फणीश्वरनाथ रेणु का कथा संसार दो भिन्न भारतीय स्वरूपों के बीच खड़ा है। प्रेमचंद के बाद फणीश्वर नाथ रेणु को आंचलिक कथाकार माना गया है। उनकी कथाभूमि के आधार पर उनकी रचनाओं का यह वर्गीकरण किया जाता रहा है।
- नरेंद्र अनिकेत
फणीश्वरनाथ रेणु को हिंदी कथा जगत में सर्वाधिक चर्चित कथाकार प्रेमचंद के बाद आंचलिक कथाकार माना गया है। उनकी कथाभूमि के आधार पर उनकी रचनाओं का यह वर्गीकरण किया जाता रहा है। कोई भी रचनाकार अपने परिवेश में ही पात्रों का चयन करता है और उसकी रचना में उसका परिवेश बसा रहता है। वह जिस भाषा-बोली में जीता है उसके पात्र
उसी भाषा-बोली के बीच से आते हैं। इससे इतर फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों को जिस व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत थी उसपर विचार नहीं किया गया। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों का गांव आजादी से पहले रामराज का सपना देखने वाला और स्वतंत्रता के बाद शहरीकरण का उपनिवेश बना दिया गया गांव है। वहां भी द्वंद्व है। रेणु की कहानियों के ग्रामीण जीवन में जो द्वंद्व दिखाई देता है वह शहरी समाज में उपजी निराशा से अलग आजादी के पहले से कायम पारंपरिक भारतीय
स्वरूप और अंग्रेजी राज के समय थोपे गए बजारवादी स्वरूप के बीच की संघर्षगाथा है। आजादी के समय तक हिंदी कहानी का नायक आदर्श के साथ जीने के लिए संघर्ष कर रहा था। दस साल का समय गुजरते-गुजरते यह नायक गायब हो गया और उसकी जगह परिस्थिति से हार कर समझौता करने वाला निराश नायक आ गया। आठवें दशक तक कहानी में आक्रोश व्यक्त करने वाला नायक आ गया। यही वह कालखंड है जिसमें भारत तनाशाही के खिलाफ खड़ा होता है और जीतता है। रेणु देश को मिली आजादी के समय युवक थे और देश में तनाशाही पराजित होते समय वह दिवंगत हो गए। वह स्वतंत्रता आंदोलन और संपूर्ण क्रांति दोनों में शामिल रहे थे।
सदियों तक भारत अपने पारंपरिक सहज रूप में जीने वाला समाज रहा। कई आक्रमण हुए लेकिन व्यापक जन समुदाय की सहज जीवनशैली पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसकी इस पारंपरिक पहचान पर असली हमला ब्रिटिश काल के पांव जमाने के बाद शुरू हुआ और उसका अवसान भारतीय पहचान के उठ खड़े होने के साथ शुरू हुआ। ब्रितानी हुकूमत के निशाने पर भारत का बाजार था। मशीनों की मदद से यूरोप में उत्पादन बढ़े और उस खपाने के लिए बाजार की आवश्यकता पैदा हो गई। इसने उपनिवेशवाद को जन्म दिया था। इसी क्रम में भारत भी उपनिवेश बना था। अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद भारत में आधुनिककाल का प्रारंभ माना जाता है। इसके पहले के इस्लामिक काल को मध्य काल कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जिस समय से भारतीय औद्योगिक उत्पाद का उपभोग शुरू करते हैं उसे ही अंग्रेजों ने आधुनिककाल कहा है। अंग्रजों की इसी बाजार व्यवस्था के खिलाफ मोहनदास करमचंद गांधी ने भारतीय जीवनशैली को हथियार बनाया था। असल में उन्होंने भारत की मूल आत्मा उसकी सहज और आत्मर्निर रहने वाली जीवनशैली को आधार बनाया था। यही उनकी व्यापक स्वीकृति का कारण बना और वह ग्राम स्तर तक स्वीकार्य नेता बने। गांधी ने इसके लिए राम और बुद्ध की व्यापक स्वीकृति को समझा था और स्वाबलंबन और अहिंसा को हथियार बनाया था। अंग्रेजी राज की स्थापना से पहले युगों तक भारतीय ग्रामीण समाज सबसे बड़ा उत्पादक तो रहा लेकिन उपभोक्ता नहीं बना था। वह स्वाबलंबी था, उसके उद्यम, परिश्रम पर ही भारत का व्यापार आश्रित था। अंग्रेजी राज में से समाप्त किया गया। गांधी ने भारत की इसी सो चुकी और गुमशुदा हो चुकी शक्ति को जगाया और संगठित कर दिया। फणीश्वरनाथ रेणु उत्तर पूर्वी बिहार के सर्वाधिक पिछड़ा क्षेत्र से आते हैं। कोसी का कोप झेलने वाला यह क्षेत्र भूख, अभाव, संसाधन हीनता से लेकर बीमारी महामारी से जूझता रहा। इसी अभावग्रस्त क्षेत्र में पले-बढ़े रेणु भी आजादी के लिए संघर्ष में शामिल लोगों के देखे गए सपने के करीब रहे थे। आजादी के बाद भारतीय राजनीति में जो कुछ घटित हुआ और उसका जो दंश स्वप्नदर्शी
