों में इसलिए पसंद किया जाता था कि उसमें बच्चों का त्ज्ञान बढ़ाने वाला किड्स और उनके करियर के लिए लाभकारी करियर ग्राफ पुलआउट के रूप में हर सप्ताह मिलते थे। खबरों की क्वालिटी तो अच्छी रहती ही थी।

पाठक तलाशने के क्रम में राज्य सरकार की एक रिपोर्ट से यह पता चला कि साढ़े तीन लाख मजदूर जूट मिलों में हैं और 80 प्रतिशत टैक्सी चालक हिन्दी भाषी प्रदेशों के हैं। मसलन बिहार-यूपी-झारखंड के। 1981 की जनगणना रिपोर्ट से एक जानकारी यह मिली कि बंगाल में 4.5 लाख हाउस होल्ड हिन्दीभाषियों के हैं। इनमें ढाई लाख शहरी इलाकों और दो लाख ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। तब कोलकाता में छप रहे या बाहर से आ रहे हिन्दी अखबारों की संख्या लगभग लाख-सवा लाख थी। अपने पाठकों की तलाश के लिए मुझे एक छोर मिल गया कि अगर शहरी इलाकों को ही पाठक संख्या का आधार बनाया जाये तो ढाई लाख शहरी हाउस होल्ड हिन्दी अखबारों के पाठक होने चाहिए। इसलिए शहरी इलाके में रहने वालों के पास अखबार खरीदने की क्रय शक्ति होती है। तब बाकी करीब डेञ लाख हिन्दी पाठक या तो अखबार नहीं खरीदते या फिर दूसरी भाषाओं के अखबार पढ़ने की उनकी मजबूरी है। इसी सूत्र के सहारे मैंने सर्वे से पता करने की कोशिश की कि आखिर हिन्दी के ये पाठक गये कहां।

सन्मार्ग तब अनबिटेबल नंबर वन था। दूसरे नंबर पर जनसत्ता और तीसरे पर विश्वमित्र था। लेकिन नंबर वन से नंबर दो और तीन के प्रसार की संख्या में इतना बड़ा अंतर था कि उनको प्रतिस्पर्धा में कहीं नहीं खड़ा किया जा सकता था। मैंने अपने पाठकों की रुचि का ख्याल रखा और उन्हें कुछ नया देने की योजना बनायी। कंटेंट प्रोफाइल तैयार करते समय मैंने बिहार-झारखंड-पूर्वी उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खबरों के लिए पन्ने पर जगह बनायी। पाठक की बड़ी आबादी को देखते हुए बिहार को सर्वोपरि रखा। झारखंड और बंगाल की सीमा के बीच पांच-छह घंटे की ही दूरी थी, इसलिए यहां-वहां के लोगों का आना-जाना कोलकाता खूब होता था। इसलिए झारखंड की खबरों के लिए एक कोना बनाया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़, बलिया, मऊ, गाजीपुर, देवरिया जैसी जगहों के लोगों की बंगाल में आबादी को देखते हुए उत्तर प्रदेश की खबरों को जगह दी। राजस्थान की वैसी जगहों की खबरें चुन-चुनकर राजस्थान की खबरों के लिए अखबार में कोना बनाया, जहां के लोग कोलकाता में बहुतायत रहते हैं। इस तरह मेरी पेज-कंटेंट की प्रोफाइलिंग हो गयी।

अखबार 31 अक्तूबर 2000 को निकला, लेकिन जून में मैंने एक डमी तैयार की और उसका प्रकाशन मैग्जीन आकार (ए-4 साइज) में ह्वाइट पेपर पर हजार कापी के करीब कराया। इस डमी को लेकर मैंने कोलकाता में पहली बार हिन्दी अखखबार की बुकिंग शुरू करायी। बिना अखबार निकले लगभग हजार-डेढ़ हजार की बुकिंग आनन-फानन में हो गयी। उत्साह से लबरेज नयी टीम का जज्बा देखने लायक था। यह अलग बात थी कि डिलीवरी की तकनीक का सही अनुमान नहीं होने के कारण हमारा यह अभियान फ्लाप हो गया। जिनकी बुकिंग हुई, उनके घरों तक छीक से अखबार की डिलीवरी का सिस्टम नहीं बन पाया। कुछ लोगों के पैसे वापस करने पड़े।

