अम्फान और निसर्ग जैसी आपदा तो झांकी है, बड़े खतरे अभी बाकी हैं

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अम्फान और निसर्ग जैसी आपदा तो झांकी है, बड़े खतरे अभी बाकी हैं। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पर्यावरण का क्षरण मानव समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है।
अम्फान और निसर्ग जैसी आपदा तो झांकी है, बड़े खतरे अभी बाकी हैं। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पर्यावरण का क्षरण मानव समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है।

अम्फान और निसर्ग जैसी आपदा तो झांकी है, बड़े खतरे अभी बाकी हैं। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पर्यावरण का क्षरण मानव समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। वर्ष 2018 तक करीब 408 पार्ट्स मिलियन कार्बन डाइऑक्साइड का जमाव वायुमंडल में हुआ है, जो पिछले 3 मिलियन वर्षों में सबसे ज्यादा है। यह मानव जनित परिघटना है। यूनाइटेड नेशन रिफ्यूजी एजेंसी ने माना है कि पिछले बीस वर्षों में प्राकृतिक आपदाएं दोगुनी बढ़ गई हैं। 

  • रमापति कुमार

हाल में जिस तरह से अम्फान और निसर्ग जैसी आपदाएं बढ़ी हैं, वह प्रकृति के पारंपरिक परिवर्तनों के बजाय विश्वव्यापी प्राकृतिक आपदाओं की कड़ी हैं। इसके पीछे मानव जनित कारणों से बढ़ते पर्यावरण के क्षरण और अप्रत्याशित कार्बन उत्सर्जन से उपजी ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना है। पोस्टडैम इंस्टीट्युट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट के आंकड़ों के अनुसार यूरोप के इतिहास में 15वीं सदी के बाद सबसे गर्म साल 21वीं सदी में आए हैं। ये हैं वर्ष 2002, 2003, 2010, 2014, 2016 और 2018। ग्लोबल वार्मिंग के कारण अंटार्कटिका और हिमालय के ग्लेसियर पिघलने और मौसम चक्र में अप्रत्याशित प्रभावों से छोटे द्वीप व शहर जलमग्न या भारी हिमपात का शिकार होते हैं, वहीँ पहाड़ी इलाकों में बादल फटने या भूस्खलन तो किसी सुदूर देहात में सुखाड़ की स्थिति पैदा होती है।

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अगर भारत की बात की जाए तो क्लाइमेट चेंज रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्युट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रियोलॉजी (पुणे) की स्टडी के अनुसार मध्य भारत में ‘चरम बारिश’ की घटनाएं 1950 से 2015 के दरम्यान तीन गुना बढ़ी हैं और एक दिन में 150 मिमी से अधिक वर्षापात के ट्रेंड में 10 से 30 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। औद्योगिकीकरण और विकास के अंधानुकरण के कारण भूमि, वन, जीव संपदा, पहाड़, पठार, नदियां आदि नैसर्गिक संसाधनों को होने वाले नुकसान का खमियाजा वहां के निवासियों, समुदायों और कमजोर वर्गों पर सबसे ज्यादा पड़ता है। जैसे तटवर्ती इलाकों के लोग, सीमांत किसान, आदिवासी और गरीब तबका। इस बात की पुष्टि करते हुए यूनाइटेड नेशन रिफ्यूजी एजेंसी ने माना है कि पिछले बीस वर्षों में  आइला, अम्फान व निसर्ग जैसी प्राकृतिक आपदाएं दो गुना बढ़ गई हैं।

आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पर्यावरण का क्षरण मानव समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। वर्ष 2018 तक करीब 408 पार्ट्स मिलियन कार्बन डाइऑक्साइड का जमाव वायुमंडल में हुआ है, जो पिछले 3 मिलियन वर्षों में सबसे ज्यादा है। वर्ष 2018 में करीब 3 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय जंगल ख़त्म हो गए। अब केवल 3 प्रतिशत समुद्री क्षेत्र ही मानव दबाव से बचे हुए हैं। इंडस्ट्रियल फिशिंग दुनिया के आधे से अधिक समुद्री भाग में होती है, जिससे एक तिहाई मत्स्य आबादी का दोहन होता है। जल प्रदूषण जनित संकट की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाना चाहिए कि धरती का केवल 1 प्रतिशत जल पीने या इस्तेमाल योग्य है, 97 प्रतिशत समुद्री जल है और बाकी 2 प्रतिशत आर्कटिक में जमी बर्फ है। ग्लोबल कमीशन ऑन एडेप्टशन का अनुमान है कि अगर ठोस तरीके से क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों को नहीं रोका गया तो वैश्विक कृषि उत्पादन में 5 से लेकर 30 प्रतिशत की कमी आ सकती है, जो विश्व्यापी खाद्य संकट को जन्म देगा। क्लाइमेट चेंज से करीब 5 अरब की आबादी को साल भर में कम से कम एक महीने तक पेयजल की कमी होगी।