भारतीय समाज ने झेला था, रेणु उससे अछूते नहीं थे। वह उसी वर्ग में खड़े थे जिसके हिस्से में निराशा आई थी। वह उसी गांव में खड़े थे जिसके पास आजादी के बाद रामराज का नॉस्टाल्जिया था। गांधीवादियों के नॉस्टाल्जिया के समानांतर नेहरू का यूरोपियन मॉडल का यूटोपिया था। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी भारत के पारंपरिक
स्वरूप के पैरोकार थे तो नेहरू आजाद भारत में अंग्रेजी उद्यम के संवर्धित स्वरूप के। फणीश्वरनाथ रेणु पारंपरिक भारतीय समाज में प्रविष्ट हो रही आधुनिकता के दर्शक भी हैं, भोक्ता भी हैं और अपनी कहानी के माध्यम से उसका आंखों देखा हाल बताने वाले भी। उनकी कहानी के नायक शहरी नायक की तरह द्वंद्व में नहीं जीते है। वह अपने गिर्द होने वाले बदलाव को अपने परिवेश के हिसाब से स्वीकार करता है। उसके भीतर विद्रोह है। यह विद्रोह एक गांव और ग्रामीण का नहीं है बल्कि आजादी के बाद हुए बदलाव में हाशिए पर धकेल दिए गए पारंपरिक भारतीय स्वरूप का है।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी रसप्रिया के नायक पंचकौड़ी के जीवन और उसकी कला, उत्तर काल में उसकी दुर्दशा को दो स्वरूपों के बीच खड़ा कहा जाना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं। जिस समय पंचकौड़ी विद्यापत गायन के लिए मृदंग बजाने का काम शुरू करता है वह समय रामराज के सपने के साथ जी रहे समाज का है। उस समय पूरे क्षेत्र में विद्यापत गायन और नृत्य की धूम रहती है। शादी, उपनयन आदि शुभ कार्यों में विद्यापत गायकों को बुलाया जाता है। उसके बिना कार्यक्रम अधूरा रहता है। लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी काल की आधुनिकता गांव तक पहुंच जाती है। आजाद देश में अब चरवाहे के पास भी ट्रांजिस्टर है और वह फिल्मी सुनता है। लोग अब विद्यापत गायन और नृत्य से विमुख हो गए हैं। पंचकौड़ी की हालत यह है कि वह गले में मृदंग लटकाए गांव-गांव घूम रहा है। उसी हालत भिखाडि़यों जैसी है लेकिन उसके भीतर का ‘मिरदंगिया’ नहीं मरा है। वह उस हालत में भी विद्यापत गाने की चेष्टा बंद नहीं करता है। उसकी अंगुली टेढ़ी हो गई है और मृदंग भी सही से नहीं बजा पा रहा है। समाज, समुदाय उसे अधपगला कहने लगा है लेकिन वह उस लय ताल को वह अलविदा नहीं कहना चाहता है जिसमें वह जीता आया है। रेडियो बजाने पर वह भड़क जाता है। लड़ता है और जो कुछ बोलता है वह पारंपरिक जीवन जीने वाले गांव का पांव पसार रही शहरी संस्कृति के खिलाफ विद्रोह है। रेणु का पंचकौड़ी आजादी मिलते ही दरकिनार कर दी गई गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है जो नेहरू के यूरोपियन मॉडल पर निर्मित हो रहे भारत की हजार कमियों को निशाना बनाता है।
फणीश्वरनाथ रेणु की कई कहानियां ऐसी हैं जिसमें उन्होंने गांव के प्रति असीम लगाव प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। आजादी से पहले आज का कोलकाता और उस समय का कलकत्ता ही रोजगार या कमाई के लिए मंजिल हुआ करता था। जब आजादी मिली तब यही आबादी दिल्ली की तरफ चल पड़ी। पंजाबी के मशहूर कहानीकार रामस्वरूप अणखी ने एक उपन्यास लिखा था 'मोहणा'। अणखी जी ने एक मुलाकात में बताया था कि पंजाब पहुंचने वाले सबसे पहले बिहारी मजदूर का नाम मोहन था। मोहन कटिहार से दिल्ली के रास्ते पंजाब पहुंचा था। आज पंजाब और हरियाणा बिहारी खेत मजदूरों का सबसे बड़ा हब बन चुका है। फणीश्वरनाथ रेणु बहुत पहले ही गांव से रोजगार की तलाश में होने वाले पलायन और उसका ग्रामीण जीवन पर पड़ने वाले असर को पहचान चुके थे। अपनी कहानियों में गांव के प्रति जो असीम लगाव वह दिखा गए हैं वह कुछ और नहीं इसी त्रासद स्थिति की अभिव्यक्ति है। वह भारत की पारंपरिक जीवनशैली की