चूंकि अखबार के प्रकाशन के वक्त प्रचार की कोई .योजना नहीं थी। भाड़े की मशीन के कारण ज्यादा दिन तक डमी भी नहीं छाप सकते थे। इसलिए कुछ हैंडबिल रांची की मशीन पर छपवा कर मंगाये गये और उन्हें दूसरे अखबारों में इनसर्च कर बंटवाया गया। मुझे याद है, तब अव्वल अखबार के तत्कालीन संपादक ने किसी से कहा था कि अखबार बच्चों से नहीं निकलता है। वाकई उनकी सोच तब वाजिब थी। इसलिए तब तक माना जाता था कि अखबारों में जो जितना बुजुर्ग है, वह उतना ही जानकार और काम का होगा। लेकिन लड़कों को लेकर ही मैंने अखबार की शुरुआत की। पहले दिन के प्रिंट आर्डर के बारे में मेरी अपनी राय थी कि प्रिंट आर्डर पहले ही दिन से इतना रखा जाये कि हम दूसरे नंबर का अखबार कहलायें। उस वक्त कोलकाता यूनिट का काम देखने रांची से आये केके गोयनका जी (अभी प्रभात खबर के प्रबंध निदेशक) से मैंने अपने मन की बात कही थी। उन्होंने कहा कि वेस्टेज बढ़ेगा। मैंने हफ्तेभर के लिए यह व्यवस्था करने की बात कही। वह मान गये।

इस बीच अपने साथियों को मैंने अंग्रेजी-बांग्ला अखबारों की पांच-छह महीना पुरानी फाइलें देख कर स्पेशल स्टोरीज खोजने के काम में लगाया। कुछ स्टोरी के विषय मिले तो कुछ को अपडेट कर ताजा बना दिया। मेरा मानना है कि अखबारी पाठकों की याददाश्त काफी कमजोर होती है। आज छपी खबर तो उन्हें याद रहती है, लेकिन चार दिन पहले छपी खबर वे भूल जाते हैं। मेरा यह नुस्खा भी कामयाब रहा।

इस प्रसंग का जिक्र करते समय मुझे खबर का एक विषय याद आता है। बर्दवान के किसी गांव के बारे में स्टेट्समैन ने एक खबर छापी थी- विधवाओं का एक गांव। उस वक्त मेरी मित्र नीलम शर्मा अंशु (केंद्र सरकार में राजभाषा से जुड़ी हैं) अपने भाई चंदन स्वप्निल को लेकर आयीं कि इसे भी कहीं खपा लीजिए। टटोलने के लिए मैंने चंदन से कहा कि बर्दवान के पास कोई गांव है, जहां हर घर में विधवाओं की भरमार है। शायद स्टेट्समैन की खबर में उस गांव का नाम था। मैंने वह गांव बताया। कहा कि जाकर स्टोरी कर सकते हो। उसने तुरंत हां-ना तो नहीं कहा, लेकिन अगले दिन खोजते-खोडजते उस गांव तक पहुंच गया और आकर अच्छी खबर बनायी। इसी तरह बंगाल में लिंचिंग की घटनाओं को केंद्र कर अंग्रेजी अखबार में ही कोई खबर छपी थी। मैंने आंकड़ों को अपडेट कराया और पुलिस-पालिटिकल महकमे से वर्जन लेकर खबर को नये अंदाज में पेश करने के लिए रख लिया। चंदन स्वप्निल अभी भास्कर में पंजाब के किसी संस्करण में न्यूज एजिटर हैं।

