उदीयमान कवि दीपक कुमार की दो कविताएं

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दीप प्रकाश की कविताएं

1.

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सूर्य!
जिसकी आंखों के सामने
आकार लिया धरती ने।
जिसकी किरणों से
जीवन का संचार हुआ।
वो सूर्य!
आज भी वैसे ही रोज
उगता और ढलता है,
जैसा पहले कभी।
इस उगने और ढलने के बीच
जो फासला है,
इस दरम्यान बहुत कुछ घटता है।
बहुत कुछ होता आया है।
इसने सतयुग भी देखा है
त्रेता भी देखा है,
द्वापर भी देखा है, अब
कलियुग भी देख रहा है।
इसने सभ्यताओं को
बनते भी देखा है
और मिटते भी देखा है।
ऐसा कुछ भी नहीं जहाँ में
जो इससे छुपा हो।
वह देख रहा है उन्हें भी
जो सोंचते हैं कोई उन्हें
देखता ही न हो।
उसकी किरणें
उस आंगन में भी नज़र रखती हैं
जहाँ भूख!
पेट के लत्तरों में जकड़ी हुई है।
उसकी नज़रें उन अट्टालिकाओं में भी
दखल रखती हैं
जहां भूख मेज पर निढाल पड़ी है।
वो महसूस सकता है
खून से सनी देह में
अटकी हुई साँसों को
जो धीरे धीरे थक रही हैं।
वो मादा!
जो नर दम्भ के नीचे
बेसुध पड़ी है,
कहीं कोई चीख सुनाई देती है
एक मांस का लोथड़ा
किसी पेड़ से टँगा है।
वह सबकुछ देख रहा है
सबकुछ सुन रहा है
मगर भीष्म की तरह
दम साधे निष्क्रिय पड़ा है।
वह एकमात्र गवाह है
मानव सभ्यता की कारगुजारियों की।
पर, क्या वो गवाही देगा?
या चुपचाप देखता रहेगा यूं ही
पितामह भीष्म की तरह।
नहीं! कदाचित नहीं
बुलाओ उसे कचहरी में
भेजो नोटिस सूर्य को
कहो उससे
हाज़िर होना है उसे
जनता की अदालत में।
होने दो सुनवाई
एक एक को खड़ा करो
वक़्त के कठघरे में
आज होने दो फैसला
सदियों पुराने गुनाहों की।

2.

शहर!
मुझमें नहीं बसता,
न मैं ही बसता हूँ शहर में।
गांव की धूल
अब भी मेरी सांसों में घुली है।
आंखों में वही आम के बगीचे हैं
जहां बैठ टकटकी लगाए
किसी आम के गिरने का
इंतजार करते थे।
बहुत देर हो जाये तो
अगोरने वाले की नज़र बचा कर
आम तोड़ लेते थे
पकड़े जाने पर कह देते
अभी अभी गिरा है।
जहाँ भर दिन कुकू हुक्कू खेलते थे।
वही पकड़ी का पेड़
जिस पर झूला झूलते थे।
वही पोखर है
जिसमें सतार काटते थे।
भिंडा आज भी
हमारे इंतजार में खड़ा है
कि अब और कितना?
शहर!
मुझमें अब भी नहीं बसता।
कड़क्का वाला अब भी
मुझसे कहता है
‘ले कड़क्का’
अब भी मेरे कानों में
आधे ताड़ पर लटके
उस पासी की आवाज
सुनाई देती है
‘ओज्झे’
अब भी मन ही मन दोहराता हूँ
‘पलनिया के सोझे’।
अब भी गोंसार की महक
मेरे नथुनों में समाई है
फिर से मुट्ठी भर भूजा
चुराकर दौड़ने का मन करता है।
अब भी सुनाई देती है मुझे
ईया की आवाज
‘बाबू लालमी खइब’।
शहर!
मुझमें अब भी नहीं बसता।
टमटम की आवाज मेरे कानों में
अब भी ताज़ी है।
उसके पीछे दौड़ने का मन
अब भी करता है।
चाहता हूँ साथी संगियों के साथ
दौड़ लगाना
सबको पछाड़ अव्वल आना।
मुझे कैडबरी पसंद नहीं
मुझे आज भी वही लेमनचूस खाना है।
गट्टे की घड़ी बनाकर
शान से सबको दिखाना है।
मुझे दिल्ली नहीं जाना
मुझे उस बॉयोस्कोप का लालकिला भाता है।
शहर!
मुझमें अब भी नहीं समाता है।

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