बुनियाद पर शहरी वैभव के हमले और आजाद भारत में छद्म रूप से उपनिवेश बनाए जा रहे गांव का आर्तनाद है। जहां भी जिस कहानी में उन्होंने अपने गांव की सुचिता बचाने के लिए किसी का त्याग दिखाया है वह गांव का अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष है।
उनकी कहानी भित्ति चित्र की मयूरी में फूलपत्ती की मां अपने पति के मुकदमेबाजी जमीन जायदाद गंवाने का दंश झेल रही है। गांव में दूसरों के घर कामकाज कर अपनी एकलौती बेटी फूलपत्ती को पालती है। वह एक हुनर जानती है जिससे उसकी पूछ प्रतिष्ठा है। अपने उसी हुनर के दम पर वह गांव में बनी रह जाती है। गांव में चर्चा होती है कि फूलपत्ती की मां गांव छोड़कर नहीं जाएगी। अपने पति की डीह छोड़कर नहीं जाएगी। मोहनपुर के मधुबनी आर्ट सेंटर के शिलान्यास के लिए देश के प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन से अनुरोध किया गया है। इस कहानी में फूलपत्ती की मां के गांव में बने रहने की बात से रेणु ने लोक कला और लोक संस्कृति को गांव की आत्मा माना है। परिस्थिति को बदल गांव को इसका केंद्र बनाने का तर्क देकर उन्होंने गांव को अपने उस मूल स्वरूप में पुनर्स्थापित करने की वकालत की है जहां वह पराश्रित नहीं बनाया जाए। वहां से किसी मोहन को रोटी की तलाश में पंजाब जाने की बाध्यता पैदा नहीं हो। वह अपनी माटी में ही स्वाभिमान के साथ जी सके। देश के किसी हिस्से में किसी उत्पादन या विकास में भागीदार बने तो अपनी पहचान बनाए रखते हुए सैनिक की तरह गर्व से शामिल हो।
अपनी कहानी संवदिया में रेणु ने जिस हरगोबिन के परिवर्तित होने का चित्र खींचा है वह एक व्यक्ति का परिवर्तन नहीं है, बल्कि अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्ष के लिए उठ खड़े हुए गांव का है। निरक्षता के दौर में पत्र की जगह संवाद भेजे जाते थे। यह काम जो किया करते थे वही संवदिया होते थे। इस कहानी का नायक हरगोबिन तमाम सामाजिक आलोचनाओं के बीच यह काम करता है। लेकिन जब बड़ी बहुरिया का संवाद लेकर गया है तो रास्ते और पगडंडियों
को देख वह खुद से बात करता है। उसे लगता है कि यदि वह संवाद कहेगा तो लोग उसके गांव का नाम लेकर थूकेंगे। वह लौट आता है और बड़ी बहू से क्षमा मांगता है कि उसने उनका संवाद नहीं पहुंचाया है। वह उनसे उनका सारा काम करने का वादा करता है। वह कहता है कि वह निठल्ला नहीं रहेगा। बड़ी बहू और हरगोबिन के सहारे रेणु ने स्वाभिमान के लिए उठ खड़े हुए गांव को दर्शाने का प्रयत्न किया है। उनके नायक का यह कहना कि वह निठल्ला नहीं रहेगा के सहारे कहानीकार ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि यदि गांव अपनी पहचान खोने वाले रास्ते पर निकल गया तो उसका स्वाभिमान ध्वस्त हो जाएगा। उसका मूल स्वरूप ही उसकी पहचान है और इसे स्वाबलंबन एवं त्याग से ही बचाया जा सकता है। हरगोबिन में जो भी परिवर्तन हुआ है वह गांव की मूल प्रतिष्ठा और पहचान बचाने के लिए हुआ है।
इसी तरह उनकी कहानी पंचलाइट है। इस कहानी में अपनी फूआ के यहां रहने वाले गोधन पर झुमकी उसे देख 'सलम सलम' वाला गीत गाने का आरोप लगाती है। इसी आरोप में गोधन को बिरादरी से काट दिया जाता है। उस टोले के पास पेट्रोमेक्स नहीं है। गांव के लोग पेट्रोमेक्स को ही पंचलाइट कहते हैं। जुर्माने के पैसे से टोले के लिए पंचलाइट खरीदी जाती है, लेकिन इसे जलाए कौन यह सवाल पैदा हो जाता है। झुमकी जानती है कि गोधन को पंचलाइट जलाना आता है लेकिन वह बताए कैसे। उसकी शिकायत पर ही तो गोधन को बिरादरी से बाहर किया