अतीत के अनुभव और वर्तमान के यथार्थ पर ही भविष्य की इबारत लिखी जाती है। इसे कई बार महसूस किया तो बाज दफा दरकिनार करने से भी गुरेज नहीं हुआ। आगे कहीं प्रसंग आने पर इसका जिक्र करूंगा। बहरहाल, कोलकाता प्रभात खबर की रिपोर्टिंग के जो साथी याद आते हैं, उनमें गुरु सदृश बांग्ला अखबार प्रतिदिन से रिटायर होकर आये दिलीप घोष चौधरी (अब स्वर्गीय), गोपाल साव (जिनका नामकरण मैंने एस. गोपाल कर दिया था), अजय विद्यार्थी, अनवर हुसैन और कौशल किशोर त्रिवेदी (संप्रति संपादक, प्रभात खबर, गया) थे। बाद में रिपोर्टिंग टीम में ही जनार्दन सिंह (अमर उजाला), विद्यासागर सिंह (हिन्दुस्तान, जमशेदपुर), अनुपम मिश्रा (इंडिया टीवी), प्रकाश सिन्हा (स्टार आनंद बांग्ला चैनल), अमर शक्ति जैसे लोग आये। डेस्क पर अजय श्रीवास्तव, मनोज राय, अखिलेश सिंह, नवीन श्रीवास्तव थे। कोलकाता प्रभात खबर के पुराने साथियों की लंबी फेहरिस्त है। सबके नाम न तो फिलवक्त जेहन में आ रहे और न उल्लेख संभव है। वैसे साथियों से क्षमा मांगता हूं, जिनका उल्लेख नहीं कर पाया। हां, आरंभ से ही स्ट्रिंगर बतौर एक साथी पुरुषोत्तम तिवारी जुड़े हुए थे। वह चूंकि शिक्षक थे, इसलिए सर्वाधिक समय देने के बावजूद उन्हें स्टाफर बनाना संभव नहीं था। सभी की तनख्वाह दो हजार से छह-साढ़े छह हजार के बीच ही थी और सभी वाउचर पेमेंट पर थे। पर, उत्साह इतना कि कोई परमानेंट साथी भी उतने जज्बे से काम नहीं कर सकता।

पुरुषोत्तम तिवारी तब भी मेरे सुख-दुख के साथी थे और आज भी वह उसी अंदाज में संपर्क में हैं। उनके जिम्मे दो काम मैंने सौंप रखे थे। अव्वल तो कोलकाता में साधु-संतों के आये दिन प्रवचन होते रहते थे। उनके प्रवचन कवर करने का काम पुरुषोत्तम का था। सामाजिक संस्थाओं और व्यक्ति विशेष की खबरों और उन पर विशेष सामग्री के लिए सच्चिदानंद पारीक थे। दोनों का काम प्रकृति में समान था, इसलिए दोनों मिल कर करते थे।

हिन्दीभाषी टैक्सी ड्राइवरों की संख्या को देखते हुए हमने एक कालम शुरू किया था- चार चक्के वाली। इसमें किसी एक ट्राइवर से बात कर खबर बनती कि घर-परिवार से दूर पर्व-त्योहारों के मौके पर उन्हें कैसा लगता है। उनको रोज किन-किन परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है। अगले दिन यह खबर छपती तो टैक्सीवाले बड़े चाव से पढ़ते। हमारा मकसद था कि शहर में चलने वाली टैक्सियों में ड्राइवरों के पास प्रभात खबर दिखे। इसमें काफी हद तक हम कामयाब भी हुए। बंगाल के आम हिन्दीभाषियों में प्रभात खबर की पहचान बिहारी अखबार के रूप में बनी। वैसे मैं इस तरह के किसी ठप्पे से बचना चाहता था। इसीलिए मैंने राजस्थान की खबरों के लिए भी अखबार में जगह बनायी थी। फिर भी बिहार-झारखंड की बहुतायत आबादी होने के कारण प्रभात खबर को बिहारी अखबार मान लिया गया था, इसलिए कि यह पटना और रांची से भी निकलता था।

बिहारीपन का दाग धोने के लिए मैंने एक और प्रयोग किया। कोलकाता में ज्यादातर सामाजिक संस्थाएं बिजनेस कम्युनिटी के लोगों द्वारा संचालित हैं। मैंने उन संस्थाओं की खबरों को विस्तार से देना शुरू किया। इन संस्थाओं के कामकाज को केंद्र कर सेवा में जुटी संस्थाएं स्तंभ शुरू किया। व्यक्ति आधारित स्तंभ भी शुरू किये। इस बीच मैंने जान लिया था कि बंगाल में बसने वाले राजस्थानी लोगों में 50 पार उम्र वालों को ही अपनी माटी से ज्यादा मोह है। इसलिए उनकी कंपनियों और उनके व्यक्तित्व पर ज्यादा फोकस किया। राजस्थान की खबरें सिर्फ बुजुर्गों के लिए थीं, जिनको अपने लांडनू-झुंझुनू जैसी जगहों से अब भी लगाव था। राजस्थानी समाज की बंगाल में बसी युवा पीढ़ी सिर्फ रस्मी तौर पर मुंडन-पूजन या शादी समारोहों में राजस्थान से लगाव रखती है। मेरा यह नुस्खा भी कारगर हुआ। जिन संस्थाओं या व्यक्तियों के बारे में विशेष कवरेज होता, उनसे हम पांच सौ-हजार कापी स्पांसर कराते और मार्निंग वाक के लिए सुबह विक्टोरिया मैदान जाने वाले इसी समाज के लोगों के बीच वितरित कराते। इससे मेरे अखबार का प्रचार भी होता और उन्हीं लोगों के बीच अखबार जाता, जो पाठक के साथ विज्ञापनदाता भी थे।

