जाति के समीकरण पर अब चुनाव जीतना कठिन है

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  • आशुतोष
आशुतोष
आशुतोष

जाति के समीकरण पर अब चुनाव जीतना कठिन है। भाजपा की यह जीत केवल सवर्णों और बनियों के समर्थन से नहीं हुई है। पिछड़ों और दलितों के मत भी इसे मिले हैं। नहीं तो इतनी बड़ी जीत किसी कीमत पर नहीं मिलती। जाति के समीकरण पर अब चुनाव जीतना कठिन है। पिछले चुनावी विश्लेषण में हमने वोटों के ट्रांसफर पर बड़ा जोर दिया था। समझ लिया गया कि पिछड़े और दलित एकसाथ आ गये हैं। फिर क्या था विरोधी समूह निश्चिंत हो गया। यहाँ तक कि घोषणा कर दी गयी कि वे जीत रहे हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

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समय आ गया है कि सच्चाई स्वीकार की जाए। यादवों के नेतृत्व में सारी पिछड़ी जातियां आना नहीं चाहती हैं। इस जाति का चरित्र और चेहरा राजपूतों, भूमिहारों एवं जाटों से अलग नहीं है। जमीन पर इनका अवांछित दबदबा अन्य जातियों में आतंक पैदा करता है। उसी तरह सभी दलित जातियाँ एक खास जाति चर्मकार की अधीनता स्वीकार नहीं कर पाती हैं।

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इस चुनाव में यह साफ दिखा। महिलाओं ने भी अपना अलग से मन बना लिया था। उन्होंने बहुत दूर तक अपने पति, पिता और पुत्र से सलाह नहीं ली या उनकी सलाह मानी नहीं। बंगाल में आदिवासियों ने बड़ी संख्या में भाजपा के लिए मतदान किया। एक बात की ओर ध्यान देना जरूरी है। इस बार बंगाल में मुसलमानों ने भी स्थानीय आपसी रंजिश के कारण भाजपा को समर्थन दिया है। झारखंड के परिणाम भी यही सिद्ध करते हैं।

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नये वोटर राष्ट्रवादी आवेग से भरे हुए थे। पुलवामा की घटना के बाद से ही यह स्पष्ट हो गया था। जिन्हें देश और दुनिया बदलने की परवाह है, उन्हें वस्तुस्थिति का विश्लेषण उचित तथ्यों के आधार पर करना होगा। जाहिर है कि इसके लिए जिस निर्ममता की जरूरत है, फिलहाल हमारे पास नहीं है। हम पुराने नैरेटिव में अभी पड़े हुए हैं। वे आक्रामक हैं। आगे बढ़कर अपना जाल बिछा देते हैं और अपने एजेंडे में उलझा देते हैं। फिर उन्हें जवाब देने के अलावा  कोई रास्ता नहीं मिलता।

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पूरे चुनाव में एक बार भी विपक्ष अपने एजेंडे में उन्हें व्यस्त नहीं कर पाया। केवल आवेग से बदलाव संभव नहीं है। इसके लिए वैज्ञानिक निस्पृहता भी जरूरी है।

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