यथार्थवादी उपन्यास हैं ’मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’

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यथार्थवादी उपन्यास, ’मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों में लोकजीवन की अनुपम छटा चित्रित करने वाले कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु हैं।
यथार्थवादी उपन्यास, ’मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों में लोकजीवन की अनुपम छटा चित्रित करने वाले कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु हैं।
  • राजेंद्र वर्मा
राजेंद्र वर्मा
राजेंद्र वर्मा

यथार्थवादी उपन्यास, ’मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों में लोकजीवन की अनुपम छटा चित्रित करने वाले कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु हैं। 4.03.1921 को जन्मे रेणु का निधन 11.04.1977 को हुआ। यह वर्ष उनका शताब्दी वर्ष है। उनका जन्म बिहार के अररिया (फॉरबिसगंज) के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद रेणु ने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की। इन्टरमीडिएट उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 किया और आगे की पढ़ाई न कर आज़ादी की लड़ाई में उतर पड़े।

भारत को आज़ादी मिलने के बाद भी वे राजनीतिक बदलाव हेतु पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ छात्र संघर्ष समिति में सक्रिय रूप से भाग लिया और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में अहम भूमिका निभाई।  उन्होने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया था, जिसके परिणामस्वरुप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई।

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प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने वाले रेणु के उन्यासों और कहानियों में जहाँ आंचलिक जीवन के विविध रंगों को शब्दों में चित्रित करने सफल कला दिखती है, वहीं भूमि, जाति और वर्ण के प्रश्नों को भी शिद्दत से उठाया गया है। भारतीय ग्रामीण समाज को समझने के लिए उनके साहित्य को पढ़ना आज ज़रूरी है। रेणु जी की किस्सागोई का कोई जवाब नहीं है।  अपने कथा-साहित्य में वे ग्राम्य-जीवन की संरचना में वे न केवल मनुष्य और पशु-पक्षियों को शामिल करते हैं, बल्कि ढोलक जैसे वाद्ययन्त्र को भी कथा-पात्र बना लेते हैं। लोकगीतों को उनके चरित्र जीते हैं।

उनके यथार्थवादी कथा साहित्य की लेखन-शैली की एक विशेषता यह भी थी कि वे मानवी पात्रों के मनोवैज्ञानिक सोच को पूरी संवेदना के साथ आगे लाते हैं। भाषा की जीवंततता और उसका  सौंदर्य की रक्षा करते हुए वे अपनी रचनाधर्मिता में यथास्थिति के विरुद्ध परिवेश निर्माण करने की कला में सिद्धहस्त थे। आज के विद्रूप सांस्कृतिक वातावरण में इनसान को इनसान समझने और समझानेवाले पात्रों की रचना करने वाले रेणु को बार-बार पढ़ने और उनके रचना-मर्म को हृदय में उतारने की ज़रूरत है।

यथार्थवादी कहानी के क्षेत्र में भी उन्होंने अविस्मरणीय योगदान किया है। ‘तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम, लाल पान की बेग़म, संवदिया, ठुमरी, अगिनखोर’ आदि कहानियों के बिना हिंदी कहानी का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उनकी कहानियों में राग, संघर्ष, सामाजिक बदलाव और मूल्यों की रक्षा के स्पष्ट रंग दिखते हैं। रेणु को कागज़ पर संवेदना के चित्र बनाने वाले रचनाकार कहा जाता है।

‘तीसरी क़सम’ कहानी पर 1966 में फ़िल्म भी बनी जिसे हिंदी फ़िल्म में क्लासिक का दर्ज़ा प्राप्त है। वासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित राज कपूर और वहीदा रहमान अभिनीत इस फ़िल्म के निर्माता गीतकार शैलेंद्र थे। शैलेंद्र के गीतों और शंकर-जयकिशन के संगीत से सजी इस फिल्म के संवाद स्वयं रेणु ने लिखे थे। जिन लोगों ने यह फ़िल्म देखी होगी, वे फ़िल्म अभिनय पक्ष, संगीत पक्ष और निर्देशन की बारीक़ियों  के क़ायल होंगे। संवाद और संगीत में लोक की उपस्थिति दर्शकों को सम्मोहित करती है। ऐसी फ़िल्में भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर धमाल न मचाएँ, पर वे हमेशा के लिए मन में बस जाती हैं। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें पद्मश्री दी गयी थी, पर इमरजेंसी के विरोध में उन्होंने उसे लौटा दी। ऐसे रचनाकार को नमन !

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