इसके साथ ही खुद को मैंने काम करते रहने वाली मशीन बना दी। बिजनेस कम्युनिटी को करीब लाने के लिए उनके समाजसेवी आयोजनों में शरीक होने लगा। खासकर शनिवार और रविवार को ऐसे आयोजनों की भरमार रहती थी। मैं बिना कार वाला पत्रकार था और कोलकाता मुख्य शहर से तकरीबन 14-15 किलोमीटर दूर एयरपोर्ट के पास दमदम कैंटोनमेंट में रहता था।

यहां एक प्रसंग का उल्लेख आवश्यक है। उन दिनों शहर-सूबे का अव्वल हिन्दी अखबार सामाजिक संस्थाओं की खबरों को तरजीह नहीं देता था। हमने यह सुविधा प्रदान कर दी थी। इसका दो फायदा हुआ। मेरी बुलाहट ऐसे कार्यक्रमों में खूब होने लगी और मैं जाने भी लगा। यह मेरी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। निमंत्रण कार्ड में मेरे नाम के साथ प्रभात खबर का भी उल्लेख रहता। यानी जितने लोगों को कार्ड भेजा गया, उतने लोगों के बीच मेरे नाम के साथ अखबार की ब्रांडिंग हुई। कार्यक्रम में उद्घोषक मेरे पहुंचने के पहुंचने के पहले कई बार घोषणा कर चुका होता कि कार्यक्रम में कौन-कौन लोग कहां से पधार रहे हैं। पहुंचने पर भी घोषणा होती कि प्रभात खबर के संपादक ओमप्रकाश अश्क पधार चुके हैं। स्वागत के लिए कहा जाता कि प्रभात खबर के संपादक अश्क जी का स्वागत करेंगे फलाने। फिर दो शब्द कहेंगे प्रभात खबर के संपादक अश्क जी। धन्यवाद ज्ञापन में भी प्रभात खबर के संपादक अश्क जी का उल्लेख होता। यानी एक कार्यक्रम में कई बार मेरे नाम के साथ प्रभात खबर की ब्रांडिंग होती। ऐसी संस्थाएं अपने आयोजनों का विज्ञापन भी खूब करतीं, जो दूसरे अखबारों के साथ प्रभात खबर को भी मिलता।

इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि प्रभात खबर को बाजार में बड़ी तेजी से पहचान मिलने लगी। विज्ञापन भी बढ़ने लगा। जिस वक्त वर्ष 2000 में अखबार की शुरुआत हमने कोलकाता से की थी, तब प्रभात खबर की सालाना विज्ञापन बिलिंग 25 लाख रुपये के आसपास थी। आज उसी मेहनत का परिणाम है कि कोलकाता प्रभात खबर की सालाना बिलिंग करोड़ों में पहुंच गयी है।

कामयाबी की कहानी अगर अपने जीवन की कहूं तो इसमें कोलकाता का सबसे बड़ा योगदान है। चिकनी सड़कों पर चलते सभी को देखा-सुना-पाया है, पर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर जो चल कर आगे बढ़ा हो, वास्तविक अर्थों में कामयाब उसे ही कहते हैं। मैं खुद को ऐसी ही राह का राही मानता हूं। खुद को देखता हूं तो कोलकाता में न सिर्फ एक पत्रकार की भूमिका में अपने को पाता हूं, बल्कि एक समाजसेवी की झलक भी मेरे अंदर दिखती है। कई ऐसे उदाहरण गिनाने को मेरे पास हैं, जब मैंने समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाया और समाज ने भी दिल खोल कर साथ दिया। मेरा अपना मानना है कि जब सरकार सहयोग करने में अपने को असहाय मानने लगे, तब समाज ही साथ देता है।