आकलन है कि क्लाइमेट चेंज से जुड़ी प्राकृतिक आपदाओं से दुनिया भर में नुकसान वर्ष 2010 से लेकर अब तक करीब 10 बार दो सौ अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर चुका है। वेदर, क्लाइमेट एंड केटेस्ट्रोफ इनसाइट की सालाना रिपोर्ट 2018 के अनुसार बाढ़, सुखाड, चक्रवाती तूफानों तथा मौसम के अप्रत्याशित परिवर्तन से दुनिया के कई देशों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है और पिछले तीन वर्षों में सालाना 200 अरब डॉलर से ज्यादा का नुकसान आंका गया है।

नुकसान से जुड़े इन आंकड़ों को एक नए नजरिये से देखने की जरूरत है। जिस तरह हानिकारक जीवाश्म ईंधनों से कार्बन संकेन्द्रण और इससे वायु प्रदूषण बढ़ा है, अगर उसके विकल्प में क्लीन और ग्रीन टेक्नोलॉजी खासकर सोलर एनर्जी जैसे उपायों को सर्वप्रमुख प्राथमिकता दी जाये तो यह इस दुनिया को स्वच्छ और सेहतमंद बनाने में मददगार साबित होगा। भारत जैसे विकासशील देश के लिए पर्यावरण रक्षा के साथ-साथ ऊर्जा जरूरतों और आर्थिक रफ़्तार को बनाये रखने के लिए ग्रीन इकोनॉमी मॉडल और सस्टेनेबल एनर्जी ट्रांजीशन सबसे बेहतर रणनीति है। इसी तरह कृषि में स्वच्छ ऊर्जा का इस्तेमाल बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में रूरल इकोनॉमी के कायाकल्प के लिए व्यावहारिक रास्ता है। सौर ऊर्जा से पैदा बिजली भारत के कृषि क्षेत्र में, सिंचाई के क्षेत्र में और ऊर्जा अर्थव्यवस्था में ‘गेम चेंजर’ की भूमिका निभा सकती है। इसके आर्थिक फायदों के अलावा बेहद महत्वपूर्ण लाभ हैं, जैसे स्वच्छ तकनीक होने के कारण कार्बन फुटप्रिंट नहीं होता, दूसरे वैश्विक तापमान को मानक स्तर पर बनाने रखने में मदद मिलती है। इससे एयर क्वालिटी सुधरेगी और वैश्विक महामारियों और अम्फान व निसर्ग जैसी आपदाओं का सिलसिला रुकेगा।

कोरोना या कोविड-19 में बदहाल हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए जो ‘ग्रीन रिकवरी’ की बात हो रही है, वह सस्टेनेबल डेवलपमेंट मॉडल का ही एक रूप है, जो इकोलॉजी और एन्वॉयरन्मेंट की बेहतरी के साथ-साथ सततशील, सुरक्षित तथा स्वच्छ समाज की बुनियाद रखने में सक्षम हैं। यह सही वक़्त है, पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित रखने के क्लीन एनर्जी, क्लीन टेक्नोलॉजी और ग्रीन इकोनॉमी को देश और राज्यों की नीतियों और कार्यकर्मों में सबसे ऊपर रखा जाए। अभी सबसे ज्यादा जरूरत सस्टेनेबल डेवलपमेंट मॉडल को इकोनोमिक पॉलिसी, सामाजिक गतिविधियों और हमारे जीवन के सभी पहलुओं में लागू करने की जरूरत है, तभी पर्यावरण का रूप निखरेगा। तभी मजबूत अर्थव्यवस्था, स्वच्छ परिवेश और स्वस्थ समाज का सपना साकार होगा। अम्फान और निसर्जैग जैसी आपदा से बचाव भी होगा।

(लेखक सेंटर फॉर एन्वॉयरन्मेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट, दिल्ली के सीईओ हैं)

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