गया है। कहानी के अंतिम हिस्से में गोधन पंचलाइट जला देता है। उसकी रोशनी चारों ओर फैल जाती है और कीर्तन शुरू हो जाता है। गोधन को इस काम के बदले पंच माफी दे देते हैं। पंचलाइट की रोशनी में गोधन की नजर झुमकी पर पड़ती है और वह भी मुस्कुरा देती है, जैसे कह रही हो चलो मैंने भी माफ किया।
इस कहानी में फणीश्वरनाथ रेणु ने गांव के जीवन की सरलता के साथ ही बदलाव के साथ उसके तालमेल को रेखांकित करने का प्रयास किया है। गांव किसी भी चीज को अपने स्वरूप के हिसाब से ग्रहण करता है। वह प्रेम को अपनी तरह से समझता है और स्वीकार करता है। वह जीता है तो अपने स्वरूप में, शहर की तरह जीना नहीं चाहता। गोधन का ‘सलम सलम’ गाना गांव में दस्तक दे रहे शहर और झुमकी का विरोध गांव की परंपरा की नाराजगी है। पंचलाइट का जलना तकनीक के साथ गांव का तालमेल और झुमकी का मुस्कुराना अपनी मर्यादा में रहते हुए प्रेम की स्वीकृति है।
ग्रामीण भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही कि स्वतंत्र भारत में भी उसके हिस्से कुछ नहीं आया। वह नेहरुबियन मॉडल के भारत का संसाधन बन गया। उसकी हालत औद्योगिक रूप से संपन्न यूरोप के लिए उपनिवेश बनाए गए तीसरी दुनिया के देशों जैसी हो गई। विकास की विसंगति का प्रभाव यही रहा कि शिक्षा प्राप्त कर नौकरी पा लेने वाला आदमी खुद को गांव से अलग करता गया। जो अशिक्षित रहे वे अभाव में अपने घर परिवार को छोड़ शहरों को जाने के लिए विवश हुए। ऐसे विवश लोग शहरों की सुख सुविधा जुटाने में सहायक बने लेकिन उनका अपना जीवन दुखमय ही रहा। यह स्थिति आज भी कायम है। रेणु ने जीवन में हो रहे बदलाव को समझा था। उनकी कहानियों में गांव अपनी पहचान बनाए रखने के लिए संघर्षरत है।
नेहरुबियन मॉडल के भारत में गांधी और उनके सपनों का हश्र क्या हुआ, राजनीति में विकृति कैसे प्रवेश कर गई और ग्रामीण जीवन किस तरह दरकिनार कर दिया गया इसका सबसे अच्छा उदारण उनके उपन्यास मैला आंचल में दिखता है। इस उपन्यास का नायक बामन दास गांधीवादी विचारधारा पर अडिग रहने वाले मनुष्य हैं। नेहरुबियन मॉडल का भारत इस विचारधारा को बेकार या आउट डेटेड मानता है। कांग्रेस में निचले स्तर पर प्रवेश कर गए गलत लोगों का प्रतीक तस्करी करने वाला दुलारचंद कापरा है। वामन दास नेहरुबियन मॉडल के भारत के विरोध में खड़े हो जाते हैं और नेहरुबियन मॉडल उन्हें कुचल डालता है। यहां तक कि उनकी लाश पूर्वी पाकिस्तान में फेंक दी जाती है और उधर के सिपाही उसे सीमा मान ली गई नदी में प्रवाहित कर देते हैं। उनका झेला सीमा पर जहां से तस्करी के सामान का
आवागमन होता है उस रास्ते के समीप एक पीपल के पेड़ पर टांग दिया जाता है। समय के थपेड़े में वह झोला चीथरा हो जाता है और लोग पीपल को चेथरिया पीर मान वहां चीथरे लटका देते हैं। इसके सहारे आजाद भारत में गांधी और उनकी विचारधारा की दुर्गति को रेणु ने प्रतीकात्मक ढंग से रखा है। भारतीय पारंपरिक जीवन भी आज के समाज में चेथरिया पीर की तरह हो गया है। गहराई से विचार करने पर यह दृष्टिगत होता है कि आजादी से पहले और उसके बाद की स्थितियों के गवाह रहे रेणु ने अपनी कहानियों के माध्यम से कोसी अंचल के गांवों की कहानी नहीं लिखी है बल्कि नेहरुबियन मॉडल के भारत में अपना अस्तित्व बचाने में जुटे पारंपरिक भारतीय स्वरूप की संघर्ष गाथा को सामने रखा है। रेणु कहानियों को व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो वह अंचल की सीमा से पार जाती दिखती है।