कोलकाता में पत्रकारिता करते मैंने एक अभियान चलाया हिन्दी स्कूलों में। हिन्दी स्कूलों के जिन छात्रों ने मैट्रिक और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और आर्थिक रूप से उनके अभिभावक आगे की उनकी पढ़ाई के लिए सक्षम नहीं थे, वैसे छात्रों को सम्मानित करने का। उन्हें आर्थिक सहायता देकर आगे की पढ़ाई सुनिश्चित कराने का। उन दिनों अखबार ऐसे काम नहीं करते थे। मैंने टाप मैनेजमेंट को सुझाव दिया था कि ऐसा कोई ट्रस्ट बना दिया जाये, जिसमें समाज से मैं धन संग्रह करूंगा और छात्रों की पढ़ाई के लिए उससे सहयोग किया जाएगा। प्रबंधन को शायद मेरा यह प्रस्ताव नहीं जंचा। तब मैंने कुछ लोगों को लेकर हिन्दीभाषियों का एक एनजीओ बनाया और उसके जरिये सहयोग की ठानी।

सहयोग के इस काम में अपरोक्ष तौर पर धन संग्रह का काम मेरा था और प्रभात खबर उसका मीडिया पार्टनर होता। मेरे इस तरह के काम में सर्वाधिक सहयोग बसंत कुमार बिरला का रहा। श्री सीमेंट के मालिक ने भी एक बार 75 हजार रुपये का योगदान दिया था। इस काम में मेरा हिडेन एजेंडा प्रभात खबर का प्रचार करना था। संगोष्ठियां भी आयोजित होती थीं, जिसमें प्रो. अमरनाथ (कलकत्ता यूनिवर्सिटी के तब प्रोफेसर), कृपाशंकर चौबे (संप्रति महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर), डा. मोहन (अभी दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर), चंद्रकला पांडेय (तब राज्यसभा सदस्य और कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर), दिनेश चंद्र वाजपेयी (डीजीपी से अवकाश लेने पर बंगाल लोकसभा के सदस्य) जैसे वरिष्ठों की सहभागिता सामान्य बात थी।

अपने समाजसेवा के कामों का उल्लेख करते समय मैं दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। एक दिन सुबह लुंगी-गंजी पहने एक आदमी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजे पर गया तो उसने बांग्ला में बताया कि उसका बच्चा बीमार है, हार्ट में प्राब्लम है, इलाज कराना है। मदद की जरूरत है। ऐसे लोग अक्सर बंगाल में शनिवार-रविवार को बहुतायत मिल जाते हैं। मैंने जेब में हाथ डाला तो 20 रुपये थे। मैंने उसे दिया तो उसने लेने से मना किया और कहा कि आप से बात करने आया हूं। मैंने उसे अंदर बुला कर बिठा लिया। उसने बताया कि वह रिक्शा चला कर अपना परिवार पालता है। उसके 12 वर्षीय बेटे के दिल में छेद जैसी कोई बीमारी है। पहले स्थानीय डाक्टरों को दिखाया, फिर उसे कलकत्ता मेडिकल कालेज में दिखाया। डाक्टर ने कहा है कि जितनी जल्दी हो, आपरेशन करा लो, वर्ना बाद में यह गंभीर हो जायेगा और बच्चे की जान भी जा सकती है। उसने सारे कागजात मेरे सामने रख दिये।

मैं डाक्टर तो था नहीं, जो सारी बातें पर्ची से समझ पाता। उसने इलाज करने वाले एक डाक्टर का नाम बताया। फिर किसी तरह उस डाक्टर का मोबाइल नंबर तलाश कर मैंने उन्हें फोन किया और बीमारी की गंभीरता के बारे में पूछा। डाक्टर ने कहा कि रोज सैकड़ों पेसेंट आते हैं, इसलिए बता नहीं सकता, पर अगर समय दिया है तो निश्चित ही बीमारी गंभीर होगी। मैंने उस आदमी से कहा कि कल अपने बच्चे को लेकर आये।

अगले दिन वह फिर उसी वक्त पहुंचा। साथ में बच्चा भी था। बच्चे को इसलिए बुलाया था कि उसका बाप कहीं झूठ तो नहीं बोल रहा। मेरा आवास तीसरे तल्ले पर था। लिफ्ट नहीं है, इसलिए उसे सींढ़ी से आना पड़ा। ऊपर आने के बाद मैंने बच्चे की हालत देखी। शायद उत्साह में उसने जल्दी-जल्दी सींढ़ी चढ़ने की कोशिश की थी, इसलिए हांफ रहा था। मुझे बड़ा अपराध बोध हुआ। उसे बिठा कर पानी पिलाया, बिस्किट खिलाया। अब मुझे यकीन हो गया था कि वास्तव में उसे गंभीर बीमारी है। मैंने उसके बाप से बच्चे की फोटो मांगी। फोटो उसके पास नहीं थी, लेकिन मेडिकल के लिए किसी चैरिटी अस्पताल का आई कार्ड था, जिसमें उसकी मासूम- सी तस्वीर लगी थी। मैंने वह कार्ड ले लिया कि अगले दिन लौटा दूंगा। उसे अगले दिन अकेले आने को कहा।

घर से दफ्तर पहुंचने में ट्रेन और मेट्रो से मुझे घंटे भर का समय लगता था। इस दौरान सोचता रहा कि कैसे उसकी मदद करूं। किसी से खुद पैसे मांगू या कोई और तरीका हो सकता है। अंततः मैंने एक खबर बनायी। आपरेशन का खर्च सरकारी हास्पिटल ने 35 हजार बताया था और निजी अस्पताल में 75 हजार रुपये खर्च आता। खबर का कंटेंट अब तक याद है। मैंने लिखा कि आपके कुछ रुपये इस मासूम बच्चे की जान बचा सकते हैं। आप पान-बीड़ी-सिगरेट-गुटखा और दूसरी गैरजरूरी चीजों पर जितना खर्च करते हैं, उसमें कटौती कर सहयोग कर सकते हैं। प्रभात खबर सिर्फ माध्यम है, आप सहयोग की राशि एनजीओ (जो मेरी देखरेख में ही चलता था) को भेज सकते हैं। संपर्क के लिए मैंने अपना नंबर दिया। खबर मेरे नाम से पहले पेज पर ऐंकर छपी।

अगले दिन मुझे उम्मीद थी कि मेरी साख और बच्चे की मासूमियत को देख लोग जरूर सहयोग के लिए आगे आयेंगे। दुर्योगवश मेरा मोबाइल रात में डिस्चार्ज होकर बंद हो गया था। बच्चे का बाप आया, तब तक कहीं से कोई फोन मेरे पास नहीं आया था। मुझे अपनी साख पर आश्चर्य हो रहा था कि मेरे लिखने पर भी लोग मदद के लिए आगे नहीं आये। मैंने दुखी मन से उसे यह कर जाने को कहा कि कल कोई इंतजाम जरूर हो जायेगा। मेरे इस जरूर शब्द के पीछे आत्मविश्वास का भाव यह था कि कुछ व्यवसायी लोगों से जरूरत बता-समझा कर मांगूंगा।

उसके गये पांच मिनट ही हुए होंगे कि मैंने मोबाइल उठाया कुछ लोगों से इस मुद्दे पर बात करने के लिए। देखा फोन स्विच आफ है। फिर चार्ज में लगा कर बाथरूम फ्रेश होने के लिए चला गया। लौट कर नाश्ते से पहले मैंने मोबाइल आन किया।

कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। फोन आन करते ही पहला रिंग हुआ। हावड़ा से एक समाजसेवी और ऐड एजेंसी सुरेश भुवालका का फोन था। उन्बोंने बिना किसी भूमिका के कहा कि 6700 रुपये मैं अपनी संस्था की ओर से भेज रहा हूं। अभी उनसे बात हो ही रही थी कि कालवेटिंग में एक नंबर आया। उनका फौन काट कर मैंने उसे रिसीव किया। उधर से आवाज आयी, मेरा नाम एम जैन है। मैं रोज सन्मार्ग पढ़ता हूं। आज हाकर ने प्रभात खबर दे दिया और उसमें पहली खबर आपकी पढ़ी। आप उस बच्चे का इलाज बढ़िया अस्पताल में करायें, पूरे खर्च मैं उठाऊंगा। मैंने उनसे कहा कि ठीक है अस्पताल से बात कर शाम तक बताऊंगा। इसी बीच एक और नंबर काल वेटिंग में दिखा- कमल गांधी का। कमल गांधी तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बेटे के करीबी थे। उनका फोन रिसीव करते ही उनका एक लाइन का संदेश था, मैं 25 हजार रुपये का चेक भेज रहा हूं। आगे कुछ कहता, इससे पहले ही उन्होंने फोन काट दिया। उसके बाद खई फोन आये, जिन्होंने मदद का आश्वासन दिया। मैंने सबके नाम नोट कर लिये।

मेरी खुशी का पारावार नहीं। नाश्ता-खाना सब भूल गया। तैयार होकर आफिस के लिए निकल गये। आफिस जाने पर पता चला कि वहां भी कई लोगों ने फोन किया था। सबके नंबर पर फोन कर उनसे मदद की रकम नोट कर ली। हिसाब किया तो पौने चार लाख रुपये की मदद की पेशकश आ चुकी थी।

अगले दिन पहले पन्ने पर उसी जगह फिर प्रभात खबर में एक खबर छापी- माफ कीजिए, अब और नहीं। इसमें बताया कि कैसे और किन-किन लोगों ने कितनी रकम की पेशकश की है। सारी रकम उतनी हो जाती है, जितने में ऐसे दस बच्चों की इसी तरह की बीमारी का इलाज कराया जा सकता है। खबर छापने के बाद भी खड़गपुर के किसी रिक्शावाले ने जबरन ढाई-तीन सौ रुपये का मनीआर्डर भेजा था। भेजने के लिए जब वह पता मांग रहा था तो बार-बार एक ही बात दोहराता- रिक्शावाले का बेटा है। मैं भी रिक्शा चलाता हूं। उसके बेटे के इलाज के लिए मेरा पैसा उस तक पहुंचा दें। उसकी जिद के आगे हार कर मैंने अपना पता दिया था। इलाज के बाद रिक्शा वाले का बच्चा घर लौट गया, तब खड़गपुर के रिक्शा वाले का पैसा पहुंचा था। मैंने वही रकम बीमार बच्चे के बाप को दे दी थी।

फरिश्ता बन कर जो एम जैन साहब ने बच्चे के हार्ट का आपरेशन कराया, अफसोस कि उनसे मैं आज तक नहीं मिल पाया। उन्होंने भी अपने इस अहसान की कहीं कोई चर्चा की या नहीं, मुझे नहीं पता। मुझे तो खुशी दो बातों से थी कि उन्होंने मेरे अखबार की खबर पढ़ कर मदद की और जिस मदद के लिए मैं बेचैन था, वह पलक झपकते ही किसी ने पूरी कर दी।

मैं दमदम कैंटोनमेंट में रहता था। वहां हिन्दीभाषियों की खासा तादाद है। हिन्दी स्कूल के नाम पर तीन-चार विद्यालय हैं, लेकिन दो में ही बच्चों की भरमार थी। सभी स्कूलों में को-एजुकेशन सिस्टम है। हिन्दी पट्टी की मानसिकता के कारण बच्चियां अपने को बच्चों के साथ पढ़ने में असहज महसूस करती थीं। वहीं के एक शिक्षक ने बालिका विद्यालय का प्रस्ताव रखा। म्यूनिसिपैलिटी ने जमीन तो दी, लेकिन एक शर्त के साथ कि ग्राउंड फ्लोर उसका होगा और ऊपर के तल्ले स्कूल के होंगे। यानी स्कूल के एक फ्लोर के लिए दो फ्लोर का खर्च। मैंने इस यज्ञ में योगदान का वचन दिया और बीके बिरला जी के सामने मदद का प्रस्ताव रखा। दो बार में उन्होंने तीन-चार लाख रुपये दिये। भाजपा के तत्कालीन सांसद तपन सिकदर ने भी अपनी सांसद निधि से कुछ मदद की थी। वामपंथी दलों की सरकार थी। लोकल कमेटी के मार्फत यह बात माकपा के आला नेताओं तक पहुंची तो उन्हें अपना आधार खिसकने का भय हुआ। फिर उनके एक मंत्री ने भी इस यज्ञ में अपनी आहुति दी।

दमदम एयरपोर्ट में भी एक हिन्दी स्कूल था। वहां के हेडमास्टर मेरे परिचित थे। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि बच्चों के लिए कंप्यूटर का इंतजाम करा दें। बिरला जी के सहयोग से वहां शायद दर्जन भर कंप्यूटर लग गये। दमदम के ही एक अन्य हिन्दी स्कूल के हेडमास्टर ने कहा कि बरामदा नहीं होने से बारिश के वक्त पानी क्लासरूम में चला जाता है। कहीं से कोई मदद दिला दें तो समस्या से छुटकारा मिले। बिरला जी ने 50 या 75 हजार रुपये की मदद मेरे मार्फत कर दी।

समाजसेवा का एक और उल्लेखनीय मामला याद आ रहा है। 31 दिसंबर 2001 या 2002 की घटना होगी। कोलकाता पुलिस का एक सार्जेंट बापी एक लड़की को छेड़खानी करने वालों से बचाने के क्रम में मारा गया। उसके महीने-दो महीने के अंदर बिहार के चंपारन जिले का एक युवा ऐसे ही एक मामले में अपराधियों का शिकार हो गया। क्राइम रिपोर्टर ने यही खबर दी कि बिहार का लड़का दरवान का काम करता था। उसके पिता भूंजा बेचते थे। शाम को वे लोग एक झोपड़पट्टी में रहते थे। लड़के के पिता गांव गये हुए थे। बाहर किसी लड़की के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुन कर बिहारी लड़का बाहर आया। उसने देखा झोपड़पट्टी की ही एक बंगाली लड़की को कुछ मनचले खींच कर ले जा रहे हैं। जाहिर है कि उनकी मंशा दुष्कर्म की रही होगी।

बिहारी लड़के ने उनका विरोध किया। मनचलों ने चाकू गोद कर उसकी हत्या कर दी। अपराध की सामान्य घटना में यह शुमार हो गयी। मेरे अंदर कसक उठी कि बिहार का एक लड़का किसी लड़की की आबरू बचाने में मारा गया तो उसकी मातमपुर्सी के लिए भी कोई नहीं गया, लेकिन पिलस का बंगाली जवान इसी तरह के काम में मारा गया तो उसके नाम पर सड़क बनाने की मांग होने लगी। बीमा वाले उसके घर पैसे पहुंचाने लगे। अफसर-नेता उसके घर मातमपुर्सी के लिए जमावड़ा लगाने लगे। यानी एक ही काम और उसके फल दो तरह से। मैंने उस दिन भी एक मार्मिक, लेकिन हिन्दीभाषी समाज को झकझोर देने वाली एक खबर लिखी। उसमें यही बताया कि दरबान बिहारी था। वह बंगाल की किसी पार्टी के लिए वोटर नहीं था। इसलिए उसकी उपेक्षा सरकार और-प्रशासन के स्तर पर हुई। ऐसे में हिन्दीभाषी समाज को आगे आना चाहिए। तकरीबन एक लाख रुपये जमा हुए और श्राद्ध संपन्न होने के बाद उसके पिता को गांव से बुलवा कर पैसे उसके नाम से बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करवाये। प्रभात खबर के मेरे प्रयास को टाइम्स आफ इंडिया ने भी अपने अखबार में जगह दी।

किसी की मदद करना, गरीबों में कंबल-साड़ी बांटना, किसी की फीस जमा करना और गरीब, किंतु मेधावी छात्रों को पढ़ाई के लिए खर्च जुटा कर देने जैसे कामों से मेरी पहचान एक सोशल वर्कर के रूप में भी बन गयी थी। एक दिन मैं दफ्तर में बैठा हुआ था। एक लड़का आया। उसने सीधे कहा कि मेरा फार्म भरा जाना है। फीस के 6000 रुपये देने हैं। पैसा नहीं है, मदद कीजिए। मैंने पूछताछ में जाना कि वह उसी स्कूल का छात्र है, जहां मेरा बेटा भी पढ़ता है। मैंने उसके नाम और क्लास जान कर उस विद्यालय के एक शिक्षक से तहकीकात की। पता चला कि सच में उसकी फीस बाकी है। लड़के से मैंने बार-बार पिता का नाम पूछा। वह चुप रहता। बाद में पता चला कि वह वेश्या बस्ती सोनागाछी की किसी वेश्या का पुत्र है। खैर, मैंने उसकी फीस किसी से मांग कर जमा करा दी।

 

 

 

 

 

 